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ट्रैक्टर परेड बनाम गणतंत्र दिवस परेड : प्रतीकों का टकराव और इसके मायने

26 जनवरी को भारत को इस बात की याद दिलायी जायेगी कि हमारा गणतंत्र न सिर्फ़ सुरक्षा बलों के चलते सुरक्षित है,बल्कि इसलिए भी सुरक्षित है कि किसान लोगों का पेट भरने के लिए हाड़तोड़ मेहनत करते हैं।
किसान ट्रैक्टर परेड

26 जनवरी को होने वाली किसान ट्रैक्टर परेड दिल्ली के राजपथ पर आधिकारिक तौर पर आयोजित होने वाली गणतंत्र दिवस की उस परेड से एकदम अलग प्रतीक गढ़ेगी, जो पिछले 72 वर्षों में गढ़े जाते रहे हैं और जिसका प्रदर्शन लगातार किया जाता रहा है। पहली बार गणतंत्र दिवस समारोह पर राज्य के एकाधिकार के सामने असली चुनौती खड़ी होगी। पहली बार सरकार की तरफ़ से आयोजित और वित्तपोषित राजपथ पर होने वाली परेड को नागरिक की तरफ़ से आयोजित होने वाली परेड का मुक़ाबला होगा,जिस पर पूरे देश की नज़र होगी।

राजपथ पर होने वाली इस परेड के ठाठ और प्रदर्शन का किसानों के ट्रैक्टर परेड से मिलान नामुमकिन है, क्योंकि इसमें किसी वीआईपी की आमद नहीं होगी। इन दोनों परेडों को देखने वाले दर्शकों के बीच भी मिलान करना ठीक नहीं है,क्योंकि देश भर में शामिल होने वाले नागरिक या अधिकारी, राज्य की राजधानियों और केंद्र शासित प्रदेशों, राजपथ पर चलने वाली परेड के दर्शकों की तादाद की तुलना भी किसान के ट्रैक्टर परेड से करना ठीक नहीं है, और इसे कमतर आंकना भी ठीक नहीं है,ऐसा इसलिए, क्योंकि इसका प्रसारण लाइव होगा। इसके बावजूद इस 26 जनवरी को कई लोग जानना चाहेंगे कि इस ट्रैक्टर परेड का प्रदर्शन कैसे हो पायेगा। उनकी जिज्ञासा की बुनियाद यह एहसास होगा कि अपनी पूरी अवधारणा में ट्रैक्टर परेड ने जाने-अनजाने आंखों को आकर्षित करने वाले कई लेखन-सामग्रियों के प्रतीकों का एक सेट बनाया है।

ये जिज्ञासु शायद इस बात पर चलते अंतहीन बहस से वाकिफ़ तो होंगे ही कि गणतंत्र दिवस को भारत के सैन्य कौशल और नवीनतम घातक मशीनों की उपलब्धि के लगातार दिखाये जाने के बिना ही मनाया जाना चाहिए। आख़िरकार 26 जनवरी तो इसलिए मनाया जाता है, क्योंकि 1950 में इसी दिन संविधान लागू हुआ था और भारत औपचारिक रूप से एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया था। सवाल उठता है कि क्या भारत की संप्रभुता को उसकी सेना के ज़रिये ही पेश किया जाना होगा?,  हां, कई लोगों की दलील तो यही होती है कि गणतंत्र सेना की सुरक्षा के बिना नहीं क़ायम रह सकता। उनकी नज़र में राजपथ पर चलने वाली परेड भारतीयों को उनके गणतंत्र की हिफ़ाज़त को लेकर भरोसा देती है।

लेकिन, इस बहस को उस ट्रैक्टर परेड की वजह से एक नया आयाम मिल जायेगा, जो यह संदेश देती है कि गणतंत्र की हिफ़ाज़त न सिर्फ़ सुरक्षा बलों के चलते होती है, बल्कि उन किसानों के चलते भी यह गणतंत्र बचा रहता है,जो लोगों का पेट भरने के लिए की हाड़तोड़ मेहनत करता है। जहां सैनिक गणतंत्र को सुरक्षित रखते हैं, वहीं किसान इसे पोषित करते हैं और निरंतर बनाये रखते है। यह वही लोग हैं, जिन्होंने भारत को भोजन के मामले में आत्मनिर्भर बनाया है, ये हमें उन वर्षों को याद करने के लिए प्रेरित करते हैं, जिस दरम्यान खाद्यान्न की कमी के चलते भारतीय प्रधानमंत्री बड़ी ताक़तों के सामने मदद के लिए हाथ जोड़ा करते थे। इस ट्रैक्टर की परेड के चलते फिर से रौशन होती यह स्मृति हमें उन लोगों को सुनने के लिए प्रेरित करेगी, जिनकी दलील है कि ये तीनों नये कृषि क़ानून बीतते समय के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमज़ोर कर देंगे, खाद्यान्न की क़ीमतें बढ़ा देंगे और खाद्यान्न का संकट पैदा करेंगे और इस गणतंत्र की स्वतंत्रता को ख़तरे में डाल देंगे।

यह बात अभी तक मालूम नहीं है कि दिल्ली पुलिस किसानों के उन ट्रैक्टरो की परेड के लिए दिल्ली के आउटर रिंग रोड पर निकाले जाने की अनुमति देगी या नहीं, जो राजधानी के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं (अपडेट- दिल्ली पुलिस ने किसानों के तीन रूट को अनुमति दे दी है। कुछ पर विवाद भी है।)।

आउटर रिंग रोड से घिरे सर्कल के केंद्र में भारत पर हुक़ूमत करने वालों के दफ़्तर और मकान हैं। शासकों के इन्हीं इमारतों के सामने जो राजपथ है, वहीं परेड होती है। इसके ठीक उलट, बाहरी रिंग रोड वह परिधि है,जहां से असंतुष्ट नागरिक, क्योंकि किसान बेशक आज के लिहाज़ से असंतुष्ट ही हैं, वे 26 जनवरी को हुक्मरानों को चेतावनी देंगे कि उन्हें सुधरना होगा। इन दो परेडों की जगह प्रतीकात्मक रूप से केंद्र-परिधि के बीच के संघर्ष में बदलता हुआ दिखने लगी हैं, यह एक ऐसा संघर्ष है,जो आधुनिक राष्ट्र-राज्य के उद्भव से भी पहले का संघर्ष है।

ट्रैक्टर परेड के ज़रिये किसानों से बनी यह परिधि अपने विचार को रखते हुए बतायेगी कि आख़िर गणतंत्र होने का मतलब क्या होना चाहिए। सबसे पहले तो इसे अपनी प्रकृति में समतावादी होना चाहिए। लेकिन, आइये इसके विषमतावादी परिदृश्यों पर विचार करते हैं। राष्ट्रपति भारतीय सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ़ के तौर पर राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड की सलामी लेते हैं। लेकिन,ट्रैक्टर परेड के दौरान कोई भी ऐसा शख़्स नहीं होगा,जो इस तरह से सलामी लेगा। यह पहल वास्तव में पदों से बनी सभी तरह की हैसियत को बराबर कर देती है। राजपथ पर 26 जनवरी को प्रदर्शित की जाने वाली सभी 32 झांकियों की परिकल्पना और उसकी तैयारी, आधिकारिक स्तर पर की जायेगी। इनमें से कुछ झाकियों में राज्यों की अनूठी संस्कृति को प्रदर्शित किया जायेगा। दूसरी तरफ़,किसान यूनियनों ने कहा है कि वे भी अपने ख़ुद की परिकल्पित और डिज़ाइन की गयी लोगों के गणतंत्र की परिकल्पना और उनकी विवधता से भरी संस्कृतियों को सामने रखेंगे। शायद इसके पीछे का मक़सद यह संदेश देना है कि "सबसे अच्छी संस्कृति तो खेती-बाड़ी की है।"

प्रतीकों की लड़ाई यहीं ख़त्म नहीं होगी। राष्ट्रपति के सलामी लेने से पहले, प्रधानमंत्री की तरफ़ से भारत के प्रति अपना कर्तव्य निभाते हुए शहीद होने वाले सैनिकों के अमर जवान ज्योति पर माल्यार्पण करते हुए श्रद्धांजलि देने की परंपरा निभायी जाती है। 40 से ज़्यादा किसान यूनियनों के छतरी संगठन-संयुक्त किसान मोर्चा ने 18 महीनों के लिए इन तीन नये कृषि क़ानूनों को लागू करने से रोक देने की केंद्र सरकार की पेशकश को अस्वीकार करने वाले चल रहे इस विरोध प्रदर्शन के दौरान अपने 143 साथियों की मौत का हवाला दिया है। 22 जनवरी को एसकेएम की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया,"उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा और हम इन कृषि क़ानूनों को रद्द किये बिना वापस नहीं जायेंगे।"  26 जनवरी को निश्चित रूप से इन मृतक किसानों को शहीद के तौर पर याद किया जायेगा, क्योंकि प्रधानमंत्री की तरफ़ से भी तो शहीद सैनिकों को सम्मानित किया जायेगा।

आधिकारिक परेड यह बताने के लिए सामूहिक स्मृति पर आधारित होती है कि कई दशकों में भारत की हथियार प्रणाली ने ज़बरदस्त परिष्कृत गुणवत्ता हासिल कर ली है। ट्रैक्टर परेड भी इसी तरह उस ग्रामीण भारत के तकनीकी विकास को सामने रखेगा, जिसके तकनीकी विकास का सफ़र बैल और हल के कृषि तकनीक के प्रतीकों से शुरू हुआ था। अगर राजपथ पर होने वाले परेड के दौरान प्रदर्शित किये जाने वाले पिनाका मल्टीपल लॉन्च रॉकेट सिस्टम ने भारत की सुरक्षा को मज़बूत किया है, तो ट्रैक्टर ने भी किसानों को समृद्धि के एक स्तर को छूने में सक्षम बनाया है। वास्तव में ट्रैक्टर किसानो के बीच आधुनिकता लाने और उसमें महारत पाने में किसान की क्षमता को दर्शाता है।

इन सबसे ऊपर, यह ट्रेक्टर परेड संविधान की प्रस्तावना की उस शुरुआती पंक्ति के हवाले से साफ़ तौर पर सवाल पूछती है,जिसमें लिखा है, “हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में गठित करने का संकल्प लेते हैं... उनका सवाल है कि क्या भारत को एक संप्रभु गणराज्य में शामिल करने वाले लोगों के प्रतिनिधियों में क़ानून बनाने का अधिकार निहित है? क्या वे जो क़ानून बनाते हैं, उसे स्वीकार करना लोगों के लिए लाज़मी है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि किसानों की दलील है कि चुने हुए प्रतिनिधि ऐसा क़ानून नहीं बना सकते,जो उनके लिए नुकसानदेह हो, ऐसा इसलिए कि संप्रभुता संवैधानिक रूप से लोगों में निहित है। इसी संप्रभुता को फिर से हासिल करना है और इसलिए,क़ानूनों के असर डालने वाली ताक़त का निर्धारण करने का अधिकार भी उन्हीं को हासिल है, इसलिए किसान नेताओं ने तय किया है कि आधिकारिक गणतंत्र दिवस परेड की तरह वे भी अपनी ट्रैक्टर परेड निकालेंगे।

किसानों का यह नज़रिया कई लिहाज़ से महात्मा गांधी द्वारा 1930 में शुरू किये गये दांडी मार्च की दलील की याद दिलाता है। गांधी जी ने कहा था कि ब्रिटिश सरकार नमक के उत्पादन पर एकाधिकार नहीं रख सकती, इसके अलावा उस पर बहुत ज़्यादा कर भी नहीं लगाया जा सकता। प्रदर्शनकारी किसानों का कहना भी यही है कि सरकार उन क़ानूनों को लागू नहीं कर सकती, जो क़ानून उनके हितों पर चोट करते हैं; और यह भी कि इससे पहले वे तीनों कृषि कानून रद्द कर दिये जायें, जबतक कि सरकार किसानों के साथ मिलकर दीर्घकालीन संकट से निपटने के लिए विधायी उपायों की एक श्रेणी तैयार नहीं कर ले। जिस तरह नमक क़ानूनों को ब्रिटिश आयात के पक्ष में लाया गया था, उसी तरह किसानों के नज़रिये से इन तीनों कृषि क़ानूनों को भी बड़े-बड़े कॉरपोरेटों के हितों को बढ़ावा देने के लिहाज़ से तैयार किया गया है। इस तरह, 2021 की यह ट्रैक्टर परेड 1929 की दांडी मार्च के समान है।

26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान को अपनाने के बावजूद इसे 26 जनवरी को लागू किया गया था। कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन के दौरान राष्ट्रीय नेताओं ने ऐलान किया था कि जनवरी 1930 के आख़िरी रविवार को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जायेगा। वह रविवार 26 जनवरी को पड़ा था। 15 अगस्त 1947 को भारत को आज़ादी मिलने के साथ ही 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में घोषित करके लाहौर अधिवेशन की उस तय तारीख़ की याद को यह दिवस समर्पित कर दिया गया। अगर इतिहास के नज़रिये से देखें, तो जैसे ही 26 जनवरी को यह ट्रैक्टर परेड होती है, वैसे ही निरंकुश की तरह पेश आने वाली इस चुनी हुई सरकार पर लोगों के आधिपत्य स्थापित करने की सामूहिक इच्छा का उत्सव मन जायेगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

Tractor Parade Versus Republic Day Parade: Clash of Symbols

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