Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ऋषि सुनक की 'जय-जयकार' का रियलिटी चेक

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ऋषि सुनक एक ऐसे राष्ट्र में धार्मिक और नस्लीय अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधि हैं, जिन पर अभी भी श्वेत ब्रितानियों का वर्चस्व है।  हालाँकि, उनकी नीतियां जो हिंदुत्व ब्रिगेड सोचती है वैसी नहीं हो सकती हैं।
rishi sunak
फ़ोटो साभार: पीटीआई

"सुनक भारतीय होने के मुक़ाबले हिंदू अधिक हैं। इस बात को वे और उनकी हिंदू पत्नी मानती है और सबसे प्रसिद्ध किस्सा तो यह है कि, उन्होंने ब्रिटिश सांसद के रूप में भागवत गीता की शपथ ली थी। वह अपनी हिंदू परंपराओं और संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। यहीं वह सीमा है जिसके बाद उनका भारतीय संबंध समाप्त हो जाता है। वे एक स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश मूल के बेरिस्टर हैं, बिना किसी संदेह के यह विचार उनके "एक स्कूल के साथी ने व्हाट्सएप ग्रुप (यहां उनकी पहचान छिपाई जा रही है) में पोस्ट किया है। 

ऋषि सुनक के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में चुने के बाद, भारत में महत्वपूर्ण तबकों और दुनिया भर में फैले भारतीय मूल के लोगों, विशेष रूप से बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्रवाद के प्रति झुकाव रखने वालों के बीच काफी उत्साह देखने को मिला है।

इन समूहों द्वारा इस घटना को एक बड़े उत्सव और अवसर के रूप में चित्रित किया जा रहा है क्योंकि भारतीय मूल के किसी व्यक्ति और वह भी हिंदू रीति-रिवाजों पर विश्वास करने वाला व्यक्ति उस देश के 'शासक' के रूप में चुना गया है जिसने कभी भारत को अपना गुलाम/उपनिवेश बनाया था। हालाँकि, इस किस्म की प्रतिक्रिया अपने आप में अराजक और सांप्रदायिक है।

पोस्ट में कई लोगों ने तर्क दिया है कि सुनक का ब्रिटिश तखत पर चुना जाना, 'हिंदू भारत' की तरफ से पश्चिमी दुनिया में 'उपनिवेशीकरण' को पलटने की प्रक्रिया को और अधिक आगे  बढ़ाना है क्योंकि यह घटना अन्य कई अन्य देशों में भारतीय मूल के राजनेताओं को सरकार के पदों पर आसीन होने में मदद करेगा। (इन चर्चाओं में लियो वराडकर और कमला हैरिस सहित अन्य लोगों का उल्लेख किया गया है)

सुनक का इतना ऊपर उठना संभवतः संयोग तो था ही साथ ही उनकी कंजरवेटिव पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों द्वारा दिखाए गए अविवेक और गलतियों की वजह भी एक कारण था। साथ ही 2015 से सांसद रहते हुए और 2020 से 2022 तक राजकोष के चांसलर के रूप में उनकी उपलब्धियां इसका पुख्ता आधार बना। 

लेकिन, इस तथ्य के बावजूद कि कंजर्वेटिव पार्टी के पास पीछे हटने के लिए बहुत कम समय था, इसलिए मुख्य चरण में लिज़ ट्रस के इस्तीफे के बाद सुनक ने खुद को इस स्थिति में पाया, उनका यह उत्थान ब्रिटेन की बहुसांस्कृतिक विशेषता को अपनाने का एक दुर्लभ क्षण भी है।

काई मायनों में, सुनक का उत्थान देश के नस्लीय बदलाव को भी रेखांकित करता है, जो कई दशकों से चल रहा है क्योंकि अप्रवासी पूर्व उपनिवेशों से बड़ी संख्या में यहां आए थे।

इसके बावजूद, सदियों से चली आ रही नस्लीयता को पीछे छोड़ते हुए, सुनक की निर्णायक पद पर तरक्की को बेहतरी के लिए 'स्थायी' बदलाव नहीं माना जा सकता है। इस बात की संभावना है कि टोरी पार्टी के नेताओं ने अगले चुनाव से पहले ही नेतृत्व परिवर्तन की योजना बनाना शुरू कर दिया हो।

फिर भी, जिस धारणा के साथ हिंदू राष्ट्रवादी इस पर चर्चा कर रहे हैं, उसके विपरीत कारणों से यह घटना खुशी का कारण है।

सुनक अब जिस पद पर काबिज है, उसका उदय ब्रिटेन और कंजरवेटिव पार्टी दोनों के लोगों द्वारा देश की बहुसांस्कृतिक वास्तविकता को स्वीकार करने का परिणाम है, जो ब्रिटिश साम्राज्य के सिकुड़ने के समय से उभर रहा था, और इसकी वैश्विक प्रतिष्ठा और शक्ति कम होने लगी थी।

विडंबना यह है कि ब्रिटिश लोग अपनी बहुलवाद की स्वीकृति को उस वैचारिक समुदाय द्वारा सबसे मुखर रूप से बढ़ाया जा रहा है जो अपने ही राष्ट्र के भीतर खुद के बहुलवाद को नकारता रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सुनक एक ऐसे राष्ट्र में धार्मिक और नस्लीय अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधि है, जो अभी भी श्वेत ब्रितानियों के वर्चस्व वाला देश है।

सुनक की जय-जयकार करने से पहले, हिंदुत्व ब्रिगेड अपने भीतर झांकना चाहिए और दो प्रश्न पूछने चाहिए जिसने कुछ बेहतर जवाब मिलेगा: क्या भारत का वर्तमान राजनीतिक निज़ाम किसी मुस्लिम या ईसाई को कसी शीर्ष पद पर स्थान देगा या बढ़ावा देगा, एक ऐसी स्थिति जो केवल सजावटी न हो, बल्कि जो राजनीतिक ताक़त से भरपूर हो? वैसे भी, भारतीय जनता पार्टी ने जानबूझकर दोनों सदनों में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं रखने का फैसला किया है।

दूसरे, यदि भारतीय मूल का कोई व्यक्ति, जिसके पूर्वज कुछ दशक पहले एक ऐसे मार्ग से ब्रिटेन चले गए थे, जिसमें एक अफ्रीकी राष्ट्र में काफी समय बिताना शामिल था, उसके प्रधानमंत्री बनने को यदि इसे युगांतकारी घटना के रूप में देखा जा सकता है, तो भाजपा के प्रमुख नेता 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना का विरोध क्यों कर रहे थे?

स्वर्गीय सुषमा स्वराज, जिन्होंने बाद में नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में भी एक महत्वपूर्ण विभाग संभाला था, ने धम्की दी थी कि, यदि सोनिया गांधी का चयन/चुनाव प्रधानमंत्री के रूप में किया जाता है तो वे अपने सारे बाल मुंडवाकर खुदकुशी कर लेंगी। 

जब 25 अक्टूबर को सोशल मीडिया के योद्धाओं ने एक हिंदू और एक भारतीय (इस क्रम में न कि इसके उलटे क्रम में) पर खुशी का इज़हार करना शुरू किया, तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने के बाद, पार्टी के एक प्रमुख सदस्य ने तथ्यों को गलत ढंग से पेश किया। 

भाजपा के विदेश मामलों के विभाग के प्रमुख विजय चौथवाले ने दावा किया कि इटली में जन्मी गांधी ने "राजीव से शादी के बाद कई दशकों तक भारतीय नागरिकता लेने से इनकार कर दिया था"। इसके विपरीत, सच्चाई यह है कि वे 1968 में शादी के पंद्रह साल बाद 1983 में भारतीय नागरिक बन गई थी।

हालांकि स्पष्ट है, कि इस देरी को निश्चित रूप से "कई दशक" नहीं कहा जा सकता है। इसके अलावा, 1983 तक का इतना लंबा इंतजार, प्रचलित कानून में मौजूद कुछ शर्तों के कारण करना पड़ा था।

सुनक की हिंदू और भारतीय पहचान की जय-जयकार करते हुए, हिंदुत्व के समर्थकों ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया, शायद अपनी असहज प्रकृति के कारण, कि ब्रिटेन में, पिछले कुछ दशकों से, राजनीति में लोगों की पहचान हर गुजरते साल के साथ कम होती जा रही है।

यह भारत के मामले में काफी विरोधाभासी है, जहां पहचान आधारित राजनीति अब दैनिक मंत्र बन गई है। यहां तक कि सुरक्षा और संवैधानिक रूप से निर्धारित अधिकारों तक पहुंच भी व्यक्ति की पहचान पर निर्भर करती है।

इसके अलावा, हिंदू राष्ट्रवाद के बदसूरत बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण का भूत उन देशों पर अपना प्रभाव डालने लगा है जहां राजनीतिक दलों ने हिंदू भावनाओं को रियायतें दी हैं। हाल के वर्षों में, ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी ने हिंदू मतदाताओं और नागरिकों को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर लुभाया है, क्योंकि लेबर पार्टी ने पहले के दशकों में वर्ग की पहचान के आधार पर एशियाई प्रवासियों को लामबंद करने या उन्हें सूचीबद्ध करने के दृष्टिकोण की तरफदारी की  थी। 

2014 में जब मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में विदेशी धरती पर कदम रखा, तब से उन्होंने भारतीय प्रवासियों के लिए बड़े पैमाने पर 'रॉक-कॉन्सर्ट' शैली की सार्वजनिक सभाओं को संबोधित किया, जिसकी शुरुआत उन्होंने सितंबर 2014 में न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में की थी।

इन बैठकों में, मोदी ने प्रवासी भारतीयों को न केवल भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में संबोधित किया, बल्कि हिंदू हृदय सम्राट या हिंदू दिलों के महाराजा के रूप में भी संबोधित किया। जब वे राज्य के मुख्यमंत्री थे तब गुजरात दंगों के बाद चुनावी लाभ को पाने के लिए इस सार्वजनिक छवि का निर्माण किया गया था।

हिंदुओं के रूप में संबोधित करने से सुनक जैसे राजनीतिक नेताओं के मन में किसी भी किस्म का बदलाव नहीं आ सकता है, लेकिन इसने निश्चित रूप से भारतीय डायस्पोरा को 'हम' और 'उन' की तर्ज पर ध्रुवीकृत किया, क्योंकि वे खुद भारत के भीतर विभाजित हैं।

परिणामस्वरूप, बहुसांस्कृतिक सौहार्द के बावजूद, दक्षिण एशियाई समुदाय के भीतर ध्रुवीकरण कई देशों में एक दुखद वास्तविकता बन गया है। इसका एक बड़ा उदाहरण, सितंबर में लीसेस्टर में धार्मिक पहचान की तर्ज पर हिंसा का भड़कना था। 

इन अवसरों पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया अन्य देशों में हिंदुओं के समर्थन में 'बोलना', भारत के भीतर बहुसंख्यक समर्थन को मजबूत करने के उद्देश्य से प्रेरित है।

चिंता की बात यह है कि सुनक के उत्थान की बहुसंख्यक खुशी उन्हें उनके समर्थन आधार के गैर-हिंदू वर्गों से अलग कर सकती है और उस देश में बहुसंस्कृतिवाद की ताकतों को कमजोर कर सकती है। इससे निश्चित रूप से अगले चुनावों में कंजरवेटिव पार्टी का नेतृत्व करने की उनकी संभावना को नुकसान होगा। इस प्रकार, नए ब्रिटिश प्रधानमंत्री को अपनी हिंदू पहचान को अपनी आस्तीन पर नहीं पहनना चाहिए और अपनी सार्वजनिक भूमिका और व्यक्तिगत पसंद को स्पष्ट रूप से अलग करना चाहिए।

सुनक का प्रमुख पद पा लेना, बोरिस जॉनसन से लेकर लिज़ ट्रस तक, संभवतः इससे पहले भी, रूढ़िवादी नारेबाजी की अव्यवहारिकता का प्रमाण है।

सुनक की नियुक्ति की जयकार करने वालों के लिए इस बात को समझना बेहतर होगा कि जॉनसन और ट्रस को लोकप्रिय नारों के आधार पर कार्यालय में बिठाया गया था, जो व्यावहारिक नीतियां लागू करने विफल रहे, जिसके परिणामस्वरूप उनका कार्यकाल समय से पहले खत्म हो गया। 

यह दुनिया भर के लोकलुभावन लोगों के लिए भी एक सबक है, सबसे महत्वपूर्ण तो यह भारत के लिए बड़ा सबक है। आखिरकार, यह व्यवस्था सकारात्मक नीतिगत पहलों के कारण नहीं बनी है। बल्कि, मुख्य रूप से गैर-भारतीय धर्मों के अनुयायियों के खिलाफ नफरत और अविश्वास को बढ़ावा देने पर आधारित है।

लोकलुभावन नेताओं को यह बात समझ में आ जाए तो बेहतर होगा कि जॉनसन और ट्रस को वैचारिक रूप से संचालित नीतियों के कारण पद छोड़ना पड़ा था। कुछ महीने पहले तक जॉनसन अजेय दिखते थे। उनके शासन का गिराना और अपनी ही पार्टी में दरार पैदा करना उनकी कुछ त्रुटियों और अतीत के अविवेक से पैदा हुई हैं, जिस अविश्वसनीय काम को करने का भार अब सुनक पर है।

लेकिन सबसे बढ़कर जो बात है वह यह कि, भारत के भीतर चीयरलीडर्स को कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि सुनक, या उस मामले में, कमला हैरिस (यदि अधिक महत्वपूर्ण और स्वतंत्र निर्णय लेने का कोई अवसर उनके पास आता है), उन देशों के नागरिकों के रूप में काम करेंगे जिन्होंने उन पर भरोसा किया है, न कि भारतीय मूल के व्यक्तियों या हिंदुओं के रूप में वे ऐसा करेंगे। उनकी वह पहचान विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत दायरे तक सीमित है, भारत के विपरीत, जहां धार्मिक पहचान राजनीति का आधार है।

लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रीकॉन्फिगर इंडिया है। उन्हें @NilanjanUdwin पर ट्वीट किया जा सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Rishi Sunak Cheerleading Needs a Reality Check

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest