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"हम उस धर्म के ख़िलाफ़ हैं जो हमें इतिहास से बाहर करता है"

बिहार प्रगतिशील लेखक का 17वां राज्य सम्मेलन पटना के ए.एन.सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान में हुआ। इस सम्मेलन में बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी हिस्सा लिया।
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बिहार प्रगतिशील लेखक का 17 वां राज्य सम्मेलन पटना के ए.एन.सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान में हुआ। 13-14 मई के इस दो दिवसीय सम्मेलन में बिहार के विभिन्न जिलों के करीब डेढ़ सौ प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। बिहार के अलावा पंजाब, दिल्ली, झारखंड और उत्तरप्रदेश के प्रतिनिधि इस सम्मेलन में भाग लेने आए। सम्मेलन में बड़ी संख्या में पटना के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी हिस्सा लिया।

इस सम्मेलन की शुरुआत लेखकों द्वारा निकाली गई जुलूस से हुई। सबसे पहले लेखकों का एक मार्च कार्यक्रम स्थल से निकलकर भगत सिंह की मूर्ति तक गया। तस्वीर पर माल्यार्पण के बाद ये मार्च गांधीजी की प्रतिमा, पीर अली पार्क होते हुए कार्यक्रम स्थल पर पहुंचा।

इस सम्मेलन को सबसे पहले स्वागत समिति के सचिव अनीश अंकुर ने संबोधित किया। सम्मेलन के स्वाताध्यक्ष ओ. पी जायसवाल ने यशपाल, राहुल सांकृत्यायन आदि का प्रेरक उदाहरण देते हुए बताया, "बिना तथ्य और वैज्ञानिक दृष्टि के धर्मनिरपेक्ष इतिहास नहीं लिखा जा सकता।"

इस दौरान सबसे पहले खगेंद्र ठाकुर पर केंद्रित बिहार प्रलेस की पत्रिका 'रोशनाई' का लोकार्पण किया गया। उद्घाटन भाषण देते हुए राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा ने कहा, " आज पूरा देश बिहार की ओर देख रहा है। आज लोकतंत्र के ऊपर कई जगहों से हमले हो रहे हैं, एक तरफ हमले तेज़ हैं, ज़बान पर ताले लगाए जा रहे है तो उसे बचाने वाले भी तैयार हैं। अब हमारे संघर्ष के प्रेरणा बिंदु बदल रहें हैं। शाहीन बाग़ ने औरत की अज़मत को बचाने की लड़ाई ने किसान आंदोलन को बल दिया। आज देश में पहलवानों के संघर्ष में वे लोग शामिल हो रहे हैं जिनका पुराने किसी आंदोलन से लेना-देना नहीं रहा है। आज हम इतिहास के सबसे बुरे दौर में हैं क्योंकि हमारा दुश्मन नजर नहीं आ रहा। अब दुश्मन न्याय, विकास के नाम पर ठग ले जा रहा है। बाजार नए सपने देता है तो छलावा देता है। जिस आदमी की जेब खाली होती है उसके लिए बाजार बहुत हिंसक होता है। हमारे संविधान को खतरा सत्ताधारियों से है। सत्ता के दमन के तरीके इतने सूक्ष्म हैं कि आम आदमी को पहचान पाना मुश्किल है। हम किस देश को, किस राष्ट्र को अपना कहते हैं कि शर्म आती है। मुसलमान गीतकार के गीत सुनते हैं, फ़िल्म देखते हैं लेकिन उससे नफ़रत भी करते हैं। वह हमसे दूर होता जा रहा है। पंजाब के 32 प्रतिशत लोग हाशिये के लोग हैं। इनके सामने हम बराबरी का नहीं मानते, दलितों, आदिवासियों को होना हिस्सा नहीं मानते। हम धर्म के खिलाफ नहीं हैं। हम उस धर्म के खिलाफ हैं जो इतिहास से बाहर करता है। हमारी जो पदार्थवादी चिंतन से जुड़ना होगा। डरा हुआ आदमी सोचता है। बंदूकों वाले लोग निहत्थे से डरते हैं।"

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष विभूति नारायण राय ने कहा, "इतिहास व साहित्य यदि वैज्ञानिक युक्त नहीं होगा तो अच्छा नहीं होगा। नाथ संप्रदाय ने बराबरी की बात की थी लेकिन वह हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं है। जिस दिन भारतीय संविधान स्वीकृत हुआ उसी दिन से मनु स्मृति के लिए अभियान चलाया जाने लगा। 1949 में संविधान तैयार ही हो रहा था तो ऑर्गनाइजर में लेख उसके विरोध में छपा। जिस दिन तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज बना उसी के अगले दिन उन तीन रंगों को अशुभ बता कर विरोध किया गया। हम बाजार के असहाय ही नहीं बल्कि उसे स्वीकार कर चुके हैं। उदारता से हमने सहिष्णु समाज की बात थी लेकिन आज अर्थव्यवस्था में उदारीकारण से हिंसक संकेत नजर आते हैं। नई नीति ने एक ही समाज को तीन भागों में बांट दिया। लेखक संघ इन सबके खिलाफ लड़ने की जिद को बनाए रखने का काम करता है।"

जेएनयू के सेवानिवृत प्रोफेसर सुबोध नारायण मालाकार ने हबीब जालिब आदि का उदाहरण देते हुए कहा, " हमारे देश में जो आर्थिक बदहाली है उसके पीछे हमारी सरकार द्वारा किया गया अंतरराष्ट्रीय समझौता है। उन समझौतों को लागू करने के लिए लोकतंत्र को कमजोर किया जा रह है लेकिन इन सबके खिलाफ हमलोग लड़े। सबसे पहले एकध्रुवीय दुनिया के खिलाफ संघर्ष हुआ। निरंकुशता के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है। आज छोटे पूंजीपति वर्ग के दलों को बेरोजगारी, महंगाई का नारा लगाना पड़ रहा है। आंदोलन से भी सत्ता बदलती है इससे सरकार कांपती है। कई बार प्रगतिशील लेखकों में लोग दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी लेखकों को देखना चाहते हैं। लोकतंत्र में सामाजिक न्याय का संघर्ष जरूरी रहता है। प्रलेस के गुलदस्ता में सब तरह का संघर्ष रहता है।"

विश्वविद्यालय व महाविद्यालय शिक्षकों के राष्ट्रीय नेता प्रो. अरुण कुमार ने कहा, "बिहार में प्रगतिशील लेखकों का यह संगठन देश को रास्ता दिखाएगा। मैं 1982 से प्रलेस से जुड़ा रहा हुआ हूं। आज हमें लिखने का तरीका बदलना होगा।"

राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल के सदस्य राजेंद्र राजन ने कहा, "आज आत्मचिंतन का वक़्त है। आज की व्यवस्था में सारे रास्ते कारपोरेट पूंजी की ओर है। प्रेमचंद ने लखनऊ अधिवेशन में जो सदारत में कहा कि राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। प्रेमचंद व सज़्ज़ाद ज़हीर ने पत्र व्यवहार में कहा है कि पटना में संगठन बनाना है। जीवन के खतरे को समझने वाले लोग लोकतंत्र को बचाने में लगे हैं। दिनकर ने 1944 में कहा था कि लेखक समाज से नहीं जुड़ेगा तो कुछ नहीं कर पाएगा।"

उद्घाटन सत्र को जनवादी लेखक संघ के प्रतिनिधि घमंडी राम, जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव दीपक सिन्हा ने भी संबोधित किया।

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए ब्रज कुमार पांडेय ने कहा, "आज़ादी के बाद जो बड़े आंदोलन व प्रतिरोध हुए हैं उसमें लेखकों की संख्या सबसे ज्यादा है। राष्ट्रवाद के मुखौटे के भीतर सांप्रदायिकता छुपी है। हमें साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से बात को आगे बढाना चाहिए। मीडिया के खिलाफ बहिष्कार अभियान चलाया जाना चाहिए।"

इस सम्मेलन को साहित्यकार खगेंद्र ठाकुर, कथा आलोचक सुरेंद्र चौधरी और मगही कवि मथुरा प्रसाद नवीन, कविवर कन्हैया, कुमार नयन तथा अफसाह ज़फर के नाम पर रखा गया है। प्रथम सत्र में कई पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। प्रमुख पुस्तकों में ब्रज कुमार पांडे की भारत में किसान आंदोलन, अभय पांडे लिखित बिहार में सुफी आंदोलन, अनीश अंकुर लिखित कलाओं के तीन शिखर और लक्षमीकांत मुकुल की ग्रामीण इतिहास पर केंद्रित पुस्तक यात्रियों के नजरिये में शाहाबाद तथा शंकर द्वारा संपादित खगेंद्र ठाकुर पर केंद्रित पुस्तक का लोकार्पण किया गया।

नफ़रत की राजनीति व लोकमत

'नफ़रत की राजनीति व लोकमत' सत्र को संबोधित करने वालों में प्रमुख थे। झारखंड से आये रणेंद्र ने विषय प्रवेश कबीर, ललन फकीर सहित संत कवियों का उदाहरण देते हुए कहा, "सैंकड़ों साल की तहज़ीब को आज तोड़ा जा रहा है। आज के नफ़रत का अंधेरा हमारे घरों तक आ गया है। 1925 से ही हिंदूवादी ताकतों की साजिश चल रही है। बाबरी मस्जिद की गुंबद पर चढ़े लोग वर्णवादी व्यवस्था के ऊपर नहीं बल्कि नीचे के लोग थे। लेकिन इसके साथ रोशनी भी है। संत कवियों ने जो परंपरा दी है उससे ताकत मिल सकती है। मिली-जुली संस्कृति या मिल्लत की संस्कृति को संत कवियों ने आगे बढ़ाया।"

जयपुर स्थित अजीम प्रेम जी फाउंडेशन के दीपक राय ने कहा, ''एक दूसरे से असहमत लोगों के साथ संवाद कैसे करते हैं इसी पर टिकी रहा करती है। लेकिन नफ़रत की राजनीति इसे ही खत्म करती है। अब जनता सरकार नहीं बल्कि सरकार खुद ही जनता चुन रही है इससे बड़ी विडंबना क्या होगी।"

अध्यापक कुमार सर्वेश ने भारतेंदु हरिश्चंद्र के 'भारत दुर्दशा' नाटक की चर्चा करते हुए कहा, "वर्तमान सरकार ने अपने दुश्मनों को चुन लिया है। जहां तक हमें अपनी बात पहुंचानी है वहां हमारी क्रेडिलीबिटी ही नहीं है कैसे हम अपनी लौस्ट क्रेडिबिलिटी को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। कलम के साथ कुछ और करना होगा। उस समाज को भरोसे में लिए अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं। बगैर राजनीति से दो चार होते हुए जिया भी नहीं जा सकता है। हमें स्मार्ट फोन की दुनिया से बाहर निकलकर किताब की दुनिया में आना होगा। हमें सांस्कृतिक अभियानों से जनता के मुद्दों से जोड़ने की जरूरत है। हमें इस वक्त नेहरू को याद करने के जरूरत है।"

कवि सत्येंद्र कुमार ने अपने संबोधन में कहा, "पूरा उत्तरी भारत विधान सभा की सीटों को जीत लेने के बजाए किसानों - मज़दूरों का संगठन बनाकर, बुनियादी बातों को उठाकर ही जीता जा सकता है।"

व्यास जी ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा, "मैंने अमेरिका में मैनहटन की सड़कों पर भीख मांगते देखा है। क्लैश ऑफ सिविलजाइशेन लोगों की भूख, संत्रास की समस्याओं को हल नहीं कर पाया है। इस कारण इससे ध्यान भटकाने के लिए पूरी दुनिया में एक दक्षिणपंथी झुकाव की ओर बढ़ रहा है। ज़ब मैं छात्र था तो देखने का नजरिया कुछ और था लेकिन अब इसे दूसरे ढंग से देखा जा रहा है।"

अंत में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें राज्य भर से आए कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया।

वर्तमान समय में लेखकों की सृजनात्मक बाधाएं

इस सत्र में विषय प्रवेश करते हुए बिहार हेराल्ड के संपादक बिद्युतपाल ने कहा, "सृजन के समय सबसे बड़ी बाधा अज्ञान है। रास्ता वही है कि लेखन के अलावा समाज के काम में संलग्न होना होगा। यदि व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष में रहेंगे तो लेखन के साथ साथ अपने अंदर के अंधकार को दूर करेंगे। जब हम घर थककर कर लौटते हैं, टूटे हुए होते हैं तब लिखना मेरा ऊर्जा को वापस पाना रहता है। दूसरों के बजाए अपनी खुद की आत्मा को पाने जैसा है। हम लड़ जरूर रहें हैं, लगातार हारते हुए लड़ रहें हैं इस बात को नकार कर नकली उम्मीद की बात का कोई फायदा नहीं है। समाज परिवर्तन की लड़ाई में शामिल होकर ही अंधकार को दूर किया जा सकता है।

कोलकाता से आए भाषा और साहित्य के प्रोफेसर विनायक भट्टचार्य ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, " हर लेखकों पर एक मानसिक दबाव आ जाता है अन्यथा दबाव खत्म हो जाने से दिक्क़त हो जाती है। ऐसे लोगों को मनोवैज्ञानिक लोग कहते हैं। लिखना छोड़ दें और ज्यादा पढ़ें।"

झारखंड प्रलेस के महासचिव मिथिलेश कुमार सिंह ने कहा, "आज रचनाकर एक दूसरे को ही नहीं पढ़ते हैं या व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर लिखते पढ़ते हैं। हमारी प्रचार की आकांक्षा के साथ साथ कम मेहनत में बिना अपनी परंपराओं को जाने, बिना समय को पहचाने सबसे बड़ी सृजनात्मक बाधा है। रचनाकार में थोड़ा करके ज्यादा पाने की इच्छा एक सृजनात्मक बाधा है।"

अध्यक्षीय संबोधन में संतोष दीक्षित ने कहा, "समाज में जो उथल-पुथल हैं उसमें सृजन का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि भीतर का जो सुखापन है वो रचनाकार को ज्यादा प्रभावित करता है। मैं एक कथाकार हूं लेकिन आज बिहार में एक बड़े कथावाचक आ रहे हैं। सुख के जो साधन आए हैं उससे भी सृजन में मुश्किलें आती हैं। आज लेखक भयभीत है, बहुत सारे लेखक जनाकांक्षाओं से बेनियाज हो रहे हैं। बहुत सारे उपन्यासों में चित्रण है लेकिन राजनीति नहीं है। लेखन के लिए ज्ञान के साथ-साथ संवेदना की जरूरत होती है। ये कहीं न कहीं आम आदमी को अलग करता है। भाषा की जादूगरी है लेकिन आम जन की गंभीर आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। ब्रेख्त कहते हैं कि कला एक युद्ध है जो किसी न किसी के पक्ष में लड़ना होता है।"

पहले दिन के अंतिम में कविता पाठ का आयोजन हुआ जिसमें लगभग 52 कवियों ने काव्य पाठ किया।

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के 17वें राज्य सम्मेलन के दूसरे दिन का पहला सत्र 'इककीसवीं सदी में तरक्कीपसंद उर्दू-हिंदी अदब के फ़िक्री बुनियाद' विषय पर आधारित था।

संचालक मणिभूषण ने अपने संबोधन में कहा, "तरक्कीपसंद तहरीक को पढ़ाते समय किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ता उससे उस्ताद लोग वाकिफ है। यह जलसा इस अंजुमन के लिए तारीखी महत्व का है।"

विषय प्रवेश करते हुए 'कथान्तर' के संपादक राणा प्रताप ने कहा, "आज़ादी के बाद गद्य का विकास होता है। गद्य एक जनतांत्रिक विधा है। भीष्म साहनी, अमरकान्त को नहीं छोड़ा जा सकता है। इक्कीसवीं सदी की उम्र तो अभी मात्र 20-22 साल की है। आज चिंता नहीं चुनौती का विषय है। उम्मीद की किरण इस पूरे आंदोलन में ख़ासकर पिछले दस साल में नहीं दिखाई देती थी लेकिन अब दिखाई दे रही है। इंकलाब कहने में नहीं बल्कि जीवन व समाज में भी होता है।"

मुज़फ्फरपुर प्रलेस के रमेश ऋतंभर ने कई कहानियों का उदाहरण देते हुए कहा, "आज कई-कई अस्मिताएं एक साथ टकरा रही हैं। हम तकनीक का इतना अपमान कर रहे हैं कि बिना आधुनिक बने इसका इस्तेमाल कर रहें हैं। लेखन का छद्म व पाखंड उजागर हो रहा है. श्रेष्ठता का दंभ इतना खतरनाक है कि हर सीढ़ी का आदमी अपने से नीचे वाले को नीची निगाह से देखता है। हम वहाट्सएप पर सिर्फ धार्मिक मैसेज भेज रहे हैं। हम कितनी भेदों के साथ जी जा रहे हैं। असुर जनजाति पर पहला उपन्यास लिख रहे हैं। पत्रिकाओं में कैसे कहानियों ने नए समाज को पकड़ा है इसे देखने की जरूरत है। जिस गांव को हम प्यारा गांव कहते हैं इस गांव में भाई-भाई के आपसी झगड़े में लाखों मुकदमे न्यायालय में हैं। वो गांव अच्छा कैसे हो सकता है। बिना सौंदर्यशास्त्र की परवाह करते हुए दलित, आदिवासी साहित्य आ रही है। कैसे रूढ़ि तोड़ रहें हैं समाज के विभिन्न तबके के लोग इसे सामने आ रहें हैं। बिहार साहित्य की सबसे बड़ी प्रयोगभूमि है। प्रगतिशील वामपंथी दलों के कार्यकर्ता ही आपके काम आएंगे। अपने समाज का प्रभुशाली वर्ग दूसरे जाति के प्रभु वर्ग को बैठाता है लेकिन वह अपनी जाति के गरीब को साथ नहीं बैठाता है।"

इस सत्र की सदारत करते हुए सफदर इमाम क़ादरी ने अपने संबोधन में गांधी का उदाहरण देते हुए कहा, " वे अपने अंतिम दिनों में बंग्ला सीख रहें हैं। कई बार भाषा को लिखने के लिए लिपि को समाप्त कर दिया गया है। समाज में जितने रंग, नस्ल के लोग हैं उसी प्रकार लिपि को बचाने की जरूरत है। तरक्की पसंद तहरीक की उठान जो थी बाद में वह मद्धिम पड़ गई। 1936 से 1957 तक काफी सक्रियता थी। जगह-जगह कॉन्फ्रेंस हो रहे थें। 1957 में कहा गया कि आंदोलन के रूप में खत्म हो रहा है प्रवृत्ति के रूप में बची रहेगी। जिन फिक्री बुनियादों पर यह तहरीक टिका था वह आज भी बरकरार है। प्रगतिशील लेखन में बुनियादी चीजें वैसी ही हैं। उसके बाद 1957 के बाद यह संगठन चलता रहा। सज़्ज़ाद जहीर मंटो के बारे में सरदार जाफ़री के विश्लेषण से असहमत थे। सज़्ज़ाद जहीर के पाकिस्तान चले जाने से नुक्सान हुआ। 1947 तक हिंदी-उर्दू का विभाजन उतना नहीं था। इसी काल में मैनिफेस्टो का रिवीजन होता है। बाद के काल में संगठन कमजोर हुआ। 1936-57 के बीच दूसरी धारा के लोग न थे लेकिन 1957 के बाद प्रयोगवाद आदि का बोलबाला बढ़ता चला गया। जो प्रवृत्तिया हमारी रचनाओं में अंत सलीला बनकर बहुत रहा था, तरक्कीपसंद तहरीक के विरोध में जो रचनाएं थीं उसका भी ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ है। कैफी आज़मी की भाषिक सरंचना आधुनिकतावादियों का था। प्रगतिशीलता आधुनिकतावाद में शामिल होकर जीवित रहा। उर्दू साहित्य में मुस्लिम फ़िरक़ापरसती का कैसे विरोध किया इसके बारे में क्या लिखा गया। हमें दोनों को एक तराजू पर न तौला जाए। यह सब 1992 में बाबरी मस्जिद के बाद का फिनोमिना है।"

इस सत्र में अरविंद प्रसाद, शगुफ्ता, सुनील सिंह, प्रो अरुण कुमार, कुमार सर्वेश आदि ने सवाल पूछे।

बिहार की लोकभाषाओं में प्रतिवाद के स्वर

इस सत्र की अध्यक्षता सीताराम प्रभंजन ने की जबकि संचालन परमाणु कुमार ने किया था।

परमाणु कुमार ने कहा, "प्रतिरोध का साहित्य इस देश में ढाई-तीन हजार साल पुराना है। उत्तरवैदिक काल से ही इसके उदाहरण मिलने लगते हैं। मगही में देवेन मिसिर के बुझाऔल मशहूर हैं। कई बार गप के रूप में भी प्रतिरोध उपस्थित रहता है।"

दूसरे दिन के दूसरे सत्र में मगही भाषा के बारे में बात करते हुए अशोक समदर्शी ने कहा, "मगही में लिखा तो बहुत जा रहा है पर प्रतिरोध के स्वर में कम हैं। श्रीनंदन शास्त्री, मथुरा प्रसाद नवीन जैसे रचनाकार बहुत कम हैं।"

भोजपुरी साहित्य के संबंध में अपनी बात रखते हुए सुनील पाठक ने कहा, "भोजपुरी के गीत जो चलते वाहनों में सुनते हैं उनके गवैये व्यास हैं। वे रामकथाओं के माध्यम से अपनी पिछड़ी मानासिकता को प्रदर्शित करते हैं। लेकिन भोजपुरी साहित्य में इन्हें नहीं गिना जाता। भोजपुरी के कवि सिपाही सिंह श्रीमंत जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे और पुरानी भीत खत्म कर नई भीत, नई नींव डालकर उठाने की बात करते हैं। हीरा डोम की 'अछूत की शिकायत' हो, या 'फिरंगिया' कविता हो इन सब में तो लोकभाषाओं के अवदान को समाप्त कर दें तो फिर हिंदी में बचता क्या है।"

मैथिली के प्रतिनिधि अरविंद प्रसाद ने कहा, "मनुष्य द्वारा पहली बार कहने की बात प्रतिरोध की रही है। गूंगापन के विरुद्ध बात थी। विद्यापति की रचनाओं में प्रतिवाद था। जैसे बेमेल विवाह के खिलाफ बात को देखा जाना चाहिए। ठीक इसी प्रकार बाबा नागार्जुन के बलचनमा उपन्यास को लिया जा सकता है। राजकमल चौधरी, सोम चौधरी आदि ने प्रतिरोध के स्वर को मज़बूत किया है। कम्युनिस्ट नेता भोगेंद्र झा एक कवि भी थे जो जन्नत को धरती पर उतारकर स्वर्ग की खिलाफ बात करते हैं।"

सुनीता गुप्ता ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, "लोकभाषाओं के प्रारंभिक स्वर लोकगीतों में हैं। पुरुषों द्वारा रचित रामायन में सीता उतपीड़ित रहीं लेकिन लोकगीतों में सीता राम के बारे अलग नजरिया रखती हैं कि अपने पुत्र लव-कुश के जन्म की खबर अपने पति राम को नहीं देना चाहतीं क्योंकि उन्होंने सीता को निकाल दिया। एक लोकगीत में कहा जाता है कि हे विधाता मुझे लड़की क्यों बनाया, बनाया तो सुंदर क्यों बनाया, फिर गरीब क्यों नहीं बनाया। इन सब गीतों में प्रतिवाद के स्वर हैं।"

गया प्रलेस के कृष्ण कुमार ने कहा, "लोकभाषा एक ह्रदय से निकल कर दूसरी भाषा में जाती है। लोकपीड़ा को अभिव्यक्ति दी जाती है लोकभाषा में। 1857 का गीत है दू रुपैया देके, पियवा के छोड़वाये लेबो'। लोकभाषा से लोकजीवन सामने आ जाता है। रामनरेश पाठक, जयराम सिंह की रचना में मिठास रहा करता है।"

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए उन्होंने कहा, "खड़ी बोली भी बोली ही है। खड़ी बोली जितना लोकभाषाओं से जुड़ेगा उतना ही बेहतर रहेगा। लोकभाषा ही भारतीय संस्कृति की भाषा है। पहली अभिव्यक्ति अपनी भाषा में करें उसके बाद ही खड़ी बोली में करें। लोकभाषा से स्वीकार भाव होना चाहिए।"

सांगठनिक सत्र के दौरान बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। उसके बाद नई कमेटी का चुनाव हुआ। 65 सदस्यीय नई कार्यकारिणी का चुनाव हुआ। ब्रज कुमार पांडे अध्यक्ष, रवींद्र नाथ राय को महासचिव तथा अनीश अंकुर को उपमहासचिव के रूप में चुना गया।

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