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कांग्रेस के चिंतन शिविर का क्या असर रहा? 3 मुख्य नेताओं ने छोड़ा पार्टी का साथ

कांग्रेस नेतृत्व ख़ासकर राहुल गांधी और उनके सिपहसलारों को यह क़तई नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई कई मजबूरियों के बावजूद सबसे मज़बूती से वामपंथी दलों के बाद क्षेत्रीय दलों ने लड़ी है और उन क्षेत्रीय दलों को नकारकर आज के दिन कोई भी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है।
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उदयपुर चिंतन शिविर से पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कई कमिटियों का गठन किया था और कमिटियों को भविष्य की योजनाओं के बारे में विस्तार से बताने का आग्रह किया गया था। मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में गठित हाई पावर राजनीतिक कमिटी ने अपने दस्तावेज में लिखा है, “….कांग्रेस को अपने संगठन की शक्ति के बल बूते के आधार पर हर जगह जमीनी पकड़ पैदा करनी है वहीं राष्ट्रीयता की भावना व प्रजातंत्र  की रक्षा हेतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सभी समान विचारधारा के दलों से संवाद व संपर्क स्थापित करने को कटिबद्ध है तथा राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरुप जरूरी गठबंधन के रास्ते खुले रखेगी।” लेकिन में 15 मई को राहुल गांधी ने अपने समापन भाषण में कहा, “...हमें जनता को बताना होगा कि क्षेत्रीय पार्टियों की कोई विचारधारा नहीं है, वे सिर्फ जाति की राजनीति करती हैं। इसलिए वे भाजपा को कभी हरा नहीं सकती हैं और यह काम सिर्फ कांग्रेस पार्टी ही कर सकती है।”

ऊपर के दोनों महत्वपूर्ण व्यक्तियों की विरोधाभासी बातों पर गौर करें। जिन्हें भविष्य की राजनैतिक दिशा पर दस्तावेज तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है वे राज्यसभा में पार्टी के नेता हैं, इससे पहले 2014 से 2019 तक पार्टी के लोकसभा के नेता थे। खड़गे दलित समुदाय से आते हैं इसलिए शायद समान विचारधारा वाली राजनीतिक दलों से गठबंधन करने के हिमायती हैं। जबकि दूसरा व्यक्ति पार्टी के पूर्व व भावी अध्यक्ष है जिनका सभी क्षेत्रीय दलों के बारे में मानना है कि वे पार्टियां जातिवाद के अलावा कुछ नहीं करती हैं और भाजपा को हरा ही नहीं सकती है। भाजपा को हराने का काम सिर्फ कांग्रेस कर सकती है। इसके अलावा पिछले मंडल की राजनीति के तीस वर्षों से अधिक समय पर गौर करें तो हम पाते हैं कि  राहुल गांधी का कांग्रेस पार्टी का बीजेपी को हराने का दावा सत्य से न सिर्फ दूर है बल्कि हास्यास्पद भी है। जहां बीजेपी सबसे ताकतवर है वह गोबरपट्टी  है जहां कमोबेश 230 के करीब लोकसभा की सीटें हैं। उनमें से तीन प्रदेशों बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में क्षेत्रीय दलों बीजेपी को कड़ी चुनौती दी है और हकीकत तो यही है कि उन्हीं प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों की चुनौती की वजह से बीजेपी एकछत्र रूप से सत्ता में नहीं आ पायी। दूसरी सच्चाई यह भी है कि उन्हीं प्रदेशों से कांग्रेस पार्टी सबसे पहले गायब हो गयी! और हिन्दीपट्टी के जिन प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी मुख्य प्रतिद्वंदी के रुप में मौजूद है खासकर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली-वहां कांग्रेस की क्या स्थति है? यह सही है कि छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस पार्टी  बीच-बीच में चुनाव जीत गई है लेकिन उन राज्यों में पार्टी संगठनों की क्या स्थिति है? 

कॉग्रेस पार्टी को सबसे पहले ‘बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेई’ के अंदाज में जातीयता और सांप्रदायिकता के एजेंडे को ठीक से सुलझाना होगा क्योंकि यही दो मसले हैं जहां पार्टी आजादी के 75 साल बाद भी स्पष्ट पोजीशन नहीं ले पाई है। कांग्रेस और राहुल गांधी को यह सोचना होगा कि किसी को सिर्फ जातिवादी कह देने से कांग्रेस पार्टी अपनी समस्या का समाधान नहीं खोज सकती है। अगर राहुल गांधी की उस बात को मान भी लिया जाए कि क्षेत्रीय दलों के पास बीजेपी से लड़ने का माद्दा नहीं है तो दूसरा सवाल तात्कालिक रुप से यह भी उठता है कि क्या कांग्रेस के पास भाजपा से लड़ने का माद्दा है? मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले आठ वर्षों में कांग्रेस ने अपना लगातार जनाधार खोया है जबकि यही बात सभी गैरभाजपा दलों के बारे में नहीं कहा जा सकता है! क्षेत्रीय दलों ने जाति को राजनीति का मुद्दा बनाकर बीजेपी से ठीक से लड़ाई लड़ी है, क्योंकि उन दलों की पूरी लड़ाई सामाजिक न्याय के इर्द-गिर्द थी। कांग्रेस पार्टी को बीजेपी से वहीं चुनौती मिली जिसका एकमात्र चैंपियन कांग्रेस पार्टी ही थी और वह था राष्ट्रवाद! बीजेपी ने कांग्रेस के राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से चुनौती दी जिसके बोझ तले कांग्रेस पार्टी पूरी तरह बिखर गई। आज कांग्रेस के पास बीजेपी के तथाकथित राष्ट्रवाद का कोई काट दिखाई नहीं पड़ता है जबकि सारी जटिलताओं के बावजूद बीजेपी सामाजिक न्याय (जिसे राहुल जातिवाद कहते हैं) को खारिज नहीं कर पा रही है!

जिस ढ़ंग से राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों को खारिज किया है, वह इस बात को भी साबित करता है कि उन्होंने न तो अतीत से कुछ सीखा है और न ही उनकी पार्टी या उनके पास भविष्य की कोई सोच या योजना है! राहुल गांधी द्वारा क्षेत्रीय दलों को जातिवादी कहना इस बात का प्रमाण है कि आनेवाले दिनों में भी उनकी पार्टी जाति या दलित प्रश्न को गंभीरतापूर्वक नहीं लेने जा रही है। सामाजिक न्याय की लड़ाई पूरे गोबरपट्टी में सामाजिक प्रतिष्ठा की भी लड़ाई थी और आज भी है लेकिन कांग्रेस पार्टी उसे समझना ही नहीं चाह रही है। मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपनी राजनीतिक रिपोर्ट में भले ही इस बात को दुहराया है कि “संवैधानिक अधिकारों पर आक्रमण का पहला आघात देश के दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं व गरीबों को पहुंचा है” लेकिन व्यवहारिक रुप से राहुल गांधी अपनी ही पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य को खारिज कर देते हैं। 

राहुल गांधी और उनके सलाहकारों को शायद इतिहास ठीक से पता नहीं है या फिर उन्होंने जानबूझकर उसे मानने से इंकार किया है कि जाति और सांप्रदायिकता पर कांग्रेस पार्टी का आजादी के बाद से ही सबसे लचर रुख रहा है। हकीतक तो यह है कि जाति के सवाल को कांग्रेस पार्टी ने कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। इसलिए उस काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ पंडित नेहरू खुद खड़े हो गए जिसका गठन उन्होंने ही किया था। उसी तरह जनता पार्टी के समय गठित मंडल कमीशन की रिपोर्ट श्रीमती इंदिरा गांधी को सौंपी गयी लेकिन कांग्रेस के दस साल सत्ता में रहने के बावजदू वह धूल खाती रही, जिसे वी पी सिंह की नेतृत्ववाली जनता दल की सरकार ने लागू किया। मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने के खिलाफ राजीव गांधी का संसद में दिया गया देढ़ घंटे से भी लंबा भाषण वह दस्तावेज है जो पिछड़ों को कांग्रेस के करीब आने से आज भी रोकता है। 

क्या राहुल गांधी को इन बातों का ख्याल नहीं रखना चाहिए था कि पूरे देश में क्षेत्रीय पार्टियों (जिसे वह जातिवादी कहते हैं) का गठन कांग्रेस के सवर्ण नेतृत्व व सवर्णवादी सोच के कारण हुआ था जिसमें दलित व पिछड़े वर्गों का नाममात्र का प्रतिनिधित्व था। तब के 22 राज्यों में से 13-14 के मुख्यमंत्री सवर्ण होते थे जिसमें 11 तो सिर्फ ब्राह्मण थे जिसमें पूर्वोत्तर के 7 राज्य शामिल नहीं है। इसलिए राहुल गांधी द्वारा क्षेत्रीय दलों को जातिवादी कहकर खारिज करना उन पार्टियों के पूरे संघर्ष को न केवल कम करता है, बल्कि सामाजिक न्याय की पूरी अवधारणा को ही खारिज करता है। इसके साथ-साथ पेरियार, कर्पूरी ठाकुर, रामस्वरूप वर्मा, कांशीराम, जगदेव प्रसाद, लालू यादव व शीबू सोरेन जैसे नेताओं के संघर्ष और विरासत को भी नीचा दिखाता है।

सांप्रदायिकता से लड़ने में भी कांग्रेस पार्टी की भूमिका काफी हद तक संदेहास्पद रहा है। हां यह सही है कि कांग्रेस पार्टी सैद्धांतिक रुप से सांप्रदायिक नहीं रही है लेकिन इसका सांप्रदायिकता का सबसे अधिक इस्तेमाल बीजेपी के बाद कांग्रेस ने ही किया है। कांग्रेस के शासनकाल में ही आजादी के तुरंत बाद जब जी बी पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो बाबरी मस्जिद में प्रतिमा रखी गई थी, कांग्रेस के शासनकाल में ही पूरे उत्तर भारत खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में लगातार दंगे होते रहे और दंगाइयों पर कोई बड़ी कार्यवाई नहीं हुई, 1984 में दिल्ली में सिखों के इतने बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया, शाहबानों के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदला गया, बाबरी मस्जिद के ताले खोले गए। और तो और, 1989 में राजीव गांधी ने अपने चुनाव अभियान की शुरूआत अयोध्या में “रामराज्य” लाने के वायदे से की! 

इसी तरह, अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के साथ भेदभाव की कहानी तो बहुत ही पुरानी है। आजादी के समय से ही मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव होना शुरू हो गया था। इसका स्पष्ट विवरण मशहूर राजनीति वैज्ञानिक पॉल आर.ब्रास ने  अपनी किताब में विस्तार से किया है। दो भागों में लिखी चरण सिंह की जीवनी ‘एन इंडियन पोलिटिकल लाइफ’ के  पहले भाग में पॉल ब्रास बताते हैं कि जब देश आजाद हुआ तो उत्तर प्रदेश के पुलिस-प्रशासन में मुसलमानों की भागीदारी  जनसंख्या के अनुपात से अधिक थी लेकिन कांग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने वैसी नीति बनाई जिसमें  मुसलमानों की संख्या घटने लगी, जिसमें तत्कालीन गृहमंत्री रफी अहमद किदवई ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।पॉल ब्रास के अनुसार, पंडित पंत की नीति का ही यह परिणाम था कि आने वाली आधी शताब्दी तक मुसलमानों की  भागीदारी उत्तर प्रदेश की सरकारी सेवाओं और पुलिस में लगातार कम होती चली गयी  और  वह 28 फीसदी से घटकर 8 फीसदी रह गई।

इसी तरह अक्षय मुकुल ने अपनी मशहूर किताब ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ में लिखा है कि किस तरह जी बी पंत (1955-61) ने देश के गृह मंत्री बनने के दौरान गीता प्रेस के संस्थापक व कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी हनुमान प्रसाद पोद्दार को भारत रत्न देने की अनुशंशा की थी। हालांकि पोद्दार ने भारतरत्न लेना अस्वीकार कर दिया था। पोद्दार के भारतरत्न अस्वीकार करने के बाद पंत ने अपनी भावना को कुछ इस तरह व्यक्त किया था, “आप इतने महान हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष को क्या, सारी मानवी दुनिया को इसके लिए गर्व होना चाहिए। मैं आपके स्वरुप के महत्व को न समझकर ही आपको भारतरत्न की उपाधि देकर सम्मानित करना चाहता था। आप इस उपाधि से बहुत ऊंचे स्तर पर हैं।”

केन्द्रीय गृह मंत्री पंत के पत्र से अनुमान लगाया जा सकता है कि जो व्यक्ति हिन्दू राष्ट्र के इतने बड़े चाहनेवाले को भारत रत्न से नवाजना चाहता हो, जो व्यक्ति मुसलमानों को सरकारी सेवा में न सिर्फ आने से रोक रहा हो बल्कि उन्हें नौकरी से बाहर निकाल रहा हो, उनके मन में मुसलमानों के प्रति कितना अधिक विद्वेष रहा होगा? यह सही है कि कांग्रेस पार्टी का शिखर नेतृत्व ऐसा नहीं था लेकिन दस बड़े नेताओं में से पांच-छह नेताओं की राजनीति तो हिन्दुत्व के इर्द-गिर्द ही घुमती रहती थी। और दुर्भाग्य से जी बी पंत उन कुछ बड़े नेताओं में शामिल थे! 

उदयपुर में कांग्रेस ने अपने आर्थिक योजना के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बात कही, “उदारीकरण के 30 वर्षों के बाद तथा घरेलू व वैश्विक परिस्थितियों का संज्ञान लेते हुए स्वाभाविक तौर से आर्थिक नीति में बदलाव की आवश्यकता जरूरी है। इस ‘नव संकल्प आर्थिक नीति’ का केंद्र बिंदु रोजगार सृजन हो। आज के भारत में ‘जॉबलेस ग्रोथ’ का कोई स्थान नहीं हो सकता।.... नव संकल्प आर्थिक नीति के लिए अनिवार्य है कि वह देश में फैली अत्यधिक गरीबी, भुखमरी, चिंताजनक कुपोषण (खासतौर से महिलाओं व बच्चों में) व भीषणतम आर्थिक असमानता का निराकरण कर सके।....कांग्रेस इस अंधाधुंध निजीकरण का घोर विरोध करेगी।....कांग्रेस पार्टी का मानना है कि जनकल्याण ही आर्थिक नीति का सही आधार हो सकता है। भारत जैसे तरक्कीशील देश में जनकल्याण नीतियों से आम जनमानस के लिए रोजगार सृजन व आय के साधन बढ़ाना अनिवार्य व स्वाभाविक है।”

कांग्रेस अगर नई आर्थिक नीति में बदलाव की बात कर रही है तो यह बहुत ही सकारात्मक बात है क्योंकि देश की बदहाली में इस आर्थिक नीति की बहुत ही नकारात्मक भूमिका रही है। लेकिन इसमें सबसे मार्के की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने इस बात को उस पी चिदंबरम के मुंह से कहलवाया है जो नई आर्थिक नीति के तिकड़ी मनमोहन व मोटेंक के साथ का एक हिस्सा रहा है। अगर पी चिदबंरम को सचमुच लगता है कि उस नीति में बदलाव की जरूरत है तो यह स्वागत योग्य कदम है।

लेकिन कांग्रेस नेतृत्व खासकर राहुल गांधी और उनके सिपहसलारों को यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई कई मजबूरियों के बावजूद सबसे मजबूती से वामपंथी दलों के बाद क्षेत्रीय दलों ने लड़ी है और उन क्षेत्रीय दलों को नकारकर आज के दिन कोई भी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है।

(व्यक्त विचार निजी हैं।)

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