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तिरछी नज़र: कहानी एक प्रतिभावान बालक की

मैं तो एक पुरानी कहानी को सुना रहा हूं। किसी को इस कहानी में कोई आज की अनुगूंज लगे, आज की कोई घटना दिखाई दे, तो उसमें लेखक की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।

तिरछी नज़र: कहानी एक प्रतिभावान बालक की
थंबनेल कैप्शन- सांकेतिक तस्वीर

कहानी बहुत पुरानी है। अंग्रेजों के जमाने से भी पहले की। शायद मुगलों के काल से भी पहले की रही हो। पुराने अभिलेखों को खोजते हुए मुझे कहीं दबी मिल गई थी। बस मैं तो उस कहानी को सुना रहा हूं। किसी को इस कहानी में कोई आज की अनुगूंज लगे, आज की कोई घटना दिखाई दे, तो उसमें लेखक की कोई जिम्मेदारी नहीं है। इसमें उसी व्यक्ति का दृष्टि दोष होगा। उसे ही अपनी नज़र का इलाज करवाना चाहिए।

हां तो, घटना उस काल की है जब जंबू द्वीप के भारत खंड में सरकार जी नाम के राजा का राज होता था। उस समय सरकारी नौकरियों का अकाल था, नौजवानों में बेरोज़गारी बेइंतहा बढ़ रही थी। इसलिए सरकार जी भी स्व रोजगार को बढ़ावा दे रहे थे। उसी काल में एक मंत्री पुत्र बालक हुआ। यह कहानी उसी प्रतिभावान बालक की है।

उस उम्र में जब बच्चे कॉलेज के प्रथम वर्ष में पहुंचते हैं, या फिर बारहवीं कक्षा में ही होते हैं, उस प्रतिभावान बालक ने देश की राजधानी से कहीं दूर, एक समुद्र तट के किनारे पर एक रेस्तरां खोल लिया था।

वह बालक संस्कारवान था। वैष्णव संस्कार उसे अपने पिता और नाटक कंपनियों से भरपूर मिले थे। उसने जो रेस्तरां खोला था उसमें निरा शाकाहारी भोजन ही मिलता था। नाम भी कुछ ऐसा ही था, श्री शुद्ध वैष्णव भोजनालय। सिर्फ शाकाहारी भोजन मिलता था तो रेस्तरां खास नहीं चलता था। लोग रेस्तरां के बाहर लगा बोर्ड देख कर ही लौट जाते थे। धीरे धीरे रेस्तरां के काम में घाटा बढ़ने लगा।

बालक उद्यमी था। घाटे का सौदा बर्दाश्त नहीं कर सकता था। बालक परेशान रहने लगा। परिवार कट्टर हिन्दू था। इतना कट्टर कि गोश्त खाने के नाम पर ही बिदक जाता था। गोश्त खाने वालों को मरने मारने के लिए तैयार हो जाता था। बालक करता तो क्या करता। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। एक ओर धर्म और दूसरी ओर व्यापार। उसकी परेशानी देख, उसके पिता ने, जो सरकार जी के दरबार में मंत्री भी थे, उसे समझाया। पुत्र, धर्म अलग है और व्यापार अलग। धर्म का व्यापार भी करो और धर्म की राजनीति भी। पर अगर धर्म व्यापार के या फिर राजनीति के रास्ते में आए तो ऐसे में व्यापार या राजनीति को नहीं, धर्म को छोड़ देना चाहिए। असली धर्मपरायण व्यक्ति वही होता है जो धर्म का साथ तभी तक ले जब तक वह आपके कार्य में सहायक हो।

बेटा पिता जितनी ही चतुर था। वह पिता का आशय समझ चुका था। उसने अपने रेस्तरां का नाम श्री शुद्ध वैष्णव भोजनालय से बदलकर कुछ नया, आधुनिक, मार्डन सा रख लिया। और फिर गोश्त भी परोसा जाने लगा। रेस्तरां में मांस, मुर्गा, मछली, सब कुछ बनने और मिलने लगा। काम कुछ बढ़ा तो सही पर उतना नहीं कि एक उद्यमी, महत्वाकांक्षी व्यक्ति संतुष्ट हो जाए। कुछ लोग आते, पर बाहर खड़े गार्ड से से बात कर के ही लौट जाते। पता करने पर पता चला कि जो लोग लौट जाते हैं वे यह कह कर लौट जाते हैं कि बिना शराब के मीट का क्या मजा?

शराब परोसने में तो धर्म भी आड़े नहीं आ रहा था। आखिर देवता और ऋषि मुनि भी तो सोमरस पीते ही थे। वैसे भी रेस्तरां के नाम में 'एंड बार' लग जाए तो उसकी बात ही अलग है। पर एक बड़ी अड़चन जरूर थी। अट्ठारह वर्षीय बालक को कानूनन न तो शराब पीने की इजाजत थी और न ही शराब पिलाने की। और बार का लाइसेंस, वह तो मिल ही नहीं सकता था। बड़ी दिक्कत थी। पर वह दिक्कत ही क्या जो सुलझे नहीं। और मंत्री पुत्र की नहीं सुलझेगी तो किसकी सुलझेगी। तो वह कठिनाई भी सुलझा ली गई। धर्म के सिद्धांतों पर चलते हुए ही सुलझा ली गई।

इस बार तो धर्म को तिलांजलि भी नहीं देनी पड़ी। एक मृत व्यक्ति के नाम पर बार का लाइसेंस ले लिया गया। अरे भाई! शरीर ही तो मरता है, आत्मा तो अजर अमर है। उस व्यक्ति का शरीर ही तो मरा था, आत्मा तो जीवित ही थी ना। तो उस उस मृत व्यक्ति की आत्मा के नाम पर ही बार का लाइसेंस ले लिया गया। रेस्तरां 'एंड बार' बन गया। अब रेस्तरां चल निकला।

यह घटना पुरानी ही है। किसी नई घटना से इसका तनिक भी संबंध नहीं है। और हो भी कैसे सकता है। इसी पुरानी घटना को आधार बनाकर ही तो हरीशंकर परसाई जी ने अपनी कहानी 'वैश्नव की फिसलन' अपने तरीके से आज से कोई पचास साल पहले ही लिख दी थी। उसी घटना को आधार बनाकर मैंने अपने तरीके से संक्षेप में लिखा है। परसाई जी ने जरा आगे तक विस्तार से वर्णन किया है। आप चाहे तो उनकी कहानी पढ़ लीजिए।

(व्यंग्य स्तंभ तिरछी नज़र के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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