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किरेन रिजिजू को अचानक क़ानून मंत्रालय से हटाना किस बात का संकेत है?

प्रधानमंत्री ने क़ानून मंत्रालय से किरेन रिजिजू को हटा कर इस धारणा को तोड़ने की कोशिश की है कि सरकार न्यायपालिका से टकराव के रास्ते पर आगे बढ़ रही है या उसकी नीयत जजों को नीचा दिखाने की है।
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फाइल फ़ोटो। PTI

अपने किसी मंत्री को अचानक हटा देना या उसका विभाग बदल देना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कभी स्वभाव या तरीका नहीं रहा है। इसके बावजूद उन्होंने किरेन रिजिजू को क़ानून मंत्रालय से हटा दिया और उनकी जगह अर्जुन राम मेघवाल को क़ानून मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंप दिया। मोदी सरकार के पिछले नौ साल में मेघवाल चौथे क़ानून मंत्री हैं। उनसे पहले रिजिजू के अलावा रविशंकर प्रसाद और डीवी सदानंद गौड़ा भी क़ानून मंत्रालय संभाल चुके हैं। सवाल है कि प्रधानमंत्री को आख़िर रिजीजू को इस तरह अचानक क़ानून मंत्रालय से क्यों हटाना पड़ा? क्या रिजिजू के बयानों से सरकार और न्यायपालिका के बीच पैदा हो रही टकराव की स्थिति टालने या न्यायपालिका के प्रति सद्भाव दिखाने के मकसद से उन्होंने यह कदम उठाया है?

दरअसल किरेन रिजिजू दो साल पहले क़ानून मंत्री बनने के बाद से ही एंग्री यंग मैन के अंदाज में सुप्रीम कोर्ट को उसकी 'औकात’ जो भी वे समझते रहे, दिखाने पर आमादा नजर आ रहे थे। कोई सार्वजनिक मंच ऐसा नहीं था जहां से उन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर गैरजरूरी और नाजायज टिप्पणियां न की हों। जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम से लेकर जजों के कामकाज के तरीकों और सर्वोच्च अदालत के फैसलों तक पर वे लगातार गंभीर टिप्पणियां करते आ रहे थे। यह सही है कि कॉलेजियम सिस्टम पारदर्शी नहीं है और उसमें कई खामियां हैं, लेकिन रिजिजू का जोर सिर्फ इस बात पर था कि जजों की नियुक्ति के सिस्टम में केंद्र सरकार की भी भागीदारी होनी चाहिए। इस सिलसिले में उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना करते हुए उसे भारतीय संविधान के लिए एलियन यानी सर्वथा अपरिचित चीज कहा था।

इसी तरह सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों में जजों की नियुक्ति की फाइलें क़ानून मंत्रालय में अटकी होने पर जब सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते कहा था कि सरकार उसे ऐसा कोई कदम उठाने के लिए मजबूर न करे, जिससे परेशानी हो, तो रिजिजू ने फाइलें निबटाने के बजाय जुबान लडाने के अंदाज में कहा कि यहां कोई किसी को चेतावनी नहीं दे सकता। इसी साल 27अप्रैल को समलैंगिक शादी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई को लेकर भी उन्होंने न्यायपालिका को चुनौती देने के अंदाज में कहा था कि शादी जैसे मामले अदालतों के मंच पर नहीं निबट सकते। एक टीवी कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि शादी जैसे मामलों पर फैसला लोगों को करना होता है और लोगों की इच्छा संसद या विधानसभाओं में दिखती है। इसलिए इस मामले में फैसला लेने का काम संसद पर छोड़ दिया जाना चाहिए।

इतना ही नहीं, इससे पहले एक अन्य मीडिया समूह के कार्यक्रम में तो वे इतना आगे बढ़ गए थे और यहां तक कह दिया था कि कुछ सेवानिवृत्त जज भारत विरोधी गैंग का हिस्सा बन गए हैं और उनकी कोशिश रहती है कि भारतीय न्यायपालिका विपक्ष की भूमिका निभाए। ऐसे लोगों को कीमत चुकानी होगी। उनके इस बयान पर सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्टों के 300 से ज्यादा वरिष्ठ वकीलों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि क़ानून मंत्री को अपना दादागिरी भरा बयान वापस लेना चाहिए। 

कुल मिला कर क़ानून मंत्री की हैसियत से न्यायपालिका के खिलाफ उनकी आक्रामक बयानबाजी से संदेश यही जा रहा था कि वे जो कुछ भी कह रहे और कर रहे हैं उसे सरकार के शीर्ष नेतृत्व की भी सहमति प्राप्त है, यानी सरकार न्यायपालिका से दो-दो हाथ करने के मूड में है या वह सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बना कर उसे अपने अनुकूल बनाना चाहती है।

वैसे न्यायपालिका खास कर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ इस तरह की बयानबाजी करने वाले किरेन रिजिजू इस सरकार के कोई पहले मंत्री नहीं हैं। उनसे पहले गृह मंत्री अमित शाह और क़ानून मंत्री रहे रविशंकर प्रसाद भी सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने के लिए नसीहत भरे बयान दे चुके हैं। केरल के सबरीमाला स्थित अयप्पा मंदिर में महिलाओं मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ जब सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट फैसला दिया था तो गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि अदालतें किसी भी मामले में फैसला देते वक्त व्यावहारिक रुख अपनाए और वैसे ही फैसले दें, जिन पर अमल किया जा सके (27 अक्टूबर 2018)।

इसी तरह अक्टूबर 2015 में जब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जजों की नियुक्ति के लिए बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 2014 को असंवैधानिक करार देते हुए उसे अमान्य कर दिया था तब तत्कालीन संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को संसद की संप्रभुता पर हमला करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट को अपनी सीमा में रहने की नसीहत दी थी। 

बहरहाल प्रधानमंत्री ने क़ानून मंत्रालय से किरेन रिजिजू को हटा कर इस धारणा को तोड़ने की कोशिश की है कि सरकार न्यायपालिका से टकराव के रास्ते पर आगे बढ़ रही है या उसकी नीयत जजों को नीचा दिखाने की है। प्रधानमंत्री का यह कदम एक तरह से परोक्ष रूप से उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को भी संकेत है कि वे न्यायपालिका के खिलाफ अनावश्यक और अनर्गल बयानबाजी से बचें। गौरतलब है कि उप राष्ट्रपति ने भी पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और वे हर किसी मंच से बिना किसी औपचारिक भूमिका और संदर्भ के सर्वोच्च अदालत को नीचा दिखाने वाले बयान दे रहे हैं। 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ के नाम से 50 साल पुराना मशर और ऐतिहासिक अदालती फैसला देश के संविधान की अभी तक की सबसे बड़ी व्याख्या माना जाता है, जिसे उप राष्ट्रपति धनखड़ लगातार चुनौती दे रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट को उसकी हदें बता रहे हैं। चूंकि वे दूसरे अन्य मामलों में भी सरकार के प्रवक्ता की तरह पेश आते हुए बयान देते आ रहे हैं, इसलिए यह माना जाना स्वाभाविक है कि वे सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बयानबाजी भी सरकार की शह पर कर रहे हैं। 

यह बात सही है कि आज सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश और दूसरे कई जज केंद्र सरकार को अपने उतने अनुकूल नहीं लग रहे होंगे, जितने कि कई पिछले बरसों में लगते रहे हैं। लेकिन यह भी स्वाभाविक है कि जब भी कोई अदालत देश-प्रदेश में सत्ता के गलत कामों के खिलाफ ईमानदार फैसले देती है, तो वह सत्ताविरोधी तो लगने लगती है। जब सत्ता निरंकुश और जनविरोधी हो जाए, और अदालत संवैधानिक की रोशनी में इंसाफ करे तो उस स्थिति में भी टकराव की संभावना बन जाती है। इस समय सर्वोच्च अदालत के साथ केंद्र सरकार के रिश्ते कमोबेश इसी तरह के चल रहे हैं। चूंकि संविधान में सरकार और न्यायपालिका की अलग-अलग भूमिकाएं निर्धारित हैं, इसलिए यह कतई जरूरी नहीं दोनों के बीच रिश्ते मधुर रहे लेकिन उनके बीच कड़वाहट भी नहीं होनी चाहिए। अभी सरकार की ओर से न्यायपालिका पर जो शाब्दिक हमले हो रहे थे, उसमें हमलावर का अहंकार तथा उसकी खीझ और बौखलाहट साफ नजर आ रही थी।

कुल मिला कर एक बहुत ही शर्मनाक स्थिति बनी हुई थी और जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा संवेदनशील जज ऐसे सरकारी रुख को लेकर अपने को आहत ही महसूस कर रहे होंगे। फिर भी ऐसे में जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और किरेन रिजिजू के बयानों को लेकर वरिष्ठ वकीलों की तरफ से एक जनहित याचिका लगाई गई कि इनके बयान अदालतों के लिए अपमानजनक और संविधान के खिलाफ भी हैं, तो पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने उस याचिका को खारिज किया और फिर उस फैसले के खिलाफ अपील को सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया। शीर्ष अदालत ने इस याचिका को खारिज करते हुए कोई कड़ी टिप्पणी भी नहीं की। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करके स्पष्ट कर दिया कि वह सरकार के साथ टकराव नहीं चाहता है।

बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी के लिए किरेन रिजिजू को हटा कर न्यायपालिका के प्रति सद्भाव दिखाना इसलिए भी जरूरी हो गया था कि हाल के कुछ सालों में कई मौकों पर जब-जब भी सरकार संकट से घिरी है, तब-तब सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से ही उसे राहत को राहत मिली है। हालांकि ऐसे फैसलों की आलोचना भी खूब हुई है और न्यायपालिका पर सरकार के दबाव में काम करने के आरोप भी लगे हैं। लेकिन सरकार और भाजपा ने खुद माना है कि न्यायपालिका ने ही कई मौकों पर प्रधानमंत्री मोदी की छवि और उनकी सरकार के फैसलों की रक्षा की है। 

इसी साल की शुरूआत में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पार्टी की वरिष्ठ नेता और केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ही बताया था कि कैसे न्यायपालिका ने मोदी सरकार की छवि बचाई। इस सिलसिले में उन्होंने कहा था कि चाहे राफेल विमान सौदे का मामला हो, नोटबंदी हो, नेताओं के खिलाफ ईडी और अन्य केंद्रीय एजेंसियों की जांच का मामला हो, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट हो या आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने का मामला हो, हर मामले में विपक्ष ने दुष्प्रचार किया लेकिन अदालत ने मोदी की छवि और उनके फैसलों को सुरक्षित रखा। सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले ऐसे भी हैं, जिनका जिक्र निर्मला सीतारमण ने अपने बयान में नहीं किया था लेकिन सब जानते हैं कि अयोध्या के बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि विवाद, तीन तलाक, पीएम केयर फंड, पेगासस जासूसी कांड आदि मामलों में शीर्ष अदालत के फैसले केंद्र सरकार की मंशा के मुताबिक ही आए थे। 

भाजपा की वरिष्ठ नेता और मोदी सरकार की वित्त मंत्री का न्यायपालिका को लेकर दिया गया यह बयान मामूली नहीं था। पता नहीं, न्यायपालिका ने उनके इस बयान को किस रूप में लिया होगा, क्योंकि इस बयान से न्यायपालिका की निष्पक्ष छवि तो मजबूत नहीं ही होती है, बल्कि प्रतिबद्ध न्यायपालिका की धारणा ही बनती है। इसलिए हैरानी की बात है कि खुद भाजपा के मुताबिक जिस न्यायपालिका ने विपक्ष के आरोपों से मोदी और उनकी सरकार की छवि बचाई, उसी पर मोदी सरकार के क़ानून मंत्री और अन्य मंत्री सबसे ज्यादा हमलावर क्यों रहे?

जो भी हो, फिलहाल तो प्रधानमंत्री ने अपने वाचाल क़ानून मंत्री को हटा कर यही संकेत दिया है कि वे न्यायपालिका से टकराव नहीं चाहते हैं। यह चुनावी साल है और उन्हें अहसास है कि सुप्रीम कोर्ट से अनावश्यक टकराव उन्हें राजनीतिक रूप से भारी पड़ सकता है।

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