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दिल्ली दंगे के तीन साल: जानलेवा हमले झेल चुके पीड़ित अब भी FIR दर्ज कराने के लिए जूझ रहे..!

अदालतों द्वारा बार-बार पुलिस की खिंचाई करने, FIR दर्ज करने का आदेश देने और एक मामले में जुर्माना लगाने के बावजूद, जांच एजेंसी ने बार-बार आदेशों को चुनौती दी। आख़िर क्यों?
delhi riots

एडिटर नोट : उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी 2020 में हुए दंगों की तीसरी बरसी पर, न्यूज़क्लिक एक सीरीज़ प्रकाशित कर रहा है। यह हमारी पांच-भागों वाली सीरीज़ की चौथी स्टोरी है। पिछली स्टोरीज़ यहां पढ़ें : पहली स्टोरी, दूसरी स्टोरी, तीसरी स्टोरी

नई दिल्ली : शहर में हुए सबसे भयानक सांप्रदायिक दंगे को तीन साल बीत चुके हैं, और कई शिकायतें अभी तक न्याय प्रणाली के माध्यम से आगे नहीं बढ़ी हैं। इनमें ज़्यादातर उन लोगों की शिकायतें शामिल हैं जिन्हें घातक चोटें लगी हैं (इतनी घातक कि अगर समय पर इलाज नहीं किया गया होता तो मौत का कारण भी हो सकती थीं) या जिन्होंने अपनी संपत्ति खोईं।

24 फरवरी, 2020 की शाम को सुभाष मोहल्ले में रहने वाले लाईट मेकर सैयद ज़ुल्फ़िकार को दंगाइयों के एक समूह द्वारा गोली मार दी गई थी-जिनमें से अधिकांश को वह व्यक्तिगत रूप से जानता था। आरोपी के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज करने के बाद भी पुलिस ने अब तक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज नहीं की है।

35 वर्षीय ज़ुल्फ़िकार ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, “मेरी पत्नी गंभीर रूप से बीमार थी। मैं उसे अस्पताल में भर्ती करने को लेकर बातचीत करने के लिए पास के चौहान बांगर में अपने ससुराल जा रहा था। हालांकि कुछ छिटपुट तनाव की खबरें आ रही थीं, लेकिन सड़क सुनसान नहीं थी। निजी वाहनों के सड़कों पर चलने के साथ ही आम दिनों की तुलना में ट्रैफिक कम रहा। इसके अलावा पैदल चलने वाले भी थे।” आगे उन्होंने बताया कि वह लगभग 8.00-8.30 बजे बाहर निकले और पैदल चलना शुरू किया क्योंकि वहां उस वक्त सार्वजनिक परिवहन का कोई साधन नहीं था।

उन्होंने कहा कि जैसे ही वह घोंडा चौक पहुंचे, सड़क पर एक हिंसक भीड़ दिखाई दी जिसने उनका पीछा करना शुरू कर दिया।

उस भायवह दृश्य को याद करते हुए वे बताते हैं, “मैं बचने के लिए पीछे मुड़ा लेकिन वहां एक और समूह था, जो मेरी ओर दौड़ा। मैं दो हिंदू भीड़ के बीच फंस गया। चार लोगों ने-जिन्हें मैं जानता हूं-मुझे पकड़ा और उनमें से एक ने मेरे सिर पर गोली चला दी। जैसे ही मैंने अपने आप को बचाने के लिए थोड़ा झटका दिया, गोली मेरे माथे पर लगने के बजाय मेरे चेहरे के बाईं ओर से होकर निकल गई -मेरी बाईं आंख और कान के बीच के हिस्से में घाव करते हुए। जैसे ही खून बहने लगा, उन्होंने मुझ पर से अपनी पकड़ ढीली कर दी और मैं किसी तरह बचकर दूसरी गली में घुस गया। मुझे नहीं पता कि उसके बाद क्या हुआ। कुछ भले लोगों ने मुझे जीटीबी अस्पताल पहुंचाया। रास्ते में मेरी एंबुलेंस पर भी हमला किया गया और दंगाइयों ने शीशा भी तोड़ दिया। मेरे पास घटना के वीडियो सबूत हैं।”

उनके अनुसार, जीटीबी अस्पताल के डॉक्टरों ने यह मानने से इनकार कर दिया कि यह घाव गोली लगने से हुआ। उन्हें कथित तौर पर बताया गया था कि उन्हें एक पत्थर से मारा गया था। उनके आग्रह पर, राजीव गांधी अस्पताल में उनका सीटी स्कैन करवाया गया, जिसमें उनके 'बाएं टेम्पोरल क्षेत्र' के अंदर एक गोली होने का पता चला। उसके बाद उन्हें अस्पताल के ईएनटी विभाग में ट्रांसफर कर दिया गया, लेकिन वहां के डॉक्टरों ने कथित तौर पर गोली को हटाने से इनकार कर दिया-यह मानते हुए कि अगर रोगी को एनेस्थीसिया दिया गया और उसका ऑपरेशन किया गया तो वह कोमा में जा सकता है।

ज़ुल्फ़िकार को एक हफ्ते के बाद बिना गोली निकाले अस्पताल से छुट्टी दे दी गई, लेकिन उन्हें अपना मुंह खोलने में कठिनाई होती रही; वे चक्कर और झुनझुनी के अलावा दर्द और पेरिऑर्बिटल सूजन की पीड़ा से गुज़रे। उनकी छाती के बायीं ओर तेज़ दर्द और कमर के हिस्से में खुजली भी थी।

बाएं कान और आंख में क्रमशः आंशिक रूप से कम सुनने और देख न पाने की समस्या के बाद उन्हें अल-शिफा में ले जाया गया। अल-शिफा एक निजी अस्पताल है जो दक्षिण-पूर्व दिल्ली के ओखला में जमात-ए-इस्लामी हिंद के ह्यूमन वेलफेयर फाउंडेशन द्वारा प्रबंधित और चलाया जाता है।

एक फीजिशियन और न्यूरोसर्जन के रेफरेंस के बाद, डॉक्टरों की एक टीम ने सी-आर्म के मार्गदर्शन में बिना एनेस्थीसिया दिए उनका सर्जरी से उपचार किया।

उन्होंने कहा, “डॉक्टर मुकेश, जिनके अधीन मुझे अल-शिफ़ा में भर्ती कराया गया था, ने गोली निकाल दी। उन्होंने मुझे Incision (सर्जरी के दौरान लगाए जाने वाला चीरा) के दर्द को सहन करने और गोली को हटाने में सहयोग करने के लिए कहा क्योंकि उस अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र में एनेस्थीसिया नहीं दिया जा सकता था। मैं आज भी उस पल को याद करते हुए कांप उठता हूं-जब छर्रों को हटाया गया था। मैं भगवान का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे एक नया जीवन दिया। इसके अलावा, बिना एक पैसा चार्ज किए मुझे चिकित्सा उपचार देने और सर्जरी के बाद की देखभाल के लिए मैं डॉक्टर और अस्पताल प्रबंधन का भी आभारी हूं।”

अस्पताल में भर्ती होने के चार दिन बाद 6 मार्च, 2020 को उसे अस्पताल से छुट्टी मिली जिसके बाद, वह घर लौट आया और दो भाइयों-उत्तम त्यागी और नरेश त्यागी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने भजनपुरा पुलिस स्टेशन गया। दोनों में से एक, नरेश ने कथित तौर पर उस पर गोली चलाई थी। लेकिन पुलिस ने यह तर्क देते हुए कि उन्हें पहले ही एक पुलिस रिपोर्ट मिल चुकी है, कथित तौर पर उसकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया।

उन्होंने आरोप लगाते हुए बताया, “मुझे जीटीबी अस्पताल लाए जाने के तुरंत बाद कुछ पुलिसकर्मी मेरे पास आए थे। यद्यपि उस समय अत्यधिक रक्तस्राव और दर्द के कारण मैं उस घटना को विस्तार से बताने में असमर्थ था, फिर भी मैंने उन्हें बताया कि मुझे गोली मारी गई है। लेकिन डॉक्टरों ने हस्तक्षेप किया और कहा कि मुझे गोली नहीं पत्थर से मारा गया है। डॉक्टर के ब्रीफ के आधार पर, पुलिस ने सिर्फ इतना लिखा कि दंगों के दौरान मुझ पर शारीरिक हमला हुआ और बाद में यही बयान न्यायिक पुलिस स्टेशन भेज दिया गया। मुझसे झूट बोला गया कि मेरी FIR पहले ही दर्ज हो चुकी है, पर इसकी कॉपी नहीं दी गई।”

इसके बाद पीड़ित ने तब अपने वकील महमूद प्राचा के माध्यम से कड़कड़डूमा में अदालत का दरवाज़ा खटखटाया-उन्होंने धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज करने की प्रार्थना की जो एक मजिस्ट्रेट को पुलिस को एक अपराध की जांच करने का निर्देश देने का अधिकार देता है। यह पुलिस को बाध्य करता है कि जांच शुरू करने से पहले FIR दर्ज की जाए।

तीन साल बीत चुके हैं, लेकिन उनकी याचिका अभी भी अदालत में लंबित है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी तरह के एक और मामले में उच्च न्यायालय के फैसले का इंतज़ार किया जा रहा है-ये मामला नासिर अली से संबंधित है जो बंदूक की गोली से घायल हुआ था।

उन्होंने बताया कि उन्हें नरेश द्वारा कथित तौर पर धमकी दी गई, जिसके बाद एक अदालत ने उन्हें पुलिस सुरक्षा प्रदान की। हालांकि इसके बाद भी, उन्हें आज तक सुरक्षा कवर प्रदान नहीं किया गया था।

बता दें कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), 2019 के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध के बाद पूर्वोत्तर दिल्ली में भड़की हिंसा में 53 से अधिक लोग ( जिनमें दो-तिहाई मुस्लिम थे) मारे गए, सैकड़ों को चोटें आईं और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ।

पुलिस ने किया आरोपी का बचाव?

इसी सुभाष मोहल्ले के रहने वाले 36 वर्षीय नासिर अली पर 24 फरवरी 2020 को भीड़ ने हमला किया था। इस भीषण हमले में उनकी बायीं आंख चली गई थी। भजनपुरा थाने में अपनी शिकायत में उन्होंने त्यागियों सहित अन्य लोगों के नाम भी लिए हैं।

अपनी शिकायत पर FIR दर्ज कराने के लिए दो साल तक अदालत के चक्कर लगाने के बाद, उन्हें अपने पक्ष में दो आदेश मिले। एक ट्रायल कोर्ट ने 21 अक्टूबर, 2020 को दिल्ली पुलिस को 24 घंटे के भीतर मामले में FIR दर्ज करने का आदेश दिया था।

आदेश का पालन करने के बजाय, भजनपुरा पुलिस स्टेशन के स्टेशन हाउस ऑफिसर (SHO) ने कड़कड़डूमा के सत्र न्यायालय में एक समीक्षा याचिका दायर की-यह अनुरोध करते हुए कि आदेश वापस लिया जाए। पुलिस ने दो आधारों पर इसकी मांग की: पहला यह कि घटना के समय कम से कम तीन आरोपी दिल्ली में नहीं थे और दूसरा उन्होंने (पुलिस वालों ने) पहले ही एक FIR दर्ज कर ली थी जो नासिर द्वारा लगाए गए आरोपों को कवर करेगी।

पुलिस ने दावा किया कि घटना के समय जहां त्यागी कहीं और किसी समारोह में शामिल थे, वहीं सुशील अपने कार्यालय में थे।

पुलिस की दलीलों से सहमत ना होते हुए, अदालत ने 13 जुलाई, 2021 को समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि पुलिस ने “शिकायत में (अली की) नामित अभियुक्तों के लिए बचाव” तैयार करने की कोशिश की थी।

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने पाया कि आरोपियों के बजाय पुलिस निचली अदालत के आदेश से व्यथित हुई और पुनर्विचार याचिका दायर की। उन्होंने कहा कि उनके (पुलिस) के पास "व्यथित होने का कोई कारण, अवसर या औचित्य नहीं है।"

उन्होंने मामले की पुलिस जांच को 'घृणित' और 'हास्यास्पद' बताया और भजनपुरा एसएचओ और उनके वरिष्ट अधिकारियों पर कथित तौर पर निष्पक्ष रूप से अपने कर्तव्यों को पूरा करने में विफल रहने के लिए 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया।

आरोपियों के खिलाफ FIR दर्ज नहीं करने पर अड़ी पुलिस ने इसके बाद सत्र न्यायालय के आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी, जिसने उन्हें एक स्टे दिया। पुलिस ने अदालत को बताया कि वे "सीधे तौर पर" व्यथित थे और जुर्माना लगने से उनकी प्रतिष्ठा को 'क्षति' पहुंची।

अधिवक्ता प्राचा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि इसीलिए, ज़ुल्फ़िकार की याचिका कड़कड़डूमा अदालत में लंबित है, जिसे, नासिर के मामले में उच्च न्यायालय के फैसले का इंतज़ार है।

'बेतुका और बेहूदा स्टैंड'

उसी शाम सुभाष मोहल्ले में मोहम्मद सलीम के घर पर एक भीड़ ने बम, गोलियों और पत्थरों से हमला कर दिया। 58 वर्षीय सलीम ने 1 मार्च, 2020 को जाफराबाद पुलिस स्टेशन में एक लिखित शिकायत दर्ज कराई, जिसमें त्यागी बंधुओं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक सक्रिय सदस्य जयबीर सिंह तोमर समेत अन्य का नाम लिया लेकिन शिकायत को कभी FIR में नहीं बदला गया।

वो पहले से ही एक मामले में आरोपी हैं, उनके खिलाफ चार और FIR दर्ज की गईं।

उनकी शिकायत के आधार पर पुलिस ने मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया जिसके बाद उन्होंने कड़कड़डूमा में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अदालत का दरवाज़ा खटखटाया।

पुलिस ने मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया कि सलीम ने केवल जांच से बचने के लिए 'झूठी' शिकायत दर्ज की थी। लेकिन अदालत इस तर्क से आश्वस्त नहीं थी।

पुलिस द्वारा किए गए दावे को खारिज करते हुए, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट फहद उद्दीन ने 23 नवंबर, 2020 को पुलिस को FIR दर्ज करने और मामले की जांच करने का आदेश दिया।

पहले की तरह, पुलिस ने आदेश का पालन करने के बजाय कड़कड़डूमा स्थित सत्र न्यायालय का रुख किया। जांचकर्ताओं ने कहा कि सलीम का मामला पहले ही एक अन्य FIR के साथ जोड़ दिया गया था।

इस अदालत ने दो अदालतों में उनके तर्कों में स्पष्ट बदलाव को उजागर करते हुए उन्हें फटकार भी लगाई। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने कहा, "यह स्टैंड बेतुका होने के साथ-साथ हास्यास्पद भी है।"

उन्होंने पुलिस को पहले एक अलग FIR दर्ज करने और फिर शिकायतकर्ता (जो एक दिहाड़ी मज़दूर है) द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच करने का आदेश दिया।

अपराध साबित करने के बजाय अलग-अलग धार्मिक विश्वासों के शिकायतकर्ताओं से निपटने में पक्षपात करने के लिए न्यायाधीश ने पुलिस की भी आलोचना की।

उनकी शिकायत और अदालत के दो आदेशों के 18 महीने बाद, पुलिस ने आखिरकार इसके अगले साल सितंबर में FIR दर्ज की।

पुलिस आखिर अदालत के आदेशों को चुनौती क्यों देती रही?

जांच में स्पष्ट चूक के लिए अदालतों द्वारा बार-बार पुलिस की खिंचाई करने, FIR दर्ज करने का आदेश देने और एक मामले में जुर्माना लगाने के बावजूद, जांच एजेंसी ने बार-बार आदेशों को चुनौती दी। आख़िर क्यों?

पीड़ित एक संभावित उत्तर देते हैं : शहर की पुलिस में या तो आरोपियों के रिश्तेदार थे या आरएसएस से जुड़े हुए थे।

मामले की जानकारी रखने वाले लोगों ने कहा कि इससे उन्हें मदद मिली, गिरफ्तारी में देरी हुई, जांच में गड़बड़ी हुई, FIR दर्ज करने में रुकावट आई और जेलों में उनके दिन आसान हो गए। उन्होंने दावा किया कि FIR दर्ज करने में देरी ने अभियुक्तों को शिकायतकर्ताओं को धमकाने के लिए प्रोत्साहित किया।

हालांकि, दिल्ली पुलिस ने इन आरोपों से इनकार करते हुए सभी आरोपों को "फर्ज़ी, निराधार और सच्चाई से दूर" बताया। एक अधिकारी ने मामले की डिटेल्स में जाने से इनकार करते हुए न्यूज़क्लिक को बताया, "जांच बेहद पेशेवर तरीके से और बिना किसी पूर्वाग्रह के की जा रही है।"

न्याय-एक सुदूर सपना

मासिक आय में भारी गिरावट के कारण, मोहम्मद जाकिर अंसारी उर्फ चांद ने पूर्वोत्तर दिल्ली के नूर इलाही इलाके की गली नंबर 10 में अपना एक कमरे का फ्लैट खाली कर दिया था और अपनी पत्नी और बच्चों को अपने पैतृक गांव बुलंदशहर में वापस भेज दिया था।

ब्लेज़र सिलने में कुशल, वह घोंडा चौक पर एक टेलरिंग वर्कशॉप में काम कर रहा था जहां वह रह भी रहा था।

घटना को याद करते हुए उन्होंने बताया, “23 फरवरी, 2020 को जब दंगे भड़के तो मैंने और दो अन्य ने खुद को इमारत की पहली मंजिल पर बंद कर लिया था। खाने-पीने के लिए कुछ नहीं होने के बावजूद, हम अगले दो दिनों तक बाहर नहीं निकले। भूख-प्यास को और सहन न कर पाने के कारण हम 25 फरवरी की शाम को भागने के लिए निकले। न तो बाहर कोई भोजनालय खुला था और न ही मेरा परिवार यहां था।” आगे उन्होंने कहा कि वे एक गली के माध्यम से कल्याण पुरी की ओर चलने लगे, यह मानते हुए कि यह गली सुरक्षित है।

उन्होंने कहा कि उन्होंने मुख्य सड़क से परहेज़ किया क्योंकि यह पूरी तरह से हिंसक भीड़ के नियंत्रण में थी। जैसे ही वे गली में कुछ अंदर गए थे, कुछ लोगों के एक समूह ने उनका रास्ता रोक लिया और उनका नाम, पता और पेशे के बारे में पूछताछ करने लगे।

अपने सिर पर लगे 56 टांको के निशान दिखाते हुए उन्होंने बताया, “हमने उन्हें अपने असली बताने के अलावा बाकी सभी जानकारियां दीं। हम पर मुसलमान होने का शक करते हुए उन्होंने हमें पकड़ लिया और हमारी सेल फोन डायरेक्टरी चेक करने लगे। अधिकांश संपर्कों में मुस्लिम नाम मिलने पर उन्होंने हमारे आईडी कार्ड मांगे। हमारे पास अब उनकी बात मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। जैसे ही हमारी पहचान उजागर हुई, उनमें से एक ने मेरे सिर पर रॉड से ज़ोर से हमला किया। मुझे बहुत ज़्यादा खून बहने लगा, लेकिन वे हमें लगातार पीटते रहे।”

उनके जबड़े, बाएं हाथ और दाहिने हाथ की उंगलियों में भी फ्रैक्चर हुआ है। उनके हाथ में स्टील की रॉड थी। उनका बायां पैर भी बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया था।

“मैं ज़मीन पर गिर पड़ा और धीरे-धीरे होश खोने लगा। उनमें से कुछ लोग मुझे गोली मार देना चाहते थे, अन्य वहां पड़े पत्थर से मेरा सिर कुचलना चाहते थे। मैं रहम की भीख मांगता रहा, उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। एक आदमी ने मेरे सिर पर एक बड़े पत्थर से वार किया, और अंत में मैं बेहोश हो गया।” उसने उस भयावहता का वर्णन किया। उसके साथ गए लोगों को भी बेरहमी से पीटा गया।

उन्होंने आगे बताया, “हमें मरा हुआ मानकर, वो भीड़ गली के काफी अंदर तक चली गई। कुछ देर बाद मुझे होश आया। मैंने उन्हें दूर खड़े देखा। इसका फायदा उठाकर मैं किसी तरह खुद को घसीटते हुए मुख्य सड़क के दूसरी ओर ले गया। पुलिस की एक टीम उधर से गुज़र रही थी। वे रुके, मुझे अपने वाहन में बिठाया और जीटीबी अस्पताल ले गए। मुझे आईसीयू (इंटेंसिव केयर यूनिट) में भर्ती कराया गया, जहां मैं 12 दिनों तक वेंटिलेटर सपोर्ट पर रहा इसके अलावा तीन दिन और जनरल वार्ड में रहा।”

उन्हें पूरी तरह से ठीक होने में करीब एक साल लग गया। अब, उन्होंने सिलाई करना छोड़ दिया है क्योंकि वह अपनी उंगलियों को ठीक से मोड़ने में असमर्थ हैं।

अंसारी ने कहा, "एक स्थानीय व्यक्ति ने उसके लिए एक ई-रिक्शा खरीदा जिससे वह अपने छह लोगों के परिवार का जीवनयापन कर सके। अन्य दो लोगों को भी बुरी तरह पीटा गया। अत्याचार इतना क्रूर था कि उनमें से एक ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया, वह इन दिनों लापता है।"

“अस्पताल में भर्ती होने के तुरंत बाद, पुलिसकर्मी आए और हमसे पूछा कि हम हिंसा करने के लिए बाहर क्यों गए थे। मैं वेंटिलेटर सपोर्ट पर था; इसलिए उनका जवाब नहीं दे सका। हम प्रवासी मज़दूर हैं। हम सभी बाधाओं से लड़ते हुए आजीविका कमाने के लिए यहां आए हैं। हमारा दंगों से कोई लेना-देना नहीं था। हम अपने गांव लौट रहे थे जब दंगाइयों ने हमें पकड़ लिया।” उन्होंने कहा।

न तो वह शिकायत लेकर पुलिस के पास पहुंचा और न ही पुलिस ने स्वत: संज्ञान लेते हुए FIR दर्ज की। मुआवज़े के तौर पर उन्हें दिल्ली सरकार से एक पैसा भी नहीं मिला। उन्होंने अनुग्रह राशि के भुगतान के लिए निर्देश की मांग करते हुए एक अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है।

उन्होंने कहा, "लेकिन मुझे तारीख दर तारीख मिल रही है, न्याय की उम्मीद हर बीतते दिन के साथ कम होती जा रही है।"

ट्रायल कोर्ट में दिल्ली पुलिस द्वारा दी गई दलीलों के अनुसार, कुल 758 FIR दर्ज की गईं और 2,456 गिरफ्तारियां की गईं, जिनमें से 1,053 को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया; जबकि 1,356 लोग अभी भी न्यायिक हिरासत में हैं। 1,610 अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई है और 338 मामलों में संज्ञान लिया गया है। कुल दायर चार्जशीट में से 100 मामलों में आरोप तय किए गए हैं। मुकदमा शुरू हो गया है, और अब तक, दो लोगो को दोषी ठहराया गया है।

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