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तिरछी नज़र: रेवड़ी छोड़ो, रबड़ी बांटो

मुफ़्त में आप रबड़ी बांट सकते हैं, काजू कतली बांट सकते हैं, और भी महंगी महंगी मिठाइयां बांट सकते हैं। पर रेवड़ी नहीं।
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कार्टून साभार: patrika

एक कहावत है, 'अंधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर अपने को दे'। इस कहावत को असंसदीय कहा जा सकता है। अभी कुछ दिन पहले ही असंसदीय शब्दों की जो सूची जारी की गई थी उसमें यह कहावत भी शामिल थी।

वैसे दिक्कत यह नहीं है कि न देख पाने वालों को अंधा कह दिया गया। यह कहावत तो सदियों से चली आ रही होगी। वैसे दिक्कत तो शायद यह भी नहीं है कि आंखों वाले को अंधा कह दिया गया कि वह जान बूझ कर बार बार अपने भाई बंधुओं को ही रेवड़ियां बांट रहा है। असली दिक्कत तो रेवड़ियां बांटने में ही है। और वह भी मुफ्त में बांटने में है। गरीबों को बांटने में है।

मुफ्त में आप रबड़ी बांट सकते हैं, काजू कतली बांट सकते हैं, और भी महंगी महंगी मिठाइयां बांट सकते हैं। पर रेवड़ी नहीं। रेवड़ियां बांटने से क्या होगा। यही ना कुछ वोट मिल जाएंगे। पर उन वोटों को पाने के लिए कितनी आलोचना झेलनी पड़ती है। जिसने अट्ठन्नी भी टैक्स में दी हो, वह भी भिनभिनाने लगता है। मेरे टैक्स के पैसे से किसानों का कर्ज माफ किया जा रहा है, मेरे टैक्स के पैसे से जेएनयू चलाई जा रही है, मेरे टैक्स के पैसे से गरीबों में खैरात बांटी जा रही है।

चलो, इन टैक्स पेयर्स की बात तो छोड़ो, अब तो सरकार जी भी दूसरों द्वारा रेवड़ी बांटने की आलोचना करने लगे हैं। सरकार जी समझदार हैं। कहते हैं, अगर मुफ्त की रेवड़ी बांटूंगा तो मैं ही बांटूंगा। किसी और को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का कोई अधिकार नहीं है। बांटने की तो छोड़ो, मेरे अलावा किसी और को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का वायदा करने का भी कोई अधिकार नहीं है। यह सब बस सरकार जी ही कर सकते हैं।

रेवड़ियां खिलाने से क्या होगा? यही ना कुछ वोट मिल जाएंगे। पर रस मलाई खिलाओगे तो बहुत कुछ मिलेगा। अब अगर कॉरपोरेटस् के कॉरपोरेट टैक्स के एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपए माफ करोगे तो उसमें से कुछ तो मिलेगा ही ना। मान लिया, ईमानदारी की हवा बनाई हुई है पर अगर कोई कुछ भी न दे तो काम कैसे चलेगा। ठीक है, ईमानदारों की सरकार है, बीस नहीं तो दस परसेंट तो मिलेगा ही ना। और कोई प्रेम पूर्वक, जबरदस्ती देगा तो रखना भी पडे़गा।

अगर किसी का दस हजार करोड़ का बैंक लोन माफ करोगे, बट्टे खाते में डालोगे, बैंकों में जमा जनता के पैसे से दिलवाओगे, तो वह भी कुछ न कुछ तो आपको देगा, श्रद्धा पूर्वक देगा। और उस पैसे से आपकी जो मर्जी हो, वह करो। रैलियां करो, रोड शो करो, वोट खरीदो। यानी जो इच्छा हो करो, कोई पूछने वाला नहीं है।

जिसे मुफ्त में रेवड़ी खिलाओगे वह बेचारा आपको देगा भी क्या। वोट के अलावा उसके पास देने के लिए है ही क्या। और उसका वोट पाने के लिए भी बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। चुनावी रैलियों में उसे बार-बार याद दिलाना पड़ता है कि हमने तुझे मुफ्त में गेहूं दिया है, चावल दिए हैं, दाल भी दी है। और तो और नमक भी दिया है। और कुछ नहीं तो नमक का कर्ज ही अदा कर दो। पर वह मुफ्त की रेवड़ियां भी खाएगा और वोट अपने मन से डाल आएगा। इसीलिए सरकार जी इन मुफ्त की रेवड़ियों के इतना खिलाफ हैं।

लेकिन जिन्हें मुफ्त में रबड़ी खिलाई जाएगी, काजू कतली बांटी जाएगी, रस मलाई चखाई जाएगी, वह तो हर समय तैयार रहेगा। वोट के पहले भी, वोट के दौरान भी और वोट के बाद भी। उनके सहयोग से चुनावी रैली करो, रोड शो करो, चुनाव में उनके जहाज और हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल करो। वोटिंग के समय पहले तो उनसे अपने लिए वोट खरीदवाओ और फिर वोट के बाद विधायक। खरीदे गए विधायकों के लिए चार्टर प्लेन, रिसोर्ट और फाइव स्टार होटल, इस सब का इंतजाम वे नहीं करेंगे जिन्होंने रेवड़ी खाई है, वे ही करेंगे जिन्होंने रबड़ी, काजू कतली और रस मलाई खाई है।

इसीलिए सरकार जी भी रेवड़ी बांटने के खिलाफ हैं, रबड़ी, काजू कतली या रस मलाई के नहीं। इसीलिए न्यायालय ने भी रेवड़ी बांटने पर विचार करने के लिए कहा है रबड़ी, काजू कतली और रस मलाई बांटने पर नहीं। इसीलिए हम टैक्स पेयर्स भी रबड़ी, काजू कतली और रस मलाई बांटने के खिलाफ नहीं हैं, सिर्फ रेवड़ी बांटने के खिलाफ हैं।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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