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यूपी चुनाव: डबल इंजन सरकार ने‘ हिजाब’ की जगह ‘जॉब’ को क्यों नहीं बनाया चुनावी मुद्दा?

''यूपी चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है, लेकिन दुर्भाग्य देखिए पूर्वांचल के युवा ''जॉब” की डिमांड कर रहे हैं तो भाजपा नेता ''हिजाब” में उलझा रहे हैं। नौकरी के मुद्दे पर मोदी-योगी की चुप्पी युवाओं के मन में खदबदाहट पैदा कर रही है।
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बलिया के युवा मारुति मानव बनारस में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। बड़ा दर्द यह है कि इन्होंने अब तक जितनी प्रतियोगी परीक्षाओं का फार्म भरा, सभी पेपर आउट होते चले गए। असल समस्या यह है कि मानव जिस सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे हैं, वो अभी कोसों दूर है। वह कहते हैं, ''पिछले चार-पांच साल से हम निराश हो चुके हैं। डबल इंजन की सरकार को छात्रों की बेरोगारी से कोई लेना देना नहीं रहा। वो ऐसा नैरेशन तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं कि यूपी में रोजगार के लिए कोई डिबेट ही न हो। हम अपने भविष्य को सुधारने बनारस आए थे, लेकिन चंद माफिया प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर बेच देते हैं और हम टुकुर-टुकुर ताकते रह जाते हैं। इनके खिलाफ सरकार एक्शन लेती ही नहीं। हमारी माली हालत ऐसी नहीं है कि ठीक से दो वक्त का खाना भी खा सकें। कई बार ऐसी नौबत आती है कि जब घर से पैसा आने में देर हो जाता है तो हमें सिर्फ एक वक्त का खाना ही नसीब हो पाता है। हमारा संघर्ष न सरकारें नहीं समझ रही हैं और न ही सत्तारूढ़ दलों के नेता। भूखे पेट में ही विद्रोह जन्म लेता है। ऐसे में हम सरकार की नीतियों का प्रतिकार न करें तो क्या करें? '' 

मारुति यहीं नहीं रुकते। वह कहते हैं, ''प्रतियोगी छात्रों ने अब सरकार से सवाल करना शुरू कर दिया है। हम चाहते हैं कि हम उन सभी नेताओं को इस चुनाव में खदेड़कर भगाएं जो पांच साल बाद फिर झूठे आश्वासनों की गठरी लेकर हमारे पास आए हैं। हमें पता है कि वो वोट लेने के बाद लापता हो जाएंगे। पिछले पांच सालों से भाजपा सरकार युवाओं को नौकरी देने के बजाए धर्म विशेष के लोगों को गोलबंद करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने में जुटी हुई है। इस बात को अब युवा भी समझ गए हैं। हम कोशिश कर रहे है कि बेरोज़गार युवा इकट्ठा हों और सभी मिलकर सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछें। इस सरकार को तो हम चुनाव में हटाएंगे ही, आगे जो भी सरकार आएगी उसे भी बेरोजगारों की बात सुनने पर विवश करेंगे।''

पूर्वांचल के जाने-माने चुनाव विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, ''यूपी में बेरोजगारी के जो आंकड़े सामने आएं हैं वो चिंताजनक है। यहां बहुत सारे पर्चे लीक हुए और परीक्षाएं रद्द हुईं, जिसका खामियाजा युवाओं को भुगतना पड़ रहा है। बहुत सारे नौजवानों की उम्र निकल गई और उनकी अर्हता ही खत्म हो गई। इधर, लॉकडाउन के चलते नौकरिय़ों के अवसर घटे तो इससे पहले पर्चों के लीक और परीक्षाओं का रद होने से युवाओं में हताशा पैदा हुई। रिक्तियां भी आईं, तो गजब की हेराफेरी की गई। युवाओं ने फार्म भरे और पांच सौ से एक हजार रुपये तक फीस भी जमा की। परीक्षाएं हुई ही नहीं और उम्र निकल गई। बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में कई रिक्तियां निकालीं, लेकिन सालों गुजर जाने के बाद भी नियुक्ति का अता-पता नहीं है। यही हाल बीएचयू और बनारस के तिब्बतियन उच्च शिक्षा संस्थान का भी है। परीक्षा के नाम पर यूपी में एक बड़ा गोरखधंधा चल रहा है, जिसे खुद डबल इंजन की सरकार संचालित करती आ रही है।''

प्रदीप यह भी कहते हैं, ''रोजगार के मामले में यूपी सबसे ज्यादा फिसड्डी है। सरकारी और निजी दोनों क्षेत्र में इस सरकार की नीति रोजगारपक नहीं है। वैसे भी भाजपा सरकार रोजगार को मुद्दा नहीं मानती है। दबाव बढ़ता है तो अखबारों में नौकरियों के इश्तिहार छप जाते हैं, लेकिन उसकी प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ती। यूपी का नौजवान तो जबर्दस्त हताशा झेल रहा है। चुनाव अभियान के दौरान योगी आदित्यनाथ की जुबान से रोजगार के मुद्दे पर किसी ने एक शब्द भी नहीं सुना। आखिर पूर्वांचल के बेरोजगार किस उम्मीद पर भाजपा सरकार को वोट देंगे?  यूपी चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है। दुर्योग देखिए। पूर्वांचल के युवा ''जॉब' की डिमांड कर रहे हैं तो भाजपा नेता ''हिजॉब' में उलझा रहे हैं। नौकरी के मुद्दे पर मोदी-योगी की चुप्पी युवाओं के मन में खदबदाहट पैदा कर रही है। बेरोजगार युवाओं को जिस साजिशपूर्ण तरीके से दूसरे मुद्दों में उलझाया जा रहा है, वह रास्ता अंधेरे गलियारे की ओर जा रहा है।''

नाउम्मीद में जी रहे युवा

बिहार के रितेश रंजन बनारस में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। वह इस उम्मीद के साथ यहां आए थे कि बिहार न सही, यूपी में नौकरी लग जाएगी, लेकिन जो भी पेपर देने जा रहे हैं वो आउट होता चला जा रहा है। वह कहते हैं, ''वैकेंसी आ रही है और कैंसिल होती जा रही है। कभी गलत सवाल पूछे जा रहे हैं तो कभी दूसरी वजहों से परीक्षाएं रद हो रही हैं। जब एक परीक्षा लेने में सरकार को कई-कई साल लग जा रहे हैं तो सोचिए कि आगे क्या होगा? यह हमारे साथ धोखा नहीं है तो और क्या है? नेताओं को कुर्सी चाहिए और हमें नौकरी। चुनाव में भाजपा सरकार से हम सवाल से नहीं पूछेंगे तो किससे पूछेंगे? ''

मानव उमेश काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाई करते हुए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। इनकी कहानी थोड़ी अलग है। बताते हैं, ''साल 2019 में रेलवे भर्ती बोर्ड की ग़ैर तकनीकी लोकप्रिय श्रेणी (आरआरबी-एनटीपीसी) की परीक्षा दी थी। यह परीक्षा फ़ॉर्म भरने के दो साल बाद हुई, लेकिन वह इसलिए पास नहीं कर सके कि रेलवे भर्ती बोर्ड ने इंटर और स्नातक पास दोनों तरह के छात्रों को इस परीक्षा में शामिल होने की अनुमति दी थी। नतीज़ा यह हुआ कि ग्रेजुएट पास छात्रों के सामने इंटर के छात्र टिक नहीं पाए। जिन छात्रों ने यह परीक्षा पास की, उनके नाम कई पदों के लिए चुन लिए गए। रेलवे भर्ती बोर्ड ने पहले कहा था कि सात लाख से ज्यादा छात्र चुने जाएंगे, लेकिन इसके आधे भी नहीं चुने गए।''

बेरोजगारी की समस्या सिर्फ मारुति और उमेश जैसे छात्रों की नहीं है। पूर्वांचल के लाखों ऐसे छात्र हैं, जो सालों से सरकारी नौकरी के भरोसे बैठे हैं। सवाल ये है कि क्या इन छात्रों के सपने कभी पूरे हो पाएंगे? क्या सरकार के पास लाखों बेरोजगारों को देने के लिए इतनी नौकरियां हैं? सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक़, दिसंबर 2021 में भारत में बेरोज़गारी दर 7.9 प्रतिशत थी। वहीं अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर सस्टेनेबल एंप्लॉयमेंट रिसर्च सेंटर के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में 22 फ़ीसदी है, लेकिन ज़मीनी हालात आंकड़ों से भी बदतर हैं। 

तंगहाल हैं पूर्वांचल के यूथ 

वाराणसी के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के सांख्यिकी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा.अनिल कुमार कहते हैं, ''पिछले कुछ सालों से सिर्फ़ सरकारी ही नहीं, बल्कि प्राइवेट नौकरियां भी सिमट रही हैं। मांग और पूर्ति में काफ़ी फ़र्क है, जिसके चलते पूर्वांचल में बेरोज़गारी बढ़ रही है। नौकरी के भरोसे बैठे पूर्वांचल के युवाओं की एक बड़ी आबादी तंगहाल है। अगर भारत के परिदृश्य को देखें तो हर साल 80 लाख नए लोग नौकरी के तैयार हो रहे हैं, जबकि हम एक लाख भी नौकरी नहीं दे पा रहे हैं। ये आंकड़ा 2013 तक का है, इसके बाद सरकार ने आंकड़े देने बंद कर दिए। सरकार रिटायरमेंट के बाद खाली हुई नौकरियों पर भी भर्ती नहीं कर पा रही। देश के कई संस्थानों में पद खाली पड़े हैं। रेलवे, डाक सेवा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बड़े क्षेत्र में नौकरियां ज़्यादा हैं, लेकिन मिलती नहीं हैं। सरकारी क्षेत्र अब निजीकरण की तरफ़ बढ़ रहे हैं, जिसकी वजह से नौकरियां रूकी हुई हैं। सरकार की माली हालत बहुत ख़राब है। सरकार फुल टाइम या पे-कमीशन पर नौकरी देने के बदले कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरियां दे रही है। सरकार आंगनवाड़ी वर्कर्स से काम तो करवाना चाहती है, लेकिन उन्हें स्थायी नौकरी नहीं देना चाहती।''

डा. अनिल कहते हैं, ''यूपी में बाजार को गति देने के लिए धन बहुत आया, लेकिन उसका वितरण अनियंत्रित तरीके से किया गया। कारपोरेट पहले से ही अपना जाल बिछाए बैठा था, लेकिन वह स्थितियों को संभाल नहीं सका। इस बीच आबादी तेजी से बढ़ी तो शोषण का नया दौर शुरू हो गया। नतीजा, अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूटती चली गई। शिक्षा व्यवस्था अव्यवस्थित हो गई। शिक्षा के उन्नयन के लिए बजट में पर्याप्त धन का इंतजाम नहीं किया गया। नार्म्स के विपरीत तमाम शिक्षण संस्थाएं नहीं खुल पाईं, जिसके चलते ऐसे लाखों युवा नौकरी के लिए खड़े हो गए जिनमें उत्पादन की क्षमता ही नहीं है।" 

"पूर्वांचल में बेरोजगारी की समस्या इसलिए गंभीर होती जा रही है, क्योंकि आर्थिक नीतियों के अनुरूप हमारे पास संसाधन नहीं है। हम बगैर तैयारी के आगे बढ़ रहे हैं। नतीजा, बेरोजगारी और असंतोष बढ़ रहा है। साथ ही अपराध भी। कोरोनाकाल में सरकार को अपनी नाकामियों को छिपने का बहाना मिल गया। पांच-दस फीसदी टैलेंटेड युवाओं को छोड़ दिया जाए तो पूर्वांचल में ज्यादातर युवा अयोग्य हैं। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें तत्काल पैसा चाहिए। उनके अंदर स्थितियों से मुकाबला करने की क्षमता भी नहीं है। ऐसे युवाओं की बड़ी फौज खड़ी हो गई है जो एक मामूली अर्जी भी नहीं लिख सकते। फिर भी वो बड़ी कंपनियों में जॉब  पाने की उम्मीद पाले हुए हैं। बेरोजगारों में ऐसे युवाओं की तादाद बहुत ज्यादा जिनके पास न तो पढ़ने-लिखने का जज्बा है और न ही काम सीखने का जुनून। आनलाइन पढ़ाई और आनलाइन रिसोर्सेज ने बेरोजागारी की खाईं को और भी ज्यादा चौड़ा कर दिया है।'' 

सरकार ने नहीं दिया संबल

नेपथ्य में झांकेंगे तो युवाओं के सामने जो हालात पैदा हुए हैं उसके लिए कोई और नहीं सीधे तौर पर सरकार ही जिम्मेदार है। कब और किन स्थितियों में बेरोजगार युवाओं को सहयोग देना चाहिए, यह सरकार को पता नहीं है। कोरोना के संकटकाल में उन युवाओं को संबल देने की जरूरत नहीं समझी गई जो सालों से रोजगार के लिए भटक रहे थे। इन्हीं में एक हैं बनारस के मिश्रपुरा गांव के 42 वर्षीय ऋषि कुमार यादव। बी-कॉम करने के बाद इन्होंने कई साल तक रेलवे परीक्षाओं की तैयारी की। नौकरी नहीं मिली तो अपने गांव से सटे भगतुआ बाजार में अपना स्टूडियो खोल लिया। साल 2020 में कोरोना संकट के दौर में लॉकडाउन हुआ तो स्टूडियो बंद हो गया। कुछ महीनों तक दुकान का किराया भरते रहे। जब बची-खुची पूंजी डूब गई तो स्टूडियो बंद हो गया। अब वह अपना और अपने पड़ोसियों का दूध खरीदकर बनारस शहर में घर-घर पहुंचाते हैं। बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चल पाता है। 

ग्रेजुएशन करने के बाद नहीं मिली नौकरी तो घर-घर पहुंचाने लगे दूध

शशि यादव कहते हैं, ''असम में रहकर हमने सेंट्रल स्कूल में पढ़ाई की थी। सीआरपीएफ में सुबेदार मेजर रहे पिता को उम्मीद थी कि हमें नौकरी जरूर मिल जाएगी, लेकिन सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के चलते हम नाउम्मीद हो गए। मेरे छोटे भाई शशि ने रेलवे की कई परीक्षाएं दीं। नौकरी नहीं मिली तो उसे गांव में ही खली-चूनी की दुकान खुलवा दी है।'' बनारस के मिश्रपुरा बाली के सौरभ यादव ने जज बनने की तमन्ना लेकर एलएलएम किया, लेकिन वो भी कामयाब नहीं हो सके।

जौनपुर के संजय ने साल 2017 में इतिहास से एमए किया। असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने के लिए उन्होंने यूजीसी की 'नेट' परीक्षा भी पास कर ली। यूपी में टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट में प्राइमरी और टीजीटी लेवल की परीक्षा में भी सफल रहे। घर की माली हालत देखते हुए संजय ने थक हारकर अपने सपने से बड़ा समझौता कर लिया। उन्होंने साल 2019 में एग्रीकल्चर महकमे में चतुर्थ वर्ग की नौकरी के लिए फ़ॉर्म भरा और किसी तरह ग्रुप 'डी' में सरकारी नौकरी मिली गई।

संजय बताते हैं, ''कई सालों तक मैंने असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की नौकरी के लिए कोशिश की, लेकिन नहीं मिली। चतुर्थ वर्ग की नौकरी मिली तो उसे ही ज्वाइन कर लिया। अब मेरा काम फ़ाइलों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का है।'' 

संजय की तरह लाखों छात्र नौकरी सरकारी ही चाहते हैं। इसकी बड़ी वजह भविष्य की सुरक्षा है। संजय कहते हैं, ''प्राइवेट नौकरी में थोड़ी भी कमी नहीं आई कि वो काम से ही निकाल देते हैं। सरकारी नौकरी में कम से कम यह डर नहीं होता। यहां 18 हज़ार तनख़्वाह मिलती है, लेकिन प्राइवेट में इतने पैसे कोई नहीं देगा। उम्मीद भी है कि कुछ सालों में मैं क्लर्क बन जाऊंगा।''

रोजगार का लॉलीपॉप या धोखा?

वाराणसी के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में समाज कार्य विभाग के संकाय अध्यक्ष एवं गांधी अध्ययन पीठ के निदेशक प्रो. संजय कहते हैं, ''नौकरी सरकारी हो या प्राइवेट, मौजूदा दौर में युवाओं को सुरक्षित भविष्य और तय आमदनी की ज़रूरत है। पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्रों को नौकरी मिलने में काफ़ी दिक़्क़त आती है। उन्हें इंडस्ट्री में काम करने के हिसाब से ट्रेनिंग भी नहीं दी जाती है। पिछले कुछ सालों में सरकार ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सस्ती दरों पर ब्याज़, सब्सिडी जैसे कई क़दम उठाए गए, लेकिन सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार और दूसरी वजहों से रोजगारपरक योजनाओं को रफ्तार नहीं मिल सकी। ज़्यादा टैक्स, बिजली कटौती, टूटी सड़कों जैसे कई कारण हैं, जिनकी वजह से उनका विकास नहीं हो पा रहा है। सरकार को उन्हें 'इज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस' देना होगा।''

दरअसल, कई सालों तक तैयारी करने के बाद भी जब युवाओं को नौकरी नहीं मिलती है तो उनके मन में निराशा घर कर रही है। बनारस के बीएचयू में शुभम कुमार और आरिफ जैसे छात्र भारी मानसिक दबाव में हैं। इन्हें लगता है कि सरकार नौकरी देने के बजाय उनका दमन कर रही है। मेनस्ट्रीम की मीडिया बेरोज़गारी के मुद्दों को छिपा रही है। शुभम कहते हैं, ''हम अपने घर-परिवार और शहर के सपनों के बीच कहीं अटके हुए हैं। हमारी ज़िंदगी तो बस टाइमपास बन गई है।" शुभम सिंह बताते हैं, ''मेरे पिता फार्मर हैं। हर महीने पांच-छह हजार रुपये पढ़ाई के लिए भेजते हैं। यह रुपये भेजना भी उनके लिए काफ़ी मुश्किल है। उत्तर भारत में प्राइवेट नौकरियां नहीं है। मुझ पर सरकारी नौकरी लेने का दबाव है।" 

देश में बेरोज़गारी की वजह से आत्महत्या के सबसे ज़्यादा मामले कर्नाटक और उसके बाद यूपी से आ रहे हैं। उम्मीद से कमतर प्रदर्शन और नौकरियों के अवसर घटने से यूपी के युवाओं में आत्महत्या की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़, बेरोज़गारी की वजह से 2018 में 2,741 लोगों ने आत्महत्या की थी। 2014 की तुलना में 2018 में आत्महत्या के मामले क़रीब 24 फ़ीसद बढ़े। भाजपा नेता वरुण गांधी ने हाल ही में एक ट्वीट के जरिए यूपी समेत समूचे देश में बढ़ रही बेरोजगारी की समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया था। वरुण ने लिखा था, "देश में आज बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बनकर उभर रही है। स्थिति विकराल होती जा रही है। इससे मुंह मोड़ना कपास से आग ढंकने जैसा है।"

उल्लेखनीय है कि रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं के विरोध में 24 जनवरी 2022 को छात्रों के विभिन्न समूहों ने पटना सहित बिहार और उत्तर प्रदेश के अलग-अलग स्थानों पर प्रदर्शन कर रेलमार्ग को अवरूद्ध कर दिया था। प्रदर्शन से उत्पन्न विधि व्यवस्था की स्थिति से निपटने के दौरान कई अभ्यार्थियों को हिरासत में लिया गया था। वरिष्ठ पत्रकार अमितेश पांडेय कहते हैं, "भाजपा की डबल इंजन सरकार ने बेरोजगारी दूर करने के बजाए जुमले उछालने पर ज्यादा ज़ोर दिया। अपनी नाकामियों का ठीकरा कोविड-19 पर फोड़ दिया और अब चुनाव आया तो दुहाई दे रही है कि कोरोना के चलते अर्थव्यवस्था को लगे झटके ने बेरोज़गारी बढ़ाई है। संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। लिहाजा मोदी सरकार के लिए अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने का काम बड़ा चैलेंज बन गया है।" 

बेरोजागारी के खिलाफ और इलाहाबाद में प्रतियोगी छात्रों पर पुलिसिया ज्यादती के विरोध में प्रदर्शन करते बीएचयू के स्टूडेंट्स 

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में दावा किया कि पीएलआई यानी प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव स्कीम से अगले पांच सालों में 60 लाख नई नौकरियां पैदा होंगी और 30 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त उत्पादन होगा। इस स्कीम में सरकार मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को कैश इन्सेंटिव देगी ताकि वे उत्पादन बढ़ाएं और भारत को ग्लोबल मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाने में मदद करें। सरकार का दावा है कि दिहाड़ी मजदूरों को भी तेज़ी से काम मिल रहा है, लेकिन दिसंबर 2021 तक नौकरी गवां चुके वेतनभोगी लोगों की तादाद बढ़कर 95 लाख तक पहुंच गई है।

पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "इस साल जनवरी में स्वरोज़गार करने वाले करीब दस लाख लोगों का कारोबार ख़त्म हो गया। सवाल यह उठता है कि क्या पीएलआई स्कीम के जरिये उद्योगों को मिलने वाले प्रोत्साहन से सचमुच साठ लाख नौकरियां पैदा करने का मिशन पूरा हो जाएगा?  पिछले साल भी वित्तमंत्री ने कुछ इसी तरह की मनलुभावन घोषणाएं की थीं, लेकिन वो कोरी निकलीं। आंकड़े बता रहे हैं कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में उत्पादन घट रहा है। अगर आप उत्पादन थोड़ा बढ़ा भी लेंगे तो रोज़गार थोड़े ही बढ़ेगा। दरअसल पीएलआई स्कीम के ज़रिए रोज़गार बढ़ाने की बात करना जनता को लॉलीपॉप पकड़ाने जैसा है। यूपी में रोजगार के आंकड़ों को देखें तो कॉन्ट्रैक्ट पर लाने के बावजूद बेरोजगारी नहीं घटी है। अगर प्रोडक्शन में ऑटोमेशन का ज़ोर होगा तो रोज़गार कैसे बढ़ेगा? नौकरी देने और रोजगार का अवसर सुलभ कराने में भाजपा सरकार की घटिया नीति समझ में आ जाती है।"

बढ़ते जा रहे सुसाइड केस

एक तरफ़ बेरोज़गारी की समस्या तेज़ होती दिख रही है तो मीडिया की सुर्ख़ियां ज़ोरदार प्रदर्शनों और नेताओं के भाषण के बीच कहीं झूलती दिखती है। ज्यादातर युवाओं के पास पैसे की कमी है। जो युवा अपने परिवार की उम्मीदों को पूरा नहीं कर सकते, उनके साथ बर्ताव में सम्मान की कमी झलकती है। इनकी शादियों में भी अड़चन देखने को मिलती है। जिन युवाओं के पास अगर पक्की (स्थायी) नौकरी नहीं है तो उन्हें कमतर आंका जाता है। उन्होंने अपनी पढ़ाई और जॉब खोजने में जितना समय बिताया है उसके बारे में वो ख़राब महसूस करते हैं। साथ ही नौकरी, नागरिकता से भी जुड़ी है। बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो किशोरावस्था में ये सोचते हैं कि सरकारी नौकरी हासिल करके वे देश की सेवा करेंगे, जिसे हासिल कर पाना काफ़ी मुश्किल हो गया है।

आत्महत्या की ऐसी कहानियां बेरोज़गारी की बढ़ती समस्याओं की ओर इशारा दे रही हैं। गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय ने हाल में ही राज्यसभा में बताया था कि बेरोज़गारी की वजह से 2018 से 2020 तक 9,140 लोगों ने आत्महत्या की है। साल 2018 में 2,741, 2019 में 2,851 और 2020 में 3,548 लोगों ने बेरोज़गारी की वजह से आत्महत्या की है। 2014 की तुलना में 2020 में बेरोज़गारी की वजह से आत्महत्या के मामलों में 60 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। 15 फरवरी 2022 को गाजियाबाद के राजनगर एक्सटेंशन में फैशन डिजाइनर 25 वर्षीय आयुषी दीक्षित ने सिर्फ इसलिए 11वीं मंजिल से कूदकर खुदकुशी कर ली थी कि जो मुकाम वह हासिल करना चाहती थी वो नहीं कर सकी।

कामयाब न होने पर सुसाइड करने वाली फैशन डिजाइनर आयुषी दीक्षित  

पत्रकार पवन कुमार सिंह कहते हैं, "यूपी में चार-पांच सालों में बेरोज़गारी के कारण आत्महत्या के मामलों में करीब 55 फीसदी की वृद्धि ख़तरनाक है। अगर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो आगे हालात और गंभीर हो सकते हैं। कोरोना का प्रभाव बेरोज़गारी के कारण हुई आत्महत्या पर कितना पड़ा है, यह हमें आगामी दो-तीन सालों में पता चलेगा। भविष्य में यह स्थिति ज़्यादा ख़राब हो सकती है। पिछले कुछ सालों में लोगों में बेरोज़गारी और निराशा काफी बढ़ी है। बेरोज़गारी के कारण आत्महत्या करने वालों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है। भाजपा सरकार जो आंकड़े पेश कर रही है वो सही नहीं हैं। ज़मीन पर हालात आंकड़ों से ज़्यादा ख़राब है। वर्क फोर्स हर नए साल बढ़ रहा है। पिछले कुछ सालों से सिर्फ़ सरकारी ही नहीं, बल्कि प्राइवेट नौकरियां भी सिमट रही हैं। सरकार के पास लाखों पद खाली पड़े हैं। रेलवे जैसा क्षेत्र हर साल लाखों रोज़गार पैदा करता है। पद खाली होने के बाद भी रोज़गार नहीं दिया जा रहा है, क्योंकि सरकार निजीकरण की तरफ़ बढ़ रही है। सरकार नौकरी न देकर उत्पादक इकाइयों को अब निजी हाथों में काम देने की तैयारी कर रही है।"

कई सालों तक लगातार प्रयास के बावजूद नौकरी न मिलने पर सुसाइड करने वाले प्रयागराज के एक युवक के भाई मनोज चौधरी कहते हैं कि यूपी में आमतौर पर परीक्षा का पेपर पहले से लीक हो जाता है। 100 वैकेंसी में से 50 पहले ही धांधली से भर जाती हैं। युवाओं की इसकी कसक जिंदगी भर झेलनी पड़ती है। बनारस के जाने-माने मनोचिकित्सक डा. आशीष कुमार गुप्ता कहते हैं, "ऐसा भी देखने को मिल जाएगा कि कई बेरोज़गार युवा अलग-थलग पड़ गए हैं, उनमें चिड़चिड़ापन आ जाता है। वो ख़ुद के लिए बताते हैं कि वो 'कुछ नहीं करते' या टाइमपास करते हैं। ऐसा लगता है कि ख़ुद को 'नाउम्मीद' कहने वाली ये पीढ़ी हर जगह है। लेकिन 'कुछ नहीं करते' जैसी बात करने वाले बेरोज़गार युवाओं को सिर्फ़ ऐसे नहीं देखा जा सकता कि वो कुछ नहीं कर रहे हैं। ज्यादातर युवा अपने मन में ख्याल बना लेते हैं कि हमें ऐसी ही नौकरी करनी है। जब वो नहीं मिलती तो डिप्रेशन में चले जाते हैं। व्यक्ति को अपने ऑप्शन खोलकर रखने चाहिए। अगर बहुत अच्छा नहीं मिलता है तो छोटे काम से भी शुरुआत की जा सकती है।"

डा. आशीष के मुताबिक, "बेरोजगारी तनाव का बड़ा कारण बनता है। तनाव लंबे समय तक रहे तो अवसाद का रूप ले लेता है। अवसाद में मरीज नकारात्मक भावनाओं से घिर जाता है। फीलिंग आफ हेल्पलेसनेस और होपलेसनेस की स्थिति पैदा हो जाती है, जिससे जीवन जीने की इच्छा कम होने लगती है। सुसाइडल विचार आने लगते हैं। निराशा वाली बातें करना, बात-बात में क्रोधित या चिड़चिड़ापन होना या फिर नकारात्मक बातें करना आदि लक्षण उभरते हैं। डिग्री होल्डरों की इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तभी अगर आत्महत्या जैसा ख्याल आते हैं। ऐसे लोगों को मनोचिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए। सपोर्ट सिस्टम को मजबूत करना चाहिए। दोस्त, परिवार और शिक्षकों से इस मुद्दे पर खुल कर बात करनी चाहिए। अपने दोस्तों, परिवार या थेरेपिस्ट से मदद लेनी चाहिए।"

(लेखक विजय विनीत वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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