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MSP पर लड़ने के सिवा किसानों के पास रास्ता ही क्या है?

एक ओर किसान आंदोलन की नई हलचलों का दौर शुरू हो रहा है, दूसरी ओर उसके ख़िलाफ़ साज़िशों का जाल भी बुना जा रहा है।
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फाइल फोटो।

किसान नेता राकेश टिकैत ने केंद्र को चेतावनी दी है कि देश में जल्‍द ही एक और किसान आंदोलन शुरू हो सकता है। उन्होंने सरकार पर पिछले साल किए वादों को अब तक न निभाने का आरोप लगाते हुए किसानों से अगले आंदोलन के लिए तैयार रहने का आह्वान किया है।

टिकैत ने कहा, 'अभी हमने आंदोलन की कोई तारीख तय नहीं की है लेकिन हम जल्‍द ही इसे शुरू करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। हाल में सम्‍पन्‍न हुए विधानसभा चुनाव खत्म होते ही सरकार सब कुछ भूल गई है लेकिन किसानों को वे वादे नहीं भूले हैं। हम सरकार को फिर सब याद दिलाएंगे।"

पंजाब, हरियाणा में किसान-आंदोलन की सुगबुगाहट, यद्यपि अभी स्थानीय स्तर पर ही, शुरू हो चुकी है। विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत और मीडिया द्वारा गढ़े जा रहे मोदी की अपराजेयता के नित नए मिथकों के बीच किसान आंदोलन की जमीनी स्तर पर तेज होती हलचलें सुकून देने वाली हैं और हमारे लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत हैं।

ऐसा लगता है कि इन चुनावों के साथ किसानों की शिक्षा का भी एक और चरण पूरा हुआ। प्रचंड किसान-विरोधी और जनविरोधी शासन के बावजूद जिस तरह भाजपा की UP और उत्तराखंड में जीत हुई है, उससे किसान अब इस अनुभूति पर पहुंच रहे हैं कि चुनाव से मोदी-शाह की किसान-विरोधी भाजपा को हराने और राहत पाने की उम्मीद पालना व्यर्थ है। वे कह रहे हैं कि अंग्रेजों की तरह ये भी चुनाव से नहीं, लड़ाई से ही हटेंगे।

किसानों की यह अनुभूति गहरी हुई है कि उनकी ताकत और उम्मीद आंदोलन ही है। इसलिये अपने आंदोलन और जनसंघर्ष को तेज करने की जरुरत के प्रति अब वे और अधिक गम्भीर होते दिख रहे हैं।

5 अप्रैल को हरियाणा के हिसार जिले के नारनौंद में किसानों के अल्टीमेटम के बाद उपमख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला को अपनी रैली रद्द करनी पड़ी। जहाँ चौटाला की रैली होनी थी उसी अनाज मंडी में दसियों हजार किसानों ने महापंचायत करके उपमंडल कार्यालय तक मार्च किया। दरअसल सूंड़ी से खराब हुई फसलों के मुआवजे की मांग लेकर किसान 16 मार्च से ही तहसील मुख्यालय पर ताला लगाकर वहां धरना दे रहे थे, लेकिन जब सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी तब 30 मार्च को मिनी सेक्रेटेरियट पर प्रदर्शन करके किसानों ने दुष्यंत चौटाला को रैली रद्द करने की चेतावनी दी थी और अंततः सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा।

पंजाब के मुक्तसर जिले के लाम्बी ब्लॉक कार्यालय पर घेराव कर रहे कपास उत्पादक किसानों पर आधी रात में लाठीचार्ज हुआ, किसान यूनियन के नेताओं समेत 100 के आसपास किसानों के ख़िलाफ़ मुकदमा कायम हुआ। किसान कपास की फसल गुलाबी सूंड़ी ( pink bollworm ) द्वारा बड़े पैमाने पर बर्बाद होने पर लंबे समय से मुआवजे के लिए पिछले सितंबर से लड़ रहे हैं। लेकिन अब तक किसी को कोई मुआवजा नहीं मिला। 28 मार्च को BKU ( उग्राहाँ ) के नेतृत्व में किसानों ने अधिकारियों का घेराव किया और उन्हें वहां से निकलने नहीं दिया।

उनकी जायज मांगे पूरा करने की बजाय प्रशासन ने यह आरोप लगाकर कि उन्होंने अधिकारियों-कर्मचारियों को बंधक बना लिया, आधी रात में उनके ऊपर लाठीचार्ज किया, जिसमें यूनियन के अध्यक्ष गुरूपाल सिंह सिंघेवाला समेत अनेक किसान घायल हो गए।

गौरतलब है कि कांग्रेस और अकालियों के किसान-विरोधी कारनामों से ऊबे किसानों ने बड़ी उम्मीदों से आप पार्टी के लिए मतदान किया और प्रचंड बहुमत से हाल ही में उसकी सरकार बनवाई। किसानों पर लाठीचार्ज उन किसानों की आंख खोलने वाला था जिन्हें लगा था कि यह "किसाना दी सरकार " है ! घटना के बाद किसानों ने तहसील के बाहर पक्के धरने का एलान किया।

लेकिन हरियाणा और पंजाब में किसान-आंदोलन की बढ़ती हलचल के साथ ही किसानों के नए उभार और MSP की लड़ाई को रोकने के लिए सरकारी साजिशों का दौर भी शुरू हो गया है।

केंद्र सरकार ने फरवरी और मार्च में अपने दो फैसलों से चंडीगढ़ को लेकर कायम नाज़ुक status quo को disturb कर दिया है। दरअसल, पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 के तहत चंडीगढ़ पंजाब और हरियाणा दोनों की राजधानी के साथ साथ union territory भी है। बंटवारे की legacy के बतौर दोनों राज्यों के बीच चंडीगढ़ तथा SYL नहर परियोजना जैसे मुद्दों को लेकर दावे-प्रतिदावे और विवाद रहे हैं। पर लंबे समय से इन संवेदनशील प्रश्नों पर यथास्थिति बनी हुई है, इसमें दोनों राज्यों की जनता, विशेषकर किसान आंदोलन से बनी संघर्षशील एकता का विशेष योगदान रहा है।

लेकिन अपने शरारतपूर्ण फैसलों से केंद्र सरकार उस नाजुक सन्तुलन के साथ छेड़छाड़ कर विभाजनकारी एजेंडा को उभारना चाह रही है। दरअसल केंद्र ने भाखड़ा ब्यास मैनेजमेंट बोर्ड ( BBMB ) के सदस्यों और चंडीगढ़ प्रशासन के कर्मचारियों के सम्बंध में जो फैसले लिए हैं, इससे चंडीगढ़ पर केंद्र के अधिकार-क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई है और पंजाब व हरियाणा के अधिकार में कटौती होती है।

इस पर react करते हुए पंजाब की आप पार्टी की सरकार ने चंडीगढ़ पर पंजाब के exclusive दावे का पुराना राग फिर छेड़ दिया है और विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इस आशय का प्रस्ताव पास किया है। जवाब में हरियाणा सरकार ने भी विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर चंडीगढ़ पर अपनी दावेदारी सम्बन्धी प्रस्ताव पास किया है। दोनों ओर से provocative बयानबाजी शुरू हो गयी है।

आखिर ये दोनों सरकारें पंजाब-हरियाणा के बीच आपसी तनाव बढ़ाने वाले मुद्दे उठाने की बजाय केंद्र सरकार को क्यों नहीं घेरतीं कि वह अपने नए फैसले वापस ले जिससे दोनों राज्यों के अधिकारों में कटौती हो रही है ?

जाहिर है इस मुद्दे को हवा दे कर आने वाले दिनों में दोनों राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने और किसान आंदोलन की एकता को तोड़ने तथा किसान सवाल से भटकाने ( diversion ) की कोशिश हो सकती है। भाजपा तो इस खेल के केंद्र में है ही, पंजाब-हरियाणा की सरकारें और तमाम राजनीतिक दल भी इसमें कूदने में पीछे नहीं रहेंगे।

यह नया development संयुक्त किसान मोर्चा नेतृत्व से सतर्कता और अभी से जरूरी पहल की मांग करता है।

यह तो पहले दिन से ही स्पष्ट था कि मोदी सरकार MSP के सवाल पर कत्तई ईमानदार नहीं थी और उसने केवल किसान आन्दोलन को खत्म कराने और दिल्ली बॉर्डर से उठाने के लिए एक ऐसी कमेटी बनाने की बात मान ली थी जिसमें कई अन्य मुद्दों के साथ MSP को प्रभावी बनाने की बात भी शामिल कर ली थी।

किसान नेताओं को सम्भवतः यह उम्मीद थी कि सरकार को उन्होंने MSP के सवाल पर engage कर लिया है, इस पर भविष्य में वे अपनी बात को आगे बढ़ा सकेंगे। पर चुनाव में मिली जीत के बाद मोदी सरकार और भी धृष्ट हो गयी है।

ऐसा लगता है कि सरकार किसान आंदोलन के दबाव से फिलहाल पूरी तरह मुक्त हो गयी है। MSP कमेटी के सवाल पर उसका लापरवाह रुख इसी का संकेत है। उसका कहना है कि किसान कमेटी में शामिल होने के लिए नाम नहीं दे रहे हैं। जबकि किसान नेता चाह रहे हैं कि सरकार कमेटी के terms of refrence स्पष्ट करे कि आखिर सरकार करना क्या चाह रही है ?

इस बीच कारपोरेट लाबी की ओर से कृषि-क्षेत्र में कारपोरेट सुधारों के लंबित एजेंडा पर फिर से आगे बढ़ने के लिए माहौल बनाया जा रहा है। कृषि-सुधार समर्थक किसान बुद्धिजीवी अनिल घनवट द्वारा सुप्रीम कोर्ट को सौंपी रिपोर्ट सार्वजनिक करके इसकी शुरुआत की जा चुकी है।

यह सब दरअसल MSP पर आने वाले दिनों में किसानों की संभावित गोलबंदी की धार को कुंद कर देने के लिए पेशबंदी है।

पर, किसानों के पास MSP को लेकर एक बड़ी लड़ाई में उतरने के अलावा और विकल्प ही क्या है ?

सुप्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ डॉ. देविंदर शर्मा पूछते हैं, " आखिर यह कैसे हो रहा है कि किसान survive करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं कृषि की पूरी सप्लाई चेन में जो दूसरे लोग हैं वे सब मालामाल हो रहे हैं। जो कारपोरेट कृषि में आ रहे हैं, e-platform, digital platform outlet हैं, उनके पास तो अथाह पैसा आ रहा है लेकिन किसान भूखे पेट सो रहे हैं। ऐसा केवल इसलिए हो रहा है कि एक exploitative बाजार अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र में चलाई जा रही है जो किसानों की आमदनी हजम कर जा रही है। जब तक इसे रोका नहीं जाएगा किसी भी तरह का technological निवेश किसानों को संकट से उबार नहीं पायेगा। यह किसानों की आँख में धूल झोंकने के लिए एक तरह की धोखे की टट्टी ( smokescreen ) है, ताकि जमीनी स्तर से धन का अबाध दोहन चलता रहे। "

वे कहते हैं, "कृषि क्षेत्र की बीमारी का मूल कारण यह है कि किसानों को तयशुदा न्यूनतम कीमत ( guaranteed minimum support price ) नहीं दी जा रही है। MSP की व्यवस्था द्वारा किसानों की लाभकारी आय सुनिश्चित करना कृषि-संकट से उबरने और ग्रामीण भारत में बदलाव की कुंजी है। "

आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि आगामी विधानसभा चुनावों और 2024 में क्या MSP बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनेगा और क्या किसान आंदोलन इस मूल सवाल पर वायदाखिलाफी के लिए मोदी सरकार को घेर पायेगा तथा विपक्षी दलों को इस पर commitment के लिए बाध्य कर पायेगा ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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