तिरछी नज़र: चुनाव हो तो दौड़—दौड़ के आऊं
मणिपुर में दंगा भड़का। सरकार जी ने कुछ नहीं किया। अरे भई, दंगा भड़काने के लिए नहीं, दंगा रोकने के लिए कुछ नहीं किया। सरकार जी जानते हैं, दंगा रोकने के लिए कुछ न भी करो तो भी दंगा अपने आप धीमे पड़ जाता है, अपने आप ही रुक जाता है। इस बात का, दंगा भड़कने पर कुछ न करने का, सरकार जी को 2002 से ही एक्सपीरियंस है। सरकार जी जानते हैं, जो कुछ करना होता है, दंगा भड़काने के लिए ही करना होता है। दंगा एक बार भड़क गया तो रुकेगा ही। आखिर लोग कब तक एक दूसरे को मारते रहेंगे। थक हार कर रुक ही जाएंगे। अब चाहे सरकार जी हों या फिर दिल्ली के केजरीवाल, दंगा इसी तरह से रोकते हैं।
अब दंगा रोकने का यही सबसे अच्छा तरीका है कि दंगों को रोका न जाए। आज कल के नेतृत्व को यह पूरी तरह से समझ में आ गया है। पहले की तरह से तो है नहीं, यह गांधी-नेहरू का जमाना तो है नहीं, कि दंगाग्रस्त इलाके में पहुंच जाओ और बोलो कि दंगाइयों, पहले मुझे मारो, फिर किसी और को मारना। और ना ही गणेश शंकर विद्यार्थी का जमाना है। आज का नेता तो डरा हुआ है। उसे अपने आप पर ही विश्वास नहीं है। क्या पता दंगाइयों ने उसे ही मार दिया तो। वह तो छोटे छोटे बच्चों से भी कटींली तारों के पीछे से मिलता है।
मणिपुर में दंगा हुआ। पचास साठ लोग मारे गए। पर सरकार जी वहां नहीं गए। दंगों के बारे में बोला तक नहीं। पर मणिपुर के लोगों, तुम नाराज मत होओ। तुम्हारे यहां दंगा ही तो हुआ था, चुनाव तो नहीं थे ना। सरकार जी चुनाव में ही जाते हैं, रैली करने और रोड शो निकालने जाते हैं। चुनाव से पहले घोषणाएं करने भी जाते हैं। रैली तो चुनाव में ही होती है, दंगों में नहीं। रोड शो भी चुनाव वाले इलाके में ही किया जाता है, दंगाग्रस्त इलाके में नहीं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी मणिपुर दूर है, इसलिए नहीं गए। वे तो दिल्ली में भी दंगा शांत करने नहीं गए थे जबकि वे स्वयं वहीं, दिल्ली में ही रहते हैं।
मणिपुर वासियों, सरकार जी एक जान हैं और उनकी एक जान को लाखों काम हैं। सबसे बड़ा काम तो चुनाव जीतना ही है। चुनाव जीते हैं तभी तो सरकार जी बने हैं। इसीलिए वे चुनाव जीतने का महत्व समझते हैं। मणिपुर में दंगा कब हुआ? तब हुआ जब कर्नाटक में चुनाव था। तो सरकार जी के लिए महत्वपूर्ण क्या था, दंगा या चुनाव? क्या कोई और टाइम नहीं मिला था दंगा करने के लिए। अब कर्नाटक में चुनाव प्रचार खत्म हुआ तो राजस्थान में कार्यक्रम। वहां मंदिर में दर्शन करना था और चुनाव से पहले की घोषणाएं करनी थीं। वहां भी चुनाव होने वाले हैं। मणिपुर में तो चुनाव हाल ही में हुए हैं, अगले चुनाव अभी दूर हैं। आएंगे, मणिपुर भी आएंगे। जरूर आएंगे। मौका मिला तो लोकसभा चुनाव से पहले आएंगे। वोट मांगने आएंगे।
सरकार जी को चुनाव ही एक मात्र काम नहीं है। वह तो काम है ही नहीं। चुनाव तो सरकार जी की रग रग में बसा है। जैसे कण कण में भगवान वैसे ही रग रग में चुनाव। विदेश जाते हैं तो वहां भी चुनावी भाषण जैसा भाषण ही देते हैं। विदेश में भी पिछली सरकारों और विपक्षियों को गरियाते हैं। आखिर वे करें भी क्या? यहां चुनाव लड़ते हुए जाते हैं और लौट कर भी चुनाव ही लड़ना होता है। देखकर तो यही लगता है कि सरकार जी को सिर्फ चुनाव का ही काम है। ये जो विकास की, डेवलपमेंट की थोड़ी बहुत घोषणाएं होती हैं ना, चुनाव के कारण ही होती हैं और उन्हीं राज्यों में होती हैं जहां चुनाव होने वाले हों। ये सब चुनावी सौगात ही तो हैं।
सिर्फ चुनाव ही नहीं हैं सरकार जी की व्यस्तता का कारण, जिसके कारण मणिपुर जाने की बात तो छोड़ो, वहां का जिक्र तक नहीं कर पाए, वहां हो रहे दंगों पर चिंता तक नहीं जता पाए। सरकार जी अब फिल्मों का प्रमोशन भी करने लगे हैं। क्या करें, जब कोई फिल्म प्रोपेगेंडा के लिए बनती है तो उसका प्रमोशन भी करना ही पड़ता है। फिल्म आपके फायदे के लिए बने, आपकी राजनीति को सूट करे और आप ही प्रमोट न करें तो चल गई फिल्म। और फिल्म नहीं चलेगी तो कोई बनायेगा ही क्यों? सरकार जी ने पहले 'कश्मीर फाइल्स' प्रमोट की थी तो आजकल 'केरला स्टोरी' प्रमोट करने में बिजी हैं।
मणिपुर निवासी भाइयों और बहनों, ऐसा मत समझो कि सरकार जी को आपके दुख दर्द से कोई सरोकार ही नहीं है, उन्हें आपके मन की बात से भी मतलब नहीं है। लेकिन उन्हें आपके मन की बात से अधिक अपनी मन की बात से मतलब है। उन्होंने अभी हाल में ही अपने मन की बात सौवीं बार की है। अपने मन की बात सुनाने से फुरसत मिले तो आपके मन की बात सुनें, आपके यहां हो रहे दंगों का हाल जानें। कुछ आपका दुःख सुनें, कुछ आपका दर्द समझें।
सरकार जी को और भी बहुत सारे काम हैं। कम से कम चार बार तो कपड़े ही बदलने पड़ते हैं। वह तो कोई ही दिन ऐसा जाता है, जैसे लम्बे आठ दस घंटे के रोड शो वाला दिन, जब कम बार कपड़े बदल सकें अन्यथा चार बार तो कपड़े बदल ही लेते हैं। वह भी तो काम है, देश का ही काम है। उसमें भी तो समय लगता है। फिर समय ही कहां बचता है कि मणिपुर के दंगों पर चिंता जता सकें।
मणिपुर के भाइयों और बहनों, देश में कहीं और के भी निवासियों, आप अपने दुःख दर्द खुद ही झेलो। सरकार जी बहुत बिजी हैं। यह सोचना भी कि वे आपके कष्टों के बारे में सोचेंगे, बोलेंगे या फिर आपसे मिलने आएंगे, अनुचित है, देशद्रोह के समान है। हां, चुनाव हों, कोई उद्धघाटन हो, भले ही किसी सड़क या नाले की मरम्मत कार्य के बाद का ही क्यों न हो, सरकार जी सरपट दौड़े चले आएंगे। यकीन न हो तो आजमा कर देख लो
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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