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महिलाओं को पुरुषों के बराबर आने के लिए करना होगा 3 सदियों का इंतज़ार?

लैंगिक भेदभाव को दुनिया से मिटाने में करीब 300 साल का समय लग सकता है। ऐसे में मौजूदा जेंडर गैप की खाई को पाटने के लिए सहयोग, साझेदारी और निवेश की ज़रूरत है।
GENDER GAP
image credit- Times

"महिलाओं की मौजूदा समय में राजनीतिक, आर्थिक, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक स्थिति में जो असमानता व्याप्त है उसे खत्म करने के लिए विश्व स्तर पर तीन सदी तक का इंतज़ार करना होगा।"

ये निष्कर्ष संयुक्त राष्ट्र महिला और संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट प्रोग्रेस ऑन द सस्टेनेबल डेवलेपमेंट गोल्सः द जेंडर स्नैपशॉट 2022 का है। इस रिपोर्ट के अनुसार अलग-अलग क्षेत्रों में समान भागीदारी पाने के लिए और विकास के क्रम में शामिल होने के लिए महिलाओं को लंबा इंतजार करना पड़ सकता है। लैंगिक भेदभाव को दुनिया से मिटाने में करीब 300 साल का समय लग सकता है। ऐसे में मौजूदा जेंडर गैप की खाई को पाटने के लिए सहयोग, साझेदारी और निवेश की ज़रूरत है। बिना कार्रवाई, कानून व्यवस्था के महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा को खत्म नहीं किया जा सकता है। शादी और परिवार में उनके अधिकारों को सुरक्षित रखना भी बेहद ज़रूरी है।

बता दें कि इससे पहले ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 में कहा गया था कि दुनिया भर में मौजूदा लैंगिक असमानता को खत्म करने में 132 साल लग जाएंगे। वहीं दक्षिण एशिया में मौजूदा असमानता की बात करें तो यहां इस भेदभाव को खत्म करने के लिए लगभग 197 साल का इंतजार करना होगा। दुनिया के 146 देशों की लैंगिक असमानता पर जारी यह रिपोर्ट महिलाओं की शिक्षा, राजनीति, आर्थिक अवसर, स्वास्थ्य जैसे अन्य क्षेत्रों में उनकी स्थिति के आधार पर तैयार की गई थी।

क्या है रिपोर्ट में ख़ास?

यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की सहायक संयुक्त राष्ट्र महिला संगठन द्वारा तैयार की गई है और संगठन का मानना है कि महिलाओं को कार्यस्थल में शक्ति और नेतृत्व के मामले में समान प्रतिनिधित्व के लिए 140 साल और राष्ट्रीय संसदीय संस्थानों में समान प्रतिनिधित्व के लिए कम से कम 40 साल और इंतजार करना होगा। रिपोर्ट ये भी कहती है कि लैंगिक समानता हासिल करने के लिए किए जा रहे प्रयासों में प्रगति की वर्तमान दर पर कानूनी संरक्षण में व्याप्त कमियों को दूर करने और भेदभावपूर्ण कानूनों को हटाने में 286 साल तक का समय लगेगा।

यूएन विमिन के मुताबिक हाल के विभिन्न संकटों ने दुनिया के लैंगिक अंतर को और बड़ा कर दिया है। वैश्विक चुनौतियां जैसे कि कोविड-19 महामारी और उसके बाद हिंसक संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और महिलाओं के खिलाफ यौन हमले के कारण लैंगिक समानता की खाई और चौड़ी हो गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल के अंत तक लगभग 38.3 करोड़ महिलाओं और लड़कियों को अत्यधिक गरीबी में धकेल दिया जाएगा और उन्हें प्रति दिन 1.90 अमेरिकी डॉलर में जीवन बिताना होगाय़ इसकी तुलना में समान स्थिति से पीड़ित पुरुषों और लड़कों की संख्या लगभग 36.8 करोड़ होगी। ऐसे में भविष्य की संभावनाएं संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के तहत 2030 सार्वभौमिक लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिए निर्धारित समय से बहुत दूर हैं।

रिपोर्ट की मानें तो बाल विवाह की समस्या को 2030 तक खत्म करने के लिए, पिछले दशक से 17 गुना तेज़ काम करना होगा। सबसे अधिक गरीब, ग्रामीण क्षेत्र और संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों की लड़कियां इससे प्रभावित हैं। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में लोगों के पास भोजन, कपड़े और घर जैसी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त आय नहीं है।

दुनियाभर में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में ज़्यादा ग़रीबी

अगर गरीबी की बात करें, तो दुनियाभर में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में ज्यादा गरीबी देखी गई है। वैश्विक स्तर पर 380 मिलियन महिलाएं और लड़कियां गरीबी के निचले स्तर पर जीवन जीने के लिए मज़बूर हैं। साल 2021 में हर तीन में से एक महिला ने भोजन की असुरक्षा का सामना किया। युद्ध की वजह यह स्थिति और खराब देखने को मिली है। बढ़ती कीमतों की वजह से अधिक संख्या में महिलाओं और बच्चों के बीच भूख की समस्या अधिक बढ़ने की आशंका है। रिपोर्ट के मुताबिक़ अगर यही ट्रेंड चलता रहा तो सब-सहारा अफ्रीका में 2030 तक महिलाओं में और गरीबी बढ़ जाएगी।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी महिलाएं बहुत पीछे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि असुरक्षित अबॉर्शन, मातृत्व मुत्यु दर की अधिकता का सबसे बड़ा कारण है। वर्तमान में 1.2 बिलियन प्रजनन आयु वाली महिलाएं और लड़कियां ऐसे देशों और क्षेत्रों में रहती हैं जहां सुरक्षित अबॉर्शन पर रोक है। 102 मिलियन महिलाएं ऐसे क्षेत्र में रहती है जहां अबॉर्शन पर प्रतिबंध लगा है। ऐसी स्थिति महिलाएं के यौन प्रजनन अधिकारों की वास्तविकता को दिखाती है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड-19 की वजह से लड़कियों के स्वास्थ्य, महामारी ने महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर पुरुषों के मुकाबले ज्यादा असर पड़ा है। साथ ही रिपोर्ट के अनुसार 2019 के मुकाबले 2021 में महिलाओं के जीवन में पुरुषों के मुकाबले 1.6 साल की कमी देखी गई है। रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्र में रहने वाली आधी से अधिक महिलाओं नें रात में बाहर अकेले जाने पर असुरक्षित महसूस किया है। जबरन विस्थापित महिलाओं और लड़कियों की संख्या में दुनियाभर में बढ़ोत्तरी देखी गई है। साल 2021 में वैश्विक स्तर पर 12.4 मिलियन महिलाएं और लड़कियों की संख्या रिफ्यूजी के तौर पर दर्ज की गई है।

जेंडर गैप और भारत

गौरतलब है कि इस रिपोर्ट को अगर भारत के परिपेक्ष्य में देखें तो यहां महिलाओं की स्थिति और समस्या और भयंकर हो जाती है, इसकी बड़ी वहज रूढ़िवादी सोच, महिलाओं की संसाधनों तक कम पहुंच और असमान अवसर हैं। यहां एक लड़की को जन्म लेने से लेकर अपनी अपने जीवन में आगे बढ़ने तक तमाम संघर्षों से गुजरना पड़ता है। देश की शिक्षा हो या राजनीति हर जगह लैंगिक असमानता बनी हुई है। महामारी से गुजरते समय में भारत की स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे निचली रैंक देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की भयानक तस्वीर पेश करती है।

ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 में भी कुल 146 देशों की सूची में भारत 135वें पायदान पर था। यही नहीं वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्लूईएफ) द्वारा जारी इस इंडेक्स के मुताबिक भारत दुनिया के अंतिम ग्यारह देशों में शामिल है जहां सबसे ज्यादा लैंगिक असमानता मौजूद है। दक्षिण एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करनेवालों में भारत तीसरा देश है। भारत केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान से आगे है। लैंगिक असमानता के मामले में भारत अपने अन्य पड़ोसी देशों बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव और भूटान से भी काफी पीछे है।

बहरहाल, मौजूदा समय में सरकार भले ही बेटी बचाओ और महिलाओं की सुरक्षा के दावे करती हो लेकिन ज़मीनी वास्तविकता रिपोर्ट देश में जेंडर गैप की गंभीरता को दिखाती है। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता दिखाएगी या इसे भी नज़रअंदाज़ कर सच्चाई से मुह मोड़ लेती है।

इसे भी पढ़ें: मुद्दा : आख़िर क्यों नहीं देश में जेंडर आधारित भेदभाव खत्म हो रहा!

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