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डॉ. मनमोहन सिंह: क्या भूलें–क्या याद करें

मनमोहन सिंह ने विश्व के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से पढ़ाई की पर इकोनॉमिक्स में की, ‘एंटायर इकोनॉमिक्स’ में नहीं।
Manmohan singh

सरदार जी चले गए। वह दस वर्ष तक देश के सरदार थे पर कभी गुमान नहीं किया। कभी खुद को देश या फिर देश को खुद नहीं समझा। दस वर्ष प्रधानमंत्री रहे और पांच वर्ष देश के वित्तमंत्री, पर जब नहीं रहे तो भूतपूर्व नहीं, अभूतपूर्व माने गये।

उन्होंने विश्व के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से पढ़ाई की पर इकोनॉमिक्स में की, एंटायर इकोनॉमिक्स में नहीं। उनकी एमए और पीएचडी, दोनों ही इकोनॉमिक्स में थीं। पढ़ने के बाद जब उन्होंने पढ़ाना शुरू किया तो पढ़ाई भी इकोनॉमिक्स ही। देश को इतना पढ़ा लिखा प्रधानमंत्री न उनसे पहले मिला था और न ही उनके बाद मिला है।

बताया जाता है, वे गरीब भी थे। उनका बचपन गरीबी में बीता था पर उन्होंने उसका गुणगान नहीं किया और न ही जनता के बीच उसका रोना रोया। उनकी माँ छुटपन में ही गुजर गईं थीं पर उसकी सहानुभूति भी उन्होंने जनता से नहीं पानी चाही। वे अल्पसंख्यक समुदाय से आते थे पर वे इसका जिक्र तक नहीं करते थे। वह किसी एक जाति, समुदाय या धर्म के प्रधानमंत्री नहीं थे। वे तो पूरे देश के प्रधानमंत्री थे। वह सरदार, किसी जाति, समुदाय या धर्म का सरदार नहीं, पूरे देश का सरदार था। कोई उसपर तोहमत नहीं लगा सकता कि उन्होंने जो किया, अपने प्रदेश, अपनी जाति, अपने समुदाय या अपने धर्म के लिए किया। उन्होंने तो जो किया, पूरे देश के लिए किया। उनकी कोशिश किसी एक धर्म का ह्रदय सम्राट बनने की नहीं थी, वे पूरे देश के ह्रदय सम्राट बने।

अर्थशास्त्र उनका स्ट्रांग पॉइंट था। हालांकि उनकी आर्थिक नीतियों को लेकर तमाम असहमतियां और विरोध हो सकता है, लेकिन उनका सबसे अधिक योगदान इकोनॉमिक्स में ही रहा। जब पढ़ाई तो इकोनॉमिक्स पढ़ाई और जब मौका मिला तो देश की इकॉनमी बढ़ाई। योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में, रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में औऱ बाद में वित्तमंत्री और फिर प्रधानमंत्री के रूप में भी। उसके कार्यकाल में देश की जीडीपी निर्बाध रूप से सात आठ प्रतिशत और कभी कभी तो उससे अधिक गति से बढ़ती रही और उसके लिए उन्हें आंकड़ों में हेरा फेरी भी नहीं करनी पड़ी।

उनकी योजनाओं ने देश में सत्ताइस करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर निकला। मतलब इतने लोगों को मुफ्त के अनाज की जरूरत नहीं रही। अब फिर से अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज की जरूरत आन पड़ी है। यह संख्या पिछले कई वर्षों से कम ही नहीं हो रही है। यह संख्या वर्षों से वहीं की वहीं, अस्सी करोड़ पर ही टिकी है। उसने बिना यह जाने समझे हुए कि वह उसका बन कर नहीं रहेगा, उसका गुणगान नहीं करेगा, एहसान फरामोश बन कर ही रहेगा, देश में एक बहुत बड़ा मध्य वर्ग भी तैयार किया। यह उनके द्वारा तैयार किये गए मध्य वर्ग की संख्या ही है जिसकी वजह से आज सारे मल्टीनेशनल भारत में पैसा लगाने के लिए तैयार हैं।

उनकी सरकार ने लोगों को बहुत सारे अधिकार भी दिए। हालांकि इसमें वाम दलों का बड़ा योगदान रहा। यूपीए-1 की उनकी सरकार वाम दलों के सहयोग से ही बनी थी। इस दौरान जनता को सूचना का अधिकार, पढ़ने का अधिकार, भोजन का अधिकार, काम का अधिकार, आदि मिले। जितने अधिकार देश को इस सरकार ने दिए उससे अधिक अधिकार देश को सिर्फ संविधान ने ही दिए हैं। आज जब देश में सारे अधिकार छीने जा रहे हैं तो सरदार जी बहुत याद आएंगे।

सरदार जी कम बोलते थे। बस चुपचाप काम करते थे। कम बोलना उनके अधिक जानने की निशानी थी। रोज रोज हर समय बोलने वाले लोग तो बकवास ही करेंगे ना। 'थोथा चना, बाजे घना'। कभी किसी की बुराई करेंगे, कभी किसी को गाली देंगे। जनता को नित नए जुमले सुनाएंगे और बे सिर पैर के वायदे करेंगे। पर सरदार जी ने यह सब नहीं किया। और जहाँ तक बोलने की बात है, न जाने कितनी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर लीं। प्रेस कॉन्फ्रेंस में हर प्रश्न का जवाब दिया। उनके प्रधानमंत्री न रहने के बाद बातें जितनी भी हुई हों, प्रेस कॉन्फ्रेंस एक भी नहीं हुई।

हमारे सरदार जी भले ही स्वयं अधिक नहीं बोलते थे पर उनके शासन में बाकी सब को बोलने की आजादी थी। और सब खूब बोले भी। टीवी पर, अख़बार में, अन्यथा भी, सभी खूब बोले और सरकार की खूब आलोचना की। प्रदर्शन हुए, जुलूस निकाले गए। सरदार जी ने कभी किसी को देशद्रोही नहीं कहा। किसी के घर ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स नहीं भेजी। किसी को ख़ालिस्तानी, पाकिस्तानी नहीं कहा। हालांकि यूएपीए जैसे क़ानून को और सख़्त किया, जिसका आज खुलकर दुरुपयोग हो रहा है। इसलिए इसके लिए उनकी भी आलोचना ज़रूरी है।

सरदार जी ने देश का पार्टिशन देखा था, उसकी दरिंदगी देखी थी। खुद उनके दादा जी पार्टिशन के दंगे में मारे गए थे। उन्होंने उसका दर्द पाला, नफ़रत नहीं पाली। आज के नफ़रती माहौल में, जब हर व्यक्ति बिना वजह अपने मन में नफ़रत पाले हुए है, सरदार जी का जीवन बहुत ही मौजू है।

सरदार जी को अपने को सरदार कहलाना पसंद नहीं था। वे अपने को डॉक्टर मनमोहन सिंह कहलाना पसंद करते थे। सरदार से उनका धर्म पता चलता था और डॉक्टर से उनकी विद्वता। एक विद्वान व्यक्ति अपनी विद्वता से पहचाना जाना चाहता है न कि अपने धर्म से। वैसे भी आज जब हर एक अपनी धार्मिक पहचान को ले कर पागल हुआ है, डॉक्टर मनमोहन सिंह का विद्वता को लेकर आग्रह प्रशंसनीय था।

ऐसे थे हमारे डॉक्टर मनमोहन सिंह। हमारे देश के 13वें प्रधानमंत्री। बृहस्पतिवार, 26 दिसंबर को हमारे बीच नहीं रहे। उनकी और उनके शासनकाल की बहुत सारी यादें हैं। अच्छी और बुरी दोनों। क्या भूलें क्या याद करें। लेकिन फ़िलहाल इतना ही…

(लेखक एक व्यंग्यकार और पेशे से चिकित्सक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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