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मैला साफ़ करते वक्त मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश अव्वल, सरकार ने जारी किए पिछले पांच साल के आंकड़े

आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद मैला साफ करते वक्त भारत में रिकॉर्ड मौतें होती हैं। हैरान करने वाली बात ये है कि मीडिया रिपोर्ट्स में ये आंकड़े कुछ और होते हैं और सरकारी कागज़ों में कुछ और होते है।
manual scavengers
प्रतीकात्मक तस्वीर। 

देश और देशवासियों को आधुनिक बनाने वाले जुमलों का पुलिंदा तैयार कर चुकी सरकार को अब संसद में एक के बाद एक ऐसे आंकड़े सामने रखने पड़ रहे हैं जो उसी के लिए आईना साबित हो रहे हैं। चाहे वो देश में बढ़ रही बेरोज़गारी हो, देश छोड़कर जाने वालों की संख्या हो या फिर मैला साफ करते वक्त सैप्टिक टैंक में ही दम तोड़ देने वाला मज़दूर हो।

अपने भाषणों में प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के नेता जो दावे पेश करते हैं, आंकड़े ठीक उससे उलट ही पेश किए जा रहे हैं, जैसे हाल ही में सरकार की ओर से सैप्टिक टैंक में मरने वालों के आंकड़े सामने रखे गए, जो बेहद चौंकाने वाले थे।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले पांच साल में भारत में सीवर और सैप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 347 लोगों की मौत हुई है। जबकि ये मौतों का आंकड़ा उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा है। बता दें कि सीवर और सैप्टिक टैंक की सफाई के दौरान उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और दिल्ली में करीब 40 फीसदी मौतें हुई हैं।

ये आंकड़ें सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री वीरेंद्र कुमार ने लोकसभा में पेश किए थे। उन्होंने बताया कि साल 2017 में 92, 2018 में 67, 2019 में 116, 2020 में 19, 2021 में 36,  2022 में 17 मौतें सीवर और सैप्टिक टैंक में सफाई के दौरान दर्ज की गई हैं।

वहीं दूसरी तरफ आवास और शहरी मामलों के राज्य मंत्री कौशल किशोर द्वारा राज्यसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा सीवर और सैप्टिक टैंक में सफाई के दौरान मौत उत्तर प्रदेश में हुई हैं। आंकड़े देखें तो सफाई के दौरान उत्तर प्रदेश में 47, तमिलनाडु में 43, और दिल्ली में 42 मज़दूरों की मौत हुई। जबकि हरियाणा में 36, महाराष्ट्र में 30, गुजरात में 28, कर्नाटक में 26, पश्चिम बंगाल में 19, पंजाब में 14, और राजस्थान में 13 मौतें हुई हैं।

इतने बड़े आंकड़ों के बावजूद सीवर की सफाई सरकारी हो या फिर प्राइवेट, कर्मियों को बिना किसी सुरक्षा, बिना किसी कानून का पालन किए धड़ल्ले से मौत के मुंह में धकेला जा रहा है।

आपको बता दें कि लगातार बढ़ रहे आकड़ों के बाद नींद से जागी सरकार ने उत्तर प्रदेश के सभी निकायों और पालिकाओं को मैनुअल सीवर सफाई कराने पर तत्काल रोक के आदेश दिए थे, लेकिन ये आदेश महज़ कागजों तक ही सीमित दिखाई दे रहे हैं। वैसे भी सरकार की ओर से पेश किए गए ये वो मामले हैं जो आंकड़ों में गिन लिए जाते हैं, लेकिन कई ऐसे मामले भी होते होंगे, जिनकी भनक तक नहीं लगती। हालांकि सीवर सफाई के दौरान कुछ ऐसे हादसों के बारे में भी जानना ज़रूरी है जो काफी चर्चा में रहे।

गाजियाबाद में 5 कर्मचारियों की मौत- 22 अगस्त 2019 को नंदग्राम इलाके में सफाई कर्मचारी सीवर की सफाई कर रहे थे, इसी दौरान जहरीली गैस के कारण दम घुटने से सभी की मौत हो गई थी।

वाराणसी में 2 की दम घुटने से मौत- 1 मार्च 2019 को वाराणसी के पांडेपुर इलाके में संविदा सफाई कर्मचारी चंदन और राकेश को गहरी सीवर लाइन में बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के उतारा गया। दोनों की दम घुटने से मौत हो गई थी।

कानपुर में 2 सफाई कर्मियों की मौत- 19 जून 2019 को कानपुर के बाबूपुरवा थाना क्षेत्र में सीवर की सफाई के दौरान दो सफाईकर्मियों की मौत हो गई।

कानपुर में 3 सफाई कर्मियों का दम घुटा 1 की मौत- 6 अगस्त 2017 को कानपुर के ही बर्रा विश्वबैंक में सीवर चेंबर की सफाई के दौरान तीन सफाई कर्मी जहरीली गैस की चपेट में आ गए थे। वक्त रहते बचाव कार्य के चलते दो कर्मचारियों को बचा लिया गया था, लेकिन एक की मौत हो गई थी।

आपको बता दें कि सीवर में सफाई के लिए एक्ट के तहत सफाईकर्मियों से सीवेज सफाई पूरी तरह गैरकानूनी है। अगर किसी व्‍यक्ति को सीवर में उतारना ही पड़ जाए, तो उसके लिए कई तरह के नियमों का पालन जरूरी है। कहने का अर्थ है कि स्पेशल कंडीशन में सफाई कर्मी को क्या व्यवस्था मिलनी चाहिए:

  • कर्मचारी का 10 लाख रुपये का बीमा होना चाहिए
  • कर्मचारी से काम की लिखित स्वीकृति लेनी चाहिए
  • सफाई से एक घंटे पहले ढक्कन खोलना चाहिए
  • प्रशिक्षित सुपरवाइजर की निगरानी में ही काम होगा
  • ऑक्सीज़न सिलेंडर, मास्क और जीवन रक्षक उपकरण देने होंगे

इन तमाम प्रतिबंधों और कंडीशन के बावजूद अपने-अपने हिसाब से मज़दूरों को सैप्टिक टैंक या सीवर में उतार दिया जाता है, जिसके बाद सरकारी आंकड़े तो कुछ और ही गवाही देते हैं।

भले ही कुछ लोग कह रहे हैं दिल्ली और हरियाणा में अब मशीनों का इस्तेमाल होता है, लेकिन ये भी सच हैं कि ऐसे उदाहरण गिने-चुने ही हैं। हालांकि ये हादसे पूरी तरह से केंद्र और राज्य सरकारों की मज़दूरों के प्रति अनदेखी बयां करती है।

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