Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

उत्तराखंड स्वास्थ्य सेवाएं भाग-2: इलाज के लिए भटक रहे मरीज, सुविधाओं के लिए तरस रहे डॉक्टर-अस्पताल

“दो लोगों ने मेरे हाथ ज़ोर से पकड़े और दो लोगों ने मेरे पैर पकड़े। सफाई कर्मचारी ने पैर पर लगी चोट साफ़ कर उस पर टांके लगाए। चोट की जगह को बिना सुन्न किए। मैं बुरी तरह चीख रही थी। लेकिन कर भी क्या सकती थी। कोई दूसरा रास्ता नहीं था।”
15 मिनट की पर्वतीय चढ़ाई फिर 20 किलोमीटर दूर पैदल अस्पताल जा रही मालती देवी
15 मिनट की पर्वतीय चढ़ाई फिर 20 किलोमीटर दूर पैदल अस्पताल जा रही मालती देवी

दोपहर करीब 12-12:30 बजे के बीच पैरों में हवाई चप्पल और हाथ में डंडी लिए मालती देवी पहाड़ की चढ़ाई पर आगे बढ़ रही हैं। उनकी सांसें तेज़ चल रही है। इसकी वजह चढ़ाई और ढलान वाले रास्ते नहीं हैं। ये उनकी बीमारी है। जो इस समय बढ़ गई है। जब उन्हें लगा कि बिना इलाज बात नहीं बनेगी तो उन्होंने नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र जाने का फ़ैसला किया।

वह पौड़ी के नैनीडांडा तहसील के चैड़-चैनपुर गांव में रहती हैं। इलाज पाने के लिए उनके पास दो विकल्प हैं। चैड़-मल्लाखोला गांव का राजकीय आयुर्वेदिक अस्पताल। जहां कई वर्षों से सिर्फ एक सफ़ाई कर्मचारी की तैनाती है। दूसरा विकल्प है द्वारी गांव में किराये के भवन में चलने वाला स्टेट एलोपैथिक डिस्पेन्सरी। जहां फार्मासिस्ट प्राथमिक चिकित्सा के लिए उपलब्ध होता है। मालती देवी ने द्वारी गांव जाना तय किया था। गांव से करीब 15 मिनट पैदल पर्वतीय चढ़ाई और फिर करीब  20 किलोमीटर के दुर्गम सफ़र के बाद द्वारी गांव आता है।

क्या मालती देवी को इलाज मिलेगा?

लंबी सांसें लेकर आगे बढ़ रही मालती देवी की ख़ुशकिस्मती से मैं भी अपने एक अन्य साथी के साथ इसी रास्ते पर अपने वाहन से आगे बढ़ रही थी। तभी मेरे पास गांव के एक मास्टर का फ़ोन आया कि अगर आप डिस्पेन्सरी की दिशा में ही आगे बढ़ रहे हैं तो इस महिला को भी साथ ले जाएं। इस रास्ते पर सवारी ले जाने वाली इक्का-दुक्का मैक्स गाड़ियां चलती हैं। लेकिन वो कब मिलेंगी इसका पता नहीं होता।

मालती हमारे साथ डिस्पेन्सरी के लिए चल पड़ीं। रास्ते में उन्होंने बताया कि रात में उन्हें अपनी बेटी के घर रुकना होगा। जो वहीं डिस्पेन्सरी के पास रहती है। एक ही दिन में स्वास्थ्य केंद्र जाकर वापस लौटना उनके लिए आसान नहीं होगा। क्योंकि वापसी की यात्रा में कोई सुखद संयोग नहीं हुआ तो उन्हें पैदल ही आना पड़ेगा। गांववालों का ये सामान्य तरीका है। जब अस्पताल जाते हैं तो वहीं नज़दीक के किसी रिश्तेदार के घर ठहरना होता है। डॉक्टर से मिलने का मतलब दो दिन का समय।

मुश्किल ये हुई कि द्वारी गांव पहुंचकर भी मालती देवी को राहत की सांस नहीं मिली। डिस्पेन्सरी पर फार्मासिस्ट मौजूद नहीं थे। हमने आसपास पता किया। वहीं मौजूद गांव के पोस्ट मास्टर गोकुल नेगी ने बताया कि फार्मासिस्ट कोरोना वैक्सीन लगवाने के लिए रिखणीखाल सेंटर गए हैं। करीब 40-45 किलोमीटर दूर। वापसी का पता नहीं। मतलब, मालती देवी को आज कोई इलाज नहीं मिलने वाला है। शुक्र है! उनकी स्थिति जानलेवा नहीं है।

ये 2 मार्च 2021 है। इस समय उत्तराखंड में 50 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को कोरोना के टीके लगने शुरू हुए हैं। तो टीकाकरण की जानकारी के लिए पौड़ी के डिप्टी सीएमओ डॉ अशोक कुमार तोमर से फ़ोन पर बात की। डॉ. तोमर ने बताया कि उनकी जानकारी में आज स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का टीकाकरण नहीं हो रहा है।

फार्मासिस्ट का दर्द

फिर मैंने फार्मासिस्ट ताजंबर सिंह से भी फ़ोन पर बात की। उन्होंने बताया कि कोविड वैक्सीन का दूसरा डोज लगाया जा रहा था। इसलिए वह सेंटर पर मौजूद नहीं थे। फार्मासिस्ट से उनकी मुश्किलों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया “ मुझे एक डॉक्टर की जरूरत है। करीब ढाई वर्ष तक यहां एक महिला डेंटिस्ट की तैनाती रही। उन्हें फिजिशियन के तौर पर यहां एडजस्ट कर दिया गया था। नवंबर 2020 में वह भी चली गईं। उनके पहले भी यहां कोई डॉक्टर नहीं रहा। अब भी नहीं है। यहां हमें फर्स्ट एड देना होता है। दवाइयां भी प्राथमिक चिकित्सा वाली ही मिलती हैं। किसी को टांके लगा दिये, इंजेक्शन लगा दिया, ड्रिप चढ़ा दिया। बिना डॉक्टर के तो आप कुछ कर ही नहीं सकते। जब हमें बीमारी समझ नहीं आती तो हायर सेंटर रेफ़र कर देते हैं। यहां मेरे अलावा कोई वार्ड-ब्वॉय या सफाई कर्मी भी नहीं”।

द्वारी गांव में शैला देवी ने बताया कि यहां स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं है

द्वारी गांव के इस छोटे से बाज़ार में लोगों से स्वास्थ्य सुविधाओं पर थोड़ी चर्चा हुई। वहां मौजूद लोगों में से एक शैला देवी ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ चुकी हैं। वह बताती हैं “स्वास्थ्य सुविधाएं यहां पर तो कुछ भी नहीं है। लेकिन रिखणीखाल में अब इलाज मिलने लगा है। इंजेक्शन लगने लग गये हैं। वहां पहुंचने के लिए टैक्सीवाले को 100 रुपये देने पड़ते हैं।” द्वारी से रिखणीहाल की दूरी भी करीब 20-25 किलोमीटर का पर्वतीय रास्ता है।

हमारा अगला पड़ाव भी पौड़ी का रिखणीखाल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। जिस पर पूरे क्षेत्र की स्वास्थ्य उम्मीदें टिकी हैं। लेकिन वहां जाने से पहले और मालती देवी से मिलने से पहले बैक गियर डालकर मैं आपको नैनीडांडा विकासखंड के चैड़-चैनपुर गांव ले जा रही हूं। जहां स्वास्थ्य से जुड़ी ये कहानी कम से कम मेरे रोंगटे खड़े कर रही है।

लक्ष्मी कंडारी के पैर में बैल ने सींग मारी, सफ़ाई कर्मचारी ने पैरों में टांके लगाए

चैड़-चैनपुर गांव में सफ़ाई कर्मचारी निभाता है डॉक्टर की भूमिका

करीब 51 वर्ष की पहाड़ी महिला लक्ष्मी कंडारी घर-रसोई, खेत-बगीचा, गाय, लकड़ी का इंतज़ाम जैसे जरूरी काम हर रोज़ ही करती हैं। उन्हें बैठने में दिक्कत हो रही है। अगस्त में लॉकडाउन के समय उनके अपने ही बैल ने चारा देते समय सींग से उन पर हमला कर दिया। बैल की सींग बाएं पैर में बुरी तरह घुस गई। वे वहीं लहुलुहान बेहोश होकर गिर पड़ीं।

मरीज गंभीर हालत में हो तो गांव से अस्पताल जाने के लिए डोली या कुर्सी में बांधकर करीब 15 मिनट की सीधी खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। इसके बाद वो जिस सड़क पर पहुंचते हैं वहां सार्वजनिक वाहन न के बराबर चलते हैं। लक्ष्मी बताती हैं कि 108 एंबुलेंस यहां नहीं आती। ये उनके रूट पर नहीं पड़ता। गांववालों को खुद ही वाहन का प्रबंध करना होता है।

लक्ष्मी के मामले में इस पूरी कवायद की जरूरत ही नहीं पड़ी। क्योंकि लॉकडाउन की पाबंदियों से डरे लोगों ने घर पर ही इलाज का फ़ैसला किया। वह बताती हैं “ हमारे गांव से सबसे ज्यादा नज़दीक चैड़-मल्ला खोला गांव का राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय पड़ता है। वहां हमने आज तक (समय पूछने पर 15-20 वर्ष) कोई डॉक्टर नहीं देखा। फार्मासिस्ट भी कोई नहीं है। सफाई कर्मचारी के दो पद हैं। जिसमें से एक खाली है। करीब 46 वर्ष की उम्र के सतेंद्र वहां सफ़ाई कर्मचारी हैं। वही हमारा इलाज करते हैं। जरूरत पड़ती है तो दवा, इंजेक्शन या ड्रिप लगाते हैं।”

एक सफाई कर्मचारी गांव के लोगों का इलाज करता है, इस पर हैरानी जताने पर लक्ष्मी मुझे आश्वस्त करती हैं कि उसको आयुर्वेद का अच्छा ज्ञान है।

तो जब लक्ष्मी के पैर में बैल ने सींग मारी तो सफाई कर्मचारी ने ही उनका इलाज किया। “ दो लोगों ने मेरे हाथ ज़ोर से पकड़े और दो लोगों ने मेरे पैर पकड़े। सफाई कर्मचारी ने पैर पर लगी चोट साफ़ कर उस पर टांके लगाए। चोट की जगह को बिना सुन्न किए। मैं बुरी तरह चीख रही थी। लेकिन कर भी क्या सकती थी। कोई दूसरा रास्ता नहीं था”। लक्ष्मी बताती हैं कि उनका घाव तो ठीक हो गया है लेकिन अब बाएं पैर को मोड़कर ज़मीन पर बैठने में दिक्कत आती है।

चैड़-चैनपुर गांव के जनता इंटर कॉलेज के प्रभारी प्रधानाचार्य बताते हैं कि दवाएं लेने 20 किलोमीटर दून जाना पड़ता है।

‘ईश्वर की कृपा पर चल रही देवभूमि’

चैड़-चैनपुर गांव के जनता इंटर कॉलेज के प्रभारी प्रधानाचार्य सतेंद्र सिंह रावत ने भी लक्ष्मी कंडारी की इस बात की पुष्टि की। साथ में ये भी जोड़ते हैं कि दवाइयां लेने के लिए करीब 20 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। बैंक के लिए करीब 35 किलोमीटर दूर धूमाकोट के बाज़ार में जाना होता है। गंभीर मरीज हुआ तो इलाज के लिए करीब 50 किलोमीटर दूर कोटद्वार जाना पड़ता है या फिर रामनगर। “देवभूमि ईश्वर की कृपा पर चल रही है”। वह हंसते हैं।

चैड़-चैनपुर गांव की महिलाएं बताती हैं कि सामान्यतौर पर बच्चे घर पर ही पैदा होते हैं

गांवों में ही पैदा होते हैं हमारे बच्चे

चैड़-चैनपुर गांव की महिलाएं बेहद मेहनतकश हैं। यहां अखरोट के पेड़ हैं। गायों के साथ भेड़ और बकरियां पाली हुई हैं। छोटी-छोटी क्यारियों में सब्जियां उगाई हुई हैं। यहीं महिलाओं का एक झुंड एक साथ काम करता हुआ मिला।

इन महिलाओं ने बताया कि छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज के लिए वे डॉक्टर के पास नहीं जाते। सभी महिलाओं ने कहा कि यहां बच्चे घरों में ही पैदा होते हैं। “हमको इसी में सुविधा लगती है। हमारे यहां शुरू से ऐसा ही होता आया है। हां जब तबीयत बिगड़ती है या कुछ बड़ी दिक्कत हो जाती है तो हमको रिखणीखाल के अस्पताल जाना पड़ता है। फिर औरत को डोली में या कुर्सी-चारपाई में ले जाते हैं।” इन औरतों ने वहां मौजूद 80 वर्ष की बुजुर्ग महिला की ओर इशारा किया। ये इतनी बुढ्ढी होकर भी पेड़ पर चढ़ती है और लकड़ियां तोड़ लाती है। “हम जल्दी बीमार नहीं पड़ते और हमें जल्दी डॉक्टर नहीं मिलते।” वे हंसती हैं।

स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य वजह के चलते गांव के ज्यादातर युवा पलायन कर गए हैं, ये बुजुर्ग महिला अपने घर में अकेली रह गई है।

इस गांव के कई घरों में ताले लगे हुए थे। कुछ घर ऐसे थे जहां सिर्फ बुजुर्ग लोग मिले। पर्वतीय शैली में बने कुछ घर टूटने लगे थे। वहां कभी लोग रहते थे।

तोलू डांड और डबराड़ गांव का किस्सा

चैड़-चैनपुर से आगे रिखणीखाल ब्लॉक के तोलू डांड और डबराड़ गांव के लोगों के पास भी नज़दीकी अस्पताल द्वारी गांव का एलोपैथिक डिस्पेन्सरी है। ये गांव भी इस डिस्पेन्सरी से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर बसे हैं। स्वास्थ्य सुविधा से जुड़ा दूसरा ठिकाना और उम्मीद रिखणीखाल का कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर है। वहां से रेफ़र हुए तो कोटद्वार बेस अस्पताल। फिर देहरादून के अस्पताल।

नीली साड़ी में लक्ष्मी रावत क्षेत्र पंचायत सदस्य हैं। वह बताती हैं कि तोलू डांड और डबराड़ गांव में बच्चों को समय पर टीके भी नहीं लग पाते।

बच्चों का टीकाकरण भी मुश्किल

इस गांव की क्षेत्र पंचायत सदस्य लक्ष्मी रावत बताती हैं कि स्वास्थ्य सुविधाएं तो दूर बच्चों को समय पर टीके नहीं लग पाते। द्वारी गांव में ही एएनएम सेंटर भी है। जो एएनएम गीतांजलि अपने घर पर चलाती हैं। लक्ष्मी बताती हैं “एएनएम तारीख देने के बावजूद गांव में सही समय पर नहीं पहुंचती। वो बच्चों को कभी प्राइमरी स्कूल तो कभी पूर्व प्रधान के घर पर बुलाती हैं। जहां उन्हें सुविधा हो। वहां पहुंच गए और वो नहीं मिलीं तो एक पूरा दिन बेकार हो जाता है। हमें रास्ते पैदल ही तय करने होते हैं। इन्हीं वजहों से गांव की एक औरत के बच्चे का टीकाकरण नहीं हो पा रहा था। फिर मैंने एसडीएम को पत्र लिखा। तब जाकर बच्चे को टीका लग सका”।

“इन्हीं वजहों से लोग घरों में ही बच्चों को जन्म देना बेहतर समझते हैं। केस गंभीर होता है तो ही अस्पताल जाते हैं। कहने को 108 एंबुलेंस भी है। लेकिन प्रैक्टिकल प्रॉब्लम है कि 108 की वैन आने में इतना समय लगता है कि तब तक लोग पैदल ही अस्पताल की ओर बढ़ते रहते हैं। फिर हमारे यहां सड़कें भी नहीं हैं। इस वजह से भी हमारे लिए अस्पताल बहुत दूर हैं।”

कार्बेट पार्क में आने वाले तैड़िया गांव की मुश्किलें बताती बीडीसी सदस्य विनीता ध्यानी

तैड़िया और कर्तिया कांडा गांव की प्रतिनिधि से बातचीत

पौड़ी के रिखणीखाल में तैड़िया गांव कार्बेट टाइगर रिजर्व के अंदर आता है। विनीता ध्यानी यहां की क्षेत्र पंचायत सदस्य हैं। तैड़िया से नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर झर्त क्षेत्र में आता है। फिर यहां से करीब 50 किलोमीटर दूर रिखणीखाल सीएचसी। विनीता बताती हैं कि कोरोना के समय यहां बच्चों को टीके लगने बंद हो गए। हमने जब एएनएम पर दबाव डाला तो टीकाकरण शुरू किया गया। तैड़िया गांव में सड़क, बिजली की सुविधा नहीं है। नेटवर्क नहीं आता तो संचार सुविधा भी नहीं है। इस गांव में करीब 15 परिवार रहते हैं।

कर्तिया कांडा गांव की आबादी करीब 400 की है। यहां भी नेटवर्क नहीं मिलता। यानी 108 एंबुलेंस को बुलाना संभव ही नहीं होता। विनीता बताती हैं कि उनका पहला बच्चा कोटद्वार के बेस अस्पताल में हुआ। दूसरी बेटी 9 साल की है। उसका जन्म घर में ही हुआ। “रात में ही प्रसव पीड़ा शुरू हुई। अस्पताल जाने के लिए करीब 5 किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़नी पड़ती तब सड़क पर पहुंचते। फिर सड़क से अस्पताल पहुंचने के लिए सफ़र। इसलिए घर पर ही बच्चे को जन्म दिया”

विनीता कहती हैं “एएनएम सेंटर हो या रिखणीखाल सीएचसी, वे अगले अस्पताल के लिए ही रेफ़र करते हैं। जून 2020 में बच्चे को जन्म देने के बाद स्वाति ध्यानी की मौत हो गई थी। तब रिखणीखाल सीएचएसी पर कई सवाल उठे। विनीता के मुताबिक स्वाति के मामले के बाद रिखणीखाल से प्रसव से जुड़े 13 केस कोटद्वार बेस अस्पताल के लिए रेफ़र किए। उनमें से एक केस मेरे भाई का भी था। यहां सबकुछ भगवान भरोसे है।”

दोपहर ढाई बजे रिखणीखाल अस्पताल के गेट पर ताला लटका हुआ मिला

अब रिखणीखाल सीएचसी की बात

2 मार्च की दोपहर करीब ढाई बजे मैं रिखणीखाल के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंची। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक इस विकासखंड की आबादी 29,466 थी। इस जनगणना को 10 वर्ष बीत चुके हैं। ये तय है कि एक बड़ी आबादी के स्वास्थ्य के लिहाज से इस सीएचसी की अहमियत बेहद अधिक है।

मुश्किल ये हुई कि इस स्वास्थ्य केंद्र में कोई भी व्यक्ति नज़र नहीं आया। गेट पर ताला पड़ा हुआ था। एक तरफ दीवार पर कुछ फ़ोन नंबर चस्पा थे। पड़ोस के एक व्यक्ति की निगाह मुझ पर पड़ी और उन्होंने मेरे आने की वजह पूछी। पता चला कि वह यहां के स्टाफ में से एक हैं। स्वास्थ्य केंद्र पर ताला क्यों है और डॉक्टर कहां हैं? हमारी इस पड़ताल पर उन्होंने रेजिडेंट डॉक्टर को फ़ोन लगाया। डॉक्टर के आने तक उन्होंने जानकारी दी कि दोपहर 2 बजे तक ओपीडी चलती है, फिर ताला डाल देते हैं। अगर कोई मरीज आ जाता है तो फ़ोन करता है या आसपास पूछ लेता है। 

डॉ. राशि कुकरेती अस्पताल परिसर में ही मौजूद थीं। उनके आने पर ताला खोला गया। अंदर सभी दरवाजे बंद थे। उन्होंने बताया कि वह यहां पर जुलाई 2020 से मेडिकल ऑफिसर इंचार्ज पद पर तैनात हैं। सीएचसी में कुल 25 लोगों का स्टाफ है। डॉ. राशि के अलावा दो अन्य मेडिकल ऑफिसर हैं और एक डेंटल सर्जन है। डेंटल सर्जन का सामान्य बीमारियों में इस्तेमाल नहीं होता। मेडिकल ऑफिसर में से एक लेडी डॉक्टर काफी समय से गैर-हाज़िर चल रही हैं। एक डॉक्टर बड़ियार गांव में एडीशनल पीएचसी से सम्बद्ध हैं। यहां कोई विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है। कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ भी नहीं है।

बच्चे की डिलिवरी का कोई केस आया तो डॉ. राशि ही देखती हैं। इस बारे में पूछने पर वह बताती हैं “ मैं पहले महिला अस्पताल में कार्य कर चुकी हूं इसलिए मुझे डिलिवरी की जानकारी है। हालांकि मैं सामान्य फिजिशियन हूं।”

डॉ. राशि कुकरेती यहां एक मात्र महिला डॉक्टर हैं जो कि सामान्य फिजिशियन हैं। लेकिन डिलिवरी की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर है।

महिलाओं के स्वास्थ्य को देखते हुए स्त्री रोग विशेषज्ञ की तैनाती होनी चाहिए? इस सवाल पर डॉ. राशि कहती हैं कि स्त्री रोग विशेषज्ञ भी यहां क्या कर पाएगी, जब पूरी टीम मौजूद नहीं है। हमारे पास कोई एनेस्थेटिस्ट नहीं है। फिर कोई कुछ नहीं कर सकता। हमारे पास रिस्क और दूरी की दिक्कत रहती है।

गंभीर मरीज के आने पर क्या करते हैं? इस पर डॉ. राशि जवाब देती हैं “अगर यहां पर सर्जन और एनेस्थेटिस्ट हों, ब्लड बैंक हो, तभी गंभीर मरीजों की डिलिवरी करायी जा सकती है। यहां तो अल्ट्रासाउंड की सुविधा भी नहीं है। सिर्फ सामान्य रक्त जांच की जा सकती है।”

“शुरुआती जांच में हमें लगता है कि प्रसव में मुश्किलें आ सकती हैं तो हम रिस्क नहीं लेते और रेफ़र करते हैं। रिखणीखाल सीएचसी फर्स्ट रेफरल यूनिट है। दूसरा रेफरल यूनिट ढाई घंटे की दूरी पर कोटद्वार बेस अस्पताल है। हम इसका इंतज़ार नहीं करते कि जब मामला बिगड़ेगा तो रेफ़र करें। हाई ब्लड प्रेशर की मरीज, बार-बार गर्भपात के हिस्ट्री की मरीज, कम लंबाई वाली महिला, पहला और उल्टा बच्चा हो, इस तरह के मामलों में फंसने की आशंका बहुत ज्यादा होती है। इसलिए हम मरीज के साथ रिस्क नहीं लेते और रेफर कर देते हैं।”

“गिरने, चोट लगने, स्वच्छता न होने से संक्रमण जैसी बीमारियों का इलाज करते हैं।”

डॉ. राशि कहती हैं “आशा कार्यकर्ताओं के चलते संस्थागत प्रसव बढ़ा है लेकिन अब भी काफी लोग अस्पताल आने से कतराते हैं। उनके सामने ट्रांसपोर्टेशन की भी दिक्कत होती है। इसलिए पुरानी दाई वगैरा को ही बुलाते हैं। जब उनसे केस नहीं संभलता तो हमारे पास लाते हैं। 108 एंबुलेंस की भी यहां दिक्कत होती है”। उनके मुताबिक रिखणीखाल सीएचसी में हर वर्ष तकरीबन 150 की संख्या में डिलिवरी होती है।

जून 2020 में मृत बच्चे को जन्म देने के बाद 23 वर्ष की स्वाति ध्यानी की मौत हो गई थी। उसे समय पर इलाज नहीं मिल सका।

स्वाति ध्यानी की याद

जून 2020 में 23 वर्ष की स्वाति ध्यानी की मौत दरअसल उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर सवाल छोड़ गई। ये सच कि पहाड़ में सुरक्षित प्रसव किस्मत की बात है। रिखणीखाल स्वास्थ्य केंद्र में स्वाति ने बच्चे को जन्म दिया था। पुरुष फिजिशियन ने उसका प्रसव कराया। बच्चा मृत पैदा हुआ। स्वाति की स्थिति का डॉक्टर अंदाजा नहीं लगा सके। शरीर से खून ज्यादा बह गया तो उसे कोटद्वार बेस अस्पताल के लिए रेफ़र किया गया। परिजनों का कहना था कि यदि हमें समय रहते ही बता दिया जाता तो हम पहले ही उसे कोटद्वार ले जाते। रिखणीखाल से कोटद्वार तकरीबन तीन घंटे का रास्ता था। इस बीच दो बार 108 एंबुलेंस बदलनी पड़ गई।

उस समय के नियम के मुताबिक 108 एंबुलेंस के लिए 30 किलोमीटर का दायरा तय किया गया था। नाज़ुक स्थिति और बारिश के समय में दूसरी एंबुलेंस आई। स्वाति को कोटद्वार बेस अस्पताल पहुंचाया गया। जहां डॉक्टरों ने कहा कि दस मिनट पहले भी लाए होते तो इसकी जान बचने की उम्मीद थी। शरीर में ख़ून ही नहीं बचा था। स्वाति मरी या मारी गई?

सुदामा थपलियाल ने करीब 20 वर्ष पहले स्वास्थ्य सुविधाएं न होने की वजह से गांव छोड़ा

दो दशक से भी अधिक समय गुज़रा, स्थिति नहीं बदली

पौड़ी के कल्जीखाल ब्लॉक के जाखणी गांव का आखिरी परिवार अब देहरादून शहर में रहता है। गांव के जवान रोजगार के लिए पलायन कर गए और बुजुर्ग स्वास्थ्य सुविधाएं न होने के चलते। 83 वर्ष की सुदामा थपलियाल तस्वीर में अपने गांव और घर को एकटक देखती हैं। उनके पेट की रसौली फट गई थी। ख़ून लगातार निकल रहा था। सुदामा याद करती हैं कि अस्पताल ले जाने के लिए उन्हें डोली में बिठाया गया था। करीब 5 किलोमीटर डोली में सफ़र तय कर पोखरीखेत पहुंचे। फिर वहां से उन्हें श्रीनगर अस्पताल लाया गया। श्रीनगर से देहरादून रेफ़र कर दिया गया। अस्पताल तक पहुंचने की इन मुश्किलों ने गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया।

इलाज न मिलने पर बागेश्वर थपलियाल ने रिटायरमेंट के 5 साल बाद अपना गांव छोड़ा। उनका परिवार गांव में रह गया आखिरी परिवार था।

जाखणी गांव के ही बागेश्वर प्रसाद थपलियाल ने रिटायरमेंट के पांच साल बाद गांव छोड़ने का फ़ैसला किया। वह अपनी पत्नी आशा थपलियाल के पेट में ट्यूमर ऑपरेशन के लिए दो बार देहरादून और एक बार सहारनपुर का चक्कर काट चुके थे। लेकिन तब तक गांव नहीं छूटा था। जिस रोज़ वे खुद घर की सीढ़ियों से गिरे और सिर के पीछे छेद हो गया। तभी ये तय हो गया कि अब गांव में रहना मुश्किल होगा। गांव में जड़ी-बूटियों के ज्ञान से उनके सिर से खून का बहाव रोका गया। फिर देहरादून में रह रहे बेटे के पास उन्होंने अपना स्थायी ठिकाना बना लिया।

ये बुजुर्ग अपने गांव को याद करते हैं “वहां स्वच्छ हवा है। साफ़ पानी है। हमारे बंजर हो चुके खेत और खंडहर हो चुके घर हैं। अगर डॉक्टर मिलते, अस्पताल मिलता तो हम गांव नहीं छोड़ते। कभी नहीं छोड़ते।”

उत्तराखंड के ज़िला अस्पतालों की बदहाली पर कैग की रिपोर्ट

उत्तराखंड के ज़िला अस्पतालों की बदहाली पर कैग की रिपोर्ट

और अब आपके पास उत्तराखंड के ज़िला अस्पतालों की परफॉर्मेंस से जुड़ी कैग (भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक) रिपोर्ट भी है। ये रिपोर्ट 11 फरवरी 2021 को सबमिट की गई। 15 फरवरी को उत्तराखंड सरकार को सौंपी गई। गैरसैंण विधानसभा सत्र के दौरान शनिवार 6 मार्च 2021 को  रिपोर्ट सदन में पेश की गई।

2014 से 2019 तक की स्थिति को लेकर तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार द्वारा संचालित स्वास्थ्य सेवाएं बेहद गंभीर स्थिति में हैं। सरकारी ज़िला अस्पतालों में इमरजेंसी सर्जरी के लिए ऑपरेशन थियेटर नहीं हैं, आईसीयू सुविधाएं नहीं हैं, एक्सरे मशीनें बिना लाइसेंस के चल रही हैं और एंबुलेंस फिटनेस और प्रदूषण सर्टिफिकेट के बिना चल रही हैं।

कैग ने इस ऑडिट के लिए राज्य के 4 ज़िला अस्पतालों को चुना। अल्मोड़ा और हरिद्वार के जिला अस्पताल और ज़िला महिला अस्पताल, उधमसिंह नगर और चमोली के संयुक्त अस्पताल।

ऑडिट में पाया गया कि 2014-19 के बीच इनमें से किसी भी अस्पताल में इमरजेंसी सर्जरी के लिए ऑपरेशन थियेटर उपलब्ध नहीं थे। सिर्फ दो अस्पतालों में आईसीयू सुविधा थी लेकिन चालू हालत में नहीं थी। उसके लिए जरूरी उपकरणों और विशेषज्ञ लोगों की कमी थी।

चमोली के ट्रॉमा सेंटर का 20 फ़रवरी 2009 को तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उदघाटन किया था। ये 20 मार्च 2020 तक चालू स्थिति में नहीं आया। यहां विशेषज्ञ नहीं थे और सीएटी स्कैन जैसे जरूरी उपकरण नहीं थे।

ड्रग डिस्पेन्सरी काउंटर के सर्वेक्षण में पाया गया कि मात्र 41 प्रतिशत लोगों को डॉक्टर की लिखी हुई दवाइयां मिल रही हैं। चमोली में ये आंकड़ा मात्र 17 प्रतिशत का है। तो ऐसे में ओपीडी में आने वाले मरीजों को निशुल्क दवाइयां देने का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।

रिपोर्ट में बताया गया है कि सर्वे में शामिल किसी भी अस्पताल में एक्सरे मशीन के लिए जरूरी लाइसेंस नहीं मिला। जो न सिर्फ नियमों के खिलाफ है बल्कि मरीजों की सुरक्षा से भी समझौता किया गया।

कैग ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया कि पांच वर्षों के दौरान किसी भी टेस्ट किए गए अस्पताल में दुर्घटना या ट्रॉमा की स्थिति में मनोवैज्ञानिक सलाह की सुविधाएं नहीं मिलीं। सिर्फ एक अस्पताल में डायलिसिस सुविधा और दो अस्पताल में बर्न वार्ड मिले।

ये भी पाया गया कि टेस्ट किए गए किसी भी अस्पताल में बेसिक लाइफ सपोर्ट के साथ तीन एंबुलेंस मौजूद नहीं मिले। न ही एडवांस लाइफ सपोर्ट सिस्टम के साथ एक भी एएलएस एंबुलेंस मिली।

गर्भवती महिलाओं से जुड़ी सुविधाओं पर पाया गया कि चमोली को छोड़कर अन्य अस्पतालों में आयरन फॉलिक एसिड की टैबलेट उपलब्ध थीं। चमोली में 2014-17 के दौरान ये दवाएं उपलब्ध नहीं थीं। 2018-19 में 223 दिन ये आउट ऑफ स्टॉक रहीं।

सिर्फ एक टेस्ट किए गए अस्पताल में नवजात के जन्म के बाद बच्चे को लपेटने के लिए शीट उपलब्ध मिली। चमोली और उधमसिंह नगर में 2014-19 के बीच कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं थी। जबकि हरिद्वार जिला अस्पताल में एक स्त्री रोग विशेषज्ञ 25 जून 2016 से 13 दिसंबर 2018 तक प्रिंसिपल मेडिकल सुप्रीटेंडेंड के पद पर तैनात रहीं, इसके बावजूद उन्होंने अस्पताल में अपनी सेवाएं नहीं दीं।

2014-19 के बीच पांच सैंपल महीनों में लेबर रूम के सर्वेक्षण में पाया गया कि 4105 डिलिवरी में से 253 को समय से पहले डिलिवरी हुई। समय से पहले डिलिवरी में सुरक्षा के लिहाज से कोर्सीकॉस्टरॉइड इंजेक्शन लगाया जाना चाहिए। ऑडिट में पाया गया कि इस ड्रग के उपलब्ध होने के बावजूद 204 महिलाओं को ये जरूरी इंजेक्शन नहीं लगाया गया।

कैग रिपोर्ट के मुताबिक आबादी के लिहाज से उत्तराखंड में 418 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी) और 105 कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी) होने चाहिए। जबकि मार्च 2019 तक राज्य में मात्र 259 पीएचसी और 86 सीएचसी थे।

सभी फोटो, सौजन्य : वर्षा सिंह

(देहरादून से स्वतंत्र पत्रकार वर्षा सिंह)

(This research/reporting was supported by a grant from the Thakur Family Foundation. Thakur Family Foundation has not exercised any editorial control over the contents of this reportage.)

इसे भी पढ़ें: उत्तराखंड: स्वास्थ्य के मोर्चे पर ख़स्ताहाल, कोरोना के एक साल के सफ़र में हांफता पहाड़

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest