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तिरछी नज़र : बुरा तो हम मानेंगे ही, क्योंकि...

यह आग किसने लगाई और किसने हाथ सेके। ये तो राम जाने या फिर सरकार जाने। अब इस खून की होली का बुरा तो हम मानेंगे ही।
Delhi violence

"बुरा न मानो, होली है।” होली पर यह एक बहुत पुरानी कहावत है। बचपन से ही हम होली के आसपास यही सुनते आ रहे हैं। होली पर किसी पर रंग डाल दो य फिर किसी को भी छेड़ दो। कोई बुरा माने तो बोल दो, "बुरा न मानो, होली है।" यानी, होली पर बुरा मानने लायक कुछ हो भी तो भी सब माफ है। यानी होली पर और उसके आसपास किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।

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हमारे बचपन में होली पंद्रह बीस दिन पहले शुरू हो जाती थी। पंद्रह बीस दिन पहले से ही हम बच्चे, लोगों पर पानी डालना शुरू कर देते थे। वैसे तो उन दिनों इस हुड़दंग का कोई बुरा नहीं मानता था पर फिर भी कोई बुरा मानता था तो हम बच्चे लोग शोर मचा देते थे "बुरा न मानो, होली है।" बुरा मानता हुआ व्यक्ति भी मुस्कुरा कर चला जाता था। पर अब बच्चे भी इतने व्यस्त हो गये हैं कि होली सिर्फ रंग वाले दिन की रह गई है और उस दिन भी यदि किसी को गीला कर दो तो लोग बुरा मान जाते हैं। और इस बार तो दिल्ली के दंगों और कोरोना वायरस ने होली आधे दिन की भी नहीं रहने दी।

पर राजनेताओं की कृपा से इस बार दिल्ली में होली पंद्रह बीस दिन पहले ही शुरू हो गई। अबकी बार होली से पंद्रह बीस दिन पहले ही दिल्ली में दंगे की होली शुरू हो गई। पता नहीं यह दंगों की होली किसने शुरू की, पता नहीं इस होली की आग कैसे बढ़ी। यह आग किसने लगाई और किसने हाथ सेके। ये तो राम जाने या फिर सरकार जाने। अब इस खून की होली का बुरा तो हम मानेंगे ही। इस खूनी होली में पचास से ऊपर लोग मारे गये, हिन्दू भी और मुसलमान भी। दो महीने से शांतिपूर्ण ढंग से दस से ज्यादा जगह चल रहा आंदोलन कैसे एकाएक और वह भी एक ही जगह हिंसक बना दिया गया। बनाया गया या अपने आप ही बन गया, यह भी राम जी को ही पता है या फिर सरकार जी को पता है। पर चाहे स्वयं बना हो या फिर बनाया गया हो, बुरा न मानने का कोई कारण तो नहीं है ।

कपिल मिश्रा जी तो अपने समर्थकों के साथ, जिस दिन ट्रम्प जी अहमदाबाद में थे, उसी दिन दिल्ली में दिल्ली पुलिस से बहुत ही शांत स्वर में विनम्र निवेदन कर रहे थे कि जाफराबाद में रास्ता खुलवा दो, नहीं तो जो कुछ होगा उसके हम जिम्मेदार नहीं होंगे। अब उनकी आवाज में ही सूर्यवंशी बुलंदी है तो वे क्या कर सकते हैं। जब वे बोलते हैं तो उनके अनुयायियों को लगता है कि वे युद्ध की दुदुंभी बजा रहे हैं। तो फिर उनके अनुयायियों ने महाभारत तो मचाना ही था। इस सबमें उनकी, कपिल मिश्रा जी की क्या खता। होली के चक्कर में सरकार और उसकी पुलिस कपिल मिश्रा और उनके अनुयायियों के किये का भले ही बुरा न माने, लेकिन हम तो बुरा मानेंगे ही।

खैर, कपिल मिश्रा ने तो शायद तीन दिन का समय दे भी दिया था पर उनके समर्थक बिल्कुल भी समय देने के लिए तैयार नहीं थे। कपिल मिश्रा साहब की तो बिल्कुल भी गलती नहीं है। क्या करें, आजकल समर्थक ही ऐसे हो गये हैं, बिलकुल रामभक्त टाइप। इधर रामजी के मुख से निकला नहीं, उधर वानर उत्पात मचाने को तैयार। तभी तो अनुराग ठाकुर ने गोली मारने का आह्वान किया और कोई वानर पिस्तौल लेकर निकल पड़ा गोली चलाने, जामिया के लिये। जब रामभक्त ऐसे होंगे तो बुरा तो हम मानेंगे ही।

खैर दंगा हुआ, तीन सौ से अधिक लोगों का खून बहा। पचास से अधिक मारे गये और ढाई सौ से अधिक घायल हो गये। हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति स्वाहा हो गई। दंगों में अपना घर बार गंवा चुके हजारों लोग अभी तक शिविरों में रह रहे हैं। दिल्ली सरकार दंगा पीड़ितों को कंपन्सेशन दे रही है, उनके लिए शिविर लगा रही है। पर जब लोग मर रहे थे दिल्ली के मुख्यमंत्री और मंत्री क्या कर रहे थे। जो वे कर रहे थे उसका बुरा तो हम मानेंगे ही।

जब दंगों में लोग मर रहे थे, घायल हो रहे थे, लोगों के मकान और दुकान जलाये जा रहे थे, तब केजरीवाल महोदय अपने कैबिनेट मंत्रियों के साथ राजघाट पर बैठे थे। वे दंगे हो रही जगह से मीलों दूर, गांधी समाधी पर, दंगे खत्म करने के लिए धरना कर रहे थे। वह तो गांधी समाधि बाद में बनी नहीं तो गणेश शंकर विद्यार्थी भी कानपुर में नहीं, यहां गांधी समाधि पर ही अनशन कर दंगे समाप्त करवा रहे होते।

अंग्रेजों ने कनाट प्लेस बनवाया, राष्ट्रपति भवन बनवाया, इंडिया गेट बनवाया। अगर गांधी समाधि भी बनवा जाते तो कितनी सहूलियत होती। और किसी को होती या न होती पर महात्मा गांधी को तो अवश्य ही होती। गांधी जी को इतने बुढ़ापे में दंगे शांत करने के लिए बिहार में, नौआखली में, दिल्ली में, सब जगह इधर उधर भटकना तो नहीं पड़ता। गांधी जी बस गांधी समाधि पर अनशन करते और दंगे कंट्रोल।

केजरीवाल द्वारा दंगे नियंत्रण करने के लिए गांधी समाधि पर अनशन करना इतना बुरा नहीं लग रहा है पर ये जो अंग्रेजों ने गांधी समाधि गांधी जी के रहते हुए नहीं बनवाई और गांधी जी को उन्नीस सौ सैंतालीस में सांम्प्रदायिक दंगे खत्म कराने के लिए इधर उधर बहुत भटकना पड़ा, होली के इस मौसम में हमें यह ज़रूर बुरा लग रहा है।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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