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विशाखापत्तनम गैस त्रासदी: अगर सरकार नहीं चेती तो नहीं रोकी जा सकेंगी औद्योगिक दुर्घटनाएं

जाहिर है कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र में जो दुर्घटनाएं हुई हैं, वे निर्धारित सुरक्षा व्यवस्था को पूरे किए बिना ही औद्योगिक इकाइयां बंद करने और अब डेढ-दो महीने के अंतराल के बाद दोबारा शुरू होने के दौरान ही हुई हैं।
विशाखापत्तनम गैस त्रासदी

आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम, तमिलनाडु में कुड्डालोर, महाराष्ट्र में नासिक और छत्तीसगढ में रायगढ़। ये उन जगहों के नाम हैं जहां 7 मई को हुए अलग-अलग औद्योगिक हादसों में कई लोग हताहत हुए हैं।

विशाखापत्तनम के आर. आर. वेंकटपुरम गांव में एलजी पॉलिमर्स प्लांट से जहरीली गैस स्टाइरीन रिसने से कम से कम 11 लोगों की मौत हो चुकी है। करीब एक हजार लोग इस जहरीली गैस के रिसाव की चपेट में आए हैं, जिनमें से 300 को लोगों की हालत गंभीर होने के चलते अस्पतालों में भर्ती कराया गया है। जिस कारखाने से गैस का रिसाव हुआ है उसके आसपास के तीन गांवों को पूरी तरह खाली करा लिया गया।

तमिलनाडु में कुड्डालोर जिले के नेवेली गांव में लिग्नाइट कॉर्पोरेशन के प्लांट में एक बॉयलर में भीषण विस्फोट के बाद लगी आग में सात लोग बुरी तरह झुलस गए। आग लगने के बाद प्लांट के इलाके का आसमान धुएं के बादलों से पट गया।

छत्तीसगढ़ के रायगढ में एक पेपर कारखाने में गैस रिसने से सात लोगों को गंभीर रूप से बीमार होने पर अस्पताल में दाखिल कराया गया है। यह घटना कारखाने के टैंक की सफाई करते वक्त हुई।

इसी तरह महाराष्ट्र में नासिक जिले के सातपुर में एक फार्मास्युटिकल पैकेजिंग फैक्ट्री में भीषण आग लगने से कोई जनहानि तो नहीं हुई लेकिन बडे पैमाने पर आर्थिक नुकसान होने का अनुमान है।

एक ही दिन में हुई ये चारों घटनाएं तो मनुष्य विरोधी औद्योगिक विकास की महज ताजा बानगी भर हैं, अन्यथा ऐसी दुर्घटनाएं तो देश के किसी न किसी हिस्से में आए दिन होती ही रहती हैं। जब-जब भी ऐसी घटनाएं खासकर किसी कारखाने से जहरीली गैस के रिसाव की घटना होती है तो भोपाल गैस त्रासदी की याद ताजा हो उठती है।

तात्कालिक तौर पर लगभग दो हजार और उसके बाद से लेकर अब तक करीब 25 हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज साढ़े तीन दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खडी हुई है। इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कताविहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना मारक हो सकता है, इसकी मिसाल मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 35 बरस पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देखी जा रही है।

गैस रिसाव से वातावरण और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा, उसे दूर करना भी संभव नहीं हो सका है। नतीजतन, भोपाल और उसके आसपास के काफी बड़े इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं। लेकिन इन लोगों की पीडा को औद्योगिक विकास के नशे में धुत्त सरकारों ने इतनी बडी त्रासदी के बाद भी याद नहीं रखा। इसका नतीजा हम आए दिन होने वाली छोटी-बडी औद्योगिक दुर्घटनाओं के रूप में देखते रहते हैं।

भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता और उसके दूरगामी परिणामों की तुलना करीब सात दशक पहले दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के दो शहरो हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए उन परमाणु हमलों से की जा सकती है, जो अमेरिका ने किए थे। उन हमलों में दोनों शहर पूरी तरह तबाह हो गए थे और डेढ लाख से अधिक लोग मारे गए थे। इस सिलसिले मे भोपाल गैस त्रासदी के करीब डेढ वर्ष बाद अप्रैल 1986 मे तत्कालीन सोवियत संघ के यूक्रेन मे चेरनोबिल परमाणु ऊर्जा सयंत्र में हुए भीषण विस्फोट को भी याद किया जा सकता है, जिसमें भारी जान-माल का नुकसान हुआ था। करीब 3.50 लाख लोग विस्थापन के शिकार हुए थे तथा रूस, यूक्रेन और बेलारूस के करीब 55 लाख लोग विकिरण की चपेट मे आए थे।

हिरोशिमा और नागासाकी को 74 वर्ष, भोपाल गैस त्रासदी को 35 वर्ष और चेरनोबिल को 33 वर्ष बीत गए है, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग अभी भी सबक सीखने को तैयार नहीं है। वह पूरी दुनिया को ही हिरोशिमा-नागासाकी, भोपाल और चेरनोबिल में तब्दील कर देने की मुहिम मे जुटा है। दुनिया के तमाम विकसित देश इस मुहिम के अगुवा बने हुए हैं और हमारा देश पूरी निष्ठा से उनका पिछलग्गू।

देश में विकास के नाम पर जगह-जगह विनाशकारी परियोजनाएं जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगिकीकरण के नाम पर, कही बड़े बांधों के रूप में और कही स्मार्ट सिटी के नाम पर। तथाकथित विकास की गतिविधियों के चलते बडे पैमाने पर हो रहा लोगों का विस्थापन सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है। यह असंतोष कहीं-कहीं हिसक प्रतिकार के रूप में भी सामने आ रहा है। 'किसी भी कीमत पर विकास’ की जिद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं, लेकिन न तो सरकारें सबक लेने को तैयार है और न ही समाज। महानगरों और देश के बडे शहरों में काम करने वाले विभिन्न प्रदेशों के जो प्रवासी मजदूर कोरोना महामारी के चलते अपनी रोजी रोटी छिन जाने की वजह से अपने घरों की ओर लौटना चाहते हैं, उन्हें रोकने के लिए भी सरकारों और उद्योगपतियों द्वारा तरह-तरह के शर्मनाक और अमानवीय हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि वे जहां हैं, वहीं बने रहे और लॉकडाउन खत्म होने के बाद फिर उद्योगपतियों के 'विकास’ में अपना योगदान करते रहें।

विदेशी निवेश के नाम पर तो सरकारों ने विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए समूचे देश को आखेटस्थली बना दिया है। यही नहीं, अब तो देश के बड़े कॉरपोरेट घरानों ने भी देश में कई जगह ऐसे कारखाने खोल दिए जहां मौत का सामान तैयार होता है और जिनका अवशिष्ट नदियों को और धुंआ वायुमंडल को जहरीला बनाता है। ऐसे कारखानों में पर्याप्त सुरक्षा उपाय न होने की वजह से वहां काम करने वाले श्रमिकों और उस इलाके के लोगों के सिर पर हर समय मौत नाचा करती है। उन कारखानों में कभी आग लगती है, कभी विस्फोट होता है तो कभी जहरीली गैस का रिसाव होता है। इस सिलसिले में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु सहित चार जगह पर कारखानों में हुई दुर्घटनाएं ताजा मिसालें हैं।

इस तरह के कारखाने जब खोले जाते हैं तो सरकारें पहले से जानती हैं कि इनमें कभी भी कोई हादसा हो सकता है और लोगों की जानें जा सकती हैं, लेकिन इसके बावजूद वह इन कारखानों को स्थापित होने देती हैं। इसके लिए वह स्थानीय लोगों को उनकी जमीन बेदखल करने और उनकी खेती की जमीन छीनने में भी कोई संकोच नहीं करतीं। स्थानीय लोग और पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले संगठन जब इन कारखानों का विरोध करते हैं तो उन्हें विकास विरोधी, नक्सली और विदेशी एजेंट तक करार दे दिया जाता है। उनके विरोध के स्वर को बलपूर्वक दबा दिया जाता है और उन पर तरह-तरह के मुकदमें लाद दिए जाते हैं। इस काम में कारपोरेट नियंत्रित मीडिया भी 'चीयर्स लीडर्स’ की भूमिका अपनाते हुए पूरी तरह सरकार और पुलिस का साथ देता है।

इस समय कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते सभी तरह की औद्योगिक गतिविधियां जो कई दिनों से ठप थीं, अब फिर से शुरू हो रही हैं। जानकारों का कहना है कि जब कोई औद्योगिक इकाई कुछ समय के लिए बंद की जाती है तो सुरक्षा के लिहाज से उसे बंद करने के पहले भी और उसे फिर शुरू करते वक्त भी पूरी सतर्कता के साथ उसकी पूरी साफ सफाई अनिवार्य रूप से करना होती है। ऐसा नहीं करने पर दुर्घटनाएं होना स्वाभाविक है। जाहिर है कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र में जो दुर्घटनाएं हुई हैं, वे निर्धारित सुरक्षा व्यवस्था को पूरे किए बिना ही औद्योगिक इकाइयां बंद करने और अब डेढ-दो महीने के अंतराल के बाद दोबारा शुरू होने के दौरान ही हुई हैं। अगर केंद्र सरकार ने लॉकडाउन पूरी तरह हटने पर ऐसे बड़े कारखानों के दोबारा शुरू होने से पहले वहां साफ-सफाई की प्रक्रिया का पालन करने के संबंध में उचित दिशा निर्देश जारी नहीं किए तो ऐसी और भी कई दुर्घटनाओं को टाला नहीं जा सकेगा।

पिछले करीब डेढ माह से जारी देशव्यापी लॉकडाउन के चलते औद्योगिक गतिविधियां पूरी तरह से बंद होने के कारण देश के पर्यावरण में काफी सुधार आया है। कभी अलग-अलग इलाकों की जीवनरेखा मानी जाने वाली गंगा, यमुना, और नर्मदा जैसी नदियां लंबे समय से सर्वग्रासी औद्योगीकरण का शिकार हो कई जगह नाले में तब्दील हो गई थीं, इस समय काफी स्वच्छ हो गई हैं। जो नदियां अंधाधुंध खनन के चलते सूख कर मैदान में तब्दील हो गई थीं, वे भी अब फिर से बहने लगी हैं। औद्योगिक गतिविधियां बंद रहने की वजह से वायु मंडल भी काफी स्वच्छ हो गया है। कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी के चलते एक तरह से प्रकृति ने हमें संभलने का सबक और मौका उपलब्ध कराया है।

पर्यावरण में आए इस सकारात्मक बदलाव से सीख लेते हुए इस बदलाव को स्थायी रूप से बनाए रखने के लिए सरकारों को अपनी उद्योग नीतियों पर पुनर्विचार करते हुए जहरीला धुआं और रासायनिक अवशिष्ट उगलने वाली औद्योगिक इकाइयों को घनी आबादी वाले क्षेत्रों और नदियों के किनारों से हटाने के बारे में कदम उठाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसी घटनाओं के रूप में भोपाल गैस त्रासदी जैसे छोटे-बडे हादसे दोहराए जाते रहेंगे।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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