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पिता जेल में...मां का भी हो गया देहांत... 13 सालों से अपनों की रिहाई का इंतज़ार करता एक परिवार

प्रयागराज ज़िले में हम एक ऐसे मज़दूर परिवार से मिले जिनके घर के तीन  सदस्य पिछले 13 वर्षों से जेल में विचाराधीन कैदी के रूप में बंद हैं, न तो उन पर आरोप सिद्ध हो पाया है, न ही बेल मिल पा रही है। स्पेशल रिपोर्ट
पिता जेल में...मां का भी हो गया देहांत... 13 सालों से अपनों की रिहाई का इंतज़ार करता एक परिवार

यह वास्तविकता है कि हमारे देश की जेलों में कई लोग ऐसे हैं जो विचाराधीन कैदी के रूप में वर्षों से जेल में बंद हैं। उन पर न कोई आरोप सिद्ध हो पाया है न उनकी ज़मानत अर्जी ही मंजूर हो पाई है। एक तरफ वे जेल में इस उम्मीद से जिंदगी काट रहे हैं कि शायद इस देश का कानून कभी तो उनको समझेगा तो दूसरी तरफ उनका परिवार हर रोज एक ऐसे संघर्ष से गुजर रहा है जहां वे अपने को हारा हुआ महसूस कर रहे हैं।

प्रयागराज जिले के फूलपुर तहसील के अन्तर्गत आने वाले देवापुर गांव में हम एक ऐसे ही परिवार से मिले जिनके घर के तीन  सदस्य पिछले 13 वर्षों से जेल में विचाराधीन कैदी के रूप में बंद हैं, न तो उन पर आरोप सिद्ध हो पाया है न ही बेल मिल पा रही है जबकि एक समान धारा में बंद अन्य लोगों को कई साल पहले ही बेल मिल चुकी है जिसमें इस परिवार के एक सदस्य भी शामिल हैं।

आख़िर क्या है पूरा मामला, इस घटनाक्रम को समझने के लिए चलते हैं देवापुर गांव........

एक घटना ने बदल दी ज़िंदगी

देवापुर गांव के रहने वाले पाल परिवार के चार सदस्य इफको प्लांट में श्रमिक के बतौर काम करते थे। संयुक्त परिवार था, परिवार के मुखिया चार भाई थे। थोड़ी बहुत खेती भी थी, कुल मिलाकर खेती और थोड़ी बहुत फैक्ट्री की इनकम से परिवार ठीक ठाक चल रहा था लेकिन 7 नवम्बर 2007 की एक घटना ने पूरे परिवार को तोड़कर कर रख दिया।

इस परिवार के सदस्य राजेश पाल बताते हैं कि उन दिनों फैक्ट्री में हम श्रमिकों का अपनी मांगों को लेकर आंदोलन चल रहा था। सबकुछ शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा था, तो दूसरी तरफ मैनेजमेंट बिल्कुल नहीं चाहता था कि मजदूरों का यह आंदोलन चले। और 7 नवम्बर 2007 को इफको फैक्ट्री के अंदर एक ऐसी घटना घट गई जिसने आंदोलन को तो नुकसान पहुंचाया ही साथ ही कई मजदूरों पर केस थोप दिया गया।

राजेश कहते हैं उस दिन फैक्ट्री के अंदर ठेकेदार की हत्या हो गई थी, कैसे हुई किसने की, कुछ नहीं पता चला। बस उस समय फैक्ट्री में मौजूद कई मजदूरों को इस हत्या का दोषी मानते हुए उन पर नामजद एफआईआर दर्ज करा दी गई जिसमें पाल परिवार के पांच सदस्य भी शामिल थे। राजेश कहते हैं, वे भी उनमें से एक थे। उनके मुताबिक जिस दिन यह घटना घटी उस दिन तो उनके पिताजी फैक्ट्री गए भी नहीं थी फिर भी उन पर केस कर दिया गया।  परिवार कहता है गिरफ्तार होने वाले श्रमिकों की जब एक समान धारा के तहत गिरफ्तारी हुई और एक एक करके सबको जमानत दे गई, जिसमें इसी परिवार के दो सदस्य भी शामिल हैं, तो अन्य तीन को आख़िर बेल क्यूं नहीं मिल पा रही, जबकि आजतक आरोप भी सिद्ध नहीं हो पाया है।

पिता जेल तो मां को भी खो चुके बच्चे

साढ़े बारह साल का शिवम् मंदबुद्धि है, पिछले तेरह सालों से जेल में बंद अपने पिताजी का चेहरा उसे याद तक नहीं। याद हो भी कैसे जब उसके पिताजी जेल गए थे तब मात्र 6 महीने का था। शिवम के पिताजी दिनेशपाल जेल में तेरह सालों से विचाराधीन कैदी के रूप में बंद हैं। इतने वर्षों में न तो उनपर आरोप तय हो पाया है न ही बेल मिल पाई है। दिनेशपाल के साथ उनके पिताजी राजमनी पाल और  चाचा रामफेर पाल भी पिछले तेरह सालों से हत्या के आरोप में जेल में विचाराधीन  कैदी के बतौर बंद हैं जबकि इनके साथ एक समान धारा में गिरफ्तार हुए अन्य लोगों को कई साल पहले ही जमानत मिल चुकी है जिसमें इसी परिवार के अन्य सदस्य राजेशपाल भी शामिल हैं।

शिवम से बड़ी उसकी और तीन बहनें अर्चना, रंजना, वन्दना हैं, जिनमें से अर्चना और रंजना आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई छोड़ चुकी हैं और वंदना को उसकी बुआ के घर भेज दिया गया है ताकि दो वक़्त का भोजन तो कम से कम ठीक से मिल जाए और थोड़ा बहुत पढ़ लिख भी जाए। हालांकि अर्चना बताती है कि बुआ की भी आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं फिर भी इतनी तस्सली है कि यहां से उसे बेहतर ही मिल रहा होगा। इन बच्चों की विडम्बना यह कि एक तरफ दादा जी और पिता जी जेल में तो दूसरी तरफ़ इसी गम के चलते पिछले साल मां का भी देहांत हो गया।

पढ़ाई छूटी और बन गए मज़दूर

बीस साल की अर्चना और 18 वर्षीय उसकी छोटी बहन रंजना दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं ताकि अपने लिए और अपने बीमार भाई के लिए दो वक़्त की रोटी का इंतजाम कर सके। अर्चना कहती है जब उसके पिताजी जेल गए थे तब वह सात साल थी, पुलिस आख़िर पिताजी को क्यूं ले गई और जेल का मतलब क्या होता है, वह इन सब बातों से अनजान थी बस इतना पता था कि पिताजी के साथ चाचा, बाबा और छोटे बाबा को भी पुलिस ले गई लेकिन क्यूं कभी मां ने भी नहीं बताया। वह कहती है, तब हम स्कूल जाते थे, पढ़ते थे और बस सब का जेल से आने का इंतज़ार करते थे। मां और पूरे परिवार को विश्वास था कि सारे लोग जेल से जल्दी ही छूट कर आ जाएंगे।

अर्चना के मुताबिक जब तक मां थी तब तक थोड़ा बहुत भाई का इलाज भी चलता था। पिताजी के जेल जाने के बाद धीरे धीरे घर के आर्थिक हालात खराब होने लगे परिवार में बटवारे के चलते खेती भी बहुत मामूली सी हिस्से में आई, मां बीमार रहने लगी और आख़िरकार उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। रंजना बताती है लंबा समय बीत जाने के बाद जब पिताजी के जेल से आने की उम्मीद टूटने लगी तो मां सदमे में चली गई और उन्हें कैंसर हो गया गरीबी के कारण इलाज नहीं हो पाया और आखिरकार अगस्त 2020 में मां ने दम तोड़ दिया। अर्चना और रंजना अब दूसरों के खेतों में मजदूरी करती हैं और छोटी बहन वन्दना बुआ के यहां रहती है। पिताजी से मिलने जेल जाने की बात पूछने पर दोनों बहने कहती हैं करोना के चलते पिछले एक साल से जाना नहीं हो पा रहा, हां घर के अन्य पुरुष सदस्य कभी कभी जाकर मिल आते हैं। वन्दना बताती है मां के गुजर जाने के बाद अब तो पिताजी ने बोलना भी कम कर दिया है शायद अभी भी वे इस सदमे से उभर नहीं पाए हैं।

और रख लिया मौन व्रत...

इसी परिवार के जेल में बंद अन्य सदस्य रामफेर पाल की पत्नी गुड्डी देवी बताती हैं फैक्ट्री में घटी घटना के बाद से पुलिस का जुल्म भी उनके परिवार पर बढ़ गया। गिरफ्तारी के लिए रोज पुलिस उनके घर आती थी, जब कोई नहीं मिलता तो गुस्से में तोड़फोड़, गाली गलौज करती थी,  जिससे तंग आकर आखिरकार उनके पति रामफेर पाल, जेठ राममनी पाल उनके बेटे दिनेश पाल, राजेश पाल, राकेश पाल को सामने आकर अपनी गिरफ्तारी देनी पड़ी।

गुड्डी देवी कहती हैं यह इस देश का कैसा कानून हैं जहां आरोप भी सिद्ध नहीं हो पाता और लोग वर्षों जेल में काट देते हैं, जबकि अन्यों को कब की जमानत मिल चुकी है। आंखों में आंसू लिए भरे गले से से वे बताती है जेल में बंद उनके पति ने पिछले कुछ सालों से में व्रत धारण कर लिया है और खाना भी कम कर दिया है,  जब परिवार का कोई सदस्य मिलने जाता है तो उन्हें जो कहना होता है लिखकर देते हैं। रोते हुए वे कहती हैं हमने उनसे बहुत अनुरोध किया कि में मौन व्रत तोड़ दें बढ़िया से खाए लेकिन अब वे किसी की नहीं सुनते।

गुड्डी देवी बताती हैं अभी इलाहाबाद हाई कोर्ट में जमानत की अर्जी डाली हुई है लेकिन याचिका में जब सुनवाई की बात आती है तो पता चलता है नंबर ही नहीं आया और सुनवाई का समय खत्म हो गया। यही सिलसिला चलता है जबकि वकील आश्वासन देते रहते हैं कि जमानत मिल जाएगी लेकिन कब, यही सवाल आज हमारे लिए जीवन मरण का प्रश्न बना हुआ है। बोझिल मन से वे कहती हैं सच कहें तो अब हमारी उम्मीदें टूटने लगी हैं।

परिवार से बातचीत का सिलसिला चल ही रहा था कि अर्चना और वन्दना अपने सुनहरे पलों को संजोते हुए अपनी पुरानी किताबें लाकर दिखाने लगीं, वे कहती हैं क्या अब हमारे ये दिन लौट कर आएंगे, क्या हमारी मां अब कभी लौट कर आएगी, क्या हम अपने बीमार भाई को एक बेहतर जिंदगी दे पाएंगे कभी नहीं लेकिन इस देश के कानून से हमारी एक ही अपील है कि हमारे पिताजी और परिवार के अन्य सदस्यों को रिहाई दें ताकि बाकी की बची जिंदगी हम अपने पिता के साए में काट लें।

सचमुच अंदर तक छलनी कर देती हैं बच्चों की यह बातें लेकिन हम सब बेबस हैं इस कानून के आगे, मामले खिंचते चलते जाते हैं, साल दर साल गुजरते जाते हैं लेकिन न आरोप तय हो पाता है न जमानत ही मिल पाती है जबकि हद इतनी कि उसी धारा में बंद अन्य लोगों को जमानत मिल जाती है। बस हम इतना ही कर सकते हैं कि कानून पर भरोसा कर इस परिवार की तरह सब लोगों का जेल से आने का इंतज़ार करें।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार है।)

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