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यूपी : सत्ता में आरक्षित सीटों का इतिहास और नतीजों का खेल

बीते तीन विधानसभा चुनावों पर नज़र डालें तो ये आरक्षित सीटें किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए सत्ता में आने या उसे गंवाने के लिहाज़ से काफ़ी अहम मानी जाती हैं। इसलिए आमतौर पर आरक्षित सीटों पर राजनीतिक दलों की रणनीति सामान्य सीटों से अलग होती है।
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में आरक्षित सीटों का खेल कुछ ऐसा है कि जिस पार्टी ने इन सीटों पर बाज़ी मारी, सरकार उसी पार्टी की बनी। बीते तीन विधानसभा चुनावों पर नज़र डालें तो ये आरक्षित सीटें किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए सत्ता में आने या उसे गंवाने के लिहाज़ से काफ़ी अहम मानी जाती हैं। इस चुनाव में भी इन रिजर्व सीटों पर सभी सियासी दल अपने समीकरण तय करने में जुटे हैं। हालांकि इस बार स्थिति थोड़ी अलग है, फिर भी सवाल वही बरकरार है कि क्या प्रदेश की आरक्षित सीटों पर नतीज़ों का इतिहास एक बार फिर से खुद को दोहराएगा या इस बार कुछ नया देखने को मिलेगा?

बता दें कि 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में इस बार कुल 86 सुरक्षित सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जातियों की हैं। वहीं 2 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं। ये दोनों सीटें राज्य के दक्षिणी-पूर्वी ज़िले सोनभद्र में दुद्धी और ओबरा हैं। इन सीटों के लिए अब तक लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवारों का ऐलान भी कर दिया है।

रिज़र्व सीटों पर पार्टियों का दांव

खुद को दलितों के प्रतिनिधित्व वाली पार्टी कहने वाली बहुजन समाज पार्टी इस बार आरक्षित सीटों पर खास ध्यान दे रही है। अध्यक्ष मायावती की पूरी कोशिश है कि अनुसूचित जाति के वोटों के अलावा अगड़ी जाति के ख़ासकर ब्राह्मण समुदाय के मतदाताओं को भी अपनी तरफ़ किया जाए। उधर, समाजवादी पार्टी भी इन सीटों पर अपने 2012 का इतिहास दोहराने की पूरी फिराक में है। पार्टी रिजर्व सीटों पर बढ़त क़ायम करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है।

इन सीटों का एक रोचक तथ्य ये भी है कि हर विधानसभा चुनाव में आरक्षित सीटों पर सरकार विरोधी लहर रही है। ऐसे में सपा अपने हाथ से ये सुनहरा मौका गंवाना नहीं चाहती। वहीं बीजेपी भी आरक्षित सीटों पर जातियों के गणित को ध्यान में रखकर उम्मीदवारों के चयन से लेकर दूसरी जातियों के मतदाताओं को लामबंद करने तक पूरी तैयारी में जुटी है। हिंदू-मुस्लिम मतदाताओं के ध्रुवीकरण में अनुसूचित जाति के वोट कहीं छिटक न जाएं इस पर बीजेपी की खास नज़र है।

क्या है आरक्षित सीटों का समीकरण?

हर राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सीटों की संख्या को जन प्रतिनिधित्व क़ानून, 1950 की धारा 7 के तहत तय किया गया है। निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन आदेश, 1976 के अनुसार 2004 में अनुसूचित जातियों के लिए उत्तर प्रदेश में 89 विधानसभा सीटें आरक्षित की गई थीं। लेकिन परिसीमन आदेश, 2008 से यह संख्या घटाकर 85 कर दी गई।

2012 के विधानसभा चुनाव के बाद संसद में अध्यादेश के जरिए परिसीमन आदेश में संशोधन हुआ। और फिर प्रदेश में अनुसूचित जातियों के लिए 84 और अनुसूचित जनजातियों के लिए 2 सीटें तय की गईं।

2022 के चुनाव में अब महज़ कुछ ही दिन बचे हैं, ऐसे में आरक्षित सीटों पर मुक़ाबले के लिए सभी पार्टियां अपनी-अपनी रणनीति बना रही हैं। आमतौर पर आरक्षित सीटों पर राजनीतिक दलों की रणनीति सामान्य सीटों से अलग होती है, क्योंकि इन सीटों पर उम्मीदवार भले अनुसूचित जाति का होता है, लेकिन जीत-हार लगभग सभी जातियों के वोट से तय होती है। ऐसी स्थिति में आरक्षित सीटों पर ग़ैर-अनुसूचित जातियों के वोटों को लेकर राजनीतिक पार्टियों की रणनीति थोड़ी अलग होती है। वे उम्मीदवारों के चयन में इस बात का ख़ास ख़्याल रखते हैं कि अपनी जाति के अलावा उनकी दूसरी जातियों में कितनी पैठ है।

दरअसल, आरक्षित सीटों पर सभी उम्मीदवार अनुसूचित जाति के होते हैं। इसलिए अनुसूचित जातियों के वोट यहां बंट जाते हैं। ऐसे में दूसरी जातियों के वोट निर्णायक हो जाते हैं। कई बार पहले ऐसा देखा गया है कि जिस पार्टी की लहर होती है, आरक्षित सीटों पर अन्य जातियों के वोट भी उसी पार्टी के खाते में चले जाते हैं। इसके अलावा आरक्षित सीटों पर अगड़ी जाति के मतदाताओं के पास विकल्प कम होते हैं। उनके लिए उम्मीदवार से ज़्यादा पार्टी अहम होती है, जबकि सामान्य सीटों पर ऐसा नहीं होता।

आंकड़ों का गणित क्या कहता है?

आंकड़ों को देखें तो पिछले तीन विधानसभा चुनावों में आरक्षित सीटों के नतीजों ने सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई है। 2007 में प्रदेश की 89 आरक्षित विधानसभा सीटों में से 61 पर बहुजन समाज पार्टी ने जीत हासिल की थी। और प्रदेश की कुल 403 सीटों में से बसपा ने तब 206 सीटों पर क़ब्ज़ा कर पर्याप्त बहुमत के साथ अपने दम पर सरकार बनाई थी।

2012 के विधानसभा चुनाव में भी यही कहानी देखने को मिली थी। हालांकि इस बार समाजवादी पार्टी जीत के मुहाने पर खड़ी थी। इस चुनाव में सपा ने कुल 85 आरक्षित सीटों में से 58 पर जीत दर्ज़ की थी। वहीं राज्य में कुल 224 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत पाते हुए सपा ने लखनऊ का सिंहासन पा लिया।

पिछले 2017 विधानसभा चुनावों को देखें, तो आरक्षित सीटों ने तब भी इतिहास दोहराया और इस बार बाज़ी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में गई। 2017 में बीजेपी ने राज्य की कुल 86 आरक्षित सीटों में से 70 सीटों पर जीत हासिल की थी और सूबे में अकेले 309 सीटों पर विजयी होने के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई थी। इन आँकड़ों से साफ है कि जिस पार्टी ने आरक्षित सीटों पर बड़ी बढ़त हासिल की, उसने ही लखनऊ की सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाया।

महिला उम्मीदवारों का आरक्षित सीटों पर नहीं चला जादू

रिजर्व सीटों के इतिहास में एक और अहम बात निकल कर सामने आती है कि इन सीटों पर महिला उम्मीदवारों के पक्ष में नतीजे बेहद कम रहे हैं। पिछले तीन चुनावों पर नज़र डालें तो आरक्षित सीटों पर साल 2007 में 8 महिलाओं ने सफलता हासिल की। वहीं, 2012 में केवल 12 और 2017 के चुनाव में 11 महिलाओं ने ही जीत दर्ज़ की। इस तरह, आरक्षित सीटों पर जीत हासिल करने वाले क़रीब 90 प्रतिशत उम्मीदवार पुरुष रहे। हालांकि इसका बहुत बड़ा कारण पितृसत्ता और लैंगिग भेदभाव भी रहा है। पार्टियों को अक्सर महिलाओं की याद वोटर के तौर पर आती है, उम्मीदवार के तौर पर नहीं। 2022 का चुनाव शायद ऐसा पहला चुनाव होगा जिसमें महिला उम्मीदवारों की सबसे अधिक संख्या देखने को मिल सकती है।

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