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तुम से यह नहीं हो पाया, बबुआ!

बबुआ, यह सरकार जी की वाह! वाह! करना और विपक्षियों की हाय! हाय! करना, सरकार जी की हर हाल में बड़ाई करना और विरोधियों की बुराई करना, यह चाटुकारिता करना, तलवे चाटना, सबके बस की बात नहीं है। जो नहीं कर सकते, उन्हें जाना ही पड़ता है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

हमने तो पहले ही कहा था, 'तुमसे नहीं हो पाएगा, बबुआ। यह पत्रकारिता, ऐसी पत्रकारिता तुम्हारे बस की बात नहीं है'। और तुम कर ही नहीं पाए। छोड़ कर चले गए। बबुआ, यह सरकार जी की वाह! वाह! करना और विपक्षियों की हाय! हाय! करना, सरकार जी की हर हाल में बड़ाई करना और विरोधियों की बुराई करना, यह चाटुकारिता करना, तलवे चाटना, सबके बस की बात नहीं है। जो नहीं कर सकते, उन्हें जाना ही पड़ता है।

वैसे तो मीडिया पर कब्जा करने की बात नई नहीं है। मीडिया पर कब्जा हो तो शासन करना बहुत आसान होता है। एक बार मीडिया कब्जा लिया तो जो करना है, करो। सवाल पूछने वाला कोई नहीं। आम जनता की सुध लेने वाला कोई नहीं। यह देश पर निरंकुश शासन करने की आदर्श स्थिति होती है। सरकार जी ऐसी ही स्थिति चाहते हैं। और सरकार जी ही नहीं, हर सरकार ऐसी ही स्थिति चाहती है।

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। एमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने भी ऐसा ही किया था। पर तब उनका काम आसान था। एक तो एमरजेंसी लगा दी थी, और दूसरे उस समय था ही क्या? टीवी पर एक ही ही चैनल था-दूरदर्शन, जो पहले से ही सरकारी था, सरकारी भोंपू था। रेडियो भी सरकारी ही था। ले दे कर बस अख़बार ही तो थे जिन्हें मैनेज करना था। इंदिरा गांधी ने कुछ अखबारों के पत्रकारों को जेल में क्या डाला कि शेष खुद ही रेंगने लगे थे। 

पर आजकल मीडिया मैनेजमेंट कितना मुश्किल काम है। मीडिया कितना बड़ा हो गया है। सरकार जी को कितना परिश्रम करना पड़ रहा है इस काम के लिए। सरकार जी ने तो आपातकाल की घोषणा भी नहीं की हुई है। ऐसे अघोषित आपातकाल में मीडिया मैनेजमेंट और भी मुश्किल है। और उस पर इतने सारे न्यूज़ चैनल। उनके इतने सारे पत्रकार। किस किस को सेट करो? कैसे सेट करो? सेट करते करते थक जाओ। पर सरकार जी ने तुम्हें सेट करने का रास्ता ढूंढ ही लिया।

सरकार जी ने अपने ऐसे मित्र से, जिसे सरकार जी कुछ भी बेच सकते हैं और जो कुछ भी खरीद सकता है, जो सरकार जी को भी खरीद सकता है, कहा कि अगर पत्रकार नहीं बिकता है तो चैनल ही खरीद लो, चैनल को चलाने वाली कम्पनी ही खरीद लो। पत्रकार बिकाऊ न सही, कम्पनी तो बिक सकती है ना। तो सरकार जी के मित्र ने चैनल को चलाने वाली कम्पनी खरीद ली। संजीवनी बूटी नहीं मिली तो पर्वत ही उठा लिया।

अभी सरकार जी गुजरात में बिजी हैं। चुनाव थे तो बिजी तो रहना ही है। चुनाव प्रचार में सरकार जी ने एक चुनावी रैली निकाली। पचास किलोमीटर से भी अधिक लम्बी रैली। परन्तु कुछ पत्रकार यह नहीं बताएंगे कि कितनी अभूतपूर्व, एतिहासिक और भव्य रैली थी। और न ही यह बताएंगे कि सरकार जी ने कैसे रैली में अपनी कार साइड में लगवा कर एक एंबुलेंस को रास्ता दे दिया। सरकार जी चुनाव के समय ऐसा जरूर करते हैं, शायद तीसरी बार किया है। इससे सरकार जी की संवेदनशीलता, मानवता दिखाई देती है। चुनाव के समय जनता को यह सब दिखाना जरूरी होता है।

परन्तु ऐसे पत्रकार, जिनसे होता नहीं है, वे इसमें भी कुछ न कुछ ढूंढ ही लेंगे। उन्हीं पत्रकारों के लिए मैंने लिखा है, 'बबुआ तुम से न हो पाएगा'। उनसे चापलूसी नहीं हो पाएगी। वे गोदी में नहीं बैठ पाएंगे। वे तो इतनी मासूम सी घटना में भी यह ढूंढ कर ले आएंगे कि इससे पहले सरकार जी ने कब कब और कहां कहां एंबुलेंस के लिए अपनी सवारी रोकी थी। और यह भी कि कब कब, कितनी बार, कहां कहां सरकार जी के काफिले की वजह से एंबुलेंस फंसी रही थी। वे सिद्ध करे देंगे कि एंबुलेंस फंसती ज्यादा है और निकलती कम है। और निकलती है तो सिर्फ़ चुनाव के समय ही निकलती है।

वे, जिनसे चापलूसी भी ढंग से नहीं होती है, ढंग की पत्रकारिता करने निकले हैं। वे एंबुलेंस वाले प्रकरण में सुरक्षा में चूक ढूंढेंगे। और यह भी बताएंगे कि ऐसी सदाशयता, ऐसी विनम्रता सरकार जी सिर्फ चुनाव के आस पास ही दिखाते हैं। और संभव होगा तो यह भी सिद्ध कर देंगे कि एंबुलेंस तो खाली थी, उसमें कोई मरीज ही नहीं था। लेकिन अच्छा हुआ, सरकार जी की इस रैली को 'प्राइम टाइम' में दिखाने से पहले ही, अनावश्यक प्रश्न उठाने से पहले ही, जिनसे नहीं हो पाया, उनसे सरकार जी को निजात मिल गई।

लेकिन जिनसे नहीं हो पा रहा है, जो सरकार जी की जी हुजूरी नहीं कर पा रहे हैं, जो सरकार की बढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं, जो असलियत से मुंह नहीं मोड़ पा रहे हैं, वे एक नहीं, अनेक हैं। केवल दिल्ली में नहीं, चारों ओर फैले हुए हैं। बबुआ, तुम तो दिल्ली में हो, इसलिए चैनल छोड़ कर ही बच गए। किसी छोटे शहर में होते तो जेल में सड़ रहे होते। तुम भी लिंगा कोडो़पी की तरह आदिवासियों पर हो रहे ज़ुल्म पर लिख कर, या फिर कप्पन की तरह हाथरस की रिपोर्ट लिखने जाते हुए, रास्ते में ही गिरफ्तार हो, जेल में सड़ रहे होते। या फिर पवन जायसवाल की तरह मिड डे मील की सच्चाई बता जेल में कैंसर का शिकार हो उचित निदान और उपचार से वंचित हो परलोक सिधार गए होते।
 
सभी से नहीं हो पाया। बबुआ, तुम्हारे से, इन सभी से, और भी अनेकों से नहीं हो पाया। तुम्हारे से पहले भी बहुतों से नहीं हो पाया और तुम्हारे बाद भी बहुतों से नहीं हो पाएगा। अभी बहुत से हैं, जिनसे नहीं हो पा रहा है। सरकार जी सफाई करने निकले हैं। पत्रकारिता में सफाई करने निकले हैं। जिनसे ढंग से नहीं हो पाएगा, उन सबकी सफाई करने निकले हैं। इस सफाई अभियान में देखते हैं, कौन बच पाता है, कौन टिक पाता है और कौन संभल पाता है।

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