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उत्तराखंड चुनाव 2022 : बदहाल अस्पताल, इलाज के लिए भटकते मरीज़!

भारतीय रिजर्व बैंक की स्टेट फाइनेंस एंड स्टडी ऑफ़ बजट 2020-21 रिपोर्ट के मुताबिक, हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सरकार के द्वारा जन स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च किया गया है।
Uttarakhand

उत्तराखंड का चुनाव अपने अंतिम चरण की तरफ बढ़ रहा है। इस प्रदेश की समस्याएं इसके जन्म के पूर्व से ही इसके साथ हैं या यूं कहें कि उन समस्याओं के निदान के लिए ही राज्य निर्माण की मांग उठी थी। लेकिन समस्यां का हल तो होता नहीं दिख रहा है बल्कि दिनों-दिन ये समस्याएं विकराल होती जा रही हैं। ऐसी ही एक समस्या है पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य सेवाओं की जो पूरे राज्य में ही चिंताजनक स्थति में है। इसे हम चमोली ज़िले का थराली विधान सभा के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के उदाहरण से समझते हैं, जो आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है। यहां सरकार ने थराली बाज़ार से कुछ ऊपर एक बिल्डिंग तो बना दी है, परन्तु उसमें न तो उचित संख्या में डॉक्टर हैं और ना ही बाकि स्टॉफ कर्मचारी हैं। हाल ये है कि इस कोरोना काल में भी अभी वहां कोई सफाई कर्मचारी नहीं है। बाथरूम से लेकर वाशबेसिन तक सब बंद पड़ा है। यहां पर केवल चार डॉक्टर हैं और उसमें से भी एक अभी छुट्टी पर है। सरकार के मुताबिक यहां 24 घंटे आपातकालीन सेवाएं हैं, लेकिन अस्पताल के अंदर एक मरीज़ को देखने के लिए ज़रूरी सेवाएं तक नहीं हैं।

स्थानीय लोगों ने बताया कि इस अस्पताल में इलाज नहीं होता, केवल खांसी-बुखार की दवाई मिलती है, अन्य किसी बीमारी के लिए बड़े अस्पताल में भेज दिया जाता है। इस पूरे इलाके में भी स्वास्थ्य सेवाएं एक गम्भीर विषय बना हुआ है। इस एक सामुदायिक केंद्र पर आस-पास के कई ब्लॉक के ग्रामीण निवासी निर्भर हैं।

थराली का बदहाल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र!

न्यूज़क्लिक की टीम अपनी चुनाव यात्रा के दौरान थराली विधानसभा घूम रही थी। इसी क्रम में हम थराली सामुदायिक केंद्र पहुंचे, जहाँ बाहर से एक सुंदर भवन दिख रहा था, परन्तु जैसे ही हम अंदर घुसे तब लगा यहां इंसान का इलाज़ होना बहुत मुश्किल है। जैसे हालात है उसमें मरीज़ के ठीक होने से अधिक बीमार पड़ने की संभावना है। हम जब प्रसूति विभाग गए तो वहां की छत और दीवार में सीलन भरी थी। साथ ही पूरे अस्पताल में एक ही पीने के पानी की टंकी दिखी वो भी बंद पड़ी थी। हालांकि पानी साफ करने वाली मशीन नई दिख रही थी, लग रहा था जैसे उद्घाटन के बाद से ये चली ही न हो। इसके साथ ही लगे वॉशबेसिन पूरी तरह से गंदगी और पानी से भरा था। नीचे जब टॉयलेट में गए तो वहां खड़ा होना भी मुश्किल था क्योंकि वो पूरी तरह से मूत्र से भरा हुआ था। साथ ही में वहां विकलांगों के लिए एक टॉयलेट था जिसे किसी संस्था ने बनवाया था, उसमें भी ताला लटका हुआ था।

हम दोपहर में वहां करीब दो बजे पहुंचे थे। उस समय ओपीडी बंद हो चुकी थी। हालांकि आपातकालीन सेवाएं चल रही थी। लेकिन, वहां मौजूद लोगों ने बताया कि इस अस्पताल में ना तो ठीक से इलाज होता है और ना ही दवाई मिलती है। लोगों ने साफ-सफाई को लेकर भी गुस्सा दिखाया और कहा कि सरकार हर जगह स्वच्छ भारत का प्रचार कर रही है और यहां का हाल देखिए।

सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) समर्थक और पूर्व सैनिक गोपाल सिंह रावत जिनकी उम्र लगभग 70 वर्ष है, उन्होंने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि यहाँ गांव में इलाज तो भूल ही जाइए। अगर हम बीमार पड़ते हैं, तो देहरादून से पहले इलाज नहीं मिलता है। इसी वजह से कई लोग रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं।

मिंग गांव की प्रधान सरिता ने बताया, "यहां पूरे इलाके में इलाज कराना बेहद मुश्किल है। हमारे गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी नहीं है, कहीं-कहीं किसी गांव में औषधालय है जिसमें डॉक्टर नहीं हैं बल्कि कम्पाउंडर ही दवाई दे रहे हैं।”

चिकित्साप्रभारी ने माना ख़राब हैं हाल!

हमने इस सामुदायिक केंद्र के हालात पर अस्पताल में मौजूद सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र थराली के चिकित्साप्रभारी डॉ. नवनीत चौधरी से बात की, उन्होंने भी माना कि हालत ठीक नहीं है। उन्होंने कहा, "हमारे पास कुल चार ही डॉक्टर हैं, उसमें भी एक अभी छुट्टी पर है।"

यहाँ पर कोई भी विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है। सभी डॉक्टर फ़िजिशियन ही हैं। अल्ट्रासाउंड की सुविधा तक नहीं है। हालत ये है कि बाल रोग विशेषज्ञ, हड्डी सहित रेडियोलॉजिस्ट जैसे विशेषज्ञों के लिए अस्पताल तरस रहे हैं। इसके अलावा जो यहां मौजूद डॉक्टर को समझ नहीं आता है या सुविधाओं का अभाव होता है, उसे हम देहरादून रेफर कर देते हैं।

चौधरी ने बताया कि यहां तीन साल से एक्स-रे मशीन काम नहीं कर रही है। हालांकि उन्होंने कहा यहां पैथलॉजी लैब है। लेकिन जब हम अंदर गए तो कई जगह पर्चे चिपके थे जिस पर एक्स-रे शुल्क 214 रूपए लिखा था।

सफ़ाई के सवाल पर उन्होंने कहा, "हमारे यहां सफाई के लिए कोई स्थाई स्टाफ नहीं है, जब भी ज़रूरत होती है तब हम एक स्थानीय सफाईकर्मी को बुलाकर सफाई करा लेते थे। परन्तु अभी पिछले सप्ताह उनका भी देहांत हो गया इसलिए साफ-सफाई नहीं हो पा रही है।"

हालांकि ये जवाब सुनकर कोई भी दंग रह जाए कि अस्पताल में कोई सफाई कर्मी ही न हो। लेकिन नवनीत और वहां मौजूद बाकि स्टाफ ने हमें आश्वस्त किया कि वो जो बोल रहे हैं वो यहाँ की कड़वी हक़ीकत है। नवनीत ने बातचीत में ये माना कि यहां स्टाफ की भारी कमी है।

इस अस्पताल से मरीज़ों को बड़ी संख्या में जिला अस्पताल या देहरादून के लिए रेफर किया जाता है और उसके लिए भी स्वास्थ्य केंद्र में मात्र एक ही एम्बुलेंस है।

पूरे पहाड़ में ही स्वाथ्य सेवा एक गंभीर समस्या

हालांकि ये सिर्फ उत्तराखंड के एक जिले या एक सामुदायिक केंद्र की समस्या नहीं है, बल्कि पूरे पहाड़ में ही स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली एक गंभीर समस्या बनी हुई है। थराली से ही लगी हुई एक और विधानसभा कर्णप्रयाग विधानसभा क्षेत्र है। यहां भी पिछले दो दशकों में स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर केवल भवन निर्माण ही हुए हैं। प्रयाग शहर में ट्रॉमा सेंटर का निर्माण कई साल पहले हुआ था परन्तु आजतक उसमे इलाज शुरू नहीं हो सका है। लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए श्रीनगर, देहरादून और ऋषिकेश के बड़े अस्पतालों के चक्कर काटने के लिए मजबूर हैं। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही अपने सरकार के दस-दस वर्ष के शासन में इसे बेहतर करने में नाकामयाब रही है बल्कि इस दौरान स्थतियाँ और ख़राब हुई हैं।

जिसके चलते राज्य में ऐसी कई कहानियां सामने आती हैं जिनमें मरीज़ों को सही समय पर एम्बुलेंस न मिलने, उचित उपचार की कमी, डॉक्टरों की सीमित उपलब्धता और कई और कारणों के चलते अपनी जान गंवानी पड़ती है। लेकिन इस हालात में भी सरकारों की प्राथमिकता में ये नज़र नही आता है क्योंकि अगर स्वास्थ्य सेवा सरकार की प्राथमिकता में होता तो राज्य की स्थापना के 21 सालों के बाद भी उत्तराखंड का स्वास्थ्य पर खर्च राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का सिर्फ 1.1% न होता।

भारतीय रिजर्व बैंक की स्टेट फाइनेंस एंड स्टडी ऑफ़ बजट 2020-21 रिपोर्ट के मुताबिक, हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सरकार के द्वारा जन स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च किया गया है। रिपोर्ट में दिए गए आकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड ने जन स्वास्थ्य पर जीएसडीपी का सबसे कम 1.1% खर्च किया जबकि जम्मू-कश्मीर ने 2.9%, हिमाचल प्रदेश ने 1.8% और पूर्वोत्तर राज्यों ने 2.9% हिस्सा खर्च किया है। 

इसके साथ ही एसडीसी फाउंडेशन के अध्ययन के अनुसार भी राज्य ने 2017 से 2019 तक प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं पर हिमालयी राज्यों में सबसे कम खर्च किया है। स्वास्थ्य सेवाओं में हिमालयी राज्यों में अरुणाचल प्रदेश ने तीन वर्षों में सबसे ज्यादा रुपये 28,417 प्रति व्यक्ति खर्च किये। जबकि उत्तराखंड ने मात्र 5,887 रुपये खर्च किये। यहां तक कि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश ने भी इस मद में उत्तराखंड से 72% ज्यादा खर्च किया।

स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की जगह की जा रही है भारी कटौती!

देहरादून स्थित स्वतंत्र पत्रकार सत्यम, जो लगातार उत्तराखंड राज्य की स्वास्थ्य समस्याओं और बाकि अन्य जन मुद्दों पर लिखते रहे हैं, कहते हैं, “प्रदेश में स्वास्थ्य सेवा बदहाल है और दूसरी तरफ कोरोना जैसी महामारी का समय है। ऐसे समय में स्वास्थ्य बजट को बढ़ाने की ज़रूरत थी तब सत्ताधारी दल बीजेपी ने स्वास्थ्य बजट में कटौती कर दी।”

उन्होंने कहा भारतीय रिज़र्व बैंक की राज्यों के बजट पर आधारित वार्षिक रिपोर्ट और उत्तराखंड विधानसभा में प्रस्तुत बजट दस्तावेजों के विश्लेषण से पता चलता है कि उत्तराखंड में वर्ष 2001-02 से लेकर 2020-21 तक राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर बजट अनुमान में रुपये 22,982 करोड़ खर्च करने का वादा किया था, लेकिन 2019-20 तक वास्तविक खर्चों और 2020-21 के पुनरीक्षित अनुमान तक सिर्फ रुपये 18,697 करोड़ खर्च किया, 4,285 करोड़ रूपये ऐसा है जो सरकार के द्वारा खर्च ही नहीं किया गया। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं पर जहाँ एक ओर ज़्यादा बजट खर्च की ज़रूरत है, वहीं राज्य सरकार द्वारा वास्तविक खर्चों में की जा रही यह कटौती स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर ख़ासा प्रभाव डाल रही है।

एक तो अस्पतालों का बुरा हाल उस पर पहाड़ के दुर्गम रास्ते और कई गाँवो में तो आजतक सड़क ही नहीं बन पाई है जिस वजह से वहां एम्बुलेंस भी नहीं पहुँच पाती है। इसी वजह से उत्तराखंड से कई बार खबरें आती हैं कि किसी गर्भवती महिला का प्रसव रास्ते में हो गया।

भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20 के अनुसार उत्तराखंड राज्य में शिशु मृत्यु दर (1000 नए जन्मे बच्चों में ऐसे बच्चे जिनकी मृत्यु एक साल के भीतर हो जाती है) कुल 31 है, जो ग्रामीण क्षेत्र में 31 और शहरी क्षेत्र में 29 है। जबकि पड़ोसी राज्य हिमाचल की बात करें तो कुल शिशु मृत्यु दर 19 है जो ग्रामीण क्षेत्र में 20 और शहरी क्षेत्र में 14 है।

उत्तराखंड में अभी तक दो दलों, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेतृत्व की सरकारें रही हैं और दोनों ही सरकारों ने इस ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया है। बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की वजह से लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ और शिक्षा का अभाव पहाड़ों में हो रहे पलायन का मुख्य कारण बना है। हालांकि अब प्रदेश अपने लिए नई सरकार चुन रहा है, उम्मीद है कि वो सरकार इस ओर ध्यान देगी और स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने के लिए स्वास्थ में ज़्यादा से ज़्यादा खर्च करेगी।

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