Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

उपराष्ट्रपति चुनाव : मायावती का एनडीए के साथ जाना बसपा के अस्तित्व की लड़ाई है?

पिछले कई सालों से बसपा का गिरता ग्राफ़ अब मायावती के लिए चिंता का विषय बन गया है, शायद यही कारण है कि पहले राष्ट्रपति और फिर उपराष्ट्रपति चुनाव के ज़रिए वह भाजपा के लिए नरम पड़ती दिख रही हैं।
उपराष्ट्रपति चुनाव : मायावती का एनडीए के साथ जाना बसपा के अस्तित्व की लड़ाई है?

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक केंद्र में ख़ुद को स्थापित करना जितना कठिन है, उससे ज्यादा कठिन यहां अपने अस्तित्व को बचाए रखना है। इसका उदाहरण फिलहाल मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ देखा जा सकता है।

कांशीराम के कंधों से मायावती के सिरहाने पहुंची बसपा ने साल 2007 में ये साबित कर दिया था, कि प्रदेश में सिर्फ ब्राह्मणों और दलितों का दिल जीतकर भी 206 सीटें जीती जा सकती हैं, लेकिन वक्त ने ऐसी पलटी मारी कि आज विधानसभा में मायावती की पार्टी का महज़ एक विधायक 402 विधायकों सामना करता है।

लगातार हार पर हार दर्ज कर रहीं मायावती जब साल 2019 में पिछले 30 साल से ज्यादा की दुश्मनी भुलाकर समाजवादी की साइकिल पर बैठ गईं, तब ऐसा लगा मानों उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा.. भाजपा के लिए काल साबित होने वाली है, लेकिन इस बार भी मायावती के हाथ महज़ 10 लोकसभा सीटें ही लगीं। जिसके बाद से उनका ग्राफ लगातार गिर ही रहा है। लेकिन मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीतिक धुरी का वो हिस्सा हैं जो ख़ुद को फ्रंट पर लाने का एक भी प्रयास नहीं छोड़तीं।

इसी कड़ी का एक हिस्सा मायावती का एनडीए के उपराष्ट्रपति उम्मीदवार जगदीप धनखड़ को अपना समर्थन देना है। वैसे इससे पहले भी मायावती ने एनडीए की राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को अपना समर्थन ये कहकर दे दिया था कि वो महिला हैं और आदिवासी समाज से आती हैं।

अब अगर जनता को ये लगता है कि एनडीए के उम्मीदवारों को मायावती यूं ही समर्थन दे रही हैं, तो ये ज़रा जल्दबाजी होगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति, 2022 के लोकसभा चुनाव और प्रदेश के दलितों में मायावती का खोता जनाधार... पार्टी के अस्तित्व के लिए बड़ा ख़तरा है। जिसे बचाए रखने के लिए मायावती को भाजपा की ओर नरम रुख रखना ही होगा।

मायावती ने अपने ट्वीट में लिखा कि-- सर्वविदित है कि देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव में सत्ता और विपक्ष के बीच आम सहमति न बनने की वजह से ही इसके लिए फिर अन्ततः चुनाव हुआ। अब ठीक वही स्थिति बनने के कारण उपराष्ट्रपति पद के लिए भी दिनांक 6 अगस्त को चुनाव होने जा रहा है।

एक अन्य ट्वीट में मायावती ने लिखा कि--  'बीएसपी ने ऐसे में उपराष्ट्रपति पद के लिए हो रहे चुनाव में भी व्यापक जनहित और अपनी मूवमेंट को भी ध्यान में रखकर जगदीप धनखड़ को अपना समर्थन देने का फैसला किया है और जिसकी मैं आज औपचारिक रूप से घोषणा भी कर रही हूं।'

अब ये बात किसे नहीं पता है कि सभी राज्यों में भाजपा के ही सबसे ज्यादा विधायक हैं, और संसद में सबसे ज्यादा सांसद। कहने का मतलब ये एनडीए की उम्मीदवार को जब जिस बहुमत की ज़रूरत होगी वो उसके पास मौजूद होगा। इसके बावजूद विपक्षी एकता दिखाने की जगह मायावती का एनडीए की ओर जाना भविष्य की राजनीति की ओर इशारा करता है।

एक चीज़ गौर करने वाली ये है केंद्र में सत्ता चाहे जिसकी हो, मायावती के रिश्ते उनके साथ अच्छे ही रहते हैं। मायावती कांग्रेस पार्टी के ख़िलाफ़ भले ही आए दिन आग उगलती नज़र आती हैं और किसी भी कांग्रेस शासित राज्य की घटनाओं को लेकर प्रतिक्रिया देने में बिल्कुल देरी नहीं करतीं लेकिन सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश में बसपा, कांग्रेस पार्टी के साथ भी गठबंधन कर चुकी है।

जहां तक भाजपा के साथ गठबंधन की संभावनाओं का सवाल है तो साल 2002 में उत्तर प्रदेश में बसपा और भाजपा की मिली-जुली सरकार बनी लेकिन बहुत ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई।

एक साल बाद ही भाजपा ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनवाने में फिर मदद की।

लेकिन अब भाजपा और बसपा के बीच तल्ख़ी काफ़ी बढ़ चुकी थी और बसपा नेता मायावती ने भाजपा के साथ किसी तरह का गठबंधन करने या समर्थन लेने-देने से तौबा कर ली।

बसपा और भाजपा के क़रीब आने को यूं तो राजनीतिक विश्लेषक सिर्फ़ राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव तक ही देख रहे हैं लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव में दोनों के गठबंधन की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा रहा है।

हालांकि सिर्फ ये नहीं कह सकते हैं कि मायावती को ही सिर्फ भाजपा को भी ज़रूरत है, दरअसल भाजपा को भी मायावती की उतनी ही ज़रूरत है। क्योंकि आठ साल बाद अब पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग में भाजपा की ख़िलाफत बहुत हद तक देखने को मिलने लगी है। और ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर दलित-मुस्लिम का गठजोड़ भाजपा के ख़िलाफ हो गया तो उत्तर प्रदेश में पार पाना बहुत मुश्किल जाएगा।

यानी मायावती और भाजपा के बीच बढ़ती नज़दीकियां गठबंधन में तब्दील होने की पूरी संभावना है। इसके अलावा बसपा के जिस अस्तित्व की हम बात कर रहे थे उसे भी कुछ बिंदुओं में समझते हैं

साल 2007 में यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ़ उसके बाद लगातार गिरता ही गया।

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्हें जहां 206 सीटें मिली थीं, वहीं साल 2012 में महज़ 80 सीटें मिलीं।

साल 2017 में यह आंकड़ा 80 से 19 पर आ गया, यही नहीं, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें राज्य में एक भी सीट हासिल नहीं हुई।

साल 2014 में बसपा का न सिर्फ़ राजनीतिक ग्राफ़ गिरता गया, बल्कि उसके कई ऐसे नेता तक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए जो न सिर्फ़ क़द्दावर माने जाते थे बल्कि पार्टी की स्थापना के समय से ही उससे जुड़े थे।

कहने का अर्थ ये है कि बसपा ने अपने राजनीतिक सफऱ में हर घाट का पानी पिया है, खासकर केंद्र की सत्ता वाली सरकार के साथ तो अपने रिश्ते अच्छे ही रखे हैं।

अब देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद उपराष्ट्रपति के ज़रिए बसपा किस तरह से ख़ुद को भाजपा के और क़रीब ले जाती है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest