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संकट में आदिवासी

आज ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की वर्षगांठ के अलावा ‘विश्व आदिवासी दिवस’ भी है। इस मौके पर वरिष्ठ लेखक राजू पाण्डेय ने आदिवासी समुदाय की वास्तविक स्थिति और उसके साथ सरकार द्वारा किए जा रहे सुलूक को रेखांकित किया है।   
संकट में आदिवासी
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : bnnbharat

जैसा कि हर आपदा में होता है समाज का जो तबका सर्वाधिक वंचित और हाशिए पर होता है वह आपदा से सर्वाधिक प्रभावित होता है और उसकी स्थिति पहले से भी कमजोर हो जाती है। आज हमारे देश में आदिवासी समुदाय के साथ बिल्कुल यही हो रहा है।

अप्रैल से लेकर जून तक का समय माइनर फारेस्ट प्रोड्यूस को एकत्रित करने का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। वर्ष भर एकत्रित होने वाले कुल एमएफपी का लगभग 60 प्रतिशत इसी अवधि में इकट्ठा किया जाता है। किंतु दुर्भाग्य से कोविड-19 की रोकथाम के लिए लॉकडाउन भी इसी अवधि में लगाया गया। केंद्र सरकार की वन धन विकास योजना तथा एमएफपी के लिए घोषित समर्थन मूल्य हमेशा की तरह नाकाफी और कागजों तक सीमित रहे। नॉन टिम्बर फारेस्ट प्रोड्यूस की बिक्री भी रुक सी गई। इस कारण आदिवासियों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित हुई।

पर्टिकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप्स (पीवीटीजीस) को लॉकडाउन के दौरान एक स्थान से दूसरे स्थान जाने पर लगे प्रतिबंधों के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों और अन्य जरूरी वस्तुओं के प्राप्ति केंद्रों तक पहुंचने में भारी परेशानी हुई। मध्यप्रदेश के बैगा आदिवासियों की बदहाली ने समाचार माध्यमों का ध्यान आकर्षित किया। पशुपालक घुमंतू आदिवासी समुदाय के लिए यह लॉकडाउन विनाशकारी सिद्ध हुआ। वे अपने घर से दूर अन्य प्रांतों में अपने पशुधन के साथ फंस गए। न तो इन्हें अपने लिए राशन मिल पाया न अपने पशुओं के लिए चारा। लॉकडाउन में दुग्ध विक्रय का कार्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। इन पशुपालक आदिवासियों को भुखमरी का सामना करना पड़ रहा है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 6 अप्रैल 2020 को एक आदेश जारी कर देश के सभी नेशनल पार्कों, वाइल्ड लाइफ सैंकचुरीज और टाइगर रिज़र्व में लोगों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया जिससे पशुओं और मनुष्यों के परस्पर संपर्क पर रोक लगाई जा सके। प्रायः सभी स्थानों पर इस आदेश की गलत व्याख्याएं की गईं और संबंधित संरक्षित क्षेत्रों के आसपास निवास करने वाले आदिवासियों के इनमें प्रवेश पर रोक लगाई गई। यह आदिवासी अपनी आजीविका के लिए इन संरक्षित क्षेत्रों के वनों पर निर्भर हैं। इनके जीवन का ताना बाना इन वनों के इर्द गिर्द बुना गया है। यह प्रतिबंध इन पर बहुत भारी पड़ रहा है।

ग्राउंड जीरो में मई 2020 में प्रकाशित वन अधिकार कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं और विशेषज्ञों द्वारा कोविड-19 लॉकडाउन के आदिवासी समुदाय पर प्रभाव के संबंध में तैयार की गई एक अत्यंत महत्वपूर्ण रिपोर्ट में उपर्युक्त बिंदुओं के अलावा यह भी बताया गया है कि आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बदहाल है और यहाँ पहले ही मलेरिया, टीबी जैसी घातक बीमारियां अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। कुपोषण आदिवासी समुदाय की प्रमुख समस्या है। कुपोषित और कमजोर स्वास्थ्य वाले आदिवासी समुदाय में कोविड-19 का प्रसार स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय दशा के मद्देनजर विनाशक सिद्ध हो सकता है।

कोविड-19 ने देश की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है।  सरकार देश की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की कोशिश में लगी है किंतु दुर्भाग्य यह है कि सरकार के यह प्रयत्न आदिवासी समुदाय के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। आत्मनिर्भर भारत बनाने की कोशिश में प्रधानमंत्री जी एवं उनकी सरकार ने निर्णय लिया  कि मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्थित 41 कोल ब्लॉक्स की वर्चुअल नीलामी की जाए। इनमें झारखंड,छत्तीसगढ़ और ओडिशा में प्रत्येक में 9 एवं मध्यप्रदेश में 11 तथा महाराष्ट्र में 3 कोल ब्लॉक हैं। सैंतालीस वर्षों के बाद अब सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड में प्राइवेट सेक्टर का प्रवेश होने वाला है। अब देशी और विदेशी कॉरपोरेट्स नो गो क्षेत्रों में वन्य जीवों और पेड़ पौधों की दुर्लभ प्रजातियों को नष्ट करते हुए, पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा देते हुए और इन क्षेत्रों में निवासरत आदिवासियों के जीवन को अस्तव्यस्त करते हुए कोयले का दोहन कर सकेंगे।

माइनिंग की प्रक्रिया को सरल बनाने के नाम पर माइंस एंड मिनरल्स(डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 तथा माइनिंग(स्पेशल प्रोविजन)एक्ट 2015 को संशोधित करते हुए मार्च 2020 में मिनरल लॉज़ अमेंडमेंट एक्ट पारित किया गया। अब विदेशी पूंजीपति भी कोल ब्लॉक की नीलामी का हिस्सा बन सकेंगे और फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।

अगस्त 2019 में ही मोदी सरकार ने कोयले के खनन, प्रसंस्करण और विक्रय के लिए आटोमेटिक रुट से शतप्रतिशत एफडीआई को स्वीकृति दे दी थी। सरकार पूंजीपतियों को उपकृत करने की हड़बड़ी में आदिवासियों को पांचवीं अनुसूची में प्राप्त विशेषाधिकारों की अनदेखी तो कर ही रही है, वन अधिकार कानून 2006, पेसा एक्ट 1996, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, लैंड एक्वीजीशन रिहैबिलिटेशन एंड रीसेटलेमेंट एक्ट 2013 तथा एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन 2006 के प्रावधानों की मूल भावना से खिलवाड़ भी कर रही है।

स्वयं नीति आयोग ने 2013 में गठित हाई लेवल कमेटी ऑन सोशियोइकोनॉमिक, हेल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्युनिटीज इन इंडिया की रिपोर्ट पर 2015 में दी गई अपनी टिप्पणी में स्वीकार किया है कि वन अधिकार अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधान इनके क्रियान्वयन के दौरान बरती गई उदासीनता तथा जानबूझकर की गई छेड़छाड़ के कारण अप्रभावी बना दिए गए हैं। आयोग ने यह भी माना कि केंद्र और राज्य सरकारें ऐसी नीतियों का निर्माण और अनुसरण करती रही हैं जो आदिवासियों के बुनियादी अधिकारों को प्रतिष्ठित करने की वन अधिकार अधिनियम की मूल भावना के एकदम विपरीत है।

सरकार एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन 2020 में जिन संशोधनों के साथ आ रही है वे गहरी चिंता उत्पन्न करने वाले हैं। बी2 केटेगरी में सूचीबद्ध प्रोजेक्ट्स को ईआईए एवं जन सुनवाई से छूट, परियोजनाओं के विस्तार और आधुनिकीकरण में ईआईए और जन सुनवाई की अनिवार्यता को खत्म करना, पोस्ट फैक्टो एनवायरनमेंट क्लीयरेंस देना(बिना अनुमति के प्रारंभ किए गए प्रोजेक्ट्स को क्लियर करना),जन सुनवाई के लिए नोटिस पीरियड को 30 दिन से घटाकर 20 दिन करना आदि संशोधन निवेशकों और उद्योगपतियों के पक्ष में हैं और इनका परिणाम परियोजना प्रभावितों के लिए विनाशकारी होगा।

आंकड़े भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं। हमारे देश में आज़ादी के बाद से विकास के नाम पर चलाई जा रही विभिन्न परियोजनाओं के कारण लगभग 10 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। इनमें से लगभग एक करोड़ बीस लाख लोग माइनिंग गतिविधियों के कारण विस्थापित हुए हैं। इन विस्थापितों में 70 प्रतिशत आदिवासी हैं। कुल विस्थापित लोगों में से केवल 25 प्रतिशत लोग ही माइनिंग कंपनियों से किसी तरह का मुआवजा या नौकरी प्राप्त कर सके हैं। यह आदिवासी अशिक्षित हैं, असंगठित हैं, निर्धन हैं और हमारे भ्रष्ट तंत्र में उद्योगपतियों के हित के प्रति समर्पित सरकारों के साथ मुआवजे और पुनर्वास की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ना इनके बस की बात नहीं है। इन आदिवासियों के जीवन से जंगल को निकाल देने के बाद जो शून्य उत्पन्न होता है उसकी पूर्ति किसी आर्थिक मुआवजे से संभव नहीं है। कैश बेस्ड रिहैबिलिटेशन एंड रेसेटलेमेंट ने किस तरह परियोजना प्रभावित लोगों(पैप्स) के जीवन को तबाह किया है, हम सभी जानते हैं।

नीलामी हेतु प्रस्तावित कोल ब्लॉकों में महाराष्ट्र का बांदेर कोल ब्लॉक स्वयं कोल इंडिया लिमिटेड  द्वारा कराए गए अध्ययनों में 80 प्रतिशत वन क्षेत्र युक्त एवं पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील कॉरिडोर के रूप में चिह्नित किया गया है। उड़ीसा में  नीलामी वाले 9 कोल ब्लॉक्स में 8 अंगुल जिले में हैं। औद्योगिक विकास और माइनिंग के कारण तालचेर-अंगुल तथा इब वैली केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा क्रिटिकली पॉल्यूटेड एरिया घोषित किये जा चुके हैं। मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर का गोटीटोरिया ईस्ट कोल ब्लॉक भी 80 प्रतिशत वन क्षेत्र युक्त है। छत्तीसगढ़ में प्रस्तावित नीलामी क्षेत्रों में लेमरू एलीफैंट रिज़र्व स्थित है। प्रस्तावित क्षेत्र में 4 चालू और 5 आबंटित माइंस पहले से स्थित हैं।

वनों के महत्व और आदिवासियों के अधिकारों की अनदेखी का मामला इन यहां तक सीमित नहीं है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी द्वारा 15 जनवरी 2019 को छत्तीसगढ़ में पारसा ओपन कास्ट कोल माइंस को स्टेज 1 का प्रीलिमनरी फारेस्ट क्लीयरेंस दिया गया। आदिवासी बहुल सूरजपुर और सरगुजा जिले में स्थित यह क्षेत्र एक लाख सत्तर हजार हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य का हिस्सा है जो सघन वनों से आच्छादित है। इसी में से 841.538 हेक्टेयर जैव विविधता से परिपूर्ण हिस्से को यहाँ माइनिंग के लिए दिया जा रहा है। 2009 में पर्यावरण मंत्रालय ने सघन और विविधता पूर्ण वनों की उपस्थिति के कारण हसदेव अरण्य को माइनिंग के लिए नो गो जोन घोषित किया था। इसके बाद भी यहाँ माइंस के खुलने का सिलसिला जारी रहा। हसदेव अरण्य गोंड आदिवासियों का आवास है।  हसदेव अरण्य में 30 कोल ब्लॉक हैं और यहाँ निवास करने वाले आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि उनके आवास के नीचे एक बिलियन मीट्रिक टन से ज्यादा कोयले के भंडार हैं। हसदेव अरण्य में स्तनपायी जीवों की 34, सरीसृपों की 14, पक्षियों की 111 और मत्स्य वर्ग की 29 प्रजातियां हैं। इसी प्रकार वृक्षों की 86, औषधीय पौधों की 51, झाड़ी प्रजाति के पौधों की 19 और घास प्रजाति के पौधों की 12 प्रजातियां यहाँ मौजूद हैं। इसके बाद भी यहां माइनिंग होती रही है और संभवतः वनों तथा आदिवासियों के विनाश तक जारी रहेगी। 

आदिवासियों का दुर्भाग्य यहीं समाप्त नहीं होता। हसदेव अरण्य का जो थोड़ा बहुत हिस्सा माइनिंग से बच गया है वहां पर एलीफैंट रिज़र्व बनना प्रस्तावित है और जैसा एक नया चलन देखा जा रहा है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर यहाँ से भी आदिवासियों को विस्थापित किया जा सकता है। अनेक अध्ययन यह सिद्ध करते हैं कि पर्यावरण संरक्षण का कार्य आदिवासियों से बेहतर कोई नहीं कर सकता। इसके बाद भी देश के टाइगर रिज़र्वस से हजारों आदिवासी परिवारों का विस्थापन किया जा रहा है।

सर्वाइवल इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं टाइगर रिज़र्व से आदिवासियों के स्वैच्छिक विस्थापन के दावों पर सवाल उठा रही हैं। इनका कहना है कि आदिवासियों पर दबाव डालकर उनसे सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कराए गए हैं। कॉर्पोरेट पर्यावरण विदों और टाइगर लॉबी को आदिवासियों के विस्थापन की अपनी कोशिशों में एक बड़ी सफलता तब मिलने वाली थी जब उच्चतम न्यायालय ने 13 फरवरी 2019 को एक आदेश पारित किया जिसमें उसने देश के करीब 21 राज्यों के 11.8 लाख से अधिक आदिवासियों और वनों में रहने वाले अन्य लोगों को वन भूमि से बेदखल करने की बात की थी। दरअसल, ये लोग अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2006 के अधीन वनवासी के रूप में अपने दावे को सिद्ध नहीं कर पाए थे। बाद में जब अनेक संगठनों ने इस आदेश का विरोध किया और स्वयं केंद्र सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के हवाले से यह बताया कि प्रभावित परिवारों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है और करीब 20 लाख आदिवासियों और वन वासियों पर इस आदेश का असर पड़ सकता है तब जाकर केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप किया और सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगाई। यह मामला एक वर्ष से चल रहा था और इस पूरी समयावधि में केंद्र सरकार की रहस्यमय चुप्पी अनेक सवाल खड़े करती है। वास्तव में कॉरपोरेट समर्थक पर्यावरणविद और संरक्षणवादी वन अधिकार कानून 2006 को भारतीय वन अधिनियम, वाइल्ड लाइफ एक्ट तथा पर्यावरण संबंधी अन्य अनेक कानूनों का उल्लंघन करने वाला और असंवैधानिक बताकर खारिज कराना चाहते हैं।

प्रसंगवश यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि नागरिकता के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करने को आवश्यक बनाने वाली सीएए और एनआरसी जैसी प्रक्रियाएं आदिवासियों को बहुत पीड़ित करेंगी क्योंकि अनेक अध्ययन यह बताते हैं कि अशिक्षा, गरीबी और जागरूकता का अभाव तथा पहुंच विहीन असुविधाजनक स्थानों में आवास ऐसे कारण हैं जिनके फलस्वरूप आदिवासियों के पास आज आवश्यक बनाए जा रहे दस्तावेज संभवतः उपलब्ध नहीं होंगे।

आदिवासी संस्कृति भी विनष्ट होने की ओर अग्रसर है। सरकारों और निजी संस्थाओं के लिए आदिवासी संस्कृति प्रदर्शन और तमाशे  का विषय रही है।  कुछ निजी कंपनियां सामाजिक उत्तरदायित्व के नाम पर जो स्कूल चला रही हैं उनमें प्रायः परियोजना प्रभावित लोगों के बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाता। इनमें दी जाने वाली शिक्षा का पाठ्यक्रम किसी भी दृष्टि से आदिवासी संस्कृति और परंपरा से संबंधित नहीं होता। यह हमारी सामान्य मानसिकता है कि आदिवासी जब तक हमारी तरह पढ़े लिखे शहरी बाबू बनकर अपनी सभ्यता और संस्कृति को हिकारत से देखने नहीं लगेंगे तब तक उन्हें सभ्य समाज का हिस्सा नहीं माना जा सकता। इधर सरकार है कि आदिवासियों को वनवासी बताकर धीरे धीरे उनका हिंदूकरण करने में लगी है।

ऐसी हालत में आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति का विलोपन एक अनिवार्य परिणति है।

आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन रेखांकित करते हैं कि न्यायपालिका के हाल के वर्षों के अनेक फैसले यह संदेह उत्पन्न करते हैं कि या तो आदिवासियों का पक्ष माननीय न्यायालय के सम्मुख रखने में सरकार की ओर से कोताही की जा रही है या फिर न्यायपालिका का एक हिस्सा सवर्ण मानसिकता से अभी भी संचालित हो रहा है।

सन् 2018 में सुप्रीम कोर्ट की 2 जजों की बेंच ने एससी/एसटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट 1989 के प्रावधानों को कमजोर करने वाला एक फैसला दिया था। फरवरी 2020 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण की मांग कोई बुनियादी अधिकार नहीं है। यदि सेवाओं में प्रतिनिधित्व अपर्याप्त भी है तब भी सरकार आरक्षण देने को बाध्य नहीं की जा सकती। 22 अप्रैल 2020 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आरक्षण की संकल्पना के बारे में विपरीत लगने वाली टिप्पणियां कीं। 

आदिवासी उत्पीड़न के मामलों और इन मामलों में दोषियों को मिलने वाली सजा के नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो द्वारा दिए जाने वाले आंकड़ों की अलग अलग व्याख्याएं होती रही हैं। इतना तो तय है कि आदिवासी जितने पिछड़े और कमजोर हैं इन पर होने वाले अत्याचार और हिंसा, इनके शोषण एवं दमन के अधिकांश मामलों की सूचना तक पुलिस को नहीं मिल पाती होगी और सूचना मिलती भी होगी तो एफआईआर नहीं लिखी जाती होगी।

जहां तक दोषियों को दंड मिलने का प्रश्न है, अधिकांश मामलों में आदिवासियों पर दबाव बनाकर केस वापस लेने को मजबूर किया जाता है। अशिक्षित और निर्धन होने के कारण लंबी कानूनी लड़ाई लड़ना और अपना पक्ष सक्षम रूप से न्यायालय में रखना इन आदिवासियों हेतु बहुत कठिन होता है। किंतु लो कन्विक्शन रेट की यह व्याख्या कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है और अधिकांश शिकायतें फर्जी होती हैं, अमानवीय है। उसी तरह आदिवासियों के साथ होने वाले अत्याचारों की अंडर रिपोर्टिंग को अपराधों में कमी के रूप में दर्शाकर अपनी उपलब्धि बताना भी शरारतपूर्ण है।

कोविड-19 के कारण उत्पन्न परिस्थितियों ने आदिवासी समुदाय के समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित कर दिया है। यह समय अतिशय सहानुभूतिपूर्वक  योजनाबद्ध रूप से उनकी खाद्य सुरक्षा, आर्थिक मजबूती और चिकित्सकीय सुविधाओं के विस्तार के लिए कार्य करने का है किंतु दुर्भाग्यवश सरकार उन्हें अपने आवास से बेदखल कर उनके जंगलों को विनष्ट करने वाली योजनाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता के नाम पर बड़ी तेजी से लागू करने की कोशिश कर रही है।

(राजू पाण्डेय वरिष्ठ लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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