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निजीकरण की आंच में झुलस रहे सरकारी कर्मचारियों के लिए भी सबक़ है यह किसान आंदोलन

किसानों की यह जीत रेलवे, दूरसंचार, बैंक, बीमा आदि तमाम सार्वजनिक और संगठित क्षेत्र के उन कामगार संगठनों के लिए एक शानदार नज़ीर और सबक़ है, जो प्रतिरोध की भाषा तो खूब बोलते हैं लेकिन कॉरपोरेट से लड़ने और उसके सामने चट्टान की तरह अड़ने का साहस और धैर्य नहीं दिखा पाते हैं।
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फाइल फोटो। फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

पिछले एक साल से जारी किसान आंदोलन ने केंद्र सरकार के बहुआयामी दमनचक्र का जिस शिद्दत से मुकाबला करते हुए उसे अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर किया है, वह अपने आप में ऐतिहासिक है और साथ ही इस सरकार के तुगलकी फैसलों से आहत समाज के दूसरे वर्गों के लिए एक प्रेरक मिसाल भी। इस आंदोलन ने साबित किया है कि जब किसी संगठित और संकल्पित आंदोलित समूह का मकसद साफ हो, उसके नेतृत्व में चारित्रिक बल हो और आंदोलनकारियों में धीरज हो तो उसके सामने सत्ता को अपने कदम पीछे खींचने ही पड़ते हैं, खास कर ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, जिनमें वोटों के खोने का डर किसी भी सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व के मन में सिहरन पैदा कर देता है। देश की खेती-किसानी से संबंधित तीन विवादास्पद कानूनों का रद्द होना बताता है कि देश की किसान शक्ति ने सरकार के मन में यह डर पैदा करने में कामयाबी हासिल की है।

किसान आंदोलन की यह जीत न सिर्फ सरकार के खिलाफ बल्कि कॉरपोरेट घरानों की सर्वग्रासी और बेलगाम हवस के खिलाफ भी एक ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल होने का क्षण है, जिसके दूरगामी प्रभाव अवश्यम्भावी हैं। यह जीत रेलवे, दूरसंचार, बैंक, बीमा आदि तमाम सार्वजनिक और संगठित क्षेत्र के उन कामगार संगठनों के लिए एक शानदार नजीर और सबक है, जो प्रतिरोध की भाषा तो खूब बोलते हैं लेकिन कॉरपोरेट के शैतानी इरादों से लड़ने और और उनके सामने चट्टान की तरह अड़ने का साहस और धैर्य नहीं दिखा पाते हैं। उनकी इसी कमजोरी की वजह से सरकार एक के बाद एक सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम उपक्रम अपने चहते कॉरपोरेट महाप्रभुओं के हवाले करती जा रही है।

यह किसानों की संकल्प शक्ति ही है कि उन्होंने तीन कानूनों की वापसी के ऐलान का तो स्वागत किया है लेकिन साथ ही यह भी साफ कर दिया है कि वे सरकार की झांसेबाजी में फंसने को तैयार नहीं हैं। वे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी, बिजली कानून, किसानों पर कायम किए गए फर्जी मुकदमों की वापसी जैसे मुद्दों पर भी एक मुश्त फैसला चाहते हैं। यही वजह है कि अपने आंदोलन का एक साल पूरा हो जाने के बावजूद वे अभी भी कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं हैं।

डेढ़ साल पहले सरकार ने इन तीनों कानूनों को बनाने में जिस तरह अभूतपूर्व हडबड़ी दिखाई थी, उसके मद्देनजर उसके लिए अपने कदम पीछे खींचने के इस फैसले तक पहुंचना आसान नहीं रहा होगा। सब जानते है कि कृषि क्षेत्र में तथाकथित 'सुधार’ लागू करने के लिये सरकार पर देश के सर्वग्रासी कॉरपोरेट जगत का कितना दबाव था। डेढ़ साल पहले जब दुनिया के तमाम देशों की सरकारें कोरोना महामारी से निबटने में लगी हुई थी, तब भारत सरकार उस महामारी से मची अफरातफरी के शोर में देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर खेती को कॉरपोरेट के हवाले करने का ताना-बाना बुन रही थी। यही नहीं, उसी दौरान वह श्रम सुधार के नाम पर कॉरपोरेट के हित में श्रम कानूनों को बदलने के अपने इरादों को भी मूर्त रूप दे रही थी। इस सिलसिले में उसने पहले तो अध्यादेश जारी किए और फिर तीन महीने बाद संसद के जरिए उन अध्यादेशों को कानून की शक्ल देने के लिए तमाम संसदीय नियम-कायदों और परंपरा की अनदेखी कर जोर-जबरदस्ती का सहारा लिया।

देश के कॉरपोरेट महाप्रभुओं को सरकार चला रहे अपने शुभचिंतकों की वफादारी पर कितना भरोसा था कि एक बड़े कॉरपोरेट घराने ने तो कृषि कानूनों के बनने की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही अनाज संग्रहण की तैयारियां शुरू कर दी थीं। युद्ध स्तर पर तैयार हुए उसके विशालकाय अनाज गोदामों के कई फोटो और वीडियो डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए सामने आ चुके थे, जो इस बात की तस्दीक करते थे कि देश की समूची खेती-किसानी पर काबिज होने के लिए बड़े कॉरपोरेट घराने कितने बेताब हैं।

दरअसल, तीनों कृषि कानूनों को अपनी मौत का परवाना मान रहे किसानों के आंदोलन ने जिस जंग की शुरुआत की थी, उसमें वैसे तो सामने सरकार थी लेकिन परोक्ष में कॉरपोरेट शक्तियां भी थी। इसलिए कृषि कानूनों को रद्द करने का फैसला सरकार की ही नहीं बल्कि जिनके लिए वह रात-दिन काम कर रही है, उन कॉरपोरेट घरानों की और हाल के वर्षों में हावी हुई कॉरपोरेट संस्कृति की भी करारी हार है।

पिछले सात साल के दौरान सरकार और कॉरपोरेट घरानों की यह दूसरी बड़ी शिकस्त है। इससे पहले 2014 में धूम-धड़ाके से प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी जब संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक लेकर आए थे तब भी उन्हें विपक्षी दलों और किसान संगठनों के भारी विरोध का सामना करते हुए अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। उस समय भी इस विधेयक को पेश करने के पहले सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी किया था, जैसे पिछले साल कृषि कानूनों को लेकर किया गया था। यूपीए सरकार के समय बने कानून में भूमि अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी किसानों की सहमति अनिवार्य थी। भूमि अधिग्रहण के नए प्रस्तावित कानून में निजी और सरकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण आसान बनाने के लिए किसानों की सहमति का प्रावधान खत्म कर दिया गया था।

सरकार के इस अध्यादेश का किसानों और खेत मजदूरों के संगठनों के साथ ही विपक्षी दलों ने भी कांग्रेस की अगुवाई में एकजुट होकर विरोध किया था। इस विरोध को नजरअंदाज करते हुए सरकार ने उस अध्यादेश को कानूनी शक्ल देने के लिए संसद में विधेयक पेश किया था। चूंकि लोकसभा में सरकार के पास पर्याप्त बहुमत था इसलिए वहां तो वह असहमति की आवाज को अनसुना करते हुए विधेयक पारित कराने में कामयाब हो गई थी, लेकिन राज्यसभा में वह ऐसा नहीं कर सकी थी, क्योंकि वहां वह बहुमत से काफी दूर थी। उसने विपक्षी दलों में फूट डाल कर बहुमत जुटा लेने की उम्मीद के चलते चार बार अध्यादेश जारी किया, लेकिन बहुमत जुटाने की उसकी तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। आखिरकार 31 अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने वह विवादास्पद विधेयक वापस लेने का ऐलान किया। उस समय भी उन्होंने अपने 'मन की बात’ कार्यक्रम में उस विधेयक को लेकर नाटकीय अंदाज में ऐसा ही भावुक भाषण दिया था, जैसा कि इस बार कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान करते हुए दिया।

सरकार के इस दमनचक्र का मुकाबला करते हुए संगठित और संकल्पित किसानों ने नजीर पेश की कि मौजूदा दौर में नव औपनिवेशिक शक्तियों से अपने हितों की, अपनी भावी पीढ़ियों के भविष्य की रक्षा के लिये कैसे जूझा जाता है। उन्हें अच्छी तरह अहसास है कि अगर कॉरपोरेट और सत्ता के षड्यंत्रों का डट कर प्रतिकार नहीं गया तो उनकी भावी पीढ़ियां हर तरह से गुलाम हो जाएंगी।

किसानों ने एक साल से जारी अपने आंदोलन के दौरान सत्ता-शिखर के मन में जो डर पैदा किया है, वह डर निजीकरण की आंच में झुलस रहे सार्वजनिक क्षेत्र के आंदोलित कर्मचारी नहीं पैदा कर पाए हैं। इसकी वजह यह है कि सत्ता में बैठे लोग और उनके चहेते कॉरपोरेट घराने इन कर्मचारियों के पाखंड और भीरुता को अच्छी तरह समझते हैं। वे जानते हैं कि दिन में अपने दफ्तारों के बाहर खड़े होकर नारेबाजी करने वाली बाबुओं की यह जमात शाम को घर लौटने के बाद अपने-अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर सत्ताधारी दल के हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, गाय-गोबर, श्मशान-कब्रिस्तान, जिन्ना, पाकिस्तान जैसे तमाम प्रपंचों को हवा देने वाले व्हाट्सएप संदेशों, टीवी की चैनलों की बकवास या फूहड कॉमेडी शो में रम जाएगी।

''विकल्प क्या है’’ और ''मोदी नहीं तो कौन’’ जैसे सवालों का नियमित उच्चारण करने में आगे रहने वाले ये कर्मचारी अपने आंदोलन रूपी कर्मकांड से किसी भी तरह का डर सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व के मन नहीं जगा पाए हैं। यही हाल नोटबंदी और जीएसटी की मार से कराह रहे छोटे और मझौले कारोबारी तबके का भी है। इसे हम राजनीतिक फलक पर शहरी मध्य वर्ग के उस चारित्रिक पतन से भी जोड़ सकते हैं जो उन्हें उनके हितों से तो वंचित कर ही रहा है, उसकी भावी पीढ़ियों की जिंदगियों को दुश्वार करने का आधार भी तैयार कर रहा है। बहरहाल देश के संगठित और असंगठित क्षेत्र के उन कामगारों को जो श्रम कानूनों के दायरे में आते हैं, किसानों का शुक्रगुजार होना चाहिए और उनके साथ अपनी एकजुटता बनाए रखनी चाहिए क्योंकि साझा आंदोलनों का ही असर है कि कृषि कानूनों को रद्द करने के ऐलान के बाद केंद्र सरकार श्रम सुधार के नाम पर बनाए गए नए श्रम कानूनों को भी अब टालने की तैयारी में है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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