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बंद तोतों वाले एक राजनीतिक स्वर्ग की ओर

भारत सरकार ने एक ही झटके में अलगाववादी और मुख्यधारा की राजनीति के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया है, क्योंकि हर किसी के चेहरे पर उसी ‘राष्ट्रविरोधी’ ब्रश से तारकोल पोत दिया जा रहा है।
बंद तोतों वाले एक राजनीतिक स्वर्ग की ओर

कश्मीर की सियासत में उठती आवाज़ों के दबाये जाने का लंबा इतिहास रहा है। इस लेख में लेखिका इस बात की छान-बीन करती है कि मौजूदा सियासी मंज़र में राजनीतिक विरोधियों को गिरफ़्तार किया जा रहा है और उस इकलौती अवधारणा को बनाये रखने के लिए स्थानीय राजनीतिक विमर्श को बंद किया जा रहा है, जो कि दिल्ली की तरफ़ से प्रायोजित है।

अमिताभ घोष अपनी किताब,‘गन आइलैंड’ में लिखते हैं, "लोगों को लगता है कि भविष्य को जानने से आपको आने वाले समय के लिए तैयार होने में मदद मिल सकती है, लेकिन अक्सर यह आपको शक्तिहीन बना देता है।"

धारा 370 को ख़त्म करने के बाद, 'नये' जम्मू और कश्मीर की इस इमारत का निर्माण झटके में बने क़ानून की रूप-रेखा के मुताबिक़ होना शुरू हो गया है, निकट भविष्य में कुछ अंतर्दृष्टि की कल्पना करते हुए सवाल जिज्ञासा की ज़बर्दस्त भावना का नहीं है, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक तौर पर बिना किसी अधिकार के हो जाने का है।

किसी लोकतंत्र में आदर्श रूप से राजनीतिक शक्ति दो तरह से मिलती है, जनता से नेताओं तक और नेताओं से जनता तक, और यह राजनातिक शक्ति आंतरिक रूप से सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण से जुड़ी होती है। अपने संघर्ष और अनूठे इतिहास के चलते जम्मू और कश्मीर के मामले में यह सामाजिक-राजनीतिक शक्ति हमेशा नई दिल्ली से छनकर मिलती रही है।

यहां का इतिहास अपदस्थ सरकारों, जेल में बंद नेताओं, सख़्त पहरे में होने वाले चुनावों और अभी तक देश के बाक़ी हिस्सों में अपरिचित तौर-तरीक़ों वाली तोड़-मरोड़ की राजनीति की गवाही देता रहा है। चूंकि मुख्यधारा की राजनीति लम्बे समय से शासन के मामलों तक सीमित हो गयी थी, इसलिए अनेक तरह के खलल के साथ लोगों के सशक्तीकरण की हवा निकाल दी गयी थी।

इस सबके बावजूद, राजनीतिक अवधारणाओं की दो धारायें हैं, जिन्हें आमतौर पर अलगाववादी और मुख्यधारा की राजनीति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। ये 5 अगस्त, 2019 तक पिछले सात दशकों से जारी थीं। लेकिन, राज्य की अपने विशेष दर्जे को खोने और उसकी हैसियत को घटाकर दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने से कुछ घंटे पहले सभी राजनीतिक आवाज़ों, जो सत्ताधारी भाजपा से जुड़े लोगों का विरोधी थीं, उन्हें बेड़ियों में जकड़ा दिया गया, इसी कड़ी की राजनीतिक नेताओं में तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों और बाक़ी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया या उन्हें घर में ही नज़रबंद कर दिया गया था, अजीब बात है कि राज्य के लोगों के भविष्य को उनकी भागीदारी के बिना तय करने के लिए एक सक्षम माहौल बनाने को लेकर लगाये गये बड़े पैमाने पर प्रतिबंध और लॉकडाउन के हिस्से के रूप में यह सब किया गया।

भारत सरकार ने एक ही झटके में अलगाववादी और मुख्यधारा की राजनीति के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया है,क्योंकि हर किसी के चेहरे पर उसी ‘राष्ट्रविरोधी’ ब्रश से तारकोल पोत दिया जा रहा है।

यह तौर-तरीक़ा असल में सात दशकों में जो कुछ भी थोड़ा-बहुत राजनीतिक सशक्तीकरण हुआ था, उसके ध्वस्त होने का पहला संकेत था। इस प्रयोग ने मुख्यधारा की राजनीति से संचालित होने वाली राजनीतिक शक्ति को पूरी तरह ख़त्म कर दिया है। हालांकि उन कुछ लोगों को छोड़कर,जो अभी तक बरी नहीं किये गये हैं या अनधिकृत रूप से ‘घर में नज़रबंदी’ के तहत अपने-अपने घरों के अंदर क़ैद कर दिये गये हैं,ज़्यादतर राजनेताओं का उत्पीड़न लंबे समय तक अस्थायी रहा है। लेकिन,राजनीतिक विमर्श के तौर पर जिन बहस का कभी वजूद हुआ करता था,वह हमेशा के लिए ख़त्म किया जा चुका है।

इसके तीन कारण हैं। पहला कारण यह है कि यह राज्य भौगोलिक रूप से कटा हुआ रहा है, जिसका मतलब है कि इसकी राजनीतिक नक्शे में काट-छांट की जा सकती है। दूसरा कारण यह है कि इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया है,एक में कोई विधायिका नहीं और दूसरे में विधायिका तो है,मगर जिसकी शक्तियां नगर निगम के मामलों में भी सीमित और प्रतिबंधित होंगी। तीसरा कारण और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि काम-काज के जो नये नियम हैं,उसने इस बात को ज़रूरी बना दिया है कि खुलकर बोलना और राजनीतिक असहमतियां अपराध हैं।

पिछले 70 वर्षों में जम्मू-कश्मीर की राजनीति काफ़ी हद तक कश्मीर केंद्रित रही है। लेकिन, एक साल से घाटी में सन्नाटा पसरा हुआ है। इसके चेहरे पर, एक नयी राजनीतिक संरचना तैर रही है,जिसकी नक्काशी 'मैदान से दूर रहे' लोगों के साथ मिलकर की गयी है और हाल ही में नेशनल कांफ़्रेंस और ख़ासकर उमर अब्दुल्ला के हालिया साक्षात्कार से इस बात की चर्चा धीमें स्वर में होने लगी है, जिससे ऐसा लगता कि एक राजनीतिक प्रक्रिया को फिर से शुरू करने और कुछ खोई हुई ज़मीन को फिर से हासिल करने के लिए दरवाज़े खोले जा रहे हैं। इससे इस तरह की राजनीति का बहुत ही मुखर विरोधाभास सामने आता है।

श्रीनगर की स्थायी जेल के भीतर सात महीने से ज़्यादा वक्त गुज़ारने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ़्रेंस (NC) के इस नेता ने हाल ही में विश्वासघात और कड़वाहट की अपनी भावना को लेकर बात की है। उन्होंने राजनीतिक लड़ाई फिर से लड़ने के संकल्प को दोहराया तो है, लेकिन वे कम से कम लद्दाख क्षेत्र के सीमाई इलाक़े के साथ राज्य के दर्जे की बहाली तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने साफ़ तौर पर पहले से ही धारा 370 के मुद्दे से सम्बन्धित मुद्दे को सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले पर छोड़ दिया है।

अनुच्छेद 370 को सावधानी से हटाये जाने को लेकर उमर अब्दुल्ला की चुप्पी के टूटने के साथ उस समय स्थानीय स्तर पर अचरज पैदा हुई, जब इन अफ़वाहों को हवा मिलना शुरू हो गया कि जम्मू-कश्मीर (इसकी भौगोलिक आकृति चाहे जो भी हो) को राज्य का दर्जा बहाल हो होने जा रहा है। उनकी रिहाई के चार महीने बाद कि ये टिप्पणियां क्या दिल्ली की बनी बनायी किसी योजना का हिस्सा हैं या फिर ये टिप्पणियां नये नियमों को समायोजित करने का एक ऐसी रणनीतिक चाल हैं, जिसमें यहां की राजनीति को उलझाया जा सकता है ?

पिछले एक साल के भीतर जेलों से रिहा किये गये कई कश्मीरियों को उन बॉंडों पर दस्तख़त करने के बाद रिहा किया गया था,जो उन्हें अनुच्छेद 370 के बारे में खुलकर बात करने या इसे लेकर विरोध प्रदर्शन में भाग लेने से मना करता है। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती की बेटी, इल्तज़ा मुफ़्ती ने भी इस बात की पुष्टि की थी। ग़ौरतलब है कि महबूबा मुफ़्ती को अभी भी रिहा नहीं किया गया है, हालांकि अप्रैल में उन्हें उप-जेल से स्थानांतरित कर दिया गया था और इस समय वह घर में ही नज़रबंद हैं। 29 जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस को दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था:

“अक्टूबर में बिना सोचे-समझे उन्हें एक बॉंड पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया था। एक अफ़सर उनके पास वह बॉंड लेकर आया था। अगर आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको ऐसा लगेगा कि आप तानाशाही व्यवस्था में रह रहे हैं। अगर शाब्दिक रूप से कहा जाय,तो इसका मतलब यह होगा कि वह किसी भी चीज़ के बारे में नहीं बोल सकतीं। बहुत सारे विवरणों से गुज़रे बिना यह समझ में आता है कि अगर वह जेल से बाहर निकलना चाहती है, तो उनकी यह आज़ादी अनुच्छेद 370 पर बात नहीं करने पर निर्भर करती है।”

इस साक्षात्कार के एक दिन बाद, सरकार ने महबूबा के पीएसए नज़रबंदी को अगले तीन महीनों के लिए बढ़ा दिया।

यह अप्रासंगिक है कि उमर अब्दुल्ला को किस बात ने प्रेरित किया। चाहे वह नई दिल्ली के दबाव के आगे झुकने का मामला हो या फिर उभरती हुई वास्तविकताओं के अनुरूप अपने राजनीतिक हैसियत को फिर से हासिल करने और उसे विस्तार देने की कोशिश रही हो, मगर अनुच्छेद 370 को राजनीतिक बहस से हटाये जाने का वह फ़ैसला विकल्प की कमी को दिखाता है। संदेश बिल्कुल साफ़ है: बोलोगे, तो भुगतोगे। निर्विवादित तथ्य के रूप में धारा 370 को स्वीकार करना किसी भी राजनीतिक गतिविधि के लिए ज़रूरी शर्त है, इस तथ्य के बावजूद कि एक बार संवैधानिक क़ानून बन जाने के बाद उस पर चर्चा करना और उसकी आलोचना करने पर किसी तरह की कोई रोक नहीं हो सकती है।

उमर के अपने रुख़ से इस तरह विचलित होना असल में नेशनल कॉफ़्रेंस के उस इतिहास से पूरी तरह मेल खाता है,जब पार्टी ने जनमत संग्रह से स्वायत्तता की ओर ख़ुद को स्थानांतरित कर लिया था। इस सफ़र में नयी दिल्ली को जितनी ही गुंजाइश दी जा रही है, उतनी ही गुंजाइश बिना किसी विरोध के स्वायत्तता की जगह राज्य का दर्जा ले रहा है?

जम्मू और कश्मीर का इतिहास वादों के तोड़े जाने और विश्वासघात के साथ तालमेल बनाये रखने का इतिहास रहा है। उस मायने में चीज़ें नहीं बदल सकती हैं। एक और बात जो लगातार बनी हुई है और वह यह है कि हमेशा की तरह, मुख्यधारा की राजनीति चुनावों तक ही सीमित रहेगी, जिसे हमेशा ग़लत तरीक़े से लोकतंत्र का एकमात्र उपाय माना जाता रहा है।

लेकिन, आज के हालात बहुत अलग हैं।

1950 और 1960 के दशक में जम्मू और कश्मीर की स्वायत्तता को बहुत नुकसान पहुंचा था। जो कुछ भी स्वायत्तता बनी रही, वह एक खोखले खोल की तरह थी,लेकिन जितनी भी वह बची थी,वह महत्वपूर्ण थी।

उस स्वायत्तता के छिन जाने के बावजूद, अनुच्छेद 370 ने जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और भूमि स्वामित्व के साथ कुछ विशेषाधिकार हासिल थे; और, एकमात्र मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य की शुचिता, भारत के बाक़ी हिस्सों के साथ इसके असममित संघीय सम्बन्ध और इसकी विशिष्टता को बनाये रखा गया था।

अनुच्छेद 370 को खोखला करने और इसे पूरी तरह से ख़त्म किये जाने के बीच का फ़र्क़ उस समय और इस समय के शासकों के वैचारिक स्थिति के बीच के अंतर को उजागर करता है। पहले का शासन कश्मीर की मुस्लिम बहुसंख्यक स्थिति और उसके ऐतिहासिक विवाद के सिलसिले में असुरक्षा को लेकर मजबूर दिखता था, लेकिन बाद का शासन भी मुसलमानों को लेकर तिरस्कार की भावना से ग्रस्त है।

पहले का शासन कश्मीर को जहां जनसांख्यिकीय बनावट की हिफ़ाज़त करने को लेकर सख़्त दिखता था और इसे भारत की धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के रूप में दिखाता था, वहीं मौजूदा शासन की राजनीतिक दृष्टि में यह मुस्लिम बहुल राज्य आंख की किरकिरी बनी हुई है।

यह फ़र्क़ इस बात को समझने के लिए अहम है कि यहां से अब जम्मू-कश्मीर की राजनीति न सिर्फ़ अतीत की निरंतरता के रूप में, बल्कि बेतरतीब तरीक़े से किस तरह का आकार लेगी। चूंकि स्थानीय स्तर पर सियासी बहस पूरी तरह से बंद हो जायेगी, ऐसे में नौकरियों और ज़मीनों की ख़रीद-फ़रोख़्त को लेकर बाहरी लोगों के लिए राज्य के दरवाज़े खोल दिये जाने की भाजपा सरकार की उदारवादी नीति के परिणामस्वरूप क्रमिक जनसांख्यिकीय परिवर्तन होगा और निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन भी इससे प्रभावित होगा।

यह स्थिति कश्मीर केंद्रित राजनीति के अंत का संकेत होगा। राजनीतिक बयानबाज़ी की कुछ फुसफुसाहट के बावजूद, जम्मू क्षेत्र की ऐतिहासिक राजनीतिक शून्यता और अब जनसांख्यिकीय बाढ़ की गहरी सोच इस स्वरूप में नई दिल्ली को वैधता देगी और उसे पूर्ण शक्ति का इस्तेमाल करने में सक्षम बनायेगी।

प्रस्तावित राम मंदिर निर्माण को लेकर एक भव्य समारोह की तारीख़ और अनुच्छेद 370 की पहली वर्षगांठ तारीख़ का आपस में मिल जाना भी ज़हरीले धार्मिक मुहावरों और राजनीति के मिश्रण की तरफ़ इशारा करता है। दोनों ही लम्बे समय से हिंदुत्व परियोजना के संजोये हुए सपने रहे हैं।

इस परिदृश्य में, इसका इकलौता मक़सद इस क्षेत्र में खोटा राजनीतिक परचम लहराना है,जिसका मक़सद साफ़ तौर पर परिभाषित लाल रेखाओं के दायरे में सीमित जम्मू और कश्मीर में लोकतंत्र को बहाली को लेकर नई दिल्ली के दावे को वैध बनाना है, और ऊपर से हिंदुत्व के एजेंडे को भी इससे बल मिलेगा।

इसे लेकर जो लोग उत्साह में नज़र आते हैं,उन्हें इतिहास के एक पन्ने से सबक मिल सकता है। 1996 में नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने अलगाववादी राजनीति की धार और सशस्त्र विद्रोह की लोकप्रियता को कुंद करने के लिए अपने तरकश से स्वायत्तता की तीर निकाली थी। इसकी स्वायत्तता की रिपोर्ट और एक विधानसभा के प्रस्ताव को केंद्र के सामने रखा गया था, लेकिन केन्द्र की तरफ़ से कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। राज्य के दर्जे को लेकर इसका ढका-छुपा आह्वान भी इसे अब ख़ाली-ख़ाली हाथ ही छोड़ सकता है।

ठीक है कि राज्य के दर्जे को काल्पनिक तौर पर भले ही बहाल कर लिया जाये, लेकिन राजनीतिक शक्ति को किसी मुख्यमंत्री द्वारा हासिल ताक़त से नहीं मापा जाता, बल्कि सियासी बहस को सुनिश्चित करने और स्वतंत्र अभिव्यक्त की क्षमता से ही मापा जाता है; और लोगों के विश्वास के कुछ स्तर को जीतने की क्षमता से मापा जाता है।

उस मायने में मुख्यधारा की राजनीति दम तोड़ चुकी है और दफ़्न होने का इंतज़ार कर रही है। बाक़ी तो सब महज़ एक बंद तोते की तरह है,जो असरदार तरीक़े से बोलता तो है,लेकिन वह वही बोलता है,जिसके लिए उसे प्रशिक्षित किया गया है।

(अनुराधा भसीन जम्मू स्थित पत्रकार हैं और कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक हैं। इनके व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: द लिफ़लेट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Towards a Political Paradise of Caged Parrots

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