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व्यासी परियोजना की झील में डूबा जनजातीय गांव लोहारी, रिफ्यूज़ी बन गए सैकड़ों लोग

“हमारी ऐसी फोटो खींचना जो सीधे मोदी जी तक पहुंचे। हमारी ऐसी फोटो खींचना जिससे दुनिया को पता चले कि हमारे साथ क्या-क्या अन्याय हुआ। ...अपनी यात्रा में गंगोत्री-जमुनोत्री-केदारनाथ में उन्होंने कई करोड़ खर्च किए और हम यहां पड़े हैं। हमारी ऐसी फोटो खींचना जो उन तक हमारी बात पहुंचे और हमारा कोई ठिकाना हो”।
submerged village
व्यासी जल विद्युत परियोजना की झील में डूबा जनजातीय गांव लोहारी

बिजली-पानी के लिए यमुना नदी पर बनी व्यासी जलविद्युत परियोजना की झील का पानी 630 मीटर तक चढ़ गया है। अपने डूबते घरों को देखते हुए यहां के लोगों की आंखों में कई झीलें उतर आई हैं। वे अपने आंसू पोछते हैं और थोड़ी देर में फिर सिसकियां शुरू हो जाती हैं। गांव डूबने की ख़बर सुनकर बाहर रह रहे रिश्तेदार पहुंच रहे हैं। यहां से विदा हो चुकी बेटियां अपने डूबते घरों को अंतिम बार देखने के लिए आ रही हैं। झील के मुहाने पर खड़े होकर कहती हैं “जिन आंगनों में किलकारियां मारीं वे डूब गईं”।

ये उत्तराखंड के देहरादून ज़िले के कालसी विकास खंड में जौनसारी संस्कृति वाले गांव लोहारी के जनजातीय लोग हैं। व्यासी जल विद्युत परियोजना की झील में इनके घर-खेत समेत गांव का ज्यादातर हिस्सा समा गया है। जैसे टिहरी बांध की झील में कई गांव जलमग्न हुए थे। लोहारी एक बार फिर उसी इतिहास को दोहरा रहा है। महानगरों की बिजली-पानी की जरूरत पूरी करने की कीमत हिमालयी गांव अपनी धरती-मिट्टी-स्मृति-संस्कृति को खोकर चुका रहे हैं। 

पूर्व माध्यमिक विद्यालय में लोहारी गांव के कई परिवारों ने शरण ली हुई है।

48 घंटे में गांव खाली करने का नोटिस

लोहारी के लोग कहते हैं “5 अप्रैल को 48 घंटे में गांव खाली करने का नोटिस दे दिया गया था। हमें हफ्ता-दस दिन का समय भी नहीं दिया। हमने जरूरी सामान, बिस्तर, बर्तन निकाले। खिड़कियां, दरवाजे, छत उखाड़े। अब वे लकड़ी के ढेर की तरह पड़े हुए हैं। ये हमारा घर हुआ करते थे”।

झील से ही लगे गांव के जूनियर हाईस्कूल के 4 कमरों में करीब 20 परिवारों ने डेरा डाला है। स्कूल से सटे 4 कमरों के खंडहर नुमा मकान में 11 परिवार रह रहे हैं। कुछ परिवारों ने विकासनगर के अपने घरों और रिश्तेदारों के यहां शरण ली है। साझे चूल्हे पर खाना पकाया जा रहा है। इतने सारे लोगों के लिए शौचालय की कोई पक्की व्यवस्था नहीं है। पानी टैंकर से मंगाया जा रहा है। बूढ़े-बच्चे असमंजस की स्थिति में बांध रिफ्यूजी बन गए हैं।

यहां पहुंचते ही मेरी मुलाकात राजेंद्र सिंह तोमर से हुई। मुझे देखकर उनकी आंखें डबडबा गईं। एक गहरी ख़ामोशी थी। करीब 2 महीने पहले जनवरी में हरे-भरे लोहारी गांव में हम मिले थे। वह चाहते थे कि हमारी कहानी लोगों तक पहुंचे, सरकार तक पहुंचे और उनकी मांगें पूरी हों।  

झील की तरफ इशारा कर ग्रामीण दिखाते हैं, कड़ी धूप में कड़ी मेहनत के साथ उगाई गेहूं की बालियां खेतों में डूब गईं। झील के पानी में से झांकते प्याज के फूलों को दिखाते हुए वे कहते हैं “उन्होंने हमें हमारी फसल भी नहीं काटने दी।”। पशुओं के लिए रखा भूसा पानी पर तैरता दिशाहीन बढ़ रहा है। “उसकी तस्वीर ले लो, वो हमारे पशुओं का चारा है।”।

स्कूल में ठहरी बिजमा देवी कहती है कि हमारे साथ हुआ अन्याय पूरी दुनिया को पता चले, हमारी ऐसी फोटो खींचना

स्कूल के कमरे में बड़े-बड़े बक्सों में उनकी बरसों की गृहस्थी रखी थी। बड़ी-बड़ी गठरियों में जैसे गांव डूबने का दर्द बांधकर रखा था। बिजमा देवी कहती हैं “हमारी ऐसी फोटो खींचना जो सीधे मोदी जी तक पहुंचे। हमारी ऐसी फोटो खींचना जिससे दुनिया को पता चले कि हमारे साथ क्या-क्या अन्याय हुआ। अपनी यात्रा में गंगोत्री-जमुनोत्री-केदारनाथ में उन्होंने कई करोड़ खर्च किए और हम यहां पड़े हैं। हमारी ऐसी फोटो खींचना जो उनके तक हमारी बात पहुंचे और हमारा कोई ठिकाना हो”।

यहीं गोद में बैठा करीब डेढ़ साल का मासूम बच्चा अपनी युवा मां से सीख रहा है “हमारा गांव डूब गया, हमारा घर डूब गया, हम कहां जाएंगे”। आखिरी वाक्य वह खुद ही कह देता है और मां को आश्चर्य होता है।

48 घंटे में एक गांव दरवाजे-खिड़की-छतों की लकड़ी के जमा किए ढेर, कपड़ों की बड़ी-बड़ी पोटली, चूल्हे-बर्तनों, बिखरे सामानों में बिखर गया। वे अपने लोकदेवता “पांडव” के प्रतीक भी साथ लाए और झील के लिए लगे निशान के पास उनके विराजमान किया।   

मुआवजे और पुनर्वास को लेकर गांववालों और प्रशासन में सहमति नहीं बन सकी है।

झील से ज़्यादा गहरी निराशा

स्कूल के बरामदे में बैठी तकरीबन 90 वर्ष की गांव की सबसे बुजुर्ग महिला सिर झुकाए चुपचाप अपने आंसू पोछती रहती हैं। तकरीबन 70 वर्ष की गुल्लो देवी एक कुर्सी पर पस्त पड़ी हैं। गांव के आंदोलनों में वे खूब बोलती थीं। आज चुप रहना चाहती हैं।

मनीषा तोमर कहती हैं “नियम के अनुसार हमें विस्थापित करते। हमें पता था कि हमें यहां से जाना है, पर ऐसे जाना था। हमने कोई जुर्म किया था, जो भगाया जा रहा था। गांव के बाहर घरों को तोड़ने के लिए जेसीबी लगी थी। देखो अब हम कैसे यहां स्कूल में पड़े हुए हैं”।

“लोग बोल रहे हैं कि हमें बहुत मुआवजा मिला है। कई-कई बार मुआवजा मिला है। हमें भी तो पता चले कि कहां है मुआवजा। कहीं कागज में है तो हमें दिखाओ। मुआवजा मिला होता तो शहरों में हमारे मकान बने हुए होते। हम ऐसी हालत में स्कूल में पड़े होते क्या?” मनीषा कहती हैं।  

जून से लेकर अक्टूबर 2021 तक जमीन के बदले ज़मीन की मांग को लेकर लोहारी के ग्रामीणों ने लंबा धरना प्रदर्शन किया। गांव के पुरुषों पर कई गंभीर धाराओं में मामले दर्ज कर प्रशासन ने आंदोलन खत्म कराया।

ब्रह्मी देवी कहती हैं “5 महीने हमने आंदोलन किया था कि हमारा गांव सामूहिक रूप से बसा दो। हमें थोड़ी बहुत ज़मीन दे दो। ताकि हमारी संस्कृति बनी रहे। हमारे नाते-रिश्तेदार बने रहें”।

“वे हमारे गांव से 40-45 किलोमीटर दूर कालसी में ही दोहेरा खादर क्षेत्र में एक परिवार को 25 वर्गमीटर की जगह दे रहे हैं। वहां एक कमरे का घर बनाने को कह रहे हैं। उस एक कमरे में हम क्या करेंगे। हमारी खेती का क्या होगा। अपने पशु कहां रखेंगे। उनके चारा-पत्ती का इंतजाम हम कैसे करेंगे। वहां के जंगल पर हमारा कोई अधिकार नहीं होगा। वे दूसरे गांव के जंगल हैं”।

ग्रामीणों के मुताबिक मुआवजे को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है। ब्रह्मी देवी बताती हैं “5 अप्रैल की सुबह प्रशासन ने बैंक से हमारे खाता नंबर लिए। जिनके खाता नंबर मिल गए उनके अकाउंट में कुछ पैसे डाले। लेकिन किसको पैसे मिले, किसे नहीं, हमें कुछ पता नहीं है”।

ब्रह्मी बताती हैं “जिन लोगों को मुआवजा दिया भी गया और उनमें कोई ऐसा व्यक्ति है, जिनके पिता ने या उसे खुद यूजेवीएन (उत्तराखंड जल विद्युत निगम) में कोई नौकरी की हो, ठेकेदारी की हो, ड्राइवर-चौकीदार रहा हो, तो उनके हिस्से से 5 लाख रुपए काट लिए गए। कुछ लोगों को छोटे-छोटे रोजगार मिले थे, कोई अफसर तो था नहीं, किसी ने बैंक से कर्ज लेकर अपनी गाड़ी लगाई थी तो उसके भी 5 लाख काट लिए। हम आपको उतनी व्यथा नहीं सुना सकते, जितना अन्याय हुआ”।

घरों से उखाड़ कर लाए गए दरवाजे-खिड़कियों के ढेर

“सरकार हमें एक बीघा ज़मीन का 5 लाख रुपया दे रही है। हमें ये नहीं पता कि घर का कितना मुआवजा बनाया। गौशाला, खेत-खलिहान के कितने रुपए बनाए। हमारी कुछ ज़मीन व्यासी झील में डूब गई। कुछ ज़मीन लखवाड़ परियोजना की झील में डूब जाएगी। कुछ ज़मीन बाकी रह जाएगी। यहां से विस्थापित होकर बाकी बची हुई ज़मीनों की देखरेख कैसे करेंगे”। ग्रामीण सुचीता तोमर कहती हैं।

ज़मीन के बदले ज़मीन या फिर एक साथ बसाए जाने की मांग पूरी न होने पर गांव के कुछ लोगों ने अपने खाते बंद भी करा दिए ताकि प्रशासन जबरन अकाउंट में पैसे न डाल सके।

सुचीता बताती हैं बांध की झील के चलते विस्थापित होने की मुश्किलें और आंदोलनों के बावजूद पिछले 1-2 वर्ष में कोई जनसुनवाई नहीं हुई। एसडीएम स्तर के अधिकारियों से बातचीत में सिर्फ यही पता चला कि ज़मीन के बदले ज़मीन नहीं मिलेगी और जो मुआवजा तय किया गया है, उसे ही स्वीकार करना होगा।

गांव के ज़्यादातर महिला-पुरुष निराशा और अवसाद से भरे हुए मिले।

प्रशासन का पक्ष

स्थानीय प्रशासन के मुताबिक लोहारी गांव के कुल 66 परिवारों को मुआवजे और पुनर्वास को मिलाकर करीब 15 करोड़ रुपए दिए गए हैं। इनमें से 2-3 परिवार मुआवजा लेने को तैयार नहीं हैं। एसडीएम कालसी सौरभ असवाल कहते हैं कि मुआवजा न लेने वाले परिवारों के चेक काटकर रखे हुए हैं। उन्हें ठहरने के लिए पालनखेड़ा में यूजेवीएन के मकानों में व्यवस्था की गई है। मगर वे गांव से लगे स्कूल से हटने को तैयार नहीं हैं।

ग्रामीणों ने प्रशासन को गांव के नजदीक ही ज़मीन भी दिखाई है जहां उन्हें बसाया जा सकता है। एसडीएम बताते हैं “वहां हाईवोल्टेज लाइन प्रस्तावित है। हम देख रहे हैं कि क्या हाईवोल्टेज लाइन को किसी अन्य जगह शिफ्ट किया जा सकता है ताकि ग्रामीणों को यहां बसाया जा सके”।

यमुना नदी पर तैयार 120 मेगावाट की व्यासी जलविद्युत परियोजना

व्यासी परियोजना

देहरादून के कालसी विकासखंड में 120 मेगावाट की व्यासी परियोजना 420 मेगावाट के लखवाड़ व्यासी बहुद्देश्यीय परियोजना का हिस्सा है। ये यमुना नदी पर बन रहा सबसे बड़ा जलविद्युत बांध परिसर है। परियोजना की दो टर्बाइन का सफल ट्रायल किया जा चुका है। व्यासी झील तकरीबन 5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। अधिकतम जलस्तर 631 मीटर तय किया गया है।

व्यासी परियोजना तकरीबन तैयार हो चुकी है। ट्रांसमिशन लाइन से जुड़ा आखिरी काम बाकी रह गया है। उत्तराखंड जलविद्युत निगम लोहारी गांव के हटने का इंतज़ार कर रहा था।

इस परियोजना की नींव 1972 में पड़ी थी। उनके पुरखों ने गांव की ज़मीन को लेकर समझौते किए थे। लेकिन कीमत मौजूदा पीढ़ी को चुकानी पड़ रही है। 1977-1989 के बीच गांव की 8,495 हेक्टेअर भूमि अधिग्रहित की गई। लखवाड़ परियोजना के लिए भी गांव की 9 हेक्टेअर ज़मीन चिन्हित की जा चुकी है। इसके अलावा भी गांववालों की कुछ ज़मीन यहीं रह जाएगी। गैर-अधिग्रहित ज़मीन पर भी कहीं-कहीं झील का पानी चढ़ आया है।  

झील में डूबते गांव को देखने के लिए आसपास से लोग पहुंच रहे हैं। विकास और विस्थापन का एक नया सेल्फी प्वाइंट बन गया है।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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