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उत्तराखंड में वनभूमि पर जंग, वन गुज्जरों पर बर्बरता का आरोप

वन विभाग किसी भी तरह वन गुज्जरों को जंगल से बाहर का रास्ता दिखाना चाहता है। जबकि घुमंतु समुदाय के रूप में पीढ़ियों से जंगल के साथ रह रहे कुछ वन गुज्जर अब भी जंगल के अपने डेरे नहीं छोड़ना चाहते। वन अधिकार कानून, जंगल पर इनका अधिकार सुनिश्चित करता है।
पुलिस कर्मियों को रोकते हुए गुलाम मुस्तफा

अपने वनों से तकरीबन बाहर किये जा चुके वन गुज्जर और उत्तराखंड वन विभाग इन दिनों एक बार फिर आमने- सामने है। ये कुछ-कुछ अंतराल पर बार-बार दोहरायी जाने वाली घटनाओं की तरह है। वन विभाग किसी भी तरह इन्हें जंगल से बाहर का रास्ता दिखाना चाहता है। जबकि घुमंतु समुदाय के रूप में पीढ़ियों से जंगल के साथ रह रहे कुछ वन गुज्जर अब भी जंगल के अपने डेरे नहीं छोड़ना चाहते। वन अधिकार कानून, जंगल पर इनका अधिकार सुनिश्चित भी करता है।

हाल के घटनाक्रम

एक जून 2020 को कोटद्वार की सुखरो बीट कंपाउंड नंबर-2 में रह रहे वन गुज्जर परिवारों के 22 सदस्यों की झोपड़ियां में आग लगी। आरोप है कि वन विभाग ने ये आग लगाई। इसमें सामान सहित 36,000 रुपये भी जल गये। अगले दिन वन गुर्जरों के प्रतिनिधिमंडल को वन विभाग ने उसी जगह बसाने का आश्वासन दिया। लेकिन उन्हें वहां जाने से रोका जा रहा है।

दूसरे घटनाक्रम में, नरेंद्र नगर वन प्रभाग के वन गुज्जर यामीन की एक भैंस गलती से राजाजी पार्क में चली गई। आरोप है कि बड़कोट रेंज के वन कर्मचारियों ने यामीन को बेरहमी से पीटा और अचेत अवस्था में छोड़ दिया। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा का कहना है कि स्थानीय थाने ने मामला दर्ज नहीं किया और एसएसपी कार्यालय ने भी सूचना देने का बाद कोई कार्रवाई नहीं की। यहां के वन गुज्जरों को रुद्रप्रयाग जाना था। लेकिन लॉकडाउन के चलते ऋषिकेश में ही रुके हुए थे।

आशारोड़ी में अतिक्रमण हटाने आए पुलिसकर्मी_0.png

तीसरी और बड़ी घटना 16 जून के शाम चार बजे देहरादून की रामगढ़ रेंज के आशारोड़ी क्षेत्र की है। वन विभाग के 6 कर्मचारियों पर महिला वन गुज्जर नूरजहां के डेरे को तोड़ने के साथ ही उनकी बेरहमी से पिटाई का आरोप है। दून अस्पताल में नूरजहां का इलाज हुआ लेकिन उनकी एफआईआर दर्ज नहीं की गई। फिर एसएसपी को इसकी शिकायत की गई।

फिर 17 जून 2020 को आशारोड़ी में वन गुज्जरों पर अतिक्रमण का आरोप लगाते हुए वन विभाग के कर्मचारी और दून पुलिस की टीम अतिक्रमण हटाने पहुंचे। इस दौरान मारपीट-पथराव की बात कही गई और वन गुज्जरों खिलाफ थाने में एफआइआर भी दर्ज करायी गई। वन विभाग का कहना है कि वन गुज्जरों ने पथराव किया जिसमें तीन महिला फॉरेस्ट गार्ड को चोटें आई। जबकि वन गुज्जरों ने वन विभाग और पुलिस टीम पर संगीन आरोप लगाए हैं।

आशारोड़ी घटना में वन गुज्जरों के आरोप

वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत गठित वन अधिकार समिति के अध्यक्ष 80 वर्ष के वन गुज्जर ग़ुलाम मुस्तफ़ा चोपड़ा आशारोड़ी में अपने परिवार के साथ रहते हैं। वह यहां अपने तीन बेटों, एक बेटी नूरजहां और उनके बच्चों के साथ रहते हैं।

16 जून को अतिक्रमण कहकर वन गुज्जरों को हटाने आए वन विभाग के कर्मचारियो को उन्होंने वन अधिकार अधिनियम के तहत मिले अधिकारों की बात कही। लेकिन वन कर्मचारी नहीं माने। फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा 28 मार्च 2019 को दिए गए स्थगन आदेश की प्रति भी वन विभाग के अधिकारियों को दिखाई गई। सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने वन गुज्जरों के मामले में स्थिति को उसी तरह बनाए रखने (Status quo) के निर्देश दिए। यानी किसी को भी जबरन जंगल से बाहर नहीं किया जा सकता। वन गुज्जरों का आरोप है कि वन विभाग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की बात भी नहीं मानी। इस पूरे घटनाक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग है। जिसमें बड़ी संख्या में पुलिस और वनकर्मी जंगल में नई बसावट को लेकर वन गुज्जरों पर नाराज हो रहे हैं। वन गुज्जरों का कहना है कि इसके बाद वहां घेराबंदी कर लाठी-डंडों से गुज्जरों की पिटाई की गई।

इस मामले में वन गुज्जरों के साथ खड़े और कानूनी मदद दे रहे वन पंचायत मोर्चा के तरुण जोशी बताते हैं कि वन गुज्जर नूरजहां की बहुत ज्यादा पिटाई की गई। वह अचेत हो गईं। वन विभाग के अधिकारियों को लगा कि शायद नूरजहां की मृत्यु हो गई है। नूरजहां और एक अन्य महिला रमजान बीबी को 100 नंबर पर एंबुलेंस बुलाकर अस्पताल पहुंचाया। इसके बाद वन विभाग के अधिकारियों ने गुज्जरों के खिलाफ थाने में एफआईआर दर्ज करा दी।

17 जून की सुबह पुलिस और वनकर्मियों की टीम आशारोड़ी पहुंची। अतिक्रमण हटाने के नाम पर वहां तोड़फोड़ हुई। चार महिलाओं, एक नाबालिग बच्चा और बुजुर्ग ग़ुलाम मुस्तफ़ा को गिरफ्तार कर क्लेमेंटाउन थाने लाया गया। वन गुज्जरों का आरोप है कि थाने में भी महिलाओं और बुजुर्ग वन गुज्जर को बुरी तरह पीटा गया। लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में चोट के निशान नहीं दिखाए गए।

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घायल ग़ुलाम मुस्तफ़ा। फॉरेस्ट राइट्स द्वारा साझा की गई तस्वीर

ग़ुलाम मुस्तफ़ा को आई चोट की तस्वीरें मीडिया में आईं। ये तस्वीर कोर्ट में पेशी के दौरान ली गई। नूरजहां को लेकर कहा गया कि उन्हें बेरहमी से मारा तो गया ही, उनके गुप्तांगों पर मुक्कों से प्रहार किया गया। नूरजहां शर्म के कारण किसी को ये बता नहीं पाई। बाद में मिलने के लिए आई एक रिश्तेदार महिला को उसने ये बताया। इन लोगों का मेडिकल पुलिस ने करवाया, जिसमें सभी फिट दिखाए गए। ग़ुलाम मुस्तफ़ा अभी जेल में ही हैं।

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नूरजहाँ

वन गुज्जरों की मांग

वन गुज्जरों की मांग है कि नूरजहाँ की प्रथम सूचना रिपोर्ट को दर्ज कर इस पर कार्रवाई की जाए। वन विभाग की एफआईआर में दर्ज सभी लोगों के नाम हटाए जाएं, जिनकी गिरफ़्तारी नहीं हुई है। 17 जून 2020 को आशारोड़ी में वन विभाग की कार्रवाई में शामिल सभी अधिकारियों ओर कर्मचारियों पर कानूनी कार्रवाई की मांग की गई है। राजाजी पार्क के निदेशक के बयान की जांच की मांग भी की गई है। जिसमें उन्होंने राजाजी पार्क से सभी लोगों को अतिक्रमणकारी मानकर हटाने की बात कही। इसके साथ ही राज्य सरकार को राज्य में लंबित सभी वन अधिकार दावों का निपटारा करने की मांग की गई है।

वन गुज्जरों के साथ आए संगठन, घटना की जांच के आदेश

इस मामले में कई संगठन भी वन गुज्जरों के साथ आ गए हैं। जिसक बाद एक जुलाई को वन मंत्री हरक सिंह रावत ने घटना की जांच के आदेश दिए हैं। मुख्य वन संरक्षक मनोज चंद्रन जांच अधिकारी हैं। मारपीट में चोटिल लोगों का दोबारा मेडिकल कराया गया है। इस नई मेडिकल रिपोर्ट में चोट की पुष्टि की गई है लेकिन इसे पुरानी चोट बताया गया।

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा वन गुज्जरों का पक्ष रख रह रहा है। इसके साथ ही सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस और ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपुल ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में भी इस मामले की शिकायत की है।

पुनर्वास पर पेच

राजाजी टाइगर रिजर्व के वन्यजीव प्रतिपालक कोमल सिंह गुज्जरों के पुनर्वास के लिए काम कर रहे हैं। वह बताते हैं कि वर्ष 1983 में जब राजाजी नेशनल पार्क बना, उस समय हरिद्वार, देहरादून और पौड़ी में 512 गुज्जर परिवार थे। उनके पुनर्वास के लिए हरिद्वार के पथरी क्षेत्र में जमीन दी गई थी। लेकिन पुनर्वास नहीं हो पाया। वर्ष 1998 में इनकी दोबारा गणना की गई। ये कहा गया कि एक विवाहित जोड़े को परिवार माना जाएगा। इसके बाद राजाजी में 1393 परिवार हो गए। 512 को हरिद्वार के पथरी में प्लॉट दिए गए और बाकियों को गैंडीखत्ता गुज्जर बस्ती में जगह दी गई।

कोमल सिंह बताते हैं कि गुज्जरों के 1393 परिवारों में से करीब 1300 से अधिक परिवारों का पुनर्वास हो चुका है। गौहरी रेंज में 13 परिवार जाने को तैयार नहीं हैं। देहरादून के मोतीचूर रेंज में ग़ुलाम मुस्तफ़ा और कम्मो देवी के परिवार जाने को तैयार नहीं हैं। इसी तरह हरिद्वार की चिल्लावाली रेंज से 260 परिवारों का पुनर्वास किया गया था लेकिन उसमें 104 परिवार फिर वापस जंगल में आ गए और कहा कि हमारे परिवार के कुछ लोगों को ज़मीन नहीं मिली है। जब तक उन्हें अलग ज़मीन नहीं मिलेगी, हम नहीं जाएंगे। वह बताते हैं कि चिल्लावाली रेंज के गुज्जर जंगल के अंदर नहीं बल्कि चारदीवारी के पास डेरा डाले हुए हैं और ज़मीन की मांग कर रहे हैं।

इसी तरह रामगढ़ रेंज में ग़ुलाम मुस्तफ़ा अकेले अपने परिवार के साथ रहते हैं। कोमल सिंह कहते हैं कि उन्हें प्लॉट दिया गया लेकिन वह जाने को तैयार नहीं हैं। उनका परिवार बढ़ रहा है और वे अपने लिए नई बसावटें बना रहे हैं। कोमल सिंह कहते हैं कि अपनी बेटी नूरजहां के नाम पर ग़ुलाम मुस्तफ़ा नया निर्माण कर रहे थे, जिसे हटाने के लिए हमारे वन कर्मचारी वहां पहुंचे थे।

अब घुमंतु नहीं रह गए वन गुज्जर

2006 में वनाधिकार कानून में जंगल में रह रहे अनुसूचित जनजाति के सभी लोगों को जंगल में रहने और आजीविका का अधिकार दिया गया है। तरुण जोशी कहते हैं कि राजाजी टाइगर रिजर्व के गौहरी रेंज में 72 गुज्जर परिवार हैं और रामगढ़ रेंज में एक परिवार (ग़ुलाम मुस्तफ़ा का परिवार) है। इन्हें हटाने की बार-बार कोशिश की जाती है। जबकि ये यहां से नहीं जाना चाहते। ये परिवार जहां रह रहे हैं उस जगह की लीज़ भी इनके पास है। इसके बावजूद उन्हें हटाने की कोशिश की जा रही है।

वन गुज्जर घुमंतु समुदाय था। तरुण कहते हैं कि समय के साथ-साथ इनके रास्ते बंद होते चले गए। जिन जगहों से ये गुजरते थे, वहां परमिट मिलनी बंद हो गई। राजाजी नेशनल पार्क बनने से पहले उनकी मूवमेंट इधर-उधर हो सकती थी लेकिन पार्क बनने के बाद से आवाजाही रुक गई। ऐसे ही कार्बेट पार्क बनने से तराई क्षेत्र में ये अपने रास्तों पर आवाजाही करते थे। लेकिन पार्क बनने के बाद से परमिट का तरीका बदल गया। पहले इन्हें 6 महीने तराई में और 6 महीने पहाड़ पर जाने का परमिट दिया जाता था। कुमाऊं में अब ये घुमंतु नहीं रहे। गढ़वाल में अब भी कुछ गुज्जर ही आवाजाही करते हैं।

वन गुज्जर मोहम्मदी सफी से बातचीत

कुमाऊं मंडल के रामनगर में कार्बेट नेशनल पार्क के बाहर तुमरिया खत्ते में बसे मोहम्मद सफी बताते हैं कि वर्ष 2015 में उनकी बस्तियां भी इसी तरह बेरहमी से उजाड़ी गई थीं। ये मामला हाईकोर्ट में गया और अदालत ने वन गुज्जरों को जंगल से बाहर बसाने का आदेश दिया। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने पूरे राज्य में गुज्जरों के मामलों को लेकर स्थगन आदेश दिया। जो गुज्जर परिवार जहां हैं उसी हालात में बने रहेंगे।

कुमाऊं में वन गुज्जर अब एक ही जगह ठहर चुके हैं। जहां-जहां उनके पड़ाव हुआ करते थे, वहीं अब उन्होंने खेती शुरू कर दी है। गुज्जर भैंस पालते हैं और उसके दूध को बेचकर गुजारा करते हैं। मोहम्मद सफी बताते हैं कि लॉकडाउन में पूरे राज्य में लोगों ने गुज्जरों के दूध लेने से इंकार कर दिया। इससे 40 रुपये किलो बिकने वाला दूध 20 रुपये किलो भी नहीं बिका। हमने बहुत मुश्किल दिन देखे।

क्या अब भी जंगलों में घुमंतु जीवन जीना चाहते हैं या एक जगह रुकना। बच्चे स्कूल जाएं और पढ़ लिख सकें? मोहम्मद सफी कहते हैं कि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पढ़-लिखकर नौकरियां में चले जाएं। अगर हमने पढ़ाई की होती तो हमारे समुदाय के लोग भी अधिकारी-नेता होते, हमारा पक्ष रखते। लेकिन हम ये भी चाहते हैं कि जंगल हमसे छूटे नहीं। यदि जंगल हमसे एकदम छुड़ा दिया जाएगा तो हमें बहुत झटका लगेगा। हमें यहां की आबो-हवा रास आती है। यहां जंगलों की जड़ी-बूटियों को हम पहचानते हैं। हमारे पशु बीमार पड़ते हैं तो इन्हीं जड़ी-बूटियों से हम इनका इलाज करते हैं।

तो उत्तराखंड के जंगलों में अब कुछ ही गुज्जर परिवार रह गए हैं। वन विभाग इन्हें जंगल से बाहर करना चाहता है। ज्यादातर वन गुज्जर भी जंगल से बाहर बस रहे हैं या बसने को तैयार हैं। ग़ुलाम मुस्तफ़ा समेत कुछ परिवार है जो जंगल के साथ जुड़े रहना चाहते हैं। उत्तराखंड हाईकोर्ट भी अपने कुछ फैसलों में इन वन गुज्जरों को बाहर बसाने की बात कह चुका है। जिस पर सुप्रीम कोर्ट से स्थगन आदेश आया। ये लड़ाई वन भूमि, वन गुज्जर और वन विभाग की है।

(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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