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नियुक्ति की प्रक्रिया को और पेचीदा बनाएगा उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग!

उत्तर प्रदेश सरकार बेसिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा विभाग में शिक्षकों, शिक्षणेतर कर्मचारियों के चयन के लिए उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग का गठन कर रही है। हालांकि यह आयोग शुरुआत से ही सवालों के घेरे में है।
Yogi Adityanath

उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग अधिनियम, 2019 को उत्तर प्रदेश शासन ने 1 मार्च 2020 से लागू करने की मंशा जाहिर की है। इस अधिनियम के लागू होने की अधिसूचना के जारी होते ही उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग अधिनियम, 1980 और उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड अधिनियम, 1982 स्वत: निरस्त हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश सरकार को ऐसा लगता है कि नया आयोग बना देने से चयन पद्धति ठीक हो जाएगी और नया आयोग तेजी के साथ कार्य करने लगेगा। परंतु नए अधिनियम को यदि ध्यान से देखा जाए तो बात कुछ और ही नजर आती है।

उत्तर प्रदेश में 331 (लगभग दो दर्जन अल्पसंख्यक कॉलेजों को छोड़कर) सहायता प्राप्त डिग्री कॉलेज, 4300 सहायता प्राप्त हाईस्कूल और इंटरमीडिएट कॉलेज तथा लगभग डेढ़ लाख से अधिक प्राथमिक और जूनियर हाई स्कूल है, जिनमें रिक्त अध्यापकों के पदों को भरने की जिम्मेदारी नये आयोग को दी गई है। उत्तर प्रदेश में प्राथमिक और जूनियर कक्षाओं के लिए ही अध्यापकों के आठ लाख अधिक पद स्वीकृत हैं।

उच्च, माध्यमिक और प्राथमिक शिक्षा के अध्यापकों के नियुक्ति के लिए एक आयोग के साथ ही किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई के लिए आयोग के पूर्व अनुमोदन की शर्त से नई प्रकार की जटिलताएं उत्पन्न होने की संभावना है। तीनों प्रकार की शिक्षा को उत्तर प्रदेश में संचालित करने के लिए अलग अलग अधिनियम, नियम और रेगुलेशन पहले से ही विद्यमान है, जिसका ध्यान पूरी तरह से नए शिक्षा सेवा चयन आयोग अधिनियम, 2019 को बनाते समय नहीं रखा गया है।  
 
नये अधिनियम की धारा 18 जो दंडात्मक कार्रवाई के पूर्व अनुमोदन से संबंधित है, धारा 2 (ठ) जो अध्यापक की परिभाषा से संबंधित है तथा धारा 2(च) जो संस्था की परिभाषा से संबंधित है को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर नये बनने वाले आयोग की एक नई ही तस्वीर बनती हुई दिखाई दे रही है।  धारा 18 के अनुसार 'नियुक्त प्राधिकारी'  आयोग के पूर्व अनुमोदन से किसी अध्यापक को पदच्युत कर सकेगा या उसे सेवा से हटा सकेगा या सेवा से हटाए जाने की कोई नोटिस उसे तामील कर सकेगा या उसे पदावनत कर सकेगा या उसकी परिलब्धियां कम कर सकेगा'।

अधिनियम की धारा 2 (ठ) के अनुसार अध्यापक की परिभाषा के अंतर्गत  प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के शिक्षक आते हैं। साथ में इसमें प्रधानाचार्य और प्राचार्य के पद भी शामिल हैं। इनकी नियुक्ति का दायित्व नए आयोग को दिया गया है। शिक्षा सेवा आयोग अधिनियम 2019 की धारा 18 के कारण प्राथमिक और जूनियर स्कूल के शिक्षकों को भी एक नए तरह का सुरक्षा कवच प्राप्त हो गया है। शिक्षा के तीनों स्वरूप प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च को मिलाकर एक ही आयोग बनाते समय सरकार हड़बड़ी में यह भूल गई की धारा 18 की परिधि कहां तक जाती है।

अशासकीय सहायता प्राप्त महाविद्यालयों तथा माध्यमिक विद्यालयों में नियुक्ति प्राधिकारी  प्रबंध तंत्र होता है जबकि प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति प्राधिकारी सरकारी अधिकारी ही होता है, ऐसी परिस्थिति में आयोग के पूर्व अनुमोदन की शर्त का विस्तार बेसिक शिक्षा परिषद से संबंधित प्राथमिक विद्यालयों तक क्यो किया गया है? यह समझ से परे है।

अब धारा 18 के कारण ही जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी जो प्राथमिक और जूनियर हाई स्कूल के शिक्षकों के नियुक्ति प्राधिकारी होते हैं, उनको भी किसी प्रकार की दंडात्मक  कार्रवाई करने के पहले शिक्षा सेवा चयन आयोग से पूर्व अनुमोदन लेना अनिवार्य होगा।  

आंकड़ें बताते है कि प्राथमिक और जूनियर हाई स्कूल के शिक्षकों के विरुद्ध प्रत्येक जिले में प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में दंडात्मक कार्रवाई बेसिक शिक्षा अधिकारी के द्वारा की जाती है। अभी हाल ही में जांच कराए जाने के बाद बड़ी संख्या में फर्जी मार्कशीट के आधार पर कार्य करने वाले अध्यापक प्रत्येक जिले में पकड़े गए हैं।

बेसिक शिक्षा अधिकारी को दंडात्मक कार्रवाई करने से पहले अभी तक आयोग के पूर्व अनुमोदन की आवश्यकता नहीं थी, परंतु नया अधिनियम लागू होते ही आयोग का पूर्व अनुमोदन लेना आवश्यक हो जाएगा। ऐसा लगता है कि नया बनने वाला आयोग नियुक्ति करने के बजाए प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के अध्यापकों के विरुद्ध केवल दंडात्मक कार्यवाही के पूर्व अनुमोदन देने वाले राज्य की एजेंसी की तरह ही कार्य करने के लिए बनाया जा रहा है।

नये अधिनियम के अंतर्गत अब आयोग के सदस्यों का ज्यादातर समय दंडात्मक कार्यवाहियों के पूर्व अनुमोदन और उसकी सुनवाई में ही निकल जाएगा तो वह नियुक्ति संबंधी अपना मूल कार्य कब करेंगे? इस प्रश्न पर विचार सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोगों को करना ही होगा। एक बार यह सुविधा जब प्राथमिक विद्यालय और जूनियर हाई स्कूल के शिक्षकों को मिल जाएगी तो उसके बाद यदि सरकार इसको हटाना चाहेगी तो इसके लिए बड़े स्तर का आंदोलन के भी होने की संभावना है।

यह समझ से परे है कि नया आयोग अध्यापकों की नियुक्ति के लिए बनाया जा रहा है या प्रबंध तंत्र/नियुक्ति प्राधिकारी और अध्यापकों के बीच सेवा शर्तों और दंडात्मक कार्रवाई संबंधी होने वाले विवादों के निपटारे के लिए बनाया जा रहा है। जब आयोग सेवा शर्तों संबंधी विवादों का निपटारा करेगा तो नियुक्ति प्राधिकारी/ प्रबंध तंत्र और संबंधित अध्यापक को सुनने का अवसर भी प्रदान करेगा। आयोग को नियुक्ति प्राधिकारी/ प्रबंध तंत्र द्वारा दिए गए दंड को कम करने या समाप्त करने का भी अधिकार दिया गया है। ऐसे में आयोग को दोनों पक्षों को सुनवाई का अवसर प्रदान करना ही होगा, यदि ऐसा नही किया गया तो नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का अनुपालन नहीं हो पाएगा।

नए अधिनियम की धारा 18 से बेसिक शिक्षा परिषद के दायरे में आने वाले प्राथमिक शिक्षक, अशासकीय सहायता प्राप्त हाईस्कूल और इंटरमीडिएट कॉलेज में शिक्षा देने वाले माध्यमिक शिक्षक और अशासकीय सहायता प्राप्त डिग्री कॉलेजों में शिक्षा देने वाले उच्च शिक्षा के शिक्षक आच्छादित है। उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग अधिनियम 1980 में इस प्रकार की कोई धारा पूर्व में नहीं थी। उच्च शिक्षा के शिक्षकों की सेवा संबंधी शर्तें उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 35 और उससे संबंधित परिनियमावली के द्वारा आच्छादित है।

बेसिक शिक्षकों की सेवा शर्तें उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा अधिनियम 1972 और उसके अंतर्गत बनाई गई नियमावली और शासनादेशों द्वारा प्रशासित होती है। पूर्व में केवल माध्यमिक शिक्षा के शिक्षकों और प्रबंध तंत्र के बीच विवाद होने की दशा में दंडात्मक कार्रवाई करने के पूर्व चयन बोर्ड से धारा 21 के अंतर्गत चयन बोर्ड का अनुमोदन आवश्यक होता था।

नये अधिनियम में इसका विस्तार प्राथमिक और उच्च शिक्षा के शिक्षकों के लिए भी कर दिया गया है। इसीलिए धारा 18 में बिना संशोधन किए हुए 8 लाख से अधिक प्राथमिक और जूनियर हाई स्कूल के शिक्षकों की सेवा शर्तों को भी आयोग के पूर्व अनुमोदन की शर्त के साथ यदि यह अधिनियम लागू किया गया तो नया बनने वाले आयोग अपने मूल कार्य को छोड़कर स्वयं ही गतिरोध (डेडलॉक )की स्थिति में पहुंच जाएगा।

वर्तमान सरकार का उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग तथा माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड के मर्जर (एकीकरण)  का निर्णय तथा साथ ही प्राथमिक शिक्षकों के चयन की जिम्मेदारी भी नये आयोग को देने का निर्णय आने वाले समय में न केवल वर्तमान सरकार के लिए बल्कि भविष्य में उत्तर प्रदेश में बनने वाली सरकारों के लिए भी नई तरह की समस्या को ही जन्म देने वाला है।

नया आयोग बनाते समय न तो शिक्षक संगठनों से बात किया गया और न ही उनके प्रतिनिधियों से कोई राय ली गई है। एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर नये बनने वाले अधिनियम के ड्राफ्ट पर जनता की राय भी नही लिया गया। विधान परिषद में शिक्षक प्रतिनिधियों ने इस पर कुछ सवाल खड़े किए थे परंतु वह भी बिना बहस का मौका देते हुए आनन-फानन में इसे पास करा लिया गया था। सरकारी मुलाजिमों द्वारा ही इस अधिनियम को लागू करने के लिए जो ड्राफ्ट नियमावली बनाई गयी है वह भी भानुमती का पिटारा सी लगती है, जिसमें पुराने सभी नियमों को एकत्रित करके किसी तरह एक साथ रख दिया गया है।

सरकार द्वारा नियमावली बनाते समय भी किसी विशेषज्ञ की राय या इन आयोगों में कार्य कर चुके किसी भी अध्यक्ष/ सदस्य को भी इसमें शामिल नहीं किया गया है। केवल सरकारी मुलाजिमों द्वारा हड़बड़ी में बनाए गए इस कानून और नियमावली में कई व्यापक कमियां है, जिसका पता आयोग जब अपने कार्यकारी स्वरूप में आएगा उस समय  चलेगा, जिससे बड़ी समस्याएं खड़ा होने की उम्मीद है।

पिछले लगभग एक वर्ष से वर्तमान सरकार द्वारा ही नियुक्त सदस्यों द्वारा उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग और माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड द्वारा नियुक्तियां की जा रही थी और वो पुराना बैकलॉग समाप्त करने की कोशिश करते हुए दिख भी रहे थे। उसी समय  वर्तमान सरकार ने नया आयोग बनाने का निर्णय क्यों लिया है? इसका कोई भी जवाब सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे हुए लोगों के पास नहीं है। सरकार वास्तव में डिग्री कालेजों, माध्यमिक विद्यालयों और प्राथमिक विद्यालयों में रिक्त पड़े हुए अध्यापकों और कर्मचारियों पदों को भरना चाहती है या उसे केवल और उलझाना चाहती है, यह समझ से परे है।

लगता है कि सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे हुए अधिकारी नियुक्ति के लिए नया आयोग बनाते हुए और नियुक्ति के लिए प्रयास करते हुए ही केवल दिखना चाहते हैं, उनकी रुचि वास्तव में खाली पदों को भरने में नहीं है। सरकारों की दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में महाविद्यालयों में लगभग 95 प्रतिशत प्राचार्य और आधे से अधिक शिक्षक के के पद रिक्त हैं। इससे भी खराब स्थिति माध्यमिक विद्यालयों की है।

उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय का दिशानिर्देश होने के बाद भी वर्तमान सरकार ने महाविद्यालयों में प्राचार्य पद के विज्ञापन को निरस्त करने का कार्यवृत्त उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग को भेजा है। प्राथमिक विद्यालयों में भी लाखों पद रिक्त है परंतु ऐसा लगता है पिछली सरकारों की तरह ही वर्तमान सरकार भी नियुक्तियों को नियम- कानून और कोर्ट में ही उलझाए रखना चाहती है।

उत्तर प्रदेश में काम करने वाली भाजपा सरकार से प्रतियोगी परीक्षार्थियों और शिक्षा से जुड़े लोगों को बहुत ज्यादा उम्मीदें थी, परंतु वर्तमान सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड पिछली सरकारों से भिन्न नहीं है तथा वह भी रिक्त पदों को भरने में अभी तक असफल ही होती नजर आ रही है।  
 
(लेखक बरेली कॉलेज, बरेली के विधि विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत है)

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