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उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव : भाजपा का बदतर प्रदर्शन 

भाजपा को अब योगी आदित्यनाथ के 5 वर्षीय शासनकाल का बचाव करना है।
उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव

वैश्विक महामारी कोरोना के दौरान उत्तर प्रदेश में जिला परिषद के लिए हुए चुनाव में मतदाताओं ने भाजपा पर तगड़ी चोट की है, जो पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत हासिल कर सत्ता में आई थी। महामारी से असंवेदनशील तरीके से निपटने और भाजपा के मतदाताओं में प्रदेश सरकार को लेकर बढ़ते आक्रोश स्थानीय निकायों के चुनाव में पार्टी को मिली बड़ी पराजय के अनेक कारणों में कुछ खास कारण हैं। अनिता कत्याल बताती हैं कि ऐसे में भाजपा को अगले साल विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए अपने शासन-प्रशासन पर बेहतर ध्यान देना होगा। 

कमजोर विपक्ष के होने से मिले सुकून और खुद के एक दमदार नेता होने की छवि वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को एक गंभीर झटका लगा है।  

हालिया संपन्न हुए पंचायत चुनाव ने व्यापक तौर पर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की एक झलक पेश की है। इसने राज्य के मुख्यमंत्री और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को स्पष्ट और मुखर संदेश दिया है कि वे उत्तर प्रदेश में अपनी दूसरी पारी की विजय के लिए निश्चित नहीं हो सकते हैं। 

स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों से जाहिर हुआ है कि भाजपा के लिए समाजवादी पार्टी कड़ी चुनौती देने वाली एक मजबूत प्रतिद्वंदी साबित हो सकती है।  

अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के समर्थित उम्मीदवार जिला परिषद के 760 वार्ड में चुनाव जीतकर सबसे आगे रहे हैं जबकि भाजपा समर्थित उम्मीदवार 750 वार्ड में ही विजयी हुए हैं।  मायावती की बहुजन समाज पार्टी 321 सीटों पर जीत हासिल की है, जबकि कांग्रेस को सबसे कम 76 सीटें ही मिली हैं। 

भाजपा के लिए चिंता का जो सबसे बड़ा कारण है, वह अयोध्या, मथुरा, लखनऊ, प्रयागराज और स्वयं प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी  जैसे हाई प्रोफाइल जगहों पर मिली कड़ी शिकस्त है। इन जगहों से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने केसरिया पार्टी की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। 

राज्य में कोरोना वायरस से फैली महामारी से बहुत ही घटिया तरीके और बेदर्दी से निबटने के चलते जनता ने योगी आदित्यनाथ सरकार को प्राथमिक तौर पर खारिज कर दिया है। कोरोना संक्रमण की दूसरी जानलेवा लहर के नगरों और बड़े शहरों से निकल कर गांव-देहातों तक को अपनी चपेट में लेने के बाद लोगों का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया।

अस्पताल में बेड, दवाइयों और ऑक्सीजन के लिए रोज-रोज की जद्दोजहद हो गई है। इसने राज्य के स्वास्थ्य ढांचे की बद से बदतर हालात को जगजाहिर कर दिया है। सरकार ने कोरोना-संक्रमित व्यक्तियों को स्वास्थ्य सुविधाएं देने की बहुत कम कोशिश की है। 

 ठीक महामारी के बीच पंचायत चुनाव पर जोर देने के लिए भी लोग योगी से बेहद नाराज थे। इस चुनाव में ड्यूटी करने गए 700 शिक्षकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था।  योगी के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लोगों के गुस्से के निशाने पर थे, क्योंकि उन्हें लगता  है कि ऐसे समय में जब उनके जनप्रतिनिधियों या शासकों की मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है, वे इसे उपलब्ध कराने के बजाय जनता को उसके अपने हाल पर छोड़ दिया है।

अगर आम आदमी कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर से निपटने में योगी सरकार के कुप्रबंधन को लेकर आग बबूला था तो भाजपा के खीझे कार्यकर्ता भी मुख्यमंत्री की कम उपेक्षा नहीं की। पार्टी कार्यकर्ताओं का भी योगी आदित्यनाथ से मोहभंग हो गया है क्योंकि वे इस मौजूदा व्यवस्था में हाशिए पर धकेल दिये जाने का अनुभव करते हैं। 

विधानसभा में भाजपा के अजेय बहुमत मिलने के साथ पार्टी कार्यकर्ता यह उम्मीद पाले बैठे थे कि उन्हें इस विजय के लिए पुरजोर प्रयास करने का इनाम मिलेगा। लेकिन अब उन्हें पूरा भरोसा हो गया है कि योगी आदित्यनाथ ने उनके योगदानों को सुनियोजित तरीके से नजरअंदाज कर दिया है। फिर योगी की सूबे नौकरशाही पर निर्भरता ने भी पार्टी कार्यकर्ताओं को और भड़का दिया है।

इन सबका नतीजा यह हुआ कि योगी आदित्यनाथ की सत्ता के विरोध में बने माहौल का लाभ समाजवाद पार्टी को अपने आप मिल गया।   यह सफलता इस तथ्य के बावजूद है कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस लड़ाई को लोगों तक ले जाने में कोई पहल नहीं की थी। पिछले विधानसभा चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में  समाजवादी पार्टी की करारी हार की वजह से अखिलेश यादव   स्वत: ही भूमिगत हो गए थे और  अपने मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदी से  जनता के बीच लड़ने-भिड़ने के बजाय ट्विटर पर ही आभासी लड़ाई में भरोसा करने लगे थे।

इस मामले में अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव के विपरीत हैं, जिन्हें आम आदमी के मसलों के लिए गलियों और सड़कों पर उतरने में कोई हिचक नहीं होती थी। इसके बजाय, छोटे यादव ने मौजूदा योगी सरकार के प्रति आक्रोशित, असंतुष्ट और मोहभंग हो चुके नागरिकों की लड़ाई में उस स्तर पर भागीदारी नहीं की। लेकिन अखिलेश का सौभाग्य समाजवादी पार्टी के मुस्लिम-यादव जनाधार के चलते चमक गया,  जिसे उनके पिता ने परिश्रम पूर्वक बनाया था।  यही जनाधार स्थानीय निकायों के चुनावों में न केवल बना रहा है बल्कि उसने अपनी करामात भी दिखाई है। 

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती भी खोल के भीतर से ही प्रतिक्रिया देती रही हैं। वह विगत 4 वर्षों में प्राय: भाजपा के पद-चिह्नों पर ही चलती रही हैं। यद्यपि उनकी पार्टी बसपा ने पंचायत चुनावों में प्राथमिक तौर पर कमोबेश अच्छा प्रदर्शन किया है। इसलिए कि जाटव समुदाय पर उनकी पकड़ पहले की तरह ही बनी रही है।

 इस चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी लूजर साबित हुई है।  समाजवादी पार्टी और  बहुजन समाज पार्टी के विपरीत कांग्रेस  के पास उत्तर प्रदेश में प्रतिबद्ध समर्थकों का आधार नहीं है। सत्ता में दशकों से बाहर रहने का खामियाजा उसे उठाना पड़ा है। 

हालांकि कांग्रेस महासचिव और उत्तर प्रदेश में पार्टी मामलों की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा ने राज्य की पार्टी इकाई को पुनर्गठित किया है और आम जनता के खास-खास मुद्दों को हर संभव मंच पर उठाया है। चाहे वह हाथरस में बलात्कार पीड़िता के परिवार से मिलने जाने का दौरा हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आंदोलनरत किसानों के मुद्दों को अपना समर्थन देना, वह इस मुख्य हिंदी प्रदेश में कांग्रेस के लिए एक जगह बनाने का प्रयास करती रही है, जहां 80 लोक सभा सांसद चुने जाते हैं। लेकिन उनके प्रयास का बहुत थोड़ा ही फायदा हुआ है। हालांकि वह अच्छी मंशा के साथ कड़ी कोशिश करती हैं। लेकिन वह भी अपने भाई और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की तरह ही राजनीतिक मामलों में अनियमित हैं और उनमें अपेक्षित निरंतरता का अभाव है। 

अब जबकि प्रदेश के मतदाताओं ने अपना फैसला सुना दिया है, ऐसे में उत्तर प्रदेश की मुख्य राजनीतिक पार्टियों के लिए यही अवसर है कि वह अपनी भूमिकाओं और क्रियाकलापों को लेकर कुछ आत्मनिरीक्षण करें।  इस चुनाव में उन्हें अपनी ताकतों और कमजोरियों थाहने के लिए एक पैमाना दे दिया है। अब वह इन नतीजों को नजरअंदाज कर गलती कर सकते हैं, क्योंकि इन चुनाव परिणामों का महत्व बहुत अधिक हो सकता है। अगला विधानसभा चुनाव होने में एक साल से भी कम समय बचा है, ऐसे में यह चुनाव आगे होने वाली बड़ी लड़ाई के लिए एक मंच तो तैयार कर दिया है।

यह चुनाव व्यक्तिगत रूप से आदित्यनाथ के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण था। इसलिए कि यह उनकी सरकार के अब तक के कामकाज पर एक जनादेश की तरह था। राज्य की व्यापक ग्रामीण पट्टी को समेटता यह चुनाव उनकी सरकार और उनके कार्यक्रमों के प्रति जनता के मौजूदा मिजाज का एक ताकतवर संकेतक है।

यह योगी के 2017 में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए चुने जाने के बाद से उनका पहला और वास्तविक चुनावी परीक्षण है। तब उनके चयन ने हर किसी चौंका दिया था। किसी ने भी यह अनुमान नहीं लगाया था कि चुनावी रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश की अग्रिम कमान स्वामी से राजनीतिक बने योगी को सौंप दी जाएगी। 

2017 का विधानसभा चुनाव और इसके बाद 2019 में हुआ लोकसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंत्री द्वारा जीते गए थे। उनकी लोकप्रियता और करिश्मा ने भाजपा को तब प्रचंड जीत दिलाई थी।  लेकिन 2022 में खेल के नियम बदल दिए जाएंगे। भाजपा अब योगी के नेतृत्व में पार्टी के 5 सालाना कार्यकलापों का बचाव करेगी। मोदी की भूमिका अधिक से अधिक माध्यमिक होगी। स्पष्ट है कि आगामी विधानसभा चुनाव में योगी पर सारा दारोमदार है क्योंकि समाजवादी पार्टी उनके पीछे-पीछे दौड़ी चली आ रही है। 

यह आलेख मूल रूप से दि लिफ्लेट में प्रकाशित हुआ था। 

(अनिता कत्याल दिल्ली में रहने वाली एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। राजनीतिक दलों और उनके क्रिया-कलाप उनकी अभिरुचि के विषय रहे हैं। वे विगत चार दशकों से देश की राजनीति पर लिखती रही हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

UP Panchayat Elections: Poor Showing by BJP

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