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यूपी: कांशीराम बहाना... मायावती की राजनीतिक विरासत निशाना?

सपा प्रमुख अखिलेश यादव अब प्रदेश के दलितों को साधने में जुट गए हैं, जिसके लिए उन्होंने सीधे तौर पर कांशीराम के ज़रिए... मायावती और दलित वोटरों को टारगेट किया है।
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403 विधायक, 80 सांसद और 100 विधान परिषद... देशभर की सियासत को अपनी धुरी पर नचाने वाला सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश... आज़ादी के 75 बरस बाद भी कई सामाजिक और आर्थिक मोर्चों पर पिछड़ा हुआ है।

अगर ढूंढने बैठेंगे तो इसके पीछे कई कारण मिलेंगे हालांकि इन कारणों की सवारी करके ही देश में राज करने वाले इसी प्रदेश से निकलकर आने वाले एक से एक महारथी नेता मिलेंगे।

कहने को तो हिंदुस्तान ने अपना इतिहास दलित नेताओं के अभाव में ही गुज़ारा है, लेकिन इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि बाबा साहब आंबेडकर जैसे लोग भी इस समाज से आए जिन्होंने देश का संविधान लिख दिया।

बाबा साहब को ही अपना गुरू मानकर कांशीराम ने अपनी राजनीतिक परिधि दलितों के लिए खींच दी। फिर इसको आगे बढ़ाया बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने। इन दोनों नेताओं ने बाबा साहब के नाम को खूब भुनाया और हमेशा उनके पदचिन्हों पर चलने की बात कही। यहां ये कहना ग़लत नहीं होगा कि बसपा की सरकार रहते हुए प्रदेश में दलितों को मुख्यधारा से ज़्यादा दूर नहीं रखा गया।

लेकिन अब जब वक्त बदल गया है, सवर्णों का बोलबाला है, धर्म के नाम पर नफरत है, और प्रदेश में खोता दलितों के दल का जनाधार है, तब इसे अपने कुनबे में समेटने के लिए समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव मैदान में उतर आए हैं।

अखिलेश यादव ने इस बार अपनी समाजवादी साइकिल का करियर दलितों के बड़े नेता कांशीराम के लिए खाली कर दिया है और पहली चाल चलते हुए रायबरेली के ऊंचाहार में कांशीराम की मूर्ति का अनावरण कर दिया है।

कांशीराम की मूर्ति को रायबरेली में स्थित कांशीराम महाविद्यालय में ही स्थापित किया गया, जो दीनशाह गौरा ब्लॉक में मौजूद है।

मूर्ति अनावरण के साथ-साथ अखिलेश ने अपना संदेश भी बहुत साफ तौर पर प्रदेश की जनता और राजनीतिक पार्टियों के बीच पहुंचा दिया। उन्होंने कहा कि, "कांशीराम के अनुयायी अब हमारे साथ हैं। ये सभी एक वक्त बसपा में नंबर वन थे। अब सपा में सामाजिक आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं। कांशीराम और नेताजी मुलायम सिंह यादव के संकल्प को समाजवादी पार्टी पूरा करेगी। सामाजिक समरसता कायम करते हुए 2024 में भाजपा को सत्ता से बेदखल करेगी और दलितों, पिछड़ों को हक दिलाएगी।‘’

अखिलेश का ये संदेश सीधे तौर पर इशारा कर रहा है कि वो प्रदेश में अपनी खोई ज़मीन दलितों के सहारे वापस लेने की कोशिश करेंगे। यहां एक और समीकरण तब नज़र आएगा जब लोहिया और कांशीराम की विचारधारा को एक साथ चलाने की कोशिश की जाएगी।

अखिलेश की खोई हुई ज़मीन का मतलब क्या है?

यादवों और मुस्लिमों के समीकरण को लेकर आगे बढ़ने वाली समाजवादी पार्टी ने जब साल 2012 में प्रदेश में 224 सीटें हासिल कर बड़ी जीत हासिल की थी, तब दरअसल उसने भाजपा को नहीं बल्कि बसपा को हराया था। क्योंकि तब भाजपा का जनाधार उत्तर प्रदेश में बहुत ज़्यादा नहीं था, उसकी महज़ 47 सीटें ही आईं थी, जबकि दूसरी ओर बसपा के खाते में 80 विधानसभा सीटें गई थीं। लेकिन जब 2014 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में भाजपा की सरकार आई, तब तक सपा और बसपा दोनों पार्टियां का जनाधार उत्तर प्रदेश में कहीं खोने लगा था और अब भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में ख़ुद स्थापित कर चुकी थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण साल 2017 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला। जब सपा के खाते में महज़ 47 सीटें ही आईं जबकि भाजपा ने 312 सीटें हासिल कर इतिहास रच दिया। अब इस चुनाव से एक बात साफ हो चुकी थी कि मायावती और बहुजन समाजवादी पार्टी का वर्चस्व लोगों में कम होने लगा है। लेकिन जब 2019 के लोकसभा चुनाव आए तब बसपा और सपा एक हो गए और भाजपा के खिलाफ ताल ठोक दी। हालांकि भाजपा का बहुत ज़्यादा मुकाबला दोनों पार्टियां मिलकर भी नहीं कर पाईं, यानी यहां भी बसपा को तो 10 लोकसभा सीटें मिल गईं, लेकिन सपा के हाथ सिर्फ पांच सीट ही लगीं।

यहां से मायावती और बसपा लगभग खत्म होने की कग़ार पर आ चुकी थीं, लेकिन सपा के लिए उम्मीदें अब भी ज़िंदा थी। जिसकी झलक थोड़ी बहुत ही सही लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीज़ों में दिखाई दी। इस चुनाव में सपा की सीटें पिछले चुनाव के मुकाबले बढ़ी और 111 पहुंच गई।

इन बढ़ी सीटों में एक तर्क दिखाई दिया हमेशा यादवों और मुस्लिमों के सहारे सीटें जीतने वाली सपा के वोट अब बंट चुके थे, मुस्लिमों का बहुत वोट कांग्रेस की तरफ, तो यादवों का बहुत वोट भाजपा की तरफ शिफ्ट हो चुका था। इसके अलावा दलितों के लिए वादों की फेहरिस्त लिए घूम रही भाजपा ने बाज़ी मार ली थी।

अखिलेश की ‘बाबा साहब वाहिनी’ क्या है?

मायावती और बसपा के वोटरों को समेटने के लिए अखिलेश कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते, इसके लिए उन्होंने ‘बाबा साहब वाहिनी’ फ्रंटल संगठन बनाकर, इसके ज़रिए बाबा साहब आंबेडकर के विचारों को आगे बढ़ाने की कवायद शुरू की है। इस फ्रंटल के ज़रिए दलितों के मुद्दे पर लगातार प्रदर्शन किए जाएंगे, साथ ही बताया जाएगा कि बाबा साहब आंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया के विचारों में क्या समानताएं हैं।

दलितों के मुद्दों पर बाबा साहब वाहिनी समय-समय पर रिसर्च रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। दलित वर्ग के छात्रों के साथ ही शिक्षित बेरोजगार, शिक्षक, डॉक्टर, अधिवक्ता और अधिकारियों के बीच वाहिनी खासतौर से अपनी पैठ बनाएगी। समय-समय पर विशेषज्ञों की राय लेकर दलित एजेंडे पर बसपा की तर्ज पर वाहिनी प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाएगी।

इस वाहिनी का एक और मुख्य काम है, कि दलितों को पार्टी से जोड़े और हर तीन महीने पूरे होने पर अखिलेश यादव को अपनी रिपोर्ट सौंपे।

लोहिया और कांशीराम के विचारों में फ़र्क़ और समानता

डॉ राम मनोहर लोहिया और कांशीराम को एक शब्द में समाज सुधारक कह सकते हैं। इन दोनों नेताओं का प्रभाव जीवित रहने से ज्यादा इनके मरने के बाद देखा गया। ये हमेशा सांप्रदायिक राजनीति के ख़िलाफ रहे हैं। अगर राजनीतिक दलों के दावों की बात करें तो कांग्रेस गांधी से प्रेरणा लेती है, समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां लोहिया से प्रेरणा लेती हैं और बहुजन समाज पार्टी कांशीराम से प्रेरणा लेती है।

शुरूआती दौर में लोहिया भी गांधी के साथ थे, गांधी की मौत के बाद 1948 में ये कांग्रेस से बाहर आये और फिर सोशलिस्ट पार्टी बनाई। वे 1967 तक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहे। ये कांग्रेस और नेहरू की राजनीति के घोर विरोधी थे। इनका मानना था कि कांग्रेसी राज में पिछड़ों और दलितों को उनका हक मिलना असंभव है।

कांशीराम ने हिंदू धर्म और उसकी ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ख़ूब चुनौती दी। लोहिया की राजनीति प्रतिनिधित्व की राजनीति थी। कांशीराम की राजनीति प्रतिनिधित्व के साथ-साथ हिंदू धर्म की वैधता को चुनौती देने की भी थी। कांशीराम फुले-आंबडकरवादी परंपरा के थे। आंबेडकरवादी विचारधारा को उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाने का काफी श्रेय उनको हमेशा दिया जाएगा।

यहां ये कहना बहुत ज़रूरी है कि कांशीराम, गांधी विचारधारा को अपनाने वाले लोहियावाद को भले ही अस्वीकार करते रहे हों, उनके लिए राजनीतिक ज़मीन, लोहियावाद में दलितों, पिछड़ों के लिए उनके हक की लड़ाई ने ही तैयार की। ऐसी ही कुछ समानताओं को आगे बढ़ाने के लिए और दलितों को अपनी ओर लाने के लिए अखिलेश यादव मेहनत कर रहे हैं।

मुलायम सिंह यादव और मायावती या सपा और बसपा में मतभेद और दोस्ती

इस सवाल के जवाब के लिए हमें पिछले दिनों दिए मायावती के बयान पर ही ध्यान दे लेना चाहिए। जिसमें उन्होंने गेस्टहाउस कांड का ज़िक्र किया था। प्रदेश में आगामी निकाय चुनाव को लेकर मायावती प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रही थीं, इसी बीच मायावती ने कहा कि गेस्ट हाउस कांड नहीं होता तो आज सपा और बसपा गठबंधन देश पर राज कर रहा होता। मायावती ने कहा कि सपा का दलित विरोधी चाल, चरित्र और चेहरा किसी से भी नहीं छिपा है, इन्होंने संसद में प्रमोशन में आरक्षण का विधेयक फाड़ डाला था। यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि मायावती का ये बयान उस वक्त आया जब अखिलेश कांशीराम की मूर्ति का अनावरण कर रहे थे।

इतिहास की बात करें तो मुलायम सिंह यादव ने 1992 में समाजवादी पार्टी बनाई थी। इसके एक साल बाद हुए चुनावों में उन्होंने बसपा के साथ गठबंधन कर लिया था। तब काशीराम बसपा प्रमुख थे। दोनों दलों में सीटों का बंटवारा हुआ और सत्ता भी मिल गई।

इस चुनाव में कुल 425 सीटों में सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थीं। यहां गौर करने वाली बात ये थी कि भाजपा 167 सीटें जीतने के बाद भी सरकार नहीं बना पाई थी। तब नारा दिया गया था, 'मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम', क्योंकि भाजपा ने राम मंदिर के मुद्दे पर चुनाव लड़ा था।

इसके बाद 2 जून 1995 को लखनऊ में हुए गेस्ट हाउस कांड ने दोनों की राहें अलग कर दी थीं।

उत्तर प्रदेश में मायावती के अलावा बड़े दलित चेहरे

वैसे प्रदेश की राजनीति में हर बार हर राजनीतिक दल ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए सत्ता में जगह बनाई है, लेकिन दलितों को एकजुट रखने या उनके अधिकारों को उन तक पहुंचाने का ज़िम्मा लेने के लिए कांशीराम या मायावती के अलावा कोई बड़ा दलित चेहरा सामने नहीं आया। भीम आर्मी प्रमुख या आज़ाद पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद एक बार को उभर कर ज़रूर सामने आए, लेकिन राजनीति की मुख्यधारा में अभी वो बहुत बड़े नेता के तौर पर ख़ुद को पेश नहीं कर पाए हैं। हालांकि युवाओं में उनकी विचारधारा का असर धीरे-धीरे ही सही लेकिन देखने को मिल रहा है। इसके इतर बसपा से भाजपा और भाजपा से सपा के साथ जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य भी बड़े दलित नेता के तौर पर जाने जाते हैं, इनका जनाधार भी दलितों के बीच अच्छा खासा रहा है, लेकिन कभी फ्रंट पर आकर दलितों के लिए उनकी मांग को सरकार के सामने नहीं सके। यहां हम ओम प्रकाश राजभर को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश पूर्वांचल के दलितों को एकजुट रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। हालांकि इनकी राजनीति कभी एक पार्टी के साथ सीमित रहे, ऐसा कम देखा गया है।

भाजपा से लड़ने के बजाय बसपा को क्यों कमज़ोर कर रही सपा?

ये सवाल बड़ा है, कि जब पूरा विपक्ष एकजुट होने में लगा है, तब उत्तर प्रदेश में भाजपा के ख़िलाफ खड़ी होने के बजाय सपा, बसपा के पीछे क्यों पड़ी हुई है? दरअसल कभी उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने वाली समाजवादी पार्टी भाजपा के स्थापित हो जाने के बाद कमज़ोर होने लगी। क्योंकि सपा क्षेत्रीय पार्टी है, तो उसके राजनीतिक अस्तित्व पर ख़तरा मंडराने लगा। ऐसे में सपा के पास सीधा सा समाधान यही है, कि मुस्लिम और यादवों के अलावा अब दलितों को वोटों को भी बटोरना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रदेश में ओबीसी समाज के बाद सबसे ज्यादा जनसंख्या दलितों की ही है। और जब इस वक्त सपा कमज़ोर दिखाई दे रही है, तब अखिलेश को उसके वोटरों पर चोट करने का सबसे सही वक्त नज़र आ रहा होगा।

सपा में बसपा नेताओं को अहमियत

क्योंकि अगले साल 2024 में लोकसभा चुनाव होने है, इसी के मद्देनज़र अखिलेश यादव ने काम करना भी शुरु कर दिया है, इसके लिए मायावती से नाराज़ बसपा के दलित नेताओं को पार्टी में शामिल होने के बाद बहुत अहमियत दी जा रही है। चाहे इंद्रजीत सरोज हों, केके गौतम हों, त्रिभुवन दत्त हों, चाहे आरके चौधरी या अवधेश प्रसाद जैसे बड़े दलित नेता हों। इन सभी को अखिलेश यादव बसपा के ख़िलाफ सधी हुई रणनीति की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।

क्या हो सकता है आगे?

अखिलेश यादव और उनकी पार्टी जिस तरह से आगे बढ़ रही है, उससे इतना साफ है, कि अपनी खोई विरासत को बचाने के लिए सपा कुछ भी करेगी। दूसरी ओर मायावती भी चौकन्नी हो गई हैं, और निकाय चुनाव की तैयारियों में जुट गई हैं, वो भी अपने ज़िलाध्यक्षों के साथ बैठकों में जुटी हैं।

हालांकि यहां ये कहना ग़लत नहीं होगा कि सपा और बसपा उत्तर प्रदेश में बड़े दल हैं, और अगर ये दोनों एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो गए तो भाजपा को इससे फायदा ही होगा। हालांकि राजनीति में कब क्या बदल जाए, कौन से नए समीकरण तैयार हो जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता।

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