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पश्चिम महाराष्ट्र : अखाड़ों में दंड-बैठक, ताल ठोंकने की आवाजें बंद, पहलवानों के बुरे दिन

कुश्ती यहां का इतना अधिक लोकप्रिय खेल है कि इससे स्थानीय स्तर पर कई लोगों को रोज़ी-रोटी मिलती है। इसके अलावा लगातार दूसरे साल भी कुश्ती से जुड़ी सारी गतिविधियां बंद होने से पहलवान खाली हाथ हो गए हैं और इन दिनों भयंकर तंगी के दौर से गुजर रहे हैं।
'एकेटी पट' दांव से प्रतिद्वंदी पहलवान को चित करता एक पहलवान। फाइल फोटो साभार: कुश्ती मल्लविद्यालय, सांगली (महाराष्ट्र)
'एकेटी पट' दांव से प्रतिद्वंदी पहलवान को चित करता एक पहलवान। फाइल फोटो साभार: कुश्ती मल्लविद्यालय, सांगली (महाराष्ट्र)

सांगली: यहां कुश्ती के मैदानों से सुनाई देने वाली दंड, बैठक और ताल ठोंकने की आवाजें बंद हो चुकी हैं। कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण और बचाव के लिए लगाए गए लॉकडाउन के कारण पश्चिम महाराष्ट्र में पहलवानी के लिए प्रसिद्ध सांगली में पिछले दो वर्षों से कुश्ती के अखाड़े बंद हैं। कुश्ती यहां का इतना अधिक लोकप्रिय खेल है कि इससे स्थानीय स्तर पर कई लोगों को रोज़ी-रोटी मिलती है और हर साल कुश्ती के क्षेत्र में 15 से 20 करोड़ रुपए का कारोबार होता है। लेकिन, लगातार दूसरे साल भी कुश्ती से जुड़ी सारी गतिविधियां बंद होने से पहलवान खाली हाथ हो गए हैं और इन दिनों भयंकर तंगी के दौर से गुजर रहे हैं।

इस बारे में यहां कुश्ती की एक बड़ी प्रतियोगिता 'महाराष्ट्र केसरी' के विजेता रहे अप्पासाहेब कदम बताते हैं, "कुश्ती का पूरा खेल दो पहलवानों के शारीरिक स्पर्श और तेज सांस लेने से जुड़ा है। इसलिए, कोरोना के कारण सबसे बड़ा झटका कुश्ती के क्षेत्र में देखने को मिला है। फिर कुश्ती का खेल मुख्य रूप से गरीब परिवार के बच्चों के लिए है। इसलिए चुनौती यह है कि वे इस परंपरागत खेल के लिए अपना बहुत कुछ दांव पर नहीं लगा सकते हैं।"

कोरोना से पहले सांगली में आई बाढ़ की वजह से भी कुश्ती के क्षेत्र से जुड़े पहलवान और संचालकों को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा था। अकेले सांगली जिले में विशेष तौर पर कुश्ती के लिए साठ से सत्तर अखाड़े हैं जहां बीते कई महीनों से न कुश्ती के बड़े आयोजन हो रहे हैं और न ही पहलवान रिहर्सल या प्रशिक्षण हासिल कर पा रहे हैं। हालांकि, इस दौरान कुछ पहलवान अपने व्यक्तिगत प्रयासों से पहलवानी का अभ्यास करते रहे हैं, लेकिन मैदानों पर बड़ी संख्या में लगने वाले ट्रेनिंग कैंप और नए-पुराने पहलवान तथा प्रशिक्षक पूरे तरह से गायब हो गए हैं। लिहाजा, सांगली में अब न तो पहले की तरह कुश्ती का माहौल नजर आता है और न ही कुश्ती के प्रति पहले जैसा जोश या उत्साह ही दिखाई देता है।

दो साल पहले सांगली जिले में कृष्णा और वारणा नदियों में आई महाविनाशकारी बाढ़ के चलते कुंडल, पलूस देवराष्ट्र, बंबावडे और बोरगांव में अखाड़ों में कुश्ती की गतिविधियां बंद करनी पड़ी थीं। तब बाढ़ ने यहां कुश्ती से जुड़े पहलवान, संचालक और दर्शकों के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। हालांकि, यह उम्मीद जताई गई थी कि फरवरी से मई महीने के दौरान जब जब मौसम कुश्ती के लिए अनुकूल रहेगा और गांव-गांव में जात्रा (मेलों) का आयोजन होगा तो फिर कुश्ती के बड़े आयोजन भी होंगे। इस तरह, बाढ़ के कारण कुश्ती कारोबार को हुए नुकसान की भी भरपाई हो जाएगी। सांगली जिले में जिन साठ-सत्तर मैदानों पर कुश्ती के खेल निरंतर आयोजित होते रहे हैं उनमें चिंचोली, वीटा, पाडली, बेनापुर और खवसपुर प्रमुख स्थान हैं जहां जात्रा के दौरान भी कुश्ती की प्रतियोगिता कराई जाती हैं।

फाइल फोटो साभार: कुश्ती मल्लविद्यालय, सांगली (महाराष्ट्र)

दूसरी तरफ, शिरोड गांव के एक पहलवान भरत पाटिल बताते हैं, "कुश्ती के मैदान दो साल के लिए बंद कर दिए गए हैं। इनसे हम जैसे पहलवानों को बहुत नुकसान हुआ है। अब महंगाई पहले से काफी बढ़ गई है, कोई भी चीज सस्ती नहीं है, जबकि पहलवानों को अतिरिक्त खुराक चाहिए होती है। मुझे घर की भैंस का दूध तो मिल रहा है, पर बाकी कोई पौष्टिक चीज खरीदकर नहीं खा सकता हूं। सामान्य खाने के लिए ही मैं बड़े लोगों के खेतों में काम करता हूं, ताकि कुछ कमा सकूं और जिंदा रहने लायक भोजन खा सकूं।"

देखा जाए तो सांगली में कुश्ती के कारोबार का पूरा एक अर्थचक्र होता है। पूरे साल भर अभ्यास करने वाले पहलवान कुश्ती के खेल में इस उम्मीद से प्रवेश करते हैं कि वे कुश्ती प्रतियोगिता में जीतकर एक दिन इलाके के बड़े विजेता पहलवान के रुप में पहचाने जाएंगे और एक समय के बाद उनके नाम पर कई नए पहलवान उनके शिष्य बनें। इस तरह वे बाद में नामी प्रशिक्षक के तौर पर भी अपना कैरियर बना सकते हैं। इसलिए हर पहलवान पूरे साल कुश्ती आयोजन में विजेता बनने की चाहत से कड़ी मेहनत और पैसा खर्च करते हैं। लेकिन, जब बाढ़ और उसके बाद कोरोना के कारण आयोजन बंद हुए तो पहलवानों ने सोचा कि यह एक ब्रेक है और जल्द कुश्ती के आयोजन फिर शुरू होंगे। लेकिन, अब यहां के पहलवान एक लंबे और अनिश्चितकालीन ब्रेक लगने के बाद बहुत परेशान नजर आ रहे हैं। वजह यह है कि जब खेल होते थे तो विजेता के अलावा पराजित पहलवानों को भी कुछ रकम मिलती थी और उससे वे पहलवानी का अभ्यास करते रहते थे। इसके अलावा कुश्ती का आयोजन जब खत्म होता था तो अगले वर्ष फिर से कुश्ती का आयोजन करने के लिए खर्च का पैसा निकल आता था और इस तरह कुश्ती को परंपरागत रुप से आयोजित कराने का सिलसिला भी बना रहता था। लेकिन, अब जब पिछले दो वर्षों से यह क्रम टूटा है तो कुश्ती के नए कार्यक्रम आयोजित कराने के लिए फंड भी नहीं बचा है।

हर वर्ष मई में जब कुश्ती की ज्यादातर खेल प्रतियोगिता समाप्त हो जाती हैं तो सभी पहलवान उनके अपने गांव चले जाते हैं और जून यानी बरसात के दौरान जब कुश्ती प्रतियोगिता नहीं होती तो यह ऐसा समय होता है जब पहलवान अपनी कमजोरियों पर कार्य करते हैं और अभ्यास के दौरान प्रतियोगिता में हुईं गलतियों से सबक लेकर खुद को बेहतर पहलवान बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन, पिछले दो वर्षों से कुश्ती प्रतियोगिताएं बंद हैं तो एक पहलवान के रूप में यह समझना मुश्किल हो रहा है कि उनकी पहलवानी में गलतियां क्या हैं और वे किन तरीकों से उनकी अपनी गलतियों को दूर करके एक अच्छा पहलवान बन सकते हैं। वहीं, जब कुश्ती का कारोबार लंबे समय से बंद हो तो हर एक पहलवान के लिए सुविधाएं जुटाना भी मुश्किल हो जाता है और यहां तक की उन्हें खेलने के मौके तक नहीं मिलते हैं। ऐसे में कुश्ती में लंबा ब्रेक खास तौर पर उम्र की ढलान पर खड़े पहलवानों के कैरियर के लिए बुरा साबित हो रहा है।

यही वजह है कि ज्यादातर पहलवान कोरोना और उसके कारण लगाए गए लॉकडाउन से निजात पाने का इंतजार कर रहे हैं। ज्यादातर पहलवान निम्न-मध्यम वर्ग परिवारों से हैं, इसलिए वे अपनी पहलवानी छोड़कर इस महामारी के मुश्किल दौर में अपने और अपने परिवार की घर-गृहस्थी चलाने के लिए दूसरे काम-धंधे ढूंढ़ रहे हैं और परिजनों को अपना आर्थिक योगदान दे रहे हैं। वहीं, कुछ गिने-चुने पहलवान ही हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है और जो कोरोना लॉकडाउन में भी पहलवानी पर पूरी तरह से ध्यान देकर अभ्यास कर रहे हैं।

दूसरी तरफ, सांगली में प्रतिवर्ष आयोजित महाराष्ट्र केसरी प्रतियोगिता में दूर-दूर से पहलवान सांगली आते हैं। लेकिन, यह प्रतियोगिता रद्द होने से सांगली और सांगली के बाहर राज्य के कई पहलवानों में कुश्ती को लेकर शिथिलता आई है। वहीं, सांगली में कुश्ती के सारे मैदान बंद होने और कई करोड़ रुपए की कमाई से हाथ धोने के कारण यहां के पहलवान तथा कारोबारियों में हताशा की स्थिति बनी हुई है।

इस बारे में और अधिक जानकारी देते हुए कोल्हापुर में पहलवान रहे कुश्ती प्रतियोगिता के संचालक और प्रशिक्षक मौली जमादे बताते हैं, "गांव-गांव में कुश्ती के मैदान बंद करने से पहलवानों में एक तनाव पैदा हो गया है। उनकी सारी कवायद और कसरत भी एक ठहराव की स्थिति में आ गई हैं। छोटे गांवों में तक हर वर्ष यह देखने को मिलता था कि प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण शिविर में सौ से अधिक बच्चे आया करते थे। बीच भी जब लॉकडाउन शिथिल हुआ था तब कुछ बच्चे सीखने आए भी, लेकिन उनकी संख्या पांच से तक तक थी, क्योंकि कोरोना का डर तो सबके मन में है ही कि कहीं वे बीमार न हो जाएं! अभी कोरोना की दूसरी लहर ने सारी उम्मीद तोड़ दी है।"

सांगली जिले में कई स्थानों पर कुश्ती के प्रमुख मैदान हैं जहां इन दिनों कुश्ती की गतिविधियां बंद हैं। इनमें सांगली, मिरज, कवठेपिरान, कसबे डिग्रज, तुंग, समडोली, खंडेराजुरी, भोसे, सोनी, धुलगांवव, कवलापुर, बुधगांव, पदमाले, जुनी धामणी, वालवा, बोरगांव, जुनेखेड, मसुचीवाडी, ताकारी, तुपारी, रेठरे हरणाक्ष, कासेगाव, कुरलप, वाटेगांव, नेर्ले कामेरी, पेठ, मांगरूल, शिराला, चिंचोली, मणदूर, पुनवत, पणुंब्रे, शेडगेवाडी, वारूण शित्तुर, पलूस, किर्लोस्करवाडी, रामानंदनगर, पुणदी, दुधोंडी, नागराले, आमनापूर, देवराष्ट्रे, कुंडल, बांबवडे, नागाव निमणी, कवठे एकंद, तासगांव, नागांव, यमगरवाडी, विसापुर, हातनूर, हातनोली, पाडली, पारे, वीटा, खानापुर, बेनापुर, बलवडी, लेंगरे, खवासपूर, जत, बागेवाडी, नागज ,जुनोनी, कवठेमंकाल, करोली और अन्य कई मैदान प्रमुख हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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