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भुखमरी से मुकाबला करने में हमारी नाकामयाबी की वजह क्या है?

अनेक विशेषज्ञों ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत के खराब प्रदर्शन के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में जनभागीदारी का अभाव, निर्णयों के क्रियान्वयन में कोताही और कमजोर निगरानी प्रणाली को जिम्मेदार ठहराया है।
भुखमरी से मुकाबला करने में हमारी नाकामयाबी की वजह क्या है?
'प्रतीकात्मक तस्वीर' फोटो साभार: The Nation

हर साल की तरह इस साल भी अक्टूबर माह में ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रैंकिंग्स जारी की गईं और पिछले कुछ सालों की तरह हम सबसे निचली पायदानों पर रहे- वर्ष 2020 की रैंकिंग में हमारा स्थान 94 वाँ रहा और हम सीरियस हंगर केटेगरी में शामिल हैं।

पिछले कुछ वर्षों से यह भी देखा जा रहा है कि पिछड़े और कमजोर समझे जाने वाले हमारे पड़ोसी देश मानव विकास के आकलन के बुनियादी पैमानों और संधारणीय विकास के मानकों पर हमसे बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स कोई अपवाद नहीं था- हम श्रीलंका(64), नेपाल(73),बांग्लादेश(75) और पाकिस्तान(88) से पीछे रहे। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हमसे खराब प्रदर्शन करने वाले देश भी थे- सूडान, उत्तर कोरिया, रवांडा, नाइजीरिया, अफगानिस्तान, लेसोथो, सिएरा लियोन, लाइबेरिया, मोजांबिक, हैती, मेडागास्कर, तिमोर लिस्ट, चाड – यह सभी देश क्रमशः 94 वें से 107 वें स्थान पर काबिज हुए।

इस वर्ष यह आकलन 107 देशों हेतु ही किया गया था। रैंकिंग में हमारे कुछ अन्य साथी देशों के नाम इस प्रकार हैं- तंज़ानिया, बुरनिका फासो, कांगो, इथियोपिया और अंगोला जो 89-93 वें स्थान पर रहे। इनमें से प्रायः सभी देशों में तानाशाही है, स्थिर प्रजातंत्र तो बिल्कुल नहीं है।

इनमें से अनेक देश प्राकृतिक आपदाओं और युद्ध आदि भीषण परिस्थितियों से जूझते रहे हैं। इन देशों के बीच विश्व गुरु बनने का सपना संजोने वाले भारत का स्थान चौंकाता भी है और चिंतित भी करता है। भारत जिस चीन को आर्थिक-सामरिक प्रतिस्पर्धा में पछाड़ना चाहता है वह इस रैंकिंग में शीर्षस्थ देशों में सम्मिलित है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स चार आधारों का प्रयोग कर भूख का आकलन करता है- अल्प पोषण(अपर्याप्त कैलोरी ग्रहण करना), चाइल्ड वेस्टिंग(अपनी लंबाई की तुलना में कम वजन वाले एक्यूट अर्थात तीव्र अल्पपोषण के शिकार 5 वर्ष से कम आयु के शिशुओं का प्रतिशत), चाइल्ड स्टन्टिंग(अपनी उम्र के अनुसार कम लंबाई वाले क्रोनिक अर्थात जीर्ण अल्प पोषण के शिकार 5 वर्ष से कम आयु के शिशुओं का प्रतिशत) तथा  चाइल्ड मोर्टेलिटी (5 वर्ष से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु दर जिसके लिए अपर्याप्त पोषण और अस्वास्थ्यप्रद दशाएं उत्तरदायी होती हैं)।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स की गणना के लिए अल्प पोषण के आंकड़े वर्ष 2017-19 की अवधि के हैं, जबकि चाइल्ड वेस्टिंग और चाइल्ड स्टंटिंग के संबंधित विश्लेषण 2015 से 2019 की समय सीमा में उपलब्ध नवीनतम वर्ष के आंकड़ों को आधार बनाता है। चाइल्ड मोर्टेलिटी के परिकलन के लिए वर्ष 2018 के आंकड़ों को प्रयुक्त किया गया है। स्पष्ट है कि वर्ष 2020 का जीएचआई कोविड-19 के भुखमरी पर पड़ने वाले घातक और दूरगामी प्रभावों का आकलन नहीं करता।

भारत के परिप्रेक्ष्य में यह आंकड़े प्रधानमंत्री मोदी जी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के कामकाज पर आधारित हैं। जैसा कि सरकारें करती हैं- मोदी सरकार ने भी भारत के खराब प्रदर्शन पर चुप्पी साधे रखी और कोई विस्तृत नीतिगत अथवा समीक्षात्मक बयान सरकार की ओर से सामने नहीं आया। सरकार के समर्थन के लिए लालायित कुछ समाचार समूहों ने यह भी सुर्खी दी कि भारत की रैंकिंग पिछले वर्ष से बेहतर हुई है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स की गणना में प्रति वर्ष आंकड़ों की उपलब्धता के अनुसार आकलित देशों की संख्या बदलती रहती है। जब कम देश इस इंडेक्स में शामिल होते हैं तब हमारी रैंकिंग यह भ्रम पैदा करती है कि इसमें सुधार है किंतु देशों की संख्या बढ़ने के साथ ही यह भ्रम टूट जाता है। हम अंतिम से जरा ऊपर की कुछ पायदानों पर ही पाए जाते हैं।

भुखमरी और गरीबी की चर्चा के लिए साल में एक बार जारी होने वाले किसी इंडेक्स की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए यह तो हमारे विमर्श और नीति निर्धारण का केंद्र बिंदु होना चाहिए। आखिर भुखमरी से मुकाबला करने में हमारी नाकामयाबी की वजह क्या है? क्या हमारी नीतियां गलत हैं अथवा हमारी नीयत में खोट है? क्या पोषक आहार प्रदान करने वाली सरकारी योजनाओं से हम अपनी स्थिति में बदलाव ला सकते हैं? यह वे प्रश्न हैं जो पूछे जाने चाहिए।

अनेक विशेषज्ञों ने जीएचआई में भारत के खराब प्रदर्शन के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में जनभागीदारी के अभाव, निर्णयों के क्रियान्वयन में कोताही और कमजोर निगरानी प्रणाली को जिम्मेदार ठहराया है। इन विशेषज्ञों का यह मानना है कि कुपोषण और भूख से निपटने के हमारे प्रयासों में सामंजस्य का अभाव है और अलग अलग एजेंसियां इस संबंध में बिना तालमेल के कार्य करती रहती हैं जिससे अपेक्षित परिणाम नहीं आता।

कुछ विशेषज्ञ उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में व्याप्त पिछड़ेपन को राष्ट्रीय औसत के बिगड़ने के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं। हमें विचार करना होगा कि क्या यह कारण हमारी असफलता के समग्र मूल्यांकन हेतु पर्याप्त हैं?

जर्मनी के एक संगठन वेल्ट हंगर हिल्फे का आकलन है कि भारतीय समाज में महिलाओं, आदिवासियों और दलित समुदाय की उपेक्षा जब तक होती रहेगी, उनकी दयनीय स्थिति बनी रहेगी तब तक भुखमरी खत्म करने के हमारे प्रयास कामयाब नहीं हो सकते।

भूख और गरीबी की समस्या का समाधान लैंगिक असमानता, जातिगत गैर बराबरी और अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन जैसे बुनियादी मुद्दों को दरकिनार कर नहीं किया जा सकता। सबका साथ सबका विकास- जैसे नारों का उपयोग तब शोषणमूलक व्यवस्था की रक्षा के लिए होने लगता है जब हम इनकी ओट में वंचितों हेतु किए गए प्रावधानों को नीति और क्रियान्वयन के स्तर पर उपेक्षित और कमजोर करने लगते हैं।

अवसरों की समानता का सिद्धांत आकर्षक जरूर लगता है किंतु इसे समर्थ वर्गों के वर्चस्व को न्यायोचित ठहराने की रणनीति के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए। जब समाज के विभिन्न वर्गों के आर्थिक-सामाजिक विकास में जमीन आसमान का अंतर हो तब हमें कमजोर और दबे कुचले लोगों को अपनी प्राथमिकता में सर्वोपरि रखना होगा तथा निर्भीक और निस्संकोच होकर इन्हें सत्ता और समाज के संचालन में केंद्रीय स्थिति प्रदान करनी होगी।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का दयनीय प्रदर्शन केवल एक आंकिक असफलता नहीं है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि हम देश की आधी आबादी को पोषण और स्वास्थ्यप्रद जीवन दशाएं प्रदान करने में नाकाम रहे हैं- तमाम योजनाओं के बावजूद महिलाओं में कुपोषण और रक्ताल्पता की स्थिति चिंताजनक है, मातृत्व सुरक्षा एवं सुरक्षित प्रसव तथा शिशु स्वास्थ्य के मुद्दे पर हमारी सफलताएं नगण्य हैं।

जीएचआई यह भी दर्शाता है कि हम देश की आने वाली पीढ़ियों को एक असुरक्षित भविष्य की ओर धकेल रहे हैं। अपने कमजोर शरीर और अविकसित मस्तिष्क के साथ उन्हें आने वाली कठिन चुनौतियों का मुकाबला करना होगा। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा किए गए रैपिड सर्वे ऑन चिल्ड्रन 2013-14 में यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि सामान्य वर्ग की तुलना में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के शिशुओं में स्टन्टिंग, वेस्टिंग और कम वजन के मामले कहीं ज्यादा हैं और अनुसूचित जनजाति के शिशुओं में तो इनकी दर सर्वाधिक है।

प्रधानमंत्री अपने भाषणों में निरंतर उन उपायों का जिक्र करते रहे हैं जो उनकी दृष्टि में महिला सशक्तिकरण के लिए मील का पत्थर सिद्ध होंगे। 22 करोड़ महिलाओं के जनधन खाते खोलना, मुद्रा योजना के अधीन महिलाओं को आसान ऋण उपलब्ध कराना, 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान, उज्ज्वला योजना के तहत महिलाओं को गैस कनेक्शन देना, घरों में शौचालय बनवाना जैसे प्रयास मोदी जी की दृष्टि में गेम चेंजर सिद्ध होंगे। किंतु सरकारी दावों और जमीनी हकीकत में बहुत फर्क है।

वर्ष 2019 का जेंडर गैप इंडेक्स कुछ अलग ही स्थिति बयान करता है। भारत इसमें 4 स्थानों की गिरावट के साथ 153 देशों के मध्य 112 वें स्थान पर है। इंडेक्स जिन चार आधारों का उपयोग करता है उनमें स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता में हम 150वें, आर्थिक अवसरों की उपलब्धता और भागीदारी में 149वें और शिक्षा की प्राप्ति के मामले में 112वें क्रम पर हैं।

केवल राजनीतिक भागीदारी के मामले में हम 18वें क्रम पर हैं और हमारा प्रदर्शन बेहतर है। यह आश्चर्यजनक है कि राजनीतिक सत्ता हासिल होने के बावजूद महिलाएं पितृसत्ता के चक्रव्यूह को भेदने में नाकाम रही हैं और पारंपरिक पितृसत्तात्मक सोच से संचालित हो रही हैं।

जबसे नगरीकरण हुआ है और गांवों से पुरुषों का काम के लिए पलायन प्रारंभ हुआ है तबसे ग्रामीण महिलाएं किसान की सक्रिय भूमिका में आ गई हैं और खेती तथा खेती से जुड़े धंधों में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रही हैं, इस प्रकार खाद्यान्न,फलों और सब्जियों के उत्पादन के कार्य में इनका अहम रोल होता है। खाद्य सामग्री को सुरक्षित रखना, खाने के लिए तैयार करना और पकाना तथा परिवार जनों को खिलाने का उत्तरदायित्व तो पहले ही महिलाओं पर रहा है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महिलाओं को कृषक, उत्पादक, उद्यमी और सेवा प्रदाता के रूप में जब तक वास्तविक अर्थों में स्वीकृति नहीं दी जाएगी तब तक भुखमरी से लड़ाई में कामयाबी नहीं मिलेगी। जनधन खातों में महिलाओं के नाम पर बहुत थोड़ी और नितांत अपर्याप्त राशि जमा करना या महिलाओं के नाम पर राशन कार्ड बनाना और गैस कनेक्शन जारी करना जैसे प्रयास प्रतीकात्मक हैं जब तक महिलाओं को भूमि और संपत्ति पर वास्तविक अर्थों में मालिकाना हक नहीं दिया जाता तब तक तस्वीर नहीं बदलेगी।

प्रधान मंत्री जिन प्रयासों का उल्लेख बड़े गर्व से कर रहे हैं, वे टोकनिज्म की रणनीति का हिस्सा हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य, स्वच्छता, शिक्षा आदि के मुद्दे अन्तर्सम्बन्धित भी हैं और आर्थिक आजादी तथा आत्मनिर्भरता पर सीधे सीधे निर्भर भी।  हम देख रहे हैं कि सरकार की अर्थनीतियों की नाकामयाबी के कारण करोड़ों रोजगार नष्ट हो रहे हैं और रोजगार गँवाने वालों में एक विशाल संख्या महिलाओं की है।

कोविड-19 के बाद हालात और भयानक हुए हैं। सरकार के कर्ता धर्ता जिस विचारधारा से प्रेरणा लेते हैं उसमें महिलाओं को स्वतंत्रता पितृसत्तात्मक धार्मिक व्यवस्था द्वारा खींची गई सीमा रेखाओं के भीतर ही मिल सकती है। उन्हें मर्जी से जीने की आजादी धर्म का विमर्श नहीं देता। स्वास्थ्य-स्वच्छता और पोषण का कोई भी अभियान आइसोलेशन में कामयाब नहीं हो सकता। सफलता के लिए होलिस्टिक एप्रोच आवश्यक है।

2011 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की आबादी हमारी कुल जनसंख्या के 8.6 प्रतिशत के बराबर अर्थात लगभग साढ़े दस करोड़ है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स जिन आधारों का प्रयोग कर भुखमरी का आकलन करता है उनके अनुसार आदिवासियों की स्थिति सबसे खराब है। जिन आदिवासी समुदायों और क्षेत्रों में अल्पपोषण और कुपोषण सर्वाधिक है वे अच्छी तरह चिह्नित हैं, प्रयास भी हो रहे हैं किंतु समस्या जस की तस है।

आदिवासी समुदायों की खाद्य आदतों के गहन अध्ययन, आदिवासी संस्कृति के सम्मान, आदिवासियों के आसपास के परिवेश और सन्निकट वनों में उपलब्ध प्राकृतिक कंद-मूलों के वैज्ञानिक अध्ययन और प्रयोग द्वारा आदिवासियों के कुपोषण से अधिक कारगर ढंग से निपटा जा सकता है।

वेल्ट हंगर हिल्फी झारखंड के जिन गांवों में भूख और कुपोषण मिटाने के लिए कार्य कर रहा है वहाँ उसने राइट्स बेस्ड एप्रोच से सफलता अर्जित की है, उसने ग्रामीण और आदिवासी समुदायों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराया है और प्रशासन तथा स्थानीय समुदाय को इन अधिकारों की पूर्ति हेतु इच्छुक और सक्षम बनाया है।

राइट्स बेस्ड एप्रोच अधिकारों और आर्थिक जीवन को समेकित रूप से एक इकाई के रूप में लेता है। वेल्ट हंगर हिल्फी के अनुसार कृषि, प्राकृतिक संसाधनों के रखरखाव, शिक्षा और आर्थिक विकास के बीच के रिश्तों को पहचान कर उन्हें मजबूती देने से ही कोई समुदाय खाद्य सुरक्षा और पोषण का लक्ष्य अर्जित कर सकता है।

आर्थिक सशक्तिकरण के लिए वेल्ट हंगर हिल्फी छोटे किसानों और उत्पादकों तथा अनाज के लघु और मध्यम खुदरा व्यापारियों के माध्यम से स्थानीय खाद्य सिस्टम को ताकत देने की रणनीति अपना रहा है। छोटे किसानों के सहकारी संगठनों को सहयोग देकर उन्हें आर्गेनिक प्रमाणीकरण हेतु प्रेरित किया जा रहा है और बेहतर भंडारण एवं प्रसंस्करण तथा मार्केटिंग द्वारा स्थानीय रिटेलर्स को उत्कृष्ट क्वालिटी का माल देने हेतु उन्हें सक्षम भी सक्षम बनाया जा रहा है।

यहाँ कुपोषण की समस्या का समाधान स्थानीय खाद्य व्यवहार और स्थानीय उत्पादों को आधार बनाकर तलाशा जा रहा है। जैसे जैसे स्थानीय समुदाय आर्थिक रूप से मजबूत हो रहे हैं वैसे वैसे वाश एक्टिविटीज(वाटर-सैनिटेशन-हाइजिन) को भी कामयाबी मिल रही है।

दुर्भाग्य से वर्तमान सरकार की नीतियां भूख और गरीबी की समस्या को स्थायी और जटिल बनाने की ओर अग्रसर हैं। आदिवासियों को उनके आवास से बेदखल किया जा रहा है। कोयले और अन्य खनिजों की अंधाधुंध माइनिंग को नियमित-नियंत्रित करने वाले सारे नियमों और प्रावधानों को अब अवरोध की संज्ञा दी जा रही है और इन्हें शिथिल कर प्रक्रिया को कॉर्पोरेट हितैषी बनाया जा रहा है।

वहीं सरकार के कृषि सुधारों के विषय में यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इनका दूरगामी प्रभाव खाद्य सुरक्षा को कमजोर करने वाला होगा। प्रभात पटनायक आदि विशेषज्ञों के अनुसार इन कृषि कानूनों के बाद खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।

देश में कृषि भूमि सीमित है, फसलों की उत्पादन वृद्धि में सहायक सिंचाई आदि सुविधाओं तथा कृषि तकनीकों में सुधार की भी एक सीमा है। इस अल्प और सीमित भूमि में ग्लोबल नार्थ(विकसित देशों की अर्थव्यवस्था एवं बाजार, ग्लोबल नार्थ एक भौगोलिक इकाई नहीं है) के उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए खाद्यान्नों के स्थान पर उन फसलों का उत्पादन किया जाएगा जो इन देशों में पैदा नहीं होतीं।

जब तक पीडीएस सिस्टम जारी है तब तक सरकार के लिए आवश्यक खाद्यान्न का स्टॉक बनाए रखने के लिए अनाजों की खरीद जरूरी होगी। किंतु बदलाव यह होगा कि वर्तमान में जो भी अनाज बिकने के लिए आता है उसे खरीदने की अब जो बाध्यता है, वह तब नहीं रहेगी।

सरकार पीडीएस को जारी रखने के लिए आवश्यक अनाज के अलावा अधिक अनाज खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगी। इसका परिणाम यह होगा कि कृषि भूमि का प्रयोग अब विकसित देशों की जरूरतों के अनुसार फसलें पैदा करने हेतु होने लगेगा।

विश्व व्यापार संगठन की दोहा में हुई बैठक से ही भारत पर यह दबाव बना हुआ है कि सरकार खाद्यान्न की सरकारी खरीद में कमी लाए किंतु किसानों और उपभोक्ताओं पर इसके विनाशक प्रभावों का अनुमान लगाकर हमारी सरकारें इसे अस्वीकार करती रही हैं। विकसित देश अपने यहाँ प्रचुरता में उत्पन्न होने वाले अनाजों के आयात के लिए भारत पर वर्षों से दबाव डालते रहे हैं।

1960 के दशक के मध्य में बिहार के दुर्भिक्ष के समय हमने अमेरिका के दबाव का अनुभव किया है और खाद्य उपनिवेशवाद के खतरों से हम वाकिफ हैं। यह तर्क कि नया भारत अब किसी देश से नहीं डरता, केवल सुनने में अच्छा लगता है। वास्तविकता यह है कि अनाज के बदले में जो फसलें लगाई जाएंगी उनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव दर्शाती हैं, इसी प्रकार के बदलाव विदेशी मुद्रा में भी देखे जाते हैं और इस बात की आशंका बनी रहेगी कि किसी आपात परिस्थिति में हमारे पास विदेशों से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं रहेगी।

आज हमारे पास विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार हैं किंतु आवश्यक नहीं कि यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी। विदेशों से अनाज खरीदने की रणनीति विदेशी मुद्रा भंडार के अभाव में कारगर नहीं होगी और विषम परिस्थितियों में करोड़ों देशवासियों पर भुखमरी का संकट आ सकता है। भारत जैसा विशाल देश जब अंतरराष्ट्रीय बाजार से बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने लगेगा तो स्वाभाविक रूप से कीमतों में उछाल आएगा।

जब कमजोर मानसून जैसे कारकों के प्रभाव से देश में खाद्यान्न उत्पादन कम होगा तब हमें ज्यादा कीमत चुका कर विदेशों से अनाज लेना होगा। इसी प्रकार जब भारत में अनाज के बदले लगाई गई वैकल्पिक फसलों की कीमत विश्व बाजार में गिर जाएगी तब लोगों की आमदनी इतनी कम हो सकती है कि उनके पास अनाज खरीदने के लिए धन न हो।

यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खाद्यान्न के बदले में लगाई जाने वाली निर्यात की फसलें कम लोगों को रोजगार देती हैं। जब लोगों का रोजगार छिनेगा तो उनकी आमदनी कम होगी और क्रय शक्ति के अभाव में वे भुखमरी की ओर अग्रसर होंगे। प्रभात पटनायक जैसे विशेषज्ञ यह मानते हैं कि भारत जैसे देश में भूमि के उपयोग पर सामाजिक नियंत्रण होना ही चाहिए। भूमि को बाजार की जरूरतों के हवाले करना विनाशकारी सिद्ध होगा। कोविड-19 के समय देश की जनता को भुखमरी से बचाने में हमारे विपुल खाद्यान्न भंडार ही सहायक रहे।

विशेषज्ञों का एक समूह यह विश्वास करता है कि खाद्य उत्पादों की बरबादी भुखमरी का एकमात्र नहीं तो एक प्रमुख कारण अवश्य है। इन विशेषज्ञों के अनुसार हमारे वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन का सात प्रतिशत और फलों तथा सब्जियों के सालाना उत्पाद का तीस प्रतिशत वेयर हाउस तथा कोल्ड स्टोर के अभाव में नष्ट हो जाता है। किंतु इन विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गए समाधान के अपने खतरे हैं- इनका मानना है कि खेती में कॉरपोरेट जगत का प्रवेश ही भंडारण और प्रसंस्करण के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास का एकमात्र जरिया है।

हमें यह प्रश्न अवश्य पूछना होगा कि क्या यह इंफ्रास्ट्रक्चर गरीबों की खाद्य सुरक्षा हेतु प्रयुक्त होगा अथवा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ के लिए इसका उपयोग होगा? कृषि में सहकारिता को एक असफल अवधारणा के रूप में खारिज करने की जल्दबाजी में हम सभी दिखते हैं।

देश का मिज़ाज कुछ इस तरह का हो गया है कि भूख, गरीबी और किसानी के विषय में चर्चा करना नकारात्मकता को बढ़ावा देना समझा जाने लगा है। इन विषयों पर न तो जनांदोलन हो रहे हैं न ही बौद्धिक विमर्श। ऐसी दशा में भुखमरी का स्थायी समाधान देने में सक्षम सहकारिता के विकल्प को चर्चा में लाना भी कठिन है।

सरकार यदि वास्तव में खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर है तो उसे खाद्य सुरक्षा कानून की कमियों को दूर करना होगा। यह कानून स्थानीय स्तर पर होने वाले खाद्य उत्पादन और खाद्य वितरण को आपस में नहीं जोड़ता है यदि ऐसा हो जाए तो यह और प्रभावी बन जाएगा।

मनरेगा जैसी योजनाएं भूख से लड़ाई में अत्यंत महत्वपूर्ण रही हैं किंतु सरकार इस योजना को लेकर प्रारंभ से ही अनिश्चित रवैया दिखाती रही है। प्रारंभ में प्रधानमंत्री इसे कांग्रेस की विफलताओं का जीता जागता स्मारक कहते रहे किंतु बहुत जल्दी ही उन्हें इसके महत्व और अपरिहार्यता का अनुभव हो गया।

कोविड-19 ने बालक-बालिकाओं को पोषक आहार प्रदान करने वाली एकीकृत बाल विकास योजना और मध्याह्न भोजन योजना आदि के क्रियान्वयन को बुरी तरह बाधित किया है। सरकार को इनके सुचारु संचालन या वैकल्पिक व्यवस्था के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करना चाहिए। ग्रामों से महानगरों की ओर पलायन करने वाले श्रमिकों का आसरा झुग्गी बस्तियां बनती हैं जहाँ वाश एक्टिविटीज की कल्पना करना भी दूभर है।

एक स्थान से दूसरे स्थान को आने जाने के कारण यह श्रमिक गृह राज्य और आश्रयदाता राज्य दोनों की अन्न और पोषक आहार प्रदान करने वाली योजनाओं के फायदे से वंचित रहते हैं और सोशल सिक्योरिटी नेट की सुरक्षा इन्हें नहीं मिल पाती। इन प्रवासी मजदूरों की संतानें भी प्रायः शिक्षा से वंचित होती हैं और शालाओं के माध्यम से वितरित होने वाले पोषक आहार का लाभ इन्हें नहीं मिल पाता। इनकी माताएं भी गर्भावस्था के दौरान होने वाली जांचों, प्रसवपूर्व और प्रसवोपरांत चिकित्सकीय सहायता के अभाव का सामना करती हैं।

कोविड-19 ने प्रवासी मजदूरों को भुखमरी की कगार पर ला खड़ा किया है। सरकार की ढेरों घोषणाओं और प्रावधानों के बावजूद इनकी दशा यथावत है और गृह प्रदेश में रोजगार के अभाव में इनका महानगरों को पलायन अनगढ़ और अनियंत्रित रूप से जारी है। अभी जब कोविड-19 के इलाज और टीके को लेकर अनिश्चितता है और आर्थिक गतिविधियां बार बार बाधित हो रही हैं तब इन करोड़ों प्रवासी मजदूरों पर भुखमरी का खतरा सर्वाधिक है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स ग्रहण की गई कैलोरीज की मात्रा और अल्पपोषण के आधार पर भूख की समस्या का आकलन करता है किंतु सरकार की गलत व जनविरोधी नीतियों तथा कोविड-19 के कारण बिगड़ते आर्थिक हालात तो यह इशारा कर रहे हैं कि हम पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, केरल और बिहार के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में पाई जाने वाली भयंकर भुखमरी जैसी स्थितियों का सामना देश भर में करने हेतु विवश हो सकते हैं जब लोगों को दो जून का भोजन भी नहीं मिल पाएगा।

(डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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