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ऐसे ही नहीं घट रही है न्यायपालिका की हनक!

देश की अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह हमारी न्यायपालिका भी इस समय संक्रमण के दौर से गुज़र रही है और उसका भी तेजी से क्षरण हो रहा है। न सिर्फ उसकी कार्यशैली और फ़ैसलों पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि उसकी हनक भी लगातार कम हो रही है।
 न्यायपालिका

न्यायपालिका की विश्वसनीयता को लेकर उठ रहे सवालों के बीच हाल के दिनों में इलाहाबाद हाईकोर्ट से जुड़ी दो महत्वपूर्ण खबरें आई हैं। पहली यह कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यौन शोषण और उत्पीडन के गंभीर आरोपी पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता चिन्मयानंद को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया और इसके साथ ही पीड़िता की नीयत पर भी सवाल खड़े कर दिए। दूसरी खबर यह है कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने चिन्मयानंद की ज़मानत मंजूर करने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के अतिरिक्त जज राहुल चतुर्वेदी को पदोन्नत कर स्थायी जज के रूप में नियुक्त करने की सिफारिश की है। 

यह संयोग हो सकता है, लेकिन यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि कोई तीन साल पहले सामूहिक बलात्कार के आरोप में जेल में बंद उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति को ज़मानत देने वाले एक स्पेशल जज (पॉस्को एक्ट) को इलाहाबाद हाईकोर्ट प्रशासन ने निलंबित कर उनके खिलाफ जांच बैठा दी थी। बहरहाल, जिस सुप्रीम कोर्ट ने चिन्मयानंद को जमानत देने वाले जज को पदोन्नत करने की सिफारिश की है, उसी सुप्रीम कोर्ट ने टेलीकॉम कंपनियों से संबंधित एक बड़े मामले में अपने आदेश पर अमल न होने पर सवाल किया है कि क्या इस देश में कोई कानून नहीं बचा है? मामले की सुनवाई कर रही पीठ के जजों ने आगबबूला होते हुए कहा कि इस तरह तो सुप्रीम कोर्ट को ही बंद कर दिया जाए और बेहतर होगा कि इस देश को छोडकर चले जाएं।

ये और इनके जैसी अन्य तमाम खबरें बताती है कि देश की अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह हमारी न्यायपालिका भी इस समय संक्रमण के दौर से गुजर रही है और उसका भी तेजी से क्षरण हो रहा है। न सिर्फ उसकी कार्यशैली और फैसलों पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि उसकी हनक भी लगातार कम हो रही है। अदालती फैसलों को लागू कराने के लिए जिम्मेदार मानी जाने वाली कार्यपालिका यानी सरकार के विभिन्न अंग भी कई मामलों में अदालती आदेशों की अनदेखी कर रहे हैं या उसके विपरीत काम कर रहे हैं।

हालांकि न्यायपालिका का क्षरण कोई नई परिघटना नहीं है। यह सिलसिला बहुत पहले से चला आ रहा है। कुछ पुराने और बडे उदाहरण इस हकीकत की तस्दीक करते हैं।

बात करीब एक दशक पुरानी है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई करते हुए कुछ जजों की ईमानदारी और नीयत पर बेहद मुखर अंदाज में सीधे-सीधे सवाल हुए काफी तल्ख टिप्पणियां की थीं। 26 नवंबर 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने देश के इस सबसे बडे हाईकोर्ट से निकलने वाली भ्रष्टाचार की सडांध से क्षुब्ध होकर कहा था- ''शेक्सपियर ने अपने मशहूर नाटक 'हेमलेट’ में कहा है कि डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ा हुआ है। यही बात इलाहाबाद हाईकोर्ट के बारे में भी कही जा सकती है। यहां के कुछ जज 'अंकल जज सिंड्रोम’ से ग्रस्त हैं।’’

सुप्रीम कोर्ट के इस आक्रोश की वजह यह थी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाते हुए बहराइच के वक्फ बोर्ड के खिलाफ एक सर्कस कंपनी के मालिक के पक्ष में एक अनुचित आदेश पारित कर दिया था, जबकि यह मामला हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के अंतर्गत आता था। इस मामले के पहले से भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के पास कई गंभीर शिकायतें थीं, जिनको लेकर उसने अपना आक्रोश जाहिर करने में कोई कोताही नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- ''इस हाईकोर्ट के कई जजों के बेटे और रिश्तेदार वहीं वकालत कर रहे हैं और वकालत शुरू करने के कुछ ही वर्षों के भीतर वे करोड़पति हो गए हैं, उनके आलीशान मकान बन गए हैं, उनके पास महंगी कारें आ गई हैं और वे अपने परिवार के साथ ऐश-ओ-आराम की जिंदगी जी रहे हैं।’’

अपने ऊपर सुप्रीम कोर्ट की इन सख्त टिप्पणियों से आहत इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपनी छवि और गरिमा की दुहाई देते हुए एक समीक्षा याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से इन टिप्पणियों को हटाने की गुजारिश की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर 2010 को न सिर्फ इस याचिका को निर्ममतापूर्वक ठुकरा दिया था, बल्कि उसने और ज्यादा तल्ख अंदाज में कहा था- ''देश की जनता बुद्धिमान है, वह सब जानती है कि कौन जज भ्रष्ट है और कौन ईमानदार।’’ अपनी पूर्व में की गई टिप्पणियों को हटाने से इनकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ कर दिया था कि उसकी ये टिप्पणियां सभी जजों पर लागू नहीं होती है, क्योंकि इस हाईकोर्ट के कई जज काफी अच्छे हैं, जो अपनी ईमानदारी व निष्ठा के जरिए इलाहाबाद हाईकोर्ट का झंडा ऊंचा किए हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट को उसकी टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया जताने के बजाय आत्मचिंतन करना चाहिए।

हालांकि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का यह कोई नया मामला नहीं था। पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में न्यायमूर्ति वी, रामास्वामी से लेकर अभी हाल के वर्षों में सिक्किम हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनाकरण और कलकत्ता हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सौमित्र सेन तक कई उदाहरण हैं, जिनमें निचली अदालतों से लेकर उच्च अदालतों तक के न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। इस सिलसिले में नवंबर 2010 में गुजरात हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.जे. मुखोपाध्याय ने तो अपने ही मातहत कुछ जजों के भ्रष्टाचरण पर बेहद गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा था- ''गुजरात में न्यायपालिका का भविष्य संकट में है, जहां पैसे के बल पर कोई भी फैसला खरीदा जा सकता है।’’

इसी दौरान जबलपुर (मध्य प्रदेश) हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ के कुछ जजों के बारे में भी कुछ ऐसी ही शिकायतें ग्वालियर अभिभाषक संघ के अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट को भेजी थी। इससे पहले देश के पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट मे हलफनामा दाखिल कर देश के आठ पूर्व प्रधान न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे, लेकिन उस पर विचार करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने उलटे शांति भूषण पर दबाव डाला था कि वे अपने इस हलफनामे को वापस ले लें।

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जजों की संदिग्ध कार्यशैली के सिलसिले में जबलपुर हाईकोर्ट की इंदौर खंडपीठ से जुड़ा 1980 के दशक का मामला तो बेहद दिलचस्प है। हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इंदौर नगर निगम के छह इंजीनियरों को भ्रष्टाचार के मामले में निलंबित कर उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया था। सभी छह इंजीनियर जेल में थे। उनकी जमानत के आवेदन पर कई दिनों तक सुनवाई चली। सुनवाई के दौरान उन इंजीनियरों को अदालत लाया जाता था। सुनवाई करने वाली पीठ के दोनों जजों ने एक सप्ताह से भी ज्यादा समय तक चली सुनवाई के दौरान महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, कीट्स, वर्ड्सवर्थ, शेक्सपियर, मार्क ट्वेन, वॉल्टेयर आदि दुनियाभर के तमाम साहित्यकारों, दार्शनिकों, विचारकों के उद्धरण देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रवचन देते हुए आरोपी इंजीनियरों को खूब खरी-खोटी सुनाई। स्थानीय अखबारों में इस मामले की खबरों को खूब जगह मिली। दोनों जजों ने भी खूब वाहवाही बटोरी।

दिलचस्प अंदाज में मामले का अंत यह हुआ कि दोनों जजों ने अपनी सेवानिवृत्ति के चंद दिनों पहले मुकदमे का निपटारा करते हुए सभी आरोपी इंजीनियरों को 'ठोस सबूतों के अभाव में बरी कर दिया तथा सरकार की जांच एजेंसी को जमकर लताड़ा। सभी छह इंजीनियरों की सेवाएं फिर से बहाल हो गईं और वे एक बार फिर पहले की तरह सीना तानकर 'लोकसेवा’ मे जुट गए। अदालत के फैसले पर कौन उठाता सवाल? उठाता तो अवमानना का मामला बन जाता।

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और उसके प्रति सुप्रीम कोर्ट की उदासीनता की चर्चा के इस सिलसिले में मद्रास और कलकत्ता हाईकोर्ट के जज रहे सीएस कर्णन के मामले को भी नहीं भूला जा सकता। जस्टिस सीएस कर्णन ने तीन साल पहले यानी 23 जनवरी 2017 को प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट के 20 जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए जांच कराने का अनुरोध किया था। उनके इस पत्र को सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की अवमानना करार देते हुए जस्टिस कर्णन की न्यायिक शक्तियां छीन कर उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई कर दी। जब कर्णन ने इस कार्रवाई को चुनौती दी तो सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने उनकी मानसिक हालत की जांच करने का आदेश दे दिया और फिर अंतत: उन्हें अवमानना का दोषी मानते हुए छह महीने के लिए जेल भेज दिया।

किसी पदासीन जज को जेल की सजा सुनाए जाने का यह अपने आप मे पहला मौका था। होना तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री को लिखे जस्टिस कर्णन के पत्र का सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान लेता और बीस जजों पर कर्णन के लगाए आरोपों की जांच कराता, लेकिन उसने ऐसा करने के बजाय अवमानना कानून के डंडे से जस्टिस कर्णन को हकालते हुए जेल पहुंचा दिया। मीडिया तथा नागरिक समाज ने भी जस्टिस कर्णन के मामले में अपनी भूमिका का ठीक से निर्वाह नही किया। ऐसे में कहा जा सकता है कि इस सबके पीछे जातीय पूर्वाग्रह की भी अहम भूमिका रही। जस्टिस कर्णन मद्रास हाईकोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान मुख्य न्यायाधीश और अन्य साथी जजों पर अपने को दलित होने की वजह से प्रताड़ित करने के आरोप लगाते रहे थे।

वैसे अदालतों में होने वाली गडबडियों को लेकर संबंधित मामलों की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत के भीतर से ही आवाज उठने और पीठासीन जजों का अपनी मातहत अदालतों को फटकार लगाने का सिलसिला भी पुराना है। दो साल पहले तो सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश की ही संदेहास्पद कार्यशैली पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठा दिए थे और देश के लोकतंत्र को खतरे में बताया था।

मीडिया से मुखातिब चारों जजों ने यद्यपि सरकार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की थी, लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं ने उन चार जजों के बयान पर जिस आक्रामकता के साथ प्रतिक्रिया जताई थी और प्रधान न्यायाधीश का बचाव किया था, वह भी न्यायपालिका की पूरी कलंक-कथा को उजागर करने वाला था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीवी सावंत ने एक टीवी इंटरव्यू में चारों जजों के बयान को देशहित में बताते हुए कहा था कि देश की जनता यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी न्यायाधीश भगवान नहीं होता। न्यायपालिका के रवैये पर कठोर टिप्पणी करते हुए उन्होंने दो टूक कहा था कि अदालतों में अब आमतौर पर फैसले होते हैं, यह जरूरी नहीं कि वहां न्याय हो।

न्यायपालिका में लगी भ्रष्टाचार की दीमक और न्यायतंत्र पर मंडरा रहे विश्वसनीयता के संकट ने ही करीब एक दशक पहले देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया था कि जजों को आत्म-संयम बरतते हुए राजनेताओं, मंत्रियों और वकीलों के संपर्क में रहने और निचली अदालतों के प्रशासनिक कामकाज में दखलंदाजी से बचना चाहिए। 16 अप्रैल 2011 को एमसी सीतलवाड़ स्मृति व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति कपाड़िया ने कहा था कि जजों को सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति के लोभ से भी बचना चाहिए, क्योंकि नियुक्ति देने वाला बदले में उनसे अपने फायदे के लिए निश्चित ही कोई काम करवाना चाहेगा। उन्होंने जजों के समक्ष उनके रिश्तेदार वकीलों के पेश होने की प्रवृत्ति पर भी प्रहार किया था और कहा था कि इससे जनता में गलत संदेश जाता है और न्यायपालिका जैसे सत्यनिष्ठ संस्थान की छवि मलिन होती है।

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रहे वीएन खरे ने तो बडे ही सपाट अंदाज मे स्वीकार किया था। 2002 से 2004 के दौरान सर्वोच्च अदालत के मुखिया रहे जस्टिस खरे ने अपने एक इंटरव्यू मे कहा था- ''जो लोग यह दावा करते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है, मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। मेरा मानना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का यह नासूर ऐसा है जिसे छिपाने से काम नहीं चलेगा, इसकी तुरंत सर्जरी करने की आवश्यकता है।’’ जस्टिस खरे ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए महाभियोग जैसे प्रावधान और उसकी प्रक्रिया को भी नाकाफी बताया था।

ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका में जारी गड़बड़ियों से आम आदमी बेखबर हो, लेकिन मुख्य रूप से दो वजहों से ये गड़बड़ियां कभी सार्वजनिक बहस का मुद्दा नहीं बन पातीं। एक तो लोगों को न्यायपालिका की अवमानना के डंडे का डर सताता है और दूसरे, अपनी तमाम विसंगतियों और गड़बड़ियों के बावजूद न्यायपालिका आज भी हमारे लोकतंत्र का सबसे असरदार स्तंभ है, जिसे हर तरफ से आहत और हताश-लाचार आदमी अपनी उम्मीदों का आखिरी सहारा समझता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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