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तिरछी नज़र: असंसदीय शब्दों का जंजाल

सरकार जी में खूबियां तो बहुत हैं। इतनी कि गिनाए न गिनें। बस यह असंसदीय शब्दों और मुहावरों का जंजाल फंस गया है।
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कार्टूनिस्ट मंजुल के ट्विटर हैंडल से साभार

सदन में असंसदीय शब्दों की सूची जारी की गई है। जिन्हें सम्माननीय सदस्य सदन में नहीं बोल सकते हैं। यदि बोलते हैं तो उन शब्दों को सदन की कार्यवाही से निकाला जा सकता है। हां, उन शब्दों का आम आदमी इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन सदन में नहीं। वैसे भी आम आदमी की सदन तक पहुंच ही कहां है। सदन तक उसकी न तो पहुंच है और न ही वहां उसके बारे में कोई बात होती है। 

सरकार जी ने न सिर्फ हमारे से इन शब्दों को छीना है बल्कि सरकार जी की कोशिश तो हम से हमारी भाषा ही छीन लेने की है, हमारी आवाज ही छीन लेने की है। अब तक हम सरकार जी को निकम्मा, नकारा, जुमलाजीवी, तानाशाह, झूठा, कुछ भी कह सकते थे लेकिन अब नहीं कह सकते हैं। कह सकते हैं तो महान कह सकते हैं, कर्तव्य परायण कह सकते हैं, सबका साथ-सबका विकास करने वाला कह सकते हैं, मेहनती कह सकते हैं, साहसी कह सकते हैं, सत्यवादी कह सकते हैं, इतिहास और विज्ञान का ज्ञाता कह सकते हैं, गरीबों का मसीहा कह सकते हैं। जब हम यही कह सकते हैं, तो चलो, हम यही कहते हैं। 

सरकार जी बहुत ही महान हैं। सरकार जी ने निश्चय किया है कि हर चीज को उसका उचित स्थान दिला कर ही रहेंगे। सरकार जी के सरकार जी बनने से पहले सब्जियों का समाज में वह स्थान कहां था जो आज सरकार जी के सरकार जी बनने के बाद है। पहले लोग कितनी सस्ती सस्ती सब्जियां खाते थे।‌ ये जो हरी सब्जियां आज अस्सी सौ रुपए किलो तक मिलती हैं तब जब सरकार जी सरकार जी नहीं थे, इनकी वकत इतनी कम थी कि मात्र बीस पच्चीस रुपए किलो तक ही मिल जाया करती थीं। यहां तक कि गरीब आदमी भी इनको खाने से कतराता था कि ये घास-फूस क्या खाना। सिर्फ बीमार और कमजोर पाचनशक्ति वाले लोग ही हरी सब्जियां खाया करते थे। सरकार जी और सिर्फ सरकार जी ने ही इन सब्जियों को इनकी सही कीमत दिलवाई है। 

सरकार जी की महानता है कि उन्होंने सबका समान विकास किया है। सरकार जी के काल में केवल सब्जियों का ही नहीं, दालों और तेल का भी विकास हुआ है। सरकार जी ने दालों और तेल को भी उनकी सही कीमत दिलवाई है। चालीस पचास रुपए किलो की दाल खाने में, साठ सत्तर रुपए लीटर का खाद्य तेल खरीदने में न तो खरीददार का सम्मान है और न ही दालों और तेल का। तो सरकार जी ने दालों और खाद्य तेल की कीमतों में भी बेतहाशा वृद्धि कर दी। अब जब दालों और खाने के तेल की कीमत दो सौ रुपए तक पहुंच गई है तो इन्हें खरीदना और खाना, दोनों ही सम्मान की बात है। कहते बनता है कि हम तो रोज ही दाल खाते हैं। हमारे यहां तो घी तेल में छोंक लगाए बिना कोई भी सब्जी नहीं बनती है। अरे भई, हमारे गले से तो देसी घी में चुपड़े बिना रोटी नीचे ही नहीं सरकती है। यह हुई न कोई बात।

तलने का तेल बढ़े और चलने का तेल पीछे रह जाएं, यह सबको साथ लेकर चलने वाले सरकार जी को कैसे भा सकता था। तो पेट्रोल डीजल के दाम भी बढ़े। और जब बढ़े तो माशाअल्लाह, खूब बढ़े। सौ के पार पहुंच कर भी बढ़ते ही जा रहे हैं। रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। जिन लोगों को विकास देखे नहीं दिखाई देता है वे पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के सिलेंडर का विकास देख लें। आंखें फटी रह जाएंगी (इस मुहावरे पर तो रोक नहीं है ना)।

सरकार जी कर्तव्य परायण भी बहुत हैं। सरकार जी ने एक बार ठान लिया कि रुपए की कीमत बढ़ानी है तो बढ़ा कर ही दम लिया। कहां पहले एक डालर में साठ रुपए तक ही मिल पाते थे। अब सरकार जी के अनथक प्रयासों से हम एक डालर में अस्सी रुपए पाने लगे हैं। जिन लोगों के पास डालर पड़े हैं, अभी सम्हाल कर रख लें। जब रुपया और महंगा हो जाए, सौ रुपए तक पहुंच जाए, तब बेच लेना। सब्र करो, यह भी हो जाएगा। और होगा क्यों नहीं, सरकार जी पूरी कोशिश जो कर रहे हैं।

सरकार जी मेहनती भी बहुत हैं। जो एक बार ठान लेते हैं उसके लिए फिर कितनी भी मेहनत करनी पड़े, करते हैं। कितनी मेहनत की है अडानी को ऊपर उठाने में, अम्बानी को ऊपर उठाने में, अन्य कॉरपोरेट को ऊपर उठाने में। उनके बैंकों के कर्जे माफ करने पड़े। लाखों करोड़ रुपए का एनपीए माफ करना पड़ा है। उनके ऊपर कॉरपोरेट टैक्स माफ करना पड़ा। उनके लिए दूसरे देशों से पैरवी करनी पड़ी। दूसरे देशों में जा कर कहना पड़ा कि अडानी की बिजली खरीदो, अडानी को कोयले की खानें दो। सरकार जी ने खूब ही मेहनत की है यह सब करने में। कई बार तो रात रात भर जागते रहे हैं, प्लान बनाते रहे हैं, तब जा कर यह सब नसीब हुआ है। 

और साहस, साहस तो सरकार जी में कूट-कूट कर भरा है। सरकार जी इतने साहसी हैं कि वे सरकारी प्रतीकों से भी छेड़ खानी करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाते हैं। अब देखो, अशोक स्तंभ के शेर भी उसी तरह गुस्से में दिखाई दे रहे हैं जिस तरह सरकार जी गुस्से में दिखते हैं, छोटे सरकार जी गुस्से में दिखते हैं। यह कोई कम साहस का काम नहीं है। ऐसा लगता है कि जैसे ये शेर जब मर्जी दहाड़ पड़ेंगे। ठीक उसी तरह जैसे छप्पन इंच छाती वाले सरकार जी दहाड़ते हैं। ठीक उसी तरह जैसे सरकार जी चीन के खिलाफ दहाड़े थे और चीन डर कर पेनांग झील से सौ किलोमीटर पीछे हट गया था, अरूणाचल प्रदेश के अंदर आ कर बसाया गांव खाली छोड़ कर भाग गया था।

सरकार जी सत्यवादी भी हैं, बहुत ही बड़े सत्यवादी। सरकार जी के बराबर के सत्यवादी सिर्फ अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प हुआ करते थे। पर अब वे भी राष्ट्रपति नहीं रहे। अब इस मामले में हमारे सरकार जी ही विश्व के सिरमौर हैं, विश्वगुरु हैं। माताएं अपने बच्चों को झूठ बोलते देख खुश होती हैं और सरकार जी का उदाहरण देती हैं। सरकार जी के सत्य बोलने का इतना आतंक है कि कोसों दूर तक भी जब कोई बच्चा सच बोल रहा होता है तो माएं उसे डराती हैं कि इतना सच मत बोल, नहीं तो सरकार जी आ जाएंगे। 

सरकार जी गरीबों के परवरदिगार हैं, मसीहा हैं। गरीबों के हित का बहुत ही ध्यान रखते हैं। सरकार जी गरीबों के हित का इतना ध्यान रखते हैं कि उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में ध्यान रखा कि गरीबों की संख्या बढ़े। गरीबी इतनी बढ़े कि लोगों को दाने दाने के लिए सरकार जी पर मोहताज रहना पड़े। सरकार जी ने 'गरीबी हटाओ' जैसे दकियानूसी नारों से ऊपर उठकर सोचा और उनकी संख्या बढ़ाने पर भरपूर ध्यान दिया है और इसके लिए बहुत सारा प्रयास किया है।

इतना सबकुछ होने के साथ-साथ सरकार जी बहुत ही बड़े इतिहासकार और वैज्ञानिक भी हैं। उनके नेतृत्व में ही नये भारत का नया इतिहास रचा जा रहा है। वे ही हैं जो तक्षशिला को बिहार में बता देते हैं और सिकंदर को भी बिहार तक पहुंचा। वे आधुनिक इतिहास के तो बहुत ही बड़े ज्ञानी हैं। नेहरू पटेल की बीच की लड़ाई उन्हीं की खोज है और इसी तरह नेहरू और बोस के बीच का मनमुटाव भी। सरकार जी जल्दी ही अपना मनपसंद इतिहास लिखवाएंगे। विज्ञान में भी उनकी खोजें इतनी अधिक हैं कि उन पर अनेकों पीएचडी हो सकती हैं। पुरातन विज्ञान के ज्ञाता तो वे हैं ही आधुनिक विज्ञान में भी उनकी गहरी पैठ है। रडार विज्ञान, पवन शक्ति, नाले की गैस, पर्यावरण आदि जैसे वैज्ञानिक विषयों पर उनके अनुपम विचार वैज्ञानिकों को उद्वेलित कर देते हैं।

सरकार जी में खूबियां तो बहुत हैं। इतनी कि गिनाए न गिनें। बस यह असंसदीय शब्दों और मुहावरों का जंजाल फंस गया है। सरकार जी एक बार, बस एक बार इन असंसदीय शब्दों का प्रयोग अपने संसदीय भाषणों में कर लें। फिर कुछ भी असंसदीय नहीं रह जाएगा।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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