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यूपी चुनाव परिणाम: क्षेत्रीय OBC नेताओं पर भारी पड़ता केंद्रीय ओबीसी नेता? 

यूपी चुनाव परिणाम ऐसे नेताओं के लिए दीर्घकालिक नुकसान का सबब बन सकता है, जिनका आधार वोट ही “माई(MY)” रहा है।
Modi and Akhilesh

उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों को महज हिंदुत्व कार्ड या लाभार्थी राजनीति तक सीमित कर देखना, उत्तर भारत, ख़ास कर यूपी और बिहार, के ऐसे नेताओं के लिए दीर्घकालिक नुकसान का सबब बन सकता है, जिनका आधार वोट ही “माई” रहा है।

यह चेतावनी इस तथ्य की वजह से है कि अवधारणा आधारित राजनीति के दौर में उत्तर प्रदेश के परिणामों ने बताया है कि क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर कभी मजबूत दावेदारी रखने वाले ओबीसी नेताओं का जलवा एक ऐसे प्रधानमंत्री के आगे फीका पड़ गया, जो खुद ओबीसी वर्ग से आते हैं। विकास, राशन, लॉ एंड आर्डर जैसे मुद्दों की बातें चुनाव में होती अवश्य है, लेकिन यूपी और बिहार की राजनीति से “जाति” का फैक्टर हटा कर राजनीति विश्लेषण करना सामने शिकारी को देख कर शुतरमुर्ग द्वारा जमीन में सर धंसाने जैसा ही माना जाएगा। यानी, विकास अपनी जगह, जाति अपनी जगह. यही यूपी में भी हुआ. लेकिन, जातिगत वोटिंग का पैटर्न बदल गया, शैली बदल गयी, नेता बदल गया.

हिन्दू वोटर्स-ओबीसी वोटर्स 

सीएसडीएस-लोकनीति का पोस्ट पोल सर्वे बताता है कि अखिलेश यादव को 26 फीसदी हिन्दू वोट मिले, जो पिछले चुनाव (2017) के 18 फीसदी के मुकाबले 8 फीसदी अधिक हैं। वहीं भाजपा को 54 फीसदी हिन्दू वोट मिले, जो 2017 के मुकाबले 7 फीसदी अधिक है. अब ये आकड़ा देख कर ओबीसी क्षत्रप चाहें तो संतोष कर सकते हैं लेकिन जैसे ही आप इस हिन्दू वोट को सवर्ण बनाम ओबीसी वोट में बाँट कर देखेंगे तो एक नया सच सामने आएगा। ये एक सच है, जिससे वाकई यूपी-बिहार के ओबीसी नेताओं को डरना चाहिए, सीखना चाहिए। मसलन, किसान आन्दोलन से उत्साहित समाजवादी पार्टी को मात्र 33 फीसदी जाट मतदाताओं ने वोट किया, जबकि 2017 में 57 फीसदी जाटों ने सपा को वोट दिया था। भाजपा को पिछले साल के 38 फीसदी के मुकाबले इस बार 54 फीसदी जाट मतदाताओं ने वोट दिया। यादव जरूर बहुमत मतों के साथ (83 फीसदी) सपा से जुड़े रहे। लेकिन, गैर-यादव ओबीसी आक्रामक तरीके से भाजपा के साथ गए। 66 फीसदी कुर्मी, 64 फीसदी कोयरी, मौर्या, कुशवाहा, सैनी ने भाजपा को वोट किया। 63 फीसदी केवट, कश्यप, मल्लाह, निषाद ने भी भाजपा को वोट किया। इस सब के अलावा जो ओबीसी (16 फीसदी) हैं, उनमें से भी 66 फीसदी ने भाजपा को वोट दिया।

निषाद बनाम राजभर बनाम मौर्या

यूपी चुनाव में, ख़ास कर पूर्वांचल के इलाकों में, निषाद, राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्या की राजनीति के जरिये भी इस तथ्य को समझा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की ओबीसी वाली छवि क्षेत्रीय ओबीसी क्षत्रपों पर भारी पड़ गयी। निषाद पार्टी भले 11 सीट पर चुनाव जीती, लेकिन उसने 11 जीती हुई सीटों में से 5 सीटें भाजपा के चुनाव चिन्ह पर लड़ा और उसे इसका निश्चित ही फ़ायदा हुआ। यानी, निषाद पार्टी को भी अपनी क्षेत्रीय पहचान और जातीय अस्मिता के साथ चुनाव जीतने के लिए भाजपा (नरेंद्र मोदी) पर भरोसा करना पडा। ये वही निषाद पार्टी है, जिसने कभी गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में भाजपा को हरा कर जीत हासिल की थी और तब वह समाजवादी पार्टी के साथ थी। 

ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी इसबार समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में थी, 2017 के मुकाबले इसने 2 सीटें अधिक जीतीं, लेकिन, 2017 में राजभर की पार्टी ने भाजपा के साथ मिलकर आठ सीटों पर चुनाव लड़ा था. 8 में से इसने 4 सीटें जीती थीं। 2022 में राजभर सपा के साथ थे और उनकी पार्टी ने 18 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन जीते सिर्फ 6 सीटें। उनके बेटे अरविंद राजभर भी चुनाव हार गए। दूसरी तरफ, स्वामी प्रसाद मौर्या, जिन्हें मौर्या वोटों को प्रभावित करने वाला माना जाता था, खुद अपनी सीट तक नहीं बचा सके।

आकड़ों से इतर... 

चुनावी राजनीति में जितने महत्वपूर्ण आकड़ें हैं, उससे कहीं ज्यादा परसेप्शन (अवधारणा) हैं। बिहार हो या यूपी, 90 के दशक से जिस सामाजिक न्याय की राजनीतिक यात्रा शुरू हुई, उसमें तब आर्थिक न्याय की न मौजूदगी थी, न शायद गुंजाइश। क्योंकि, तब की राजनीतिक यात्रा में सामाजिक चेतना को जगाना केंद्र में था। 15 से 20 साल तक चली इस राजनीतिक यात्रा के बाद उत्तर भारत के इन दोनों महत्वपूर्ण राज्यों में निश्चित ही सामाजिक चेतना का आगाज हुआ। ओबीसी, दलित सामाजिक-राजनीतिक रूप से न सिर्फ सजग हुए, बल्कि मुखर भी हुए। लेकिन, समाज एक परिवर्तनशील इकाई है, उसका चरित्र, उसकी जरूरत समय के साथ बदलती रही है। और शायद उसके नायक भी। यूपी चुनाव परिणाम के विश्लेषण में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि ओबीसी मतदाताओं ने राशन या अन्य मुद्दों के साथ ही अपने नायक के तौर पर शायद अखिलेश यादव, ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्या की जगह नरेंद्र मोदी को चुनना ज्यादा पसंद किया। अब राजनीतिक गुरु या भाजपा वाले इस तथ्य को भले नकार दें और यह तर्क दें कि नरेंद्र मोदी की ओबीसी छवि नहीं, बल्कि विकास पुरुष की छवि के कारण ओबीसी समुदाय उनसे जुड़ा। तो यह कहना ठीक वैसा ही है जैसे “सबका साथ, सबका विश्वास, सबका विकास” का नारा देने वाली भाजपा ने यूपी चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। यानी, विकास की बात एक शानदार पैकेजिंग है, जिसके भीतर “जाति” का सच छुपा हुआ है और अगर ऐसा नहीं होता तो याद कीजिए 2014 का लोकसभा चुनाव, जब पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने पहली बार पूर्वांचल आकर ही अपने ओबीसी होने का “खुलासा” किया था. 

निष्कर्ष

न सिर्फ अखिलेश यादव, बल्कि बिहार में तेजस्वी यादव को भी यूपी चुनाव परिणाम से निकालने वाले संकेतों को समझना होगा। सामाजिक न्याय की 30 साल पुरानी यात्रा को संशोधित, परिवर्द्धित करना होगा। उन्हें याद रखना होगा कि अगले चुनावों में उनका मुकाबला न केवल दुनिया की “सबसे बड़ी पार्टी” से होना है, बल्कि एक केन्द्रीय स्तर के ओबीसी नेता से भी उनके सामने होगा।

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