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बनारस ग्राउंड रिपोर्टः मजबूर खिलौना कारीगरों को रास नहीं आ रहा मोदी का ‘वोकल फॉर लोकल’ का नारा

भारत में हर साल चीन से 4000 करोड़ रुपये के खिलौने आयात किए जाते हैं। चीनी खिलौने का व्यापार भारत में कुल 12 हजार करोड़ रुपये का है, जबकि भारतीय खिलौने का व्यापार कुल एक हजार करोड़ रुपये का भी नहीं है। सिर्फ 25 फीसदी खिलौने स्वदेशी हैं। 75 फीसदी खिलौने का कच्चा माल भी चीन से आयात किया जाता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि बनारस के खिलौना कारीगरों को ‘वोकल फॉर लोकल’ बनने में कितनी तगड़ी चुनौतियां हैं?
banaras

बनारस के कश्मीरी गंज मुहल्ले में 58 साल के गोपाल सिंह असमय बूढ़े हो गए हैं। जब उनसे मुलाकात हुई तो वह लकड़ी का खिलौना तराशने वाली मशीन पर काम रहे थे। पहले वह लगातार 12 घंटे इसी मशीन पर खिलौने बनाया करते थे, लेकिन अब न उनकी कमर साथ देती है, न बूढ़ी आंखें। बातचीत में उनकी जुबां से निराशा फूटने लगी। मायूसी भरे लहजे में कहा, "पिछले तीन सालों में खिलौना कारीगरों की जिंदगी खुद खिलौना बनकर रह गई है। पहले नोटबंदी ने इस कारोबार का दिवाला पीटा, फिर जीएसटी की मार पड़ी। रही-सही कसर कोरोना महामारी ने पूरी कर दी। और अब खिलौना कारीगरों पर ज्ञानवापी विवाद का काला साया मंडरा रहा है। हमारे जैसे कारीगर भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं। रीढ़ की हड्डी का दर्द बेचैन किए रहता है, मगर क्या करें? बेइंतहा दर्द सहते हुए हमें मशीन पर बैठना पड़ता है। महीने भर की कमाई पांच-छह से ज्यादा नहीं होती। हमारे पास शिल्पी कार्ड तो है, लेकिन सुविधाएं नदारद हैं। यह ऐसा कार्ड है जिससे न इलाज होता है, न दवाएं नसीब होती हैं। सरकार की ओर से एक मर्तबा मोबाइल फोन मिला। कुछ कारोबारियों को मोटर भी, जिसे कुछ ही दिनों बाद कबाड़ में बेचना पड़ा। खिलौना कारोबार की मुश्किलों को हम बचपन से देखते आ रहे हैं, इसलिए हमने अपने बच्चों को इस धंधे में नहीं नहीं उतारा।"

गोपाल सिंह

बनारस का खोजवां और कश्मीरी गंज मोहल्ला लकड़ी के खिलौना बनाने का प्रमुख केंद्र है

काशी की पहचान धार्मिक नगरी के तौर पर है, लेकिन लकड़ी के खिलौने ने भी इस शहर की ख्याति को बढ़ाया है। कश्मीरी गंज और खोजवां के रंग-बिरंगे खिलौने देश भर में मशहूर हैं। इसके कारीगरों को फख्र है कि उनकी सदियों पुरानी कला को समूची दुनिया जानती है। एक वह भी जमाना था जब बनारस के हर छोटे-बड़े स्टेशनों पर रेलगाड़ी के रुकते ही लकड़ी के खिलौने बेचने वाले यात्रियों के पास पहुंच जाया करते थे। मगर अफसोस! यह अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। खोजवां इलाके के कश्मीरी गंज मुहल्ले में लगभग सभी घरों में लकड़ी के खिलौने बनाने वाली मशीनें हैं जिनमें कारीगर डिमांड के अनुरूप लकड़ियों पर अपनी कला उकेरने में तल्लीन नजर आते हैं। साल 2020 में कोरोना महामारी के समय यह उद्योग बुरी तरह से प्रभावित हुआ। कारीगरों का कहना है कि खिलौना उद्योग इन दिनों मंदी और महंगाई की मार झेल रहा है।"

धंधा पुश्तैनी, दांव पर जिंदगी

तीन पीढ़ियों से लकड़ी का खिलौना गढ़ने वाले खिलौना कारीगर परिवार के 48 वर्षीय अनिल सिंह अपने दोनों बेटों के साथ दिन रात मशीन पर लकड़ियों को तलाशते मिलते हैं। भीषण गर्मी और जाड़े में लकड़ियों के गर्दे के बीच एक अंधेरे से कमरे में लकड़ी की पटरा लगाकर वह अपने बेटों के साथ खूबसूरत खिलौना बनाने में तल्लीन थे। लकड़ी की खराद मशीन में ही जुगाड़ से एक पंखा लगा दिया था। मुलाकात हुई तो अपना दुखड़ा सुनाने लगे। बताया, "चाइना के फैशनेबल खिलौनों ने हमारे  लकड़ी खिलौनों का वजूद करीब-करीब मिटा दिया है। पहले कोरया की लकड़ी के खिलौने बनते थे जो चमकदार होते थे। ये लकड़िया मिर्जापुर और सोनभद्र के जंगलों से लाई जाती थीं। बिहार और कर्वी के जंगलों से भी यह लकड़ी निकलती हैं, लेकिन जिसका रंग दुधिया होता है। इनकी निकासी पर रोक लगी तो यूकेलिप्टस का चलन बढ़ गया। अब यह लकड़ी भी नहीं मिल रही है। यूकेलिप्टस की एक छोटी सी बल्ली पहले 110 रुपये में मिलती थी और अब उसका दाम 180 रुपये हो गया है। लगता है कि आने वाले दिनों में खिलौना कारीगरों के लिए लकड़ियां ही मुहाल हो जाएंगी। तब यह न कुटीर उद्योग बचेगा और न खिलौना बनाने वाले फनकार।"

बनारसी कारीगरों द्वारा निर्मित लकड़ी के खिलौने

"बनारस से अब कारीगरों का पलायन तेजी से होने लगा है। कुछ कारीगर कोलकाता चले गए तो कुछ बंगलुरू।  वहां सस्ती बिजली है और अच्छी लकड़ियां भी आसानी से मिल जाया करती हैं। वहां कारीगर वेतन पर लकड़ी के खिलौने बनाते हैं और बनारस में पीस के हिसाब से। दिन रात खटने के बावजूद खिलौना बनाने वाले कारीगर सात-आठ हजार रुपये ही कमा पाते हैं।"

52 वर्षीय लक्ष्मी नारायण गुप्ता को इस बात का रंज है कि खिलौना उद्योग में मलाई वही लोग चाट रहे हैं जो जिन्होंने एनजीओ बना रखा है। वह कहते हैं, "नोटबंदी से उबरने के लिए हमने 50 हजार बैंक लोन लिया। हर महीने लोन की राशि चुका रहे हैं। हम पूजा-पाठ का सामान के अलावा शादी में इस्तेमाल होने वाला खिलौना बनाते हैं। बनारस में देवी-देवताओं के मंदिर नहीं रहते तो इस महंगाई में शायद हम भूखों मर रहे होते।"

नारायण गुप्ता

61 वर्षीय बोदर सिंह बेहतरीन कारीगर हैं। वह लकड़ी का सिंधोरा, लट्टू, मक्खनदानी, डिब्बी औ एक्यूप्रेशर का सामान बनाते हैं। साथ ही हेलन गुड़िया, संथाल, बटलर, जोकर, पेटारी, फूलदान, शिवलिंग, मंदिर बनाने में इनका कोई सानी नहीं हैं। बोदार सिंह के तीन बेटे हैं, जो पुश्तैनी धंधे में उनका हाथ बंटाते हैं। वह कहते हैं, "एक हार्स पावर की मोटर चलाने पर दो से से तीन हजार रुपये बिल आता है। जिस रेट पर बनारस के बुनकरों को बिजली मिलती है, उससे तीन गुना ज्यादा भुगतान हमें करना पड़ा है। हैंडलूम को सस्ती और हैंडक्राफ्ट को महंगी बिजली देना कहां तक उचित है? हमारे हाथों से बने खिलौने विदेशों में मनमाने दाम पर बिकते हैं और हमें उतना भी नहीं मिल पाता जिससे अपना गुजर-बसर ठीक ढंग से कर सकें। हमारी आमदनी इतनी कम है कि अपने बच्चों को कॉलेज में भेजने के बारे में सोचते तक नहीं हैं।"

बनारस के अलावा मिर्जापुर के अहरौरा और कर्वी जिले लकड़ी के खिलौने के लिए मशहूर हैं। महंगी लकड़ी और महंगे रंग से तैयार ये खिलौने महानगरों में पहुंचकर ऊंचे दामों पर बिकते हैं। इसे दुर्योग कहें या वक्त की मार, बच्चों को खुशी का एहसास कराने वाले लकड़ी के खिलौनों को बनाने वाले कारीगर पीढ़ियों से तंगहाल हैं। इनके हिस्से में खुशी नसीब ही नहीं है। 52 वर्षीय सुरेश चौहान खिलौना बनाने वाली मशीनों के शोर में अपने परिवार के पांच सदस्यों की रोजी-रोटी के लिए दिन-रात जुटे रहते हैं। वह कभी लकड़ी का सिंधोरा बनाते दिखते हैं तो कभी हेलीकॉप्टर और जहाज। सुरेश कहते हैं, "इस पेशे से पहले उन्हें कोई बहुत दिक्कत नहीं थी। हम लोग दूसरा काम भी कर लिया करते थे। खिलौना बनाना हमारा पार्ट टाइम काम हुआ करता था। घर के सभी सदस्य मिलकर ठीक-ठाक कमाई कर लेते थे। कोरोना से उपजे लॉकडाउन के संकट ने हमें तोड़कर रख दिया। खिलौना कारीगर तो अपनी मशीनों पर सिर्फ़ मज़दूर बनकर रह गए हैं।"

वेंटिलेटर पर खिलौना उद्योग

बेजान लकड़ियों को मूर्त रूप देने वाले कारीगर प्रेमनाथ को यह हुनर अपने पूर्वजों से मिला है। वह तीसरी पीढ़ी की नुमाइंदे हैं, जो खिलौना उद्योग के जरिये अपने परिवार की परवरिश कर रहे हैं। प्रेमनाथ को इस बात का दुख है कि नए लोग अब इस धंधे में नहीं आ रहे हैं। ऐसे में उनके बाद इस कला को संभालने वाला कोई नहीं होगा। इनका आरोप है, "नौकरशाही की अनदेखी और बिचौलियों के गिरोह ने समूचे कारोबार को निचोड़ लिया है, जिसके चलते यह उद्योग अब आखिरी सांसें गिन रहा है।"

बनारस में जिन लकड़ियों से खिलौना बनता है उसके थोक विक्रेता 30 वर्षीय दिलीप गुप्ता सरकार की नीतियों से आहत नजर आते हैं। वह कहते हैं, "देखिए, खाली-ठाले बैठे हैं। पिछले एक हफ्ते से बोहनी तक नहीं हुई है। महंगाई बढ़ रही है और कमाई घट रही है। पहले यह धंधा दादा करते थे और बाद में हमारे पिता ने खिलौनों के लिए लकड़ी बेचते-बेचते अपनी जिंदगी गुजार दी। अब यह धंधा वेंटिलेटर पर चला गया है और आखिरी सांसे गिन रहा है।

डीजल-पेट्रोल का दाम बढ़ने से लकड़ियों की ढुलाई का खर्च बढ़ गया है। ऐसे में क्या बेचें और क्या कमाएं? इस उद्योग को पहला झटका तब लगा जब साल 1981 में तत्कालीन सरकार ने इसमें उपयोग होने वाली कोरैया लकड़ी के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी। उस समय बनारस के खोजवां और कश्मीरीगंज इलाके में करीब 1000 से 1500 मशीनें हुआ करती थीं और 3000 से ज्यादा कारीगर खिलौने बनाकर देश-विदेश में बेचा करते थे। अब इस कला को करीब पांच-छह सौ करीगर ही जिंदा रखे हुए हैं।"

बनारसी कारीगरों द्वारा निर्मित लकड़ी के खिलौने

पास खड़े दिलीप के चाचा विजय कुमार गुप्ता कहते हैं, "खिलौना कारोबार ने हमारे सपनों को..., अरमानों को... और उम्मीदों को बुरी तरह तरह तोड़कर रख दिया है। हम अब अपने बच्चों कि जिंदगी बर्बाद नहीं करेंगे।" जवानी की उम्र में बूढ़े दिख रहे 52 वर्षीय सुरेश चौहान और राजेश का दर्द कुछ अलग है। वे कहते हैं, "जब से लकड़ियों पर मंडी समिति ने चार फीसदी टैक्स थोपा है, तब से खिलौना उद्योग चरमरा गया है।" राजेंद्र कुमार खिलौनों के आपूर्तिकर्ता हैं, लेकिन इस धंधे की मंदी से वह भी काफी आहत हैं।

कारीगरों के हितों को लेकर संघर्ष करने वाले लकड़ी खिलौना कारीगर रोजगार अधिकार मंच से जुड़े स्वतंत्र सिंह पवन दावा करते हैं, " यूपी सरकार पिछले पांच-छह सालों से इस कला को बचाने की कोशिश तो कर रही है, लेकिन मुनाफा कारीगरों को नहीं मिल पा रहा है। खिलौना कारीगरों के लिए शासन से दी जा रही सुविधाएं चंद कारोबारियों के हाथ में सिमट कर रह गई हैं। इस उद्योग में कई पीढिय़ों से जुड़े रहे 52 वर्षीय उदय आर्य की आखों में सख्त उदासी नजर आती है। बेहद आहत मन से कहते हैं, "कुछ साल पहले हमारे घर में आग लगी तो सब कुछ जल गया। मशीनें भी और लकड़ियां भी। धंधे चलाने के लिए डेढ़ लाख रुपये लोन लिया था, वह भी डूब गया। बीमा कंपनी ने पैसे नहीं दिए। कोई भगीरथ नहीं मिल रहा, जो हमें डूबने से बचा ले।"

आर्डर पर खिलौनों की सप्लाई करने वाले 48 वर्षीय राज कुमार प्रजापति दिल्ली, लखनऊ, पटना, मुंबई समेत देश के सभी बड़े शहरों में माल भेजते हैं। वह कहते हैं, "खिलौना बनाना अब आसान नहीं रह गया है। पहले पांच से सात रुपये सैकड़ा कोरैया की लकड़ी मिलती थी। अब यहां यूकेलिप्टस की लकड़ी से खिलौने बनते हैं। यह लकड़ी भी आसानी से नहीं मिल पा रही है। यूपी सरकार मिर्जापुर, सोनभद्र और चित्रकूट के जंगलों से साल-छह महीने में 20 से 25 क्विंटल कोरैया की लकड़ी उपलब्ध कराती है, जिसे बिचौलिये दबा लेते हैं। यूकेलिप्टस की लकड़ी का दाम 400 रुपये से बढ़कर 1300 से 1500 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है। खिलौनों पर चित्रकारी में काम आने वाले कपड़े और लाख की कीमत बढ़कर 1500 से 1800 रुपये किलो हो गई है। कभी कोरैया की लकड़ी से बने खिलौने की चमक और गुणवत्ता चीनी खिलौनों को भी मात देते थे, लेकिन सस्ते प्लास्टिक का चलन बढ़ने से लकड़ी के खिलौनों की पूछ कम होने लगी।"

बनारसी कारीगरों द्वारा निर्मित लकड़ी के खिलौने

भेदभाव के शिकार ये फनकार

बनारस के खोजवां और कश्मीरी गंज में लकड़ी से खिलौने, सिंदूरदान, चूड़ी केस और फूलदान के साथ ही घरों में सजाने के समान भी बनाए जाते हैं। जबकि बनारस के लहरतारा में फ्लावर पॉट बनाए जाते हैं, जिसकी मांग देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी है। इस कला ने दुनिया में बनारस की अनूठी पहचान बनाई है, लेकिन महामारी के दौर में यह कला अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। इसकी वजह पूछे जाने पर किशन बताते हैं, "चीन का उत्पाद सस्ता और प्लास्टिक से बना होता है। वहां सभी उत्पाद मशीन से बनाए जाते हैं। चीनी खिलौने बच्चों को आसानी से लुभाते हैं और हमारे खिलौने अब सजावट के काम आ रहे हैं। चीनी खिलौनों की अपेक्षा लकड़ी का खिलौना बनाने में लागत ज्यादा आती है। लकड़ी के खिलौने में क्वालिटी होती है, लेकिन महंगा होने के कारण कोई नहीं पूछता है।"

38 वर्षीय वीर सिंह चरखी, गुड़िया गाड़ी, हेलन, बटलर, तिरंगी, चुसनी और लट्टू बनाने के बेहतरीन कारीगर हैं। इन्हें इस बात से कुढ़न ज्यादा है कि मदद के नाम पर स्वयंसेवी संस्थाएं हमारे जैसे कारीगरों से काफी कम कीमत पर खिलौने लेकर दिल्ली-मुंबई, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में थोक विक्रेताओं को ऊंची कीमत पर बेचती हैं। वहां से मोटे मुनाफे के साथ हमारे खिलौने फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका चले जाते हैं। हमारे हुनर का मुनाफ कोई और लूट लेता है और हमें फांकाकशी के लिए छोड़ देता है। वह कहते हैं, "महंगी बिजली हमारे उद्योग की कमर तोड़ रही है। सरकार भी हमारे साथ भेदभाव कर रही है। बुनकरों को सस्ती और हमें महंगी बिजली दे रही है। हम भाजपा को वोट देते हैं और बुनकर विपक्ष के साथ खड़ा होता है, तब भी मार हम पर ज्यादा पड़ती है। हमारे दो बच्चे हैं, जिनमें एक विकलांग है। नहीं चाहते कि वो पुश्तैनी धंधे को अपनाएं।"

45 वर्षीय श्याम गुप्ता वाराणसी के कश्मीरी गंज में बचपन से लकड़ी का खिलौना बना रहे हैं। वह कहते हैं, "धंधा एकदम चौपट हो गया है। अब गाहे-बगाहे कोई महाजन (खिलौना खरीदार) खिलौना खरीदने आता है।" वहीं खड़े, बबलू कहते हैं, "मुझे नहीं लगता है कि बनारस में खिलौना बाजार विकास करेगा। जितने का खिलौना अभी बिक रहा है, उतने का ही बिकेगा। अगर हम लोग 5 रुपये भी महंगा करना चाहते है तो बहुत पंचायत हो जाता है। महाजन माल खरीदना बंद कर देते है।"

बनारस की जिन गलियों में लकड़ी के खिलौने बनाते हुए सिर्फ पुरुष नजर आते थे, उन्हीं गलियों में अब महिलाएं भी बेजान लकड़ी में जान फूंकने के लिए रंग भरने लगी हैं। ये महिलाएं अब लकड़ी के लट्टू, गुड़िया, सिंदूर दानी, डिबिया और दूसरे छोटे-मोटे खिलौने बनाना सीख गई हैं। यह काम अभी तक सिर्फ पुरुषों के हाथों में था। पहले कारीगरों के घरों की औरतें सिर्फ पेंटिंग किया करती थीं, लेकिन अब वो कुशल कारीगर भी बन रही हैं। महिलाओं को प्रशिक्षित करने वाले ट्रेनर नरेंद्र सिंह बताते हैं, "पीएम मोदी ने कई बार लकड़ी के खिलौने बनाने के कार्यक्रम को प्रोत्साहित किया है। साल 2020 में 30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में देशी खिलौनों को बनाने और लोगों से प्रयोग करने की अपील की थी। इसके बाद कई मर्तबा बनारस में वर्चुअल टॉय फेयर में लकड़ी के खिलौने को शामिल किया गया, लेकिन इस उद्योग को जो रफ्तार मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिल सकी।

टूट रहा कारीगरों का हौसला

बनारस में खिलौना बनाने के मशहूर कारीगरों में दो बड़े नाम हैं, जिनमें एक हैं गोदावरी सिंह और दूसरे रामेश्वर सिंह। गोदावरी प्रयोगवादी कारीगर हैं जो लकड़ियों में नायाब कला पिरो देते हैं। इनके सात बच्चे और नाती-पोते सभी लकड़ी का खिलौना बनाने और बेचने के कारोबार से जुड़े हैं। बनारस के तारांकित होटल गेटवे (ताज) में इनकी खिलौने की दुकान है। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित गोदावरी भी सरकार से तल्ख सवाल करते हैं। वह कहते हैं, "हीरा पर सिर्फ 0.25 फीसदी का टैक्स है। इससे बनने आभूषणों को तीन फीसदी जीएसटी वाली श्रेणी में रखा गया है, जबकि लुप्त हो रहे लकड़ी के खिलौनों के कारोबार को 12 फीसदी टैक्स वाले श्रेणी में रखा गया है। हीरा के कारोबारी मालामाल हो रहे हैं और खिलौना कारीगर फांकाकशी के शिकार हो रहे हैं। हमारे हुनर पर भारी-भरकम टैक्स थोप दिया गया है। आखिर यह कैसा न्याय है? कश्मीरी गंज इलाके की सड़कों की बदहाली देख लीजिए। हमारे कारीगरी का कोई मोल नहीं है। तमाम मुश्किलों के बावजूद हम लकड़ी से बने सामान अमेरिका में निर्यात कर रहे हैं।"

गोदावरी सिंह

बनारस के जाने-माने खिलौना शिल्पी रामेश्वर सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। इनकी चार पीढ़ियां लकड़ी का खिलौना बनाने के धंधे से जुड़ी हैं। यह देश के सभी हिस्सों में खिलौने की सप्लाई करते हैं। सरकार की दोषपूर्ण नीतियों से रामेश्वर भी काफी हताश हैं। वह कहते हैं, "खिलौना बनाना हमारा शौक है। इस हुनर को किसी तरह बचाए हुए हैं। बुनकरों की तरह हमें भी सस्ती बिजली चाहिए। कारीगरों को जोखिम बीमा और मुफ्त में इलाज भी।"  

रामेश्वर सिंह

"खिलौना जीआई प्रोडक्ट है, फिर भी हम उपेक्षा के शिकार हैं। लकड़ियों और खिलौनों की टेस्टिंग के लिए बनारस में कोई लैब नहीं है। जब हमें कोई प्रोडक्ट विदेश भेजना होता है तो नोएडा में खिलौनों के सैंपल की जांच करानी पड़ती है। यह जांच रंग और लकड़ियों में जहर की होती है। दुनिया भर में लकड़ी के खिलौने फायर वुड से बनाए जाते हैं। खिलौना कारीगरों के लिए कोरेया की लकड़ी सपना है। लकड़ियों पर जहां 18 फीसदी जीएसटी है, वहीं तैयार माल पर 12 फीसदी। दूसरी ओर, धागा और कपड़े को पांच फीसदी जीएसटी स्लैब में रखा गया है। खिलौना कारीगरों के साथ यह भेदभाव नहीं है तो क्या है? " 

वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस का खिलौना उद्योग पहले देश भर में अपनी दखल रखता था। हमें विश्वनाथ गली की दुकानें याद आ जाती हैं जहां लाइन से खिलौने सजाकर रखे गए होते थे। ये खिलौने अब अजायबघर की वस्तु बनकर रह गए हैं। इनके लिए न कोई बाजार में है और न इनके खिलौने अब चलन में हैं। सरकार की तरफ से इस तरह के हुनर वाले कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन देने की योजना खिलौना उद्योग को शामिल ही नहीं किया जाता। इस उद्योग को फिर से खड़ा करना आसान नहीं है। बनारसी कारीगर बुरी तरह टूट चुके हैं। किसी में दम-खम नहीं बचा है। अगर कुछ बचा है तो सिर्फ लाचारी। ऐसी लाचारी जो खिलौना कारोबार में नई जान नहीं फूंक सकती है।"

बनारसी कारीगरों द्वारा निर्मित लकड़ी के खिलौने

"खिलौना कारीगरों को चाहिए आधुनिक डिजाइन और संसाधन। ये दोनों चीजें मुहैया करा पाने में डबल इंजन की सरकार फेल हो चुकी है। खिलौना उद्योग के लिए संसाधनों का कहीं अता-पता ही नहीं है। इस कुटीर उद्योग के सामने चौतरफ समस्याएं हैं। लकड़ी के खिलौनों की जगह प्लास्टिक और मेटल की डिबिया ने ले ली है। पहले बनारस में भी इन खिलौने के लिए एक बड़ा बाजार था। आए दिन मेले-ठेले लगते थे। तीज-त्योहारों पर भी ये खिलौने बिक जाया करते थे। पहले दुल्हनों की विदाई होती थी तक औरतों के हाथ में सिंदूरदान ही रहता था। अब न मेले रह गए, न हुनरमंद कारीगर।"

सरकारी दावे में कितना दम?

भारतीय खिलौना कारोबार को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री मंत्री पीयूष गोयल काफी उत्साहवर्धक दावे करते हैं। वह कहते हैं, "हमारे पास लेबर की लागत कम है, आइडिया ज्यादा हैं। हमारे खिलौने विश्व में जाकर बड़े पैमाने पर बिकें, इस पर हम काम करेंगे। भारत में अच्छी गुणवत्ता के खिलौने बनाए जाएं जिसमें कुछ एजुकेशनल वैल्यू भी हो। हमारी अगली पीढ़ी खिलौनों के महत्व को समझे। खिलौनों के जरिये भी हम अपने ऐतिहासिक चरित्र से नई पीढ़ी को अवगत करा सकते हैं।"

वैश्विक स्तर पर खिलौना बाजार का कारोबार सात लाख करोड़ का है, जिसमें भारत का हिस्सा बहुत कम है। भारत के खिलौना बाजार में चीन के उत्पाद की 90 फीसदी हिस्सेदारी है। टॉय एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार,  भारत में हर साल चीन से 4000 करोड़ रुपये के खिलौने आयात किए जाते हैं। चीनी खिलौने का व्यापार भारत में कुल 12 हजार करोड़ रुपये का है, जबकि भारतीय खिलौने का व्यापार कुल एक हजार करोड़ रुपये का भी नहीं है। सिर्फ 25 फीसदी खिलौने स्वदेशी हैं। 75 फीसदी खिलौने का कच्चा माल भी चीन से आयात किया जाता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि बनारसी खिलौना कारीगरों को ‘वोकल फॉर लोकल’ बनने में कितनी तगड़ी चुनौतियां हैं?

बनारसी कारीगरों द्वारा निर्मित लकड़ी के खिलौने

द इंटरनेशनल मार्केट एनालिसिस रिसर्च ऐंड कंसल्टिंग की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय खिलौना बाजार की 85 फीसदी निर्भरता चीन पर रहती है, वहीं मलेशिया, जर्मनी, हांगकांग व अमेरिका से 15 फीसदी खिलौना भारत में आते हैं। चीन भारत को 1,472 अरब रुपये के खिलौने का निर्यात करता है। भारत सिर्फ 18 से 20 अरब रुपये के खिलौने का निर्यात कर पाता है। पूरे विश्व के खिलौना उद्योग में भारत की सिर्फ 0.5 फीसदी हिस्सेदारी है। "दैनिक जागरण" की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे विश्व में खिलौने की मांग प्रतिवर्ष पांच फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है, जबकि भारत में यह वृद्धि 10 से 15 फीसदी तक है। इसलिए कहा जा रहा है कि भारत में साल 2024 तक खिलौना उद्योग 147-221 अरब रुपये का हो जाएगा।"

बनारस में खिलौना कारीगर भले ही बेजान लकड़ी को तराशकर खूबसूरत शक्ल बख्शते हैं, जो देश-विदेश में सजावट के काम भी आते हैं। एक्टिविस्ट डॉ.लेनिन रघुवंशी कहते हैं, "डबल इंजन की सरकार बातें तो लच्छेदार करती है, फिर भी इस कुटीर उद्योग की हस्ती मिटती जा रही है। लकड़ी के खिलौनों की मांग घटने से कारीगर रोटी के लिए मोहताज होने लगे हैं। आलम यह है कि गिने-चुने लोग ही इसमें जुटे हैं और निर्यात भी नाम मात्र का है। पहले विदेशी बाजार भी बनारसी कारीगरों के लकड़ी के खिलौनों से पटे रहते थे और अब वहां भी सस्ते चीनी खिलौनों की घुसपैठ हो गई है। अब हुनरमंद कारीगरों को लगता है कि बनारस की पहचान रहे लकड़ी का खिलौना उद्योग जल्द ही इतिहास के पन्नों में दफन हो जाएगा।"

सभी फोटोग्राफ: विजय विनीत
(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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