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यह 3 कृषि कानूनों की नहीं, जम्हूरियत की लड़ाई है, लंबी चलेगीः उगराहां

वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी की भारतीय किसान यूनियन (एकता) उगराहां के अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उगराहां से ख़ास बातचीत।
Joginder Singh Ugrahan

दिल्ली की सीमा पर मोर्चा लगाकर बैठे किसानों के आंदोलन को एक साल होने जा रहा है। वे 26 नवंबर 2020 को कोराना काल में संसद से पारित तीन कृषि कानूनों के विरोध में केंद्र की सरकार को चेताने आए थे। सुप्रीम कोर्ट ने उन कानूनों के लागू होने की कार्रवाई मुल्तवी कर रखी है और केंद्र सरकार और किसानों के बीच कई दौर की बातचीत बेनतीजा रही। राजधानी की टिकरी सीमा पर 20-25 किलोमीटर की लंबाई में बनी हुई किसानों की झुग्गियों में पहले जैसी रौनक नहीं है। ज्यादातर में ताले लगे हैं और जिनमें किसान और युवा हैं वहां गतिविधियां मंद हैं। इसके बावजूद पकौड़ा चौक पर बने मुख्य पंडाल में एक ओर सिख किसान और दूसरी ओर पीले परिधान में औरतें बैठी हुई हैं। नेताओं और कार्यकर्ताओं का भाषण चल रहा है। पंडाल के पीछे बने एक टेंट में भारतीय किसान यूनियन (एकता) उगराहां के अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उगराहां पीला गमछा डाले अपने साथियों के बीच तसल्ली से बैठे हैं। उनके चेहरे पर न तो लंबे आंदोलन का कोई तनाव है और न ही कोई भविष्य को लेकर किसी तरह का डर। उन्हें लगता है कि उन्होंने इस देश के मरे हुए विपक्ष में जान फूंक दी है और मजहब के नशे में सुलाए जा रहे नागरिकों को जगा दिया है। जम्हूरियत में जान फूंक दी है। पेश है उनसे लंबी बातचीत के ख़ास हिस्सेः

* अरुण त्रिपाठीः-- टिकरी बार्डर पर आप को बैठे हुए साल भर होने जा रहा है। केंद्र की मजबूत सरकार के सामने साल भर तक आंदोलन चलाना कोई छोटी बात नहीं है। फिर भी सवाल यह बनता है कि इस दौरान आपने क्या हासिल किया? क्या चुनौतियां बची हुई हैं जिनको लेकर आंदोलन आप जारी रखेंगे?

* उगराहां:- इस आंदोलन में अलग अलग इलाके के लोग अलग अलग भाषा के लोग एकजुट होकर डटे हुए हैं। यह लोग तीन कृषि कानूनों के खिलाफ खड़े हुए हैं। यह जो सांझ (साझापन) है वह पहली बार है कि देश में इतने सारे लोग एक मुद्दे पर एकजुट हैं। यह कठिन काम था लेकिन लोगों ने अपने संकल्प से यह काम किया। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है।

दूसरी बात इसमें यह है कि जिस हुकूमत के साथ हमारी टक्कर है जो तीन कृषि कानून लेकर आई है या काले कानून लेकर आई है, वह फासीवादी है। वह जो अब तक करती रही है उसका किसी ने खुलकर विरोध नहीं किया है। हम लोगों ने आवाज उठाई और ऐसे तरीके से आंदोलन को आगे लेकर आए कि उसकी बोलती बंद हो गई। देश में उसका ग्राफ डाउन हुआ, विदेशों में उसकी थू थू हुई और सारी दुनिया में लोग बोलने लगे कि काले कानून वापस लो। एक साल के बीच में प्रधानमंत्री मोदी विदेश में तीन जगह गए और तीनों जगहों पर उनका विरोध हुआ।

इस आंदोलन की और भी उपलब्धियां हैं लेकिन एक खास बात यह है कि इसे चलाते हुए एक साल हो गए लेकिन एक साल के बाद हमारे पंडाल में उतने ही लोग हैं जितने पहले हुआ करते थे। वैसे ही पंडाल की मीटिंग चलती है। वैसे ही भाषण चलते हैं। लोगों में वैसा ही जोश है कोई निराशा नहीं है। सरकार चाहे जो रुख अपनाए लेकिन यह आंदोलन ऐसे ही चलता रहेगा। क्योंकि हम लोग यह बताकर लाए हैं लोगों को कि यह लड़ाई बड़ी लड़ाई है। यह लड़ाई मोदी के साथ लड़ाई नहीं है। यह कारपोरेट के साथ लड़ाई है। यह नीतियों की लड़ाई है। यह एक दो दिन या चार दिन की लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई सालों तक लड़नी पड़ेगी। यह कारपोरेशन को फायदा पहुंचाने वाली नीति के खिलाफ लड़ाई है। यह अकेले किसान नहीं लड़ सकता। इसमें मजदूर भी आएंगे, विद्यार्थी भी आएंगे, छोटे दुकानदार भी आएंगे, छोटे कारखानेदार भी आएंगे। सारे वर्ग के लोग इस लड़ाई में शामिल होंगे। इसमें वे सारे लोग शामिल हो रहे हैं जो खेती से जुड़े हैं। उसमें भरती लगाते हैं, काम करते हैं और उसका किसी न किसी रूप में फायदा लेते हैं। यह अब किसान आंदोलन नहीं रहा। यह जनांदोलन बन गया है इंडिया के लोगों का। यह लड़ाई इंडिया के लोग बनाम केंद्र की बीजेपी सरकार का आंदोलन बन गया है। यह हमारी बड़ी कामयाबी है।

* अरुण त्रिपाठीः- उगराहां जी आप इसे किसान आंदोलन से जनांदोलन बनता हुआ बता रहे हैं। जनांदोलन बनता है तो बड़ा प्रभाव होता है। बड़ा राजनीतिक असर पड़ता है। अभी 5 राज्यों के चुनाव होने जा रहे हैं। आप को क्या लगता है कि आप के इस जनांदोलन का प्रभाव उन चुनावों पर पड़ेगा? भारतीय जनता पार्टी या उसको समर्थन देने वाली जो पार्टियां सत्ता में हैं क्या उन्हें पराजय का सामना करना पड़ेगा ?  या आपको उसके लिए और लंबा इंतजार करना पड़ेगा?

* उगराहां:-- देखिए साथी हमें यह पता है कि लोग आंदोलन के प्रभाव का जो जायजा बनाते हैं उस लिहाज से जनांदोलन बन गया है। जब हम ऑल इंडिया लेवल की कोई काल (आह्वान) देते हैं तो देखा जाना चाहिए कि उसे किन किन लोगों ने समर्थन दिया है। उससे पता चलता है कि यह जनांदोलन बन गया है। कितने बड़े स्तर पर उसके प्रति लोगों ने जुड़ाव दिखाया है। उससे पता चलता है कि यह जनांदोलन बन गया या कि नहीं। दूसरी बात रही इलेक्शन की। तो इलेक्शन के अंदर तो लोग बहुत सारे पत्ते चला लेते हैं। ईवीएम वाला पत्ता भी चल जाता है। पैसे वाला पत्ता भी चल जाता है, गुंडागर्दी वाला पत्ता भी चल जाता है। परसेंटेज कम होने के बावजूद भी वोट इन्हीं को जाता है। वोट बंट जाते हैं तीस प्रतिशत के ऊपर सरकार बन जाती है। हकीकत यह है कि सत्तर प्रतिशत लोग तो फिर भी उसके विरोध में होते हैं। ऐसे इलेक्शन के अंदर क्या होगा क्या नहीं होगा इस बारे में हम बहुत ज्यादा कुछ नहीं कह सकते। लेकिन इतना कह सकते हैं कि यह लोग जहां भी जाएंगे वहां इनका विरोध होगा। अभी पंजाब की हालत देख लेना। पंजाब में यह लोग बाहर नहीं निकल सकते। हरियाणा में बीजेपी की सरकार है यहां भी इनका बाहर निकलना मुश्किल है।

यूपी में आंदोलन शुरू हुआ है। अजय मिश्रा वाली कार्रवाई देख लीजिए। वह तो हाल की घटना है। वह आपके सामने है। यह लोग जिस अहंकार के साथ ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं उसके नाते इनको अंदाज नहीं होता कि लोग इनके विरोध में इतने हो जाएंगे। वे पहले भी ऐसे बहुत सारे काम करते रहे हैं। लेकिन किसी ने पूछा नहीं। इस बार इनके बेटे को जेल जाना पड़ा तब इन्हें अहसास हो रहा है। इनकी नैतिकता यह है कि एक केंद्रीय मंत्री का बेटा अपराध करके जेल में है और वे अपने पद पर बने हैं। उन्होंने पहले कहा था कि अगर मेरे बेटे पर आरोप लगता है तो मैं इस्तीफा दे दूंगा। अब उनका बेटा जेल भेज दिया गया है तब भी वे पद पर कायम हैं। विचित्र बात है कि पिता गृह राज्य मंत्री है। अच्छा यह होता कि वे खुद ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देते। वोट पाने के लिए यह लोग गुंडागर्दी करते रहे हैं। पोलिंग पर भी कब्जा कर लेते हैं। ऐसा करने से अगर वे वोट में हेराफेरी कर ले जाएं तो उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन हिंदुस्तान के किरती (किसान) लोगों में इसका बड़ा विरोध है। वह इनको देखने को मिलेगा। अगर पीछे देखना हो तो हम देख सकते हैं कि पिछले दिनों उपचुनाव हुए 29 सीटों पर तो उसमें तो बुरी तरह हार हुई है भाजपा की। जहां पर इनकी सरकार है हिमाचल में वहां तो इनका पत्ता साफ हो गया। पश्चिम बंगाल में भी ये बुरी तरह से हारे।

हमारे आंदोलन की सबसे बड़ी प्राप्ति यह है कि जो सरकार यह बोलती थी कि हमारा कोई सानी नहीं है। हमें कोई चैलेंज करने वाला नहीं है, विपक्षी पार्टियां इतनी कमजोर थीं कि इनका विरोध नहीं हो रहा था। इस किसान आंदोलन ने विपक्ष में खड़े होकर विपक्षी पार्टियों के अंदर जान डाल दी। इसलिए हम समझते है कि यह हमारी बहुत बड़ी कामयाबी है और आने वाले समय में हम कामयाब होंगे।

*अरुण त्रिपाठीः-- लोकतंत्र यानी जम्हूरियत का आंदोलन इसे बता रहे हैं आप। जम्हूरियत संस्थाओं पर चलती है। लेकिन जम्हूरित की संस्थाओं पर नियंत्रण करने की कोशिश की गई है। इनके तमाम संगठन हैं जो उन संस्थाओं पर हावी हैं। वे लोग प्यार मोहब्बत की बजाय कुछ और फैलाते हैं। दिक्कत कुछ और खड़ी हुई है। क्या आप इसे जम्हूरियत को बचाने की दिशा में ले जाएंगे? क्या कोई बड़ा कदम उठाएंगे जिस मुकाम पर आज आप खड़े हैं वहां से?

* उगराहां:- हमारा आंदोलन का तरीका जम्हूरियत वाला तरीका ही है। लोकतंत्र वाला तरीका है संविधान के दायरे में रह कर काम करने वाला तरीका है। इन लोगों ने अब तक जितनी कार्रवाई की है वह गैर लोकतांत्रिक गैर संवैधानिक हैं। किसी ने इनके खिलाफ बोल दिया तो उसके खिलाफ यूएपीए (UAPA) लगाकर उसे अंदर भेज देते रहे हैं। किसी ने लिख दिया तो उसे भी अंदर कर दिया। कितने बुद्धिजीवी लोगों को अंदर कर दिया। जो हमारा यह आंदोलन है वह जम्हूरियत की बहाली के लिए तो काम कर ही रहा है, यह दिखा रहा है लोगों को कि जम्हूरियत का कत्ल यह लोग कैसे कर रहे हैं। जैसे करनाल की घटना देख लो आप। हांसी की घटना हुई है। लखीमपुर खीरी की घटना हुई है। गोहाना की घटना हुई है। सिंघु बार्डर की घटना हुई है जिसमें निहंगों ने मजदूर का कत्ल किया है उसमें भी यह लोग शामिल हैं। यह घटनाएं बता रही हैं कि जम्हूरियत का कत्ल करने की नीति पर यह लोग चल रहे हैं और कत्ल कर रहे हैं। अभी इनको मुश्किल यह हो रही है कि इस आंदोलन को हटाने के लिए इतना बड़ा कदम यह उठा नहीं सकते। इनको डर है कि बड़ी जमात के साथ सख्ती करेंगे तो गड़बड़ हो जाएगी। वरना यह कभी हमें मार कर भगा देते। इसलिए हम बहुत सोच समझ कर आंदोलन कर रहे हैं। हमारे हरियाणा वाले साथी बोलते हैं कि कोई तगड़ा प्रोग्राम दो। हम नाके तोड़ेंगे, दिल्ली में जाएंगे। हाउस घेरो, पार्लियामेंट घेरो। लेकिन हम जानते हैं कि इनका खासा क्या है। ये हमें खालिस्तानी बोलते हैं, यह हमें उग्रवादी बोलते हैं, ये हमें बिचौलिए बोलते हैं, ये कहते हैं कि हम कांग्रेस के भेजे हुए हैं। यह हमें बहुत कुछ बोलते हैं लेकिन हमने इनके सारे के सारे पत्ते पीट दिए। जितनी भी चालें चली इन्होंने हमने सारी की सारी खत्म कर दीं। हमने दिखा दिया कि हम ठीक हैं और आप गलत हैं। यह बात दुनिया के अंदर जगजाहिर है कि एक फासीवादी सरकार ने आंदोलन को फेल करने के लिए जितनी भी नीति चलाई, 26 जनवरी से लेकर आज तक उसे हमने नाकाम कर दिया। हम इसी में कामयाब हैं इसीलिए जम्हूरियत की जीत होगी।

* अरुण त्रिपाठीः- 26 नवंबर को संविधान दिवस आ रहा है। आप लोग 26 नवंबर को ही दिल्ली घेरने आए थे। साल भर पूरा हो रहा है। क्या 26 नवंबर को कोई बड़ा कार्यक्रम आप लेने जा रहे हैं? 

* उगराहां:- 26 नवंबर को ऑलरेडी साथी हमने कार्यक्रम तय कर लिया है। हम ऑल इंडिया का प्रोग्राम कर रहे हैं। जम्हूरियत दिवस के ऊपर कि हमने जम्हूरियत की कैसे रक्षा की और यह जम्हूरियत के कातिल कैसे हैं। सारे हिंदुस्तान के भीतर चाहे राज्यों के मुख्यालय पर हो या जिलों के मुख्यालय पर हम कार्यक्रम ले रहे हैं। लेकिन आसपास के जो इलाके हैं चाहे हरियाणा हो, पश्चिमी उत्तर प्रदेश हो या राजस्थान हो, उसके साथी इस मोर्चे की ओर आएंगे और इसको मदद करेंगे। उसी दिन सेंट्रल ट्रेड यूनियनों की हड़ताल है। उसी दिन राज्यों में विद्यार्थियों और मजदूर साथियों की जो जत्थेबंदियां हैं उनको भी कॉल करेंगे कि वे भी आएं और हमारे आंदोलन को मजबूत करें।

* अरुण त्रिपाठीः- जो बात आप कह रहे हैं उससे लग रहा है कि यह लड़ाई सिर्फ तीन कानूनों को वापस लेने की नहीं है। यह लड़ाई उन मूल्यों को बचाने की लड़ाई है जो हमारे पुरखों ने आजादी की लड़ाई के माध्यम से और संविधान बनाकर हमको दिया था। जो मूल्य हमें भगत सिंह ने दिए थे, महात्मा गांधी ने दिए थे, बाबा साहेब आंबेडकर ने दिए थे। उसके लिए अगर मान लीजिए कि तीन कानून वापस हो गए तो क्या आप खामोश बैठ जाएंगे या जो यह तीन सौ चार सौ संगठन हैं उनको मिलाकर कोई बड़ा संगठन बनाएंगे? और क्या उसके माध्यम से देश में बड़ा अभियान चलाते रहेंगे ताकि जो देश में लोगों की जेहनियत गड़बड़ाई है उसे आप ठीक करते रहें। ताकि किसानों की बेहतरी का काम हो सके, मजदूरों की बेहतरी का काम हो सके, दलितों की बेहतरी का काम हो सके। क्या कोई संगठन बनाने की तैयारी क्या किसी रचनात्मक कार्यक्रम की तैयारी आपके दिमाग में है?

* उगराहां :- साथी यह मामला तो शुरू तीन कानूनों से ही हुआ था। अगर तीन कानून वापस हो गए होते तो हम वापस चले गए होते। शायद तब इतनी बड़ी कहानी न होती। लेकिन सरकार ने कानून वापस नहीं लिए और लड़ाई आगे चली गई। अब यह मामला बढ़ गया। अब इसमें अखिल भारतीय स्तर के इंकलाबी और गैर इंकलाबी संगठन जुड़ने लगे। इसी तरह से ट्रेड यूनियन संगठन भी जुड़ने लगे। उनके नेता हमारे साथ जुड़ गए जितने मजदूर संगठन हैं उनके नेता जुड़ गए। इसलिए फायदा हुआ है। अगर तीन कानून वापस भी हो जाएं तो कोई बात नहीं। बात तो उससे आगे चली गई है। बेरोजगारी नहीं गई। कर्जा नहीं गया। खुदकुशी नहीं गई। पब्लिक सेक्टर बेचे जा रहे हैं। जीडीपी डाउन हो रही है। देश की अर्थव्यवस्था डगमगाई हुई है। बड़ी बातें खड़ी हुई हैं इसलिए कानूनों से ही हमारा कोई बड़ा आर्थिक फायदा होने वाला नहीं है। बड़े आर्थिक फायदे की बातें पड़ी हुई हैं। जनांदोलन हम इसीलिए बोल रहे हैं कि जनांदोलन का मतलब जनता का इकट्ठा होना ही नहीं है, उसका मतलब यह है कि उसमें जनता की बातें शामिल हो गईं। इसलिए ऑल इंडिया लेवल का किसानों का मजदूरों का छात्रों का बड़ा संगठन बनने का मौका बन गया है। किसानों के अस्सी नब्बे संगठन हैं जो एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। इसकी संभावना यानी गुंजाइश बढ़ गई है। यह सिलसिला रुकेगा नहीं। यह जो नीति है वह सिर्फ हिंदुस्तान की ही नहीं है यह पूरी दुनिया में चल रही है। इसलिए इस आंदोलन और इसे चलाने वाले संगठनों से पूरी दुनिया के लोग जुड़ रहे हैं।

*अरुण त्रिपाठीः- वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीति को चलते हुए तीस साल हो गए। यह नीति बड़ी ताकत के साथ आई थी। इसके पीछे विश्व बैंक, डब्लू टीओ, आईएमएफ और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ताकत थी। दुनिया भर में इन नीतियों की नाकामी उजागर हुई और वे सब जगह ठीक से चल नहीं पाए। हिंदुस्तान में या दुनिया के जिस हिस्से में यह तेजी से चल रही है वहां उन्होंने राष्ट्रवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद के कंधे पर सवारी कर ली है ताकि वे चल सकें। भारत में एक तरह से गठजोड़ बन गया है जो कारपोरेट है और धर्म से जो राष्ट्रवाद निकला है उसके बीच। भारत में धर्म का राष्ट्रवाद नहीं रहा है। वहां प्रादेशिक राष्ट्रवाद रहा है यानी इस इलाके में जितने लोग रहते हैं वे सब हिंदुस्तानी हैं इस तरह का राष्ट्रवाद रहा है। दुनिया भर में यह नीतियां धीमी हो रही हैं लेकिन भारत में रफ्तार पकड़ रही हैं। तो क्या आपको लगता है कि आप इन नीतियों का कोई विकल्प दे पाएंगे और लोगों को समझा पाएंगे कि कोई समाजवादी आर्थिक नीति या लोकतांत्रिक आर्थिक नीति बना पाएंगे ताकि सांप्रदायिकता को रोका जा सके।

*उगराहां:- देखिए साथी आपका यह सवाल राजनीतिक सवाल है ट्रेड यूनियन के लेवल से ऊंचा सवाल है?  यह पॉलिसी का सवाल है। क्योंकि एक देश की नीति जो बनती है उसे लागू जब करेंगे तो स्वाभाविक है कि जिन लोगों के लिए वह नीति लागू होगी उनकी जेब से कुछ न कुछ जाएगा। जब उनकी जेब से जाएगा उनका रोजगार भी जाएगा और कारपोरेट का मुनाफा भी बढ़ेगा। जब ऐसा होगा तो फिर विरोध उठना स्वाभाविक है। उस विरोध को कैसे दबाया जाए, उस विरोध से राज्य कैसे निपटे उसके लिए राष्ट्रवाद का नारा गढ़ा गया है। धर्म का नारा उसके लिए लगाया गया है। राष्ट्रवाद का नारा उसके लिए लगाया गया है। इनकी नीतियों का मतलब यह नहीं है कि वे लोग हिंदुओं को बहुत खुशहाल कर देंगे और मुसलमान लोग गरीब रह जाएंगे। ऐसा नहीं है। वो नारा सिर्फ लोगों को बांट कर, पीट कर, कूट कर घर में घुसकर बिठाने के लिए है। वह लोगों की शक्ति को बांट कर उन्हें खदेड़ देने की नीति है। अब आप गुजरात को देख लो, वहां तो सब हिंदू हैं। मोदी पहले वहां मुख्यमंत्री थे। योगी यूपी में मुख्यमंत्री हैं। वहां तो सब हिंदू हैं। कब का इंकलाब आ गया होता। सभी लोग खुशहाल हो गए होते। या हम भी यूपी बन जाते। हम भी हिंदू बन जाते। हम भी हिंदू राष्ट्र को मान लेते। लेकिन हिंदू राष्ट्र का नारा हिंदुओं को डेवलप करने के लिए नहीं है। वह हिंदुओं की भावनाओं पर खड़े होकर उनके आर्थिक हितों का नुकसान करने के लिए है। वो नीति सब पर लागू होती है। वह चाहे हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख हो, ईसाई हो। मतलब कारपोरेट को लूट की छूट देने के लिए और किरती की जेब से निकालकर कारपोरेट की जेब में डालने के लिए जितने भी पत्ते चलाए जाते हैं, वह कैसा भी पत्ता हो उसे चलाने से ये गुरेज नहीं करेंगे। उसके लिए कानून कैसे कैसे बनाने हैं, उसके लिए धर्म का पत्ता कैसे कैसे चलना है, उसके लिए जाति का पत्ता कैसे चलना है, उसके लिए स्टेट का पत्ता कैसे चलना है कोई भी पत्ता चलाने से यह लोग गुरेज नहीं करेंगे। इन लोगों ने अंग्रेजों से सीखा है कि फाड़ के राज करो। यहां हमारे विद्यार्थी भी हैं। हम उन्हें हरियाणा के अंदर भी लेकर जाते हैं। अब इनकी पॉलिसी समझ में आ गई है। अब इनका पत्ता नहीं चलेगा।

* अरुण त्रिपाठीः- भारतीय समाज में बहुत तरह से झगड़े हैं। सारे झगड़े फर्जी ही नहीं हैं। कुछ असली भी हैं। जैसे मजदूर और किसान का झगड़ा है। किसान चाहेगा कि वह कम मजदूरी दे और मजदूर चाहेगा कि वह ज्यादा ले। इसी तरह से ऊंची जाति के लोग हैं वे छोटी जाति के लोगों से चाहेंगे कि तुम्हारा हक कम रहे। आपके पंजाब में ही है वहां बिहार से यूपी से मजदूर जाते हैं। वे जो मजदूरी मांगेंगे शायद वह आप न देना चाहें। कोरोना काल में उनसे कहा भी कहा गया कि आप कम मजदूरी लो। वे उनका शोषण करते हैं। आप चूंकि एक बड़ा आंदोलन चला रहे हैं तो यह काम कैसे करेंगे कि इसमें आंबेडकर को मानने वाले भी हों, भगत सिंह को मानने वाले भी हों, महात्मा गांधी को मानने वाले भी हों। इसमें बड़ी जाति के किसान भी हों और छोटी जाति के किसान भी हों। इन झगड़ों को आप कैसे निपटाएंगे? ट्रेनिंग से व्यवहार से?  कैसे लोगों को लोकतांत्रिक समाज बनाने की ओर ले जाएंगे?

* उगराहां:- साथी जब हम लोगों को लेकर चले थे तो उनसे बोला था कि यह लड़ाई बड़ी है। यह बड़ी लड़ाई किसी एक जमात की लड़ाई नहीं है। एक जाति की लड़ाई नहीं है एक धर्म की लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक सारे लोग हमारे साथ एकजुट होकर नहीं लड़ते। यह ठीक है कि किसानों और मजदूरों के बीच मतभेद हैं। लेकिन वे मिटाए जा सकते हैं। वे छोटे हैं। एक बड़ी शक्ति है जो हम दोनों को लड़ा रही है। बड़े दुश्मन के साथ लड़ने के लिए सारे छोटे दुश्मनों के साथ समझौता करना हमारा फर्ज है। आढ़तिया हमारी लूट करता है, हम मजदूरों की लूट करते हैं। यह बात छोड़कर हमें सोचना होगा कि अगर बड़े दुश्मन को हराना है तो छोटे दुश्मन के साथ समझौता करना होगा। हमारे दुश्मन नहीं मजदूर। हम भी उनके दुश्मन नहीं हैं। हमारे मतभेद हैं लेकिन वे बहुत थोड़े हैं। उन्हें मिटाया जा सकता है। उनको साथ लेकर हम नहीं चलते तो यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती। पंजाब में हमने यह बात लोगों से कही है और अब दूसरे राज्यों में यह बात लेकर जानी है। जब तक किसान, मजदूर, छोटा दुकानदार, छोटा मुलाजिम, विद्यार्थी, औरतें यह सब इकट्ठे होकर नहीं लड़ते यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती। यह लड़ाई बड़ी है। थक जाना निराश हो जाना यह सब वहां होता है जहां लोगों को पता नहीं होता कि कब तक लड़ना है। जहां बताया नहीं जाता। जब यह कह जाता है कि भाई यह दो मिनट की लड़ाई है बस जीत लेंगे और चल देंगे। जब वह दो महीने में भी नहीं जीती जाती तो निराशा होती है। लेकिन हम तो इनको बोलकर लेकर आए हैं कि यह सालों की लड़ाई है। यह जो दिल्ली का मोर्चा है वह एक पड़ाव है। यह दूसरा पड़ाव है। पहले पंजाब में पड़ाव था और अब दिल्ली में यह पड़ाव है। इस पड़ाव में हम क्या क्या हासिल कर लेंगे उसके बाद हम तीसरे पड़ाव में जाएंगे। इसलिए हम निराश ही नहीं होने देंगे। जब वैसी हालत होगी तो हम मोर्चे की दिशा बदल देंगे।

* अरुण त्रिपाठीः-- यानी आप कोई दूसरा कार्यक्रम बना लेंगे?

* उगराहां:---जी वैसा ही करेंगे। इसलिए यह जो आप देख रहे हैं कि हमारी झुग्गियां खाली पड़ी हैं तो उसकी हकीकत यह है कि वे लोग बुवाई करने गए हैं। मोर्चा लंबा है इसलिए जो भी छुट्टी मांगता है उसे हमने कह दिया है कि आप चले जाओ। काम करके आओ। आप पंडाल में देख लो पहले जैसी ही ताकत कायम है। आप इनमें से लोगों से इंटरव्यू लेकर देख लो कोई भी निराश नहीं मिलेगा। लोग कहेंगे हम जीत कर जाएंगे। इसलिए हम सब कुछ देखकर और सोचकर आए हैं। यह मोर्चा जितने दिन चलता रहेगा उतने दिन बीजेपी का ग्राफ नीचे आएगा। एक एक दिन आप देखते जाइए। मेरी बात आप सुन लें और रिकार्ड कर लें कि आप ध्यान से सुन लो कि बीजेपी अंदर से टूटेगी और इस मोर्चे की वजह से टूटेगी। अभी मेघालय के गवर्नर (सत्यपाल मलिक) का स्टेटमेंट पढ़ा। मेघालय का गवर्नर बोला कि तीन कानून रद्द करने चाहिए। हम किसानों के साथ हैं। अगर हमें बीजेपी तलब करेगी तो हम पद छोड़ने को तैयार हैं। गडकरी इनके खिलाफ बोला है, मेनका गांधी इनके खिलाफ हैं। वरुण गांधी भी इनके खिलाफ बोला है। यह अंदर से टूटेगी आप याद रखना।   

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