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शहरों को रहने लायक बनाने के लिए शहरीकरण पर राष्ट्रीय आयोग गठित करने की ज़रूरत

अब तक शहरों के विकास को विकास के 'इंजन' से जोड़ कर रखा गया है जिसने वास्तव में शहरों को आम जनता की ज़रूरत से बहुत दूर कर दिया है।
शहर

क्या वर्ष 2021 शहरों में रहने वाले सभी लोगों के सुरक्षित भविष्य को निश्चित कर पाएगा? यह सवाल हममें से कई उन लोगों को अक्सर परेशान करता है जो लंबे समय से शहरों में काम कर रहे हैं। वर्ष 2020 ने शहरों के विकास और उसकी कल्पना के तरीके को पूरी तरह से बेनकाब कर दिया। कोविड-19 महामारी जिसने एक ही झटके में हमारे आर्थिक ढांचों को तबाह कर दिया और पूरी दुनिया में प्रलय जैसी स्थिति पैदा कर दी। इस महामारी ने वास्तव में हमारे शहरों के निर्माण की तकनीक के खोखलेपन का परदाफ़्श कर दिया। क्योंकि शहरों की अस्थिरता बहुत ज्वलंत तरीके से सबके सामने आई है।

इस तरह की प्रणाली बहुत नाजुक है इसलिए हमें फिर से शहरी केंद्रों के निर्माण के तरीके की बेहतर कल्पना करने की जरूरत है। याद है, सिर्फ चार घंटे का वक़्त देकर मनमाने और तर्कहीन लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई थी और जिसके परिणामस्वरूप शहरी मजदूर का घर वापस लौटना एक बड़ी त्रासदी बन गया था जो ज्यादातर असंगठित क्षेत्र से थे, यह उनके गाँव के इतिहास में भी सबसे बड़ी मानवीय त्रासदियों में से एक बन गई हैं।

लेकिन ऐसा क्यों है कि जो शहर आजीविका, स्वच्छता, समस्याओं से वापस लड़ने की क्षमता और क्या-क्या नहीं करते, वे शहर केवल कुछ दिनों के लिए गरीब, अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों और अन्य हाशिए वाले वर्गों को अपने पास नहीं रख पाए? इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं हैं। हालांकि, यह बात इस मामले में बहुत साफ है; कि शहरों को जिन प्रक्रियाओं और तरीकों से विकसित किया जा रहा है उनका संबंध आम लोगों जरूरतों से तो कतई नहीं है।

शहर बदले है, जिसकी शुरुआत बहुत पहले हो गई थी और इन बदलावों को शहरों के विकास के इंजन और ‘उद्यमी’ से जोड़ा जाता रहा है, वास्तव में वह वैश्विक वित्त पूंजी की जरूरतों और अनिश्चितताओं से जुड़ा हुआ रास्ता है। यह प्रक्रिया दुनिया में 70 के दशक और भारतीय शहरों में 90 के दशक में में शुरू हुई थी। नीतियों का सार इस बात को सुनिश्चित करना था कि शहर प्रतिस्पर्धी और निवेश-अनुकूल बनें।

अब, सरल शब्दों में इसका मतलब क्या निकलता है? इसका अर्थ है कि अपनी बुनियादी सुविधाओं की जरूरतों को बनाए रखने के लिए शहरों को कानूनों को आसान बनाना होगा; और चूंकि भूमि से जुड़े अधिकांश कानून, जो विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, फिर चाहे वे राज्य या केंद्र सरकार के पास हों, उसे आसान बनाने के लिए केंद्र और राज्य दोनों कानून लाते हैं। लेकिन यहाँ एक भोला सा सवाल पूछा जा सकता है कि शहरों को प्रतिस्पर्धात्मक क्यों बनना चाहिए। राज्य और केंद्र सरकार को शहरों में निवेश क्यों नहीं करना चाहिए?

जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (JNNURM) के अनुसार, यूपीए-1 (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) शासन के दौरान हुए सुधारों से, जिस सरकार को वामपंथियों का समर्थन हासिल था, उसके एक अनुमान अनुसार दो दशकों के दौरान शहरी भारत की बुनियादी सुविधाओं की जरूरत के लिए 630 बिलियन डॉलर की जरूरत थी। अंदाजा लगाइए कि यूपीए-1 और उसके बाद यूपीए-2 की 10 साल के शासन के दौरान कुल कितना पैसा लगाया गया? यह इस जरूरत का मात्र 2.2 प्रतिशत है। जबकि जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (JNNURM) की  प्रक्रिया के जरिए शहरों में 14 बिलियन अमरीकी डालर का निवेश करने की योजना बनाई गई थी और इनमें से अधिकांश परियोजना-उन्मुख ग्रांट्स थी। 

आंकड़ा हमें उस बड़े अंतर का अनुमान देता है जो मांग और आपूर्ति के बीच मौजूद है। विश्व पूंजीवाद के साथ मिलकर काम करने से उम्मीद यह जताई गई थी कि अर्थव्यवस्था को खोलने से शहरों में पूंजी आएगी अगर उसके लिए आसान रास्ता बना दिया जाता है। ऐसा नहीं हुआ। हमने अब तक जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (JNNURM) का कोई महत्वपूर्ण मूल्यांकन नहीं किया है; तथ्य यह है कि जिन लोगों ने इन सुधारों की वकालत की थी, वे भी किए गए कार्यों के बारे में किसी भी वैधता का दावा नहीं करते हैं।

माना जाता है कि बड़ी पूंजी, जिसे शहरों में हमारी समस्याओं का निराकरण करना था उसने  ऐसा न करके उल्टे केंद्र और राज्य स्तरों पर एक सांठगांठ बना ली है, जिसने शहरों में सुधारों के प्रावधानों को स्वीकार करने और शहरी निज़ाम में बदलाव लाने पर मजबूर कर दिया था। 

ये कैसे हुआ? बड़ी कंसल्टेंसी फर्मों ने केंद्र में शहरी विकास मंत्रालय के साथ दांव गाँठा और फिर शहरों में अपने पंजे फैला दिए और कहा कि शहरों में अपने दम पर ऐसा करने की क्षमता नहीं है और इसलिए, ऐसी विकास योजनाएं बनानी होंगी जिन्हे ऐसी कंपनियों द्वारा तैयार किया जाएगा। ये योजनाएँ शहर की विकास योजना, गतिशीलता योजनाएँ, शहर की स्वच्छता की योजनाएँ, सौरऊर्जा नगर योजनाएँ, आपदा जोखिम में कमी की योजनाएँ, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन योजनाएँ आदि थीं।

यदि इन योजनाओं की वास्तविक समीक्षा की जाए तो यह पाया जाएगा कि इनमें से अधिकांश योजनाएं शहरों में पूंजी गहन प्रौद्योगिकी को आगे बढ़ाने के लिए ज़ोर मारती हैं। समाधानों के बजाय जिनका विकेन्द्रीकृत रूप कम खर्च और सस्ता और प्रभावित करने वाला होता हैं, सबकुछ उसके उलटा किया गया हैं। ये मान भी लें तो सवाल यह है कि पूंजी कहां से आएगी? मुझे याद है कि पूर्व केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने शहरों पर आयोजित एक सम्मेलन में कहा था: “शहरों में पैसा नहीं है, शहर राज्यों के तहत आते हैं तो राज्यों के पास भी पैसा नहीं है, अगर शहर केंद्र के तहत आते हैं तो केंद्र के पास भी पैसा नहीं है, इसलिए वे बहुराष्ट्रीय निगमों या उनकी एजेंसियों की तरफ देखते हैं।” तब ये एजेंसियां न केवल परियोजनाओं में, बल्कि विकास मॉडल को लागू करने वाली नीतियों में भी हस्तक्षेप करती हैं, जिसकी प्रशंसा राज्य और शहर दोनों करने लगते है। राज्यों और शहरों को इन सुधारों को लागू करने पर मजबूर किया जाता है क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनके अनुदान को जो की सुधारों से जुड़ा हैं को रोक दिया जाएगा। 

2014 के बाद हालत ओर बिगड़ गए 

2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद शहरों में आदर्श बदलाव लाने के बजाय, नीतियों ने सबसे खराब रुख अख़्तियार किया जिसके कारण असमानता की खाई और चौड़ी हो गई। स्मार्ट सिटीज, एएमआरयूटी, स्वच्छ भारत मिशन इन सभी को पुराने मॉडल की कड़ी शर्तों के साथ जोड़ा दिया गया था। यह सब शहरों के निर्दयी निजीकरण के लिए किया गया और यह महसूस किए बिना कि यह मॉडल पहले विफल हो चुका है। मोदी शासन के अलावा इसमें एक बात ओर जुड़ गई कि अब शहरों के निजीकरण के साथ शासन के मॉडल के निजीकरण का भी तथ्य जुड़ गया था।

स्मार्ट शहरों की अवधारणा के जरिए शहरों में शासन का नया मॉडल यानि विशेष प्रयोजन वाहन (एसपीवी) को लाया गया, जिसने निर्वाचित शहरी काउंसिल की शक्तियों को निगल लिया। काउंसिल, जो निर्णय लेने वाली संस्था है, वह एसपीवी मॉडल के आने से लकवाग्रस्त हो गई क्योंकि प्रमुख विकासात्मक परियोजनाएं इसके द्वारा डिजाइन और तय की जाने लगी। एसपीवी के चुने हुए सदस्यों में कोई भी में निर्णय लेने वाला नहीं होता है इसे नौकरशाह या कुछ वित्तीय विशेषज्ञ द्वारा संचालित किया जाता है, जिनकी आम लोगों या निर्वाचित काउंसिल के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है।

इस तरह की पृष्ठभूमि में, शहर गरीबों को पीसने और बड़े पैमाने पर अतिरिक्त मूल्य निकालने के केंद्र बन गए हैं, और जिसका मुनाफा केवल कुछ ही हाथों में जाता है। सैमुअल स्टियन, ने अपने बेहतरीन काम में से एक, द कैपिटल सिटी में  लिखा हैं कि कुछ अमेरिकी शहरों में, शहर के विकास की प्रक्रिया पूंजी संचय का प्राथमिक तरीका बन गई है। हमें यकीन नहीं है कि भारतीय शहरों के मामले में भी यही सच है या नहीं, लेकिन एक सरसरी नज़र डालने से पता चलता है कि कैसे यूटिलिटी और जन सेवाओं का निजीकरण कर लोगों की आजीविका को प्रभावित किया जा रहा है, इससे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब हिंदुस्तान के शहरों की विकास की प्रक्रिया पूंजी संचय का प्राथमिक तरीका बन जाएगा!

इसने ऐसे हालत पैदा कर दिए हैं कि हाशिए पर पड़े समुदायों और गरीबों में अपनी संपत्ति को बनाए रखने की क्षमता अभूतपूर्व रूप से कम हो गई है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में शीर्ष 10 प्रतिशत और निचले 10 प्रतिशत लोगों के बीच का अंतर लगभग 500 गुना है जबकि शहरी भारत में यह अंतर 50,000 गुना यानि दिमाग घूमाने वाला है। गरीबों के पास शहरों में रहने के लिए कोई संपत्ति नहीं है। फिर वे शहर में कैसे टिक सकते हैं या उनके बिना ऐसे शहर कैसे टिक सकते हैं?

करना क्या चाहिए?

मुझे याद है कि अभी हाल ही में एक वेबिनार चर्चा में भाग लेते हुए, जहाँ 1986 में गठित प्रथम शहरी आयोग के एकमात्र जीवित सदस्य किरीट भाई थे और चार्ल्स कोरीया चेयरपर्सन थे, ने सेकंड हैबिटेट को सशक्त रूप से उद्धृत किया था। दूसरे संयुक्त राष्ट्र हैबिटेट के कार्यकारी निदेशक ने बार बार कहा कि शहरी क्षेत्रों में एक क्रांति की जरूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शहरी केंद्र कायम रहे। बेशक, संयुक्त राष्ट्र शब्दावली में 'क्रांति' के अपने अर्थ हैं। लेकिन कम से कम एक शब्द जो उदार शहरी सिद्धांतकारों की शब्दावली से गायब था, अब वापस गूंजने तो लगा।

फिर क्विटो में हैबिटैट तीन का संचालन किया गाय जिसमें मैं भी एक प्रतिनिधि था, और हैबिटैट III के कार्यकारी निदेशक यह याद दिलाते रहे कि शहरीकरण का वर्तमान मॉडल अस्थिर है और हमें मूल बातों पर वापस जाना होगा। जॉन क्लॉस, हैबिटेट III के कार्यकारी निदेशक ने मुखर रूप से अपनी आवाज उठाई कि "चीजें, हमेशा की तरह, ऐसे काम नहीं करेंगी"; उन्होंने टिप्पणी की कि "पिछले दशकों में मुक्त-बाजार अर्थव्यवस्था विनाशकारी साबित हुई है और हमें योजना की मूल बातें पर वापस जाना होगा।" अब इन दोनों को एक साथ संकलित किया गया है, इसका क्या मतलब है?

इसके बहुत विशिष्ट अर्थ हैं, और सार ये है कि चीजों को बदलना होगा और लोगों के हित में उन्हें बदलना होगा।

सबसे पहले बने शहरी आयोग ने तत्कालीन सरकार को दिलचस्प दिशा-निर्देश पेश किए थे। इस आयोग की प्रस्तावना का सबसे बड़ा तथ्य ये था कि पहले शहरों को विनिर्माण केंद्र के रूप में देखा गया था। इस आयोग के उद्देश्यों का सबसे बड़ा प्रमुख हिस्सा शहरों में इस चुनौती का समाधान करना था।

इस आयोग की प्रमुख भूमिका शहरीकरण-जनसांख्यिकीय, आर्थिक, ढांचागत सुधार, पर्यावरण, भौतिक, ऊर्जा, भूमि, गरीबी, सौंदर्यशास्त्र और सांस्कृतिक पहलुओं की स्थिति की जांच करना था।

इसकी भूमिका प्राथमिकता क्षेत्रों में खास कार्य योजना बनाने के लिए बुनियादी दिशानिर्देश तैयार करना था; नीतिगत ढांचा विकसित करना और सरकार, शैक्षणिक, अनुसंधान और नागरिक समूहों के बीच बातचीत के जरिए सुझाव तैयार करना था। 

न केवल सुझाव देना बल्कि आयोग की सिफारिशों के प्रभावी कार्यान्वयन पर निगरानी रखने के लिए संस्थागत ढांचे का सुझाव देना भी था। 

आयोग ने कुछ सिफारिशें की थीं जो साझा करने लायक हैं। इसने 329 विकास केंद्रों को बढ़ावा देने की सिफारिश की थी और मौजूदा बड़े महानगरों को मजबूत करने पर जोर दिया था।

आयोग को रोजगार पैदा करने, आंतरिक इलाकों को खोलने ताकि समानता के साथ धन पैदा किया जा सके, ताकि शहर सामाजिक बदलाव और अर्थव्यवस्था और समाज के आधुनिकीकरण के उत्प्रेरक बने। 

आयोग भी शहरों पर कुछ नहीं कर पाया और उल्टे केंद्र, राज्य से लेकर जिलों तक एक बड़ा  विभाजन कर दिया। हालांकि, इसने 10-15 साल तक सामान्य स्थानिक योजना और पांच वर्षों की एकीकृत स्थानिक योजना की बात की थी। 

इसी तरह इसने गतिशीलता, भूमि उपयोग पैटर्न और वित्त पर योजनाओं के बारे में सुझाव दिए। हालांकि 35 साल के बाद भी इस पर कोई चर्चा नहीं की गई है। बल्कि सभी आई-गई सरकारों ने निजी पूंजी के सामने समर्पण करने के साथ परियोजना-उन्मुख विकास के मार्ग का अनुसरण किया है। और यह मॉडल काम नहीं कर पाया यह बात हम सभी जानते हैं।

इन हालात में शहरों की जटिलताओं को समझने के लिए शहरीकरण पर दूसरे राष्ट्रीय आयोग का होना आवश्यक है। जब पहला आयोग बनाया गया था, तो पलायन कोई बड़ा मुद्दा नहीं था; इसी तरह, रोजगार का औपचारिक क्षेत्र आज की तुलना में अधिक था। शहरों में अब संख्या अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है। 80 के दशक में, लगभग 23 प्रतिशत आबादी शहरी में रहती थी; आज, यह 34 प्रतिशत (2001-31.8 प्रतिशत) से अधिक है। 80 के दशक के बाद से अब तक देश में शहरों के भीतर (भारत की शहरी आबादी: 1981 -159 मिलियन, 2011 - 377 मिलियन) लगभग 218 मिलियन अधिक लोग जुड़ गए हैं। 2021 की जनगणना के मुताबिक यह संख्या और बढ़ेगी।

शहरों की समस्याओं के प्रति टुकड़ों वाले दृष्टिकोण में, रोजगार, शहर विकास, शासन, यूटिलिटी, शहर की जीवन शक्ति आदि शामिल हैं, और यह दृष्टिकोण उद्देश्ययों की पूर्ति नहीं कर सकते हैं।

शहरीकरण पर दूसरा राष्ट्रीय आयोग गठित करो 

शहरों की पूरी तस्वीर खींचने और चुनौतियों का सामना करने का कार्य राष्ट्रीय आयोग को सौंपा जाना चाहिए। "व्यापार करने में आसानी", "स्मार्ट शहर", एएमआरयूटी आदि की छोटी खुराक, मात्रात्मक या गुणात्मक परिवर्तन नहीं ला सकती है। लेकिन बात यह है कि इसे करेगा कौन?

वर्तमान सरकार की इस तरह के आयोग को गठन करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। हमने अतीत में भी देखा है कि कैसे एक नेशनल अर्बन पॉलिसी फ्रेमवर्क को आधे-अधूरे तरीके से डिजाइन किया गया था कि अब केंद्र सरकार खुद अपने द्वारा तैयार दस्तावेज की जिम्मेदारी लेने को तैयार तैयार नहीं है। इसका मतलब है कि इन हालत में लोगों के विभिन्न वर्गों को खुद शहरों में अपने स्थान का दावा फिर से करना होगा। जैसे किसान अपने अधिकारों को हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही अन्य वर्गों को भी अपने भविष्य की योजना और अपने अधिकार को पुनः हासिल करना होगा और इसे बड़े तकनीकी दिग्गजों पर छोड़ने की जरूरत नहीं है। 

इस बीच, राज्य कुछ शहरी चुनौतियों का विश्लेषण करने और उसके अनुसार अपनी कार्ययोजना तैयार करने के लिए राज्य स्तरीय आयोग गठित कर सकते हैं।

साल 2021 आशावाद का साल है क्योंकि 2020 हममें से कई लोगों या सबके के लिए कष्टदायी साल रहा है, वे लोग जिन्होने महामारी की वजह से अपने करीबी को खोया और आर्थिक महामारी की मार भी झेली हैं। 2021 के प्रति हमार आशावाद, संजोय सपनों को पूरा करने का वर्ष है, और यह एक परी की कथा की तरह नहीं जो पूरा नहीं होगा, बल्कि यह वर्ष हमारे सामूहिक प्रयासों के जरिए एक बेहतर और सुरक्षित भविष्य को हासिल करने का वर्ष होगा। और शहर उसी का हिस्सा है!

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Unsustainable Cities: Stop Piecemeal Approach, Constitute National Commission on Urbanisation

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