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गांव की राजनीति के दांव-पेच कम नहीं हैं। 50 फीसदी महिला आरक्षण कर हम ये नहीं मान सकते कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक काम पूरा हो रहा है। गांवों में प्रधान पति की व्यवस्था कैसे जन्मी? इसे कैसे खत्म किया जा सकता है? इस पर हमें काम करना होगा।
pradhan

उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के लिए वोट डाले जा चुके हैं। 21 अक्टूबर को मतगणना है। गांवों की राजनीति में नए चेहरे उभर कर सामने आएंगे। उत्तराखंड उन राज्यों में शामिल है जहां पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। इस हिमालयी राज्य की आर्थिकी की रीढ़ भी महिलाएं कही जाती हैं। जो घर से लेकर खेत और जंगल तक दिन-रात एक करती हैं। जो शराब के खिलाफ आंदोलन चलाती हैं। राज्य आंदोलन में जिनकी अहम भूमिका रही। लेकिन क्या राजनीति में यहां की महिलाएं पिछड़ जाती हैं? यहां गांवों में आपको प्रधानपति के दर्शन पहले होंगे।

उत्तरकाशी के गणेशपुर गांव की पूर्व प्रधान पुष्पा चौहान

50 फीसदी आरक्षण की वजह से महिलाएं गांवों की सत्ता में आईं लेकिन कई बार महज अपने पतियों की मोहरा बनकर। उत्तरकाशी के भटवाड़ी ब्लॉक के गणेशपुर गांव से पिछली बार निर्विरोध ग्राम प्रधान चुनी गईं और इस बार आरक्षित सीट की वजह से बाहर हो गईं पुष्पा चौहान कहती हैं कि सिर्फ पढ़ा-लिखा होने से भी कोई महिला सशक्त प्रधान नहीं हो सकती। सिस्टम को समझना और उसमें काम करवाना बहुत चुनौती पूर्ण होता है। वह कहती हैं कि मैं उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय थी, उस आंदोलन के चलते मेरे अंदर प्रधान बनने की क्षमता आई।

इसके बावजूद मैं प्रधान बनने के तुरंत बाद ही कहती रही कि हमें ट्रेनिंग चाहिए, ट्रेनिंग के लिए बजट भी होता है, लेकिन लगातार कहते रहने के बावजूद जब मेरे कार्यकाल का चौथा साल खत्म होने वाला था तब ग्राम प्रधानों की ट्रेनिंग करवायी। जो कि वर्ष 2014 की शुरुआत में हो जानी चाहिए थी। जिसमें सरकार की योजनाएं, मनरेगा, वित्तीय समझ जैसे कई मसलों पर जानकारी दी जाती है। पुष्पा कहती हैं कि जिस प्रक्रिया को समझने में मुझे इतना समय लगा लगा, कोई सामान्य महिला तो ऐसे में कहीं पीछे छूट जाएगी।

आमतौर पर 60-70 फीसदी पुरुष ही महिला ग्राम प्रधान के पीछे काम करते हैं। पूर्व ग्राम प्रधान पुष्पा कहती हैं कि ऐसी ग्राम प्रधान भी रहीं, जिन्होंने ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं होने के बावजूद बहुत अच्छा काम किया।

पुष्पा बताती हैं कि बीते 21 सिंतबर को क्षेत्र पंचायत सदस्य निर्विरोध चुनने के लिए गांव में बैठक बुलाई गई। लोगों से कहा गया कि जो इसके लिए इच्छुक हैं वे सामने आ जाएं। लोगों को ये पता था कि इस बार यहां की तीनों सीटें आरक्षित हैं। लेकिन ये जानकारी नहीं थी कि ये सीट एससी महिला के लिए हैं। बैठक में 5 पुरुष दावेदार के रूप में सामने आए। महिला सीट पता चलने पर सभी ऩे अपने घर में फ़ोन किए। किसी ने अपनी पत्नी को बुलाया, किसी ने अपनी बहू को बुलाया। वह कहती हैं कि महिला सीट भी होती है तो गांव के पुरुष के नाम से चुनाव प्रचार होता है।

जिला पंचायत सदस्य के लिए किस्मत आज़मा रही आरोही डंडरियाल

आरोही डंडरियाल पौड़ी के एकेश्वर ब्लॉक के 34-कोटा क्षेत्र से जिला पंचायत सदस्य के लिए किस्मत आज़मा रही हैं। वोट डाले जा चुके हैं। नतीजों का इंतज़ार है। 22 साल की आरोही देहरादून की एक संस्था से बीबीए कर चुकी हैं और एमबीए में एडमिशन लेने जा रही हैं। आरोही के पिता तीन बार ग्राम प्रधान रह चुके हैं और ब्लॉक प्रमुख भी रह चुके हैं। उनकी मां भी एक बार ग्राम प्रधान रहीं। लेकिन इस बार सरकार ने दो से अधिक बच्चे होने पर चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। जिससे उनके माता-पिता चुनाव में खड़े नहीं हुए। बाद में नैनीताल हाईकोर्ट ने ये प्रतिबंध हटा दिया। आरोही कहती हैं कि पिता को देखते हुए उन्होंने तय किया था कि वे हर हाल में राजनीति में ही आएंगी। वह कहती हैं कि मैं भी शहर में जाकर नौकरी हासिल कर सकती थी। लेकिन मैंने तय किया है कि मैं राजनीति में ही अपना भविष्य बनाऊंगी।

आरोही कहती हैं कि यदि हम गांवों को ही शहर जैसा बना दें, यहां लोगों को रोजगार दें, बिजली-पानी का संकट न हो, तो लोग शहर की ओर नहीं जाएंगे।

‘गांवों की राजनीति में पीछे से मर्द का होना जरूरी नहीं है।’ आरोही कहती हैं कि महिलाएं भी अपनी बात मज़बूती से रख सकती हैं। वह बताती हैं कि गांवों के चुनाव में शराब के ज़रिये वोटरों को लुभाने का काम किया गया। पैसे बांटे गए। हमने ये सब अपनी आंखों से देखा। लेकिन मैं गांव के मुद्दों पर काम करूंगी ताकि यहां से पलायन रूके और लोग गांव में लौटे। आरोही की बातों में आत्मविश्वास झलकता है।
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पौड़ी के नहली गांव की पूर्व ग्राम प्रधान लक्ष्मी डंडरियाल

आरोही की मां और पूर्व ग्राम प्रधान लक्ष्मी डंडरियाल कहती हैं कि अब तो गांव में लोग ही नहीं रह गए हैं, तो गांव की राजनीति क्या होगी। मैं अब राजनीति में नहीं आऊंगी। चुनाव लड़ने के लिए लोग शहरों से गांव आए। वह कहती हैं कि मेरी बेटी यहां के मुद्दों को समझती है इसलिए वह चुनाव लड़ रही है।

टिहरी के रौलाकोट गांव की पूर्व ग्राम प्रधान दार्वी देवी

महिलाएं भले ही मोहरा बनकर गांव की राजनीति में आईँ। इन्हीं में कुछ महिलाओं ने अगर-मगर करते हुए राजनीति की डगर भी पकड़ ली। ऐसे ही एक रिपोर्टिंग के दौरान मेरी मुलाकात टिहरी के रौलाकोट गांव की प्रधान दार्वी देवी से हुई। पहले तो दार्वी देवी के पति ने ही खुद को प्रधान कहकर अपना परिचय दिया। गांवों की समस्याओं पर उनसे बात हुई। लेकिन जब उनसे उनका पूरा नाम-पता पूछा तो उन्होंने सकुचाते हुए बताया कि असल प्रधान तो उनकी पत्नी हैं। फिर आधिकारिक बयान के लिए मैंने उन्हें अपनी पत्नी को बुलाने के लिए कहा। जिसके बाद ग्राम प्रधान भरपूर घूंघट में सामने आईं। मेरे पूछे गए सभी सवालों के जवाब उनके पास थे। ऐसा कुछ भी नहीं था कि जो उनसे बेहतर उनके पति ने बताया हो। बस महिला सीट होने की वजह से उनके पति चुनाव नहीं लड़ सके। पत्नी के प्रधान बन जाने के बाद भी वे उन्हें घर में कैद रखे हुए थे। जाहिर है इसमें दार्वी देवी की सहमति भी रही थी। उन्होंने इसका विरोध नहीं किया होगा।

देहरादून के दुधली गांव की पूर्व ग्राम प्रधान अंजू

प्रधान पति का दूसरा उदाहरण देहरादून के दुधली गांव की अब पूर्व प्रधान अंजू का है। जब मैं उनके घर पहुंची तो उनके पति किसी जरूरी कार्य से बाहर गए हुए थे। मेरे अलावा कुछ अन्य लोग भी उनके घर के बाहर जमा थे। यहां भी प्रधान के नाम पर अंजू के पति का ही जलवा था। मैंने अंजू से सवाल पूछे तो उन्होंने मुझे इंतज़ार करने को कहा कि उनके पति आकर जवाब देंगे। मैंने उऩसे कहा कि जब तक यूं ही बातचीत कर लेते हैं। इस दौरान मैंने अंजू से जो भी सवाल पूछे, उन्होंने उसके जवाब अच्छे तरीके से दिए और पूरे आत्मविश्वास के साथ दिए। अंजू को बस इस बात की चिंता थी कि इससे उनके पति नाराज़ हो जाएंगे।

गांव की राजनीति के दांव-पेच कम नहीं हैं। 50 फीसदी महिला आरक्षण कर हम ये नहीं मान सकते कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक काम पूरा हो रहा है। गांवों में प्रधान पति की व्यवस्था कैसे जन्मी? इसे कैसे खत्म किया जा सकता है? इस पर हमें काम करना होगा। जिस महिला को हमने घर की रसोई से बाहर नहीं निकलने दिया, वह एक दिन गांव के वित्तीय मामलों में पूरी समझदारी और गांव के मामलों में निर्भिकता के साथ काम करेगी? हो सकता है कि कुछ महिलाएं अपनी सहज समझ से ये कर भी ले जाएं।

लेकिन यहां भी हमारे पास एक पूरी व्यवस्था होनी चाहिए। जैसे पुष्पा चौहान कहती हैं कि ग्राम प्रधानों का जो प्रशिक्षण उनके चुने जाने के ठीक बाद होना चाहिए, वो उनका कार्यकाल खत्म होने के बाद हुआ। महिलाओं को भी ये समझना होगा कि अपना हक कैसे लिया जाता है। इंटरनेट पर ढूंढ़ेंगे तो महिला ग्राम प्रधानों के बेहतरीन कामों की खूब खबरें मिलेंगी, जो हमारा उत्साह बढ़ाती हैं।

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