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जब खेती-किसानी घाटे का सौदा है तो भी इसे बाज़ार के हवाले क्यों नहीं करना चाहिए?

कृषि क्षेत्र को पूरी तरह कंपनियों के लिए खोल देने से छोटे और मझोले किसानों से भरे पड़े हिंदुस्तान की खेती किसानी से जुड़े किसान बर्बादी के रास्ते पर निकल पड़ेंगे।
जब खेती-किसानी घाटे का सौदा है तो भी इसे बाज़ार के हवाले क्यों नहीं करना चाहिए?
प्रतीकात्मक तस्वीर

खेती किसानी में भारत की आधी से अधिक आबादी लगी हुई है लेकिन भारत की कुल जीडीपी में इसका योगदान 16 से 17 फ़ीसदी के आसपास रहता है। भारत में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपये से ज्यादा नहीं हो पाती। यह 200 रुपये रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है।  2018 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की।

90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरि‍क्त दैनि‍क कमाई पर निर्भर हैं। ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषि‍ कामों से आती है। खेती से आय एक गैर कृषि‍ कामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है।

अगर खेती की स्थितियां इतनी बुरी हैं तो क्यों नहीं खेती का कॉरपोरेटाइजेशन कर दिया जाए? इसलिए सरकार द्वारा प्रस्तावित खेती किसानी से जुड़े तीन नए कानूनों पर जो विरोध हो रहा है, वह गलत विरोध है। सरकारी हस्तक्षेप से चलने वाली खेती किसानी घाटे का सौदा है, सरकार पर बोझ अधिक बढ़ रहा है, सरकार को इसे पूरी तरह से आजाद कर देना चाहिए। ऐसा तर्क सरकार की कृषि नीति का समर्थन किए जाने वालों की तरफ से दिया जा रहा है।

अपने सभी तरह के आग्रह पूर्वाग्रहों को छोड़कर अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो तर्क तो वाजिब है कि खेती घाटे का सौदा है लेकिन सवाल निष्कर्ष का है कि अगर खेती घाटे का सौदा है तो क्या खेती से सरकार को खुद को अलग कर लेना चाहिए? क्या किसी भी तरह के सरकारी हस्तक्षेप की खेती में जरूरत नहीं है? क्या खेती का कॉरपोरेटाइजेशन कर देना चाहिए?

इसका जवाब ढूंढने से पहले प्रस्थापना बना लेते हैं। हम सब एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जिसमें सबको काम मिले, काम का वाजिब दाम मिले, जीने लायक जिंदगी मिले और उस जिंदगी का बेहतर विकास होता रहे। इसे ही पाने की जद्दोजहद चलती रहती है। इस लिहाज से हम यह कह सकते हैं कि ठीक है ऐसा ही माहौल खेती किसानी में भी होना चाहिए।

खेती किसानी पर आने से पहले भारत में लागू किए गए उदारीकरण का हाल समझ लेते हैं। साल 1991 में नरसिम्हाराव सरकार ने बड़ी धूमधाम से भारतीय बाजार पर लगे कई तरह के सरकारी हस्तक्षेप को ढीला कर दिया। एक लिहाज से कहा जाए तो भारतीय बाजार को सरकारी कंट्रोल और रेगुलेशन से स्वतंत्र कर दिया।

तब से लेकर अब तक आर्थिक मसलों पर लिखने वाले तमाम विश्लेषकों ने उदारीकरण यानी लिबरलाइजेशन का जमकर पक्ष लिया है। इस पक्षपाती रवैया का फायदा यह हुआ है कि बहुत सारे लोगों के बीच यह बात फैल चुकी है कि लिबरलाइजेशन के बाद नौकरियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। जबकि सच्चाई यह है कि यह एक तरह की मिथक है।

आरबीआई के वार्षिक रोजगार बढ़ोतरी दर के आंकड़े बताते हैं यह दावा कि लिबरलाइजेशन के बाद नौकरियों में बढ़ोतरी हुई है, पूरी तरह से गलत है। साल 1981 से लेकर 1990 तक नौकरियों की बढ़ोतरी की वार्षिक वृद्धि दर 1.7 फ़ीसदी थी। साल 1991 से लेकर 2000 तक नौकरियों की बढ़ोतरी की वार्षिक वृद्धि दर 1.5 फ़ीसदी थी। साल 2000 से लेकर 2010 तक नौकरियों की बढ़ोतरी की वार्षिक वृद्धि दर 1.3 फ़ीसदी थी। और साल 2010 से लेकर 2016 के बीच नौकरियों की बढ़ोतरी की वार्षिक वृद्धि दर घटकर 0.7 फ़ीसदी के करीब पहुंच गई।

लेकिन आप सवाल यह भी पूछ सकते हैं कि साल 1991 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर में तो काफी बढ़ोतरी हुई है तब आखिरकार नौकरी कहां गई? लोगों को नौकरियां क्यों नहीं मिली? वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार औनिदों चक्रवर्ती कहते हैं कि थॉमस पिकेटी से लेकर कई अर्थशास्त्रियों ने यह दिखाया है कि साल 1980 से लेकर 2015 तक ऊपर की 1 फ़ीसदी सबसे अधिक अमीर आबादी की आय में 6 फ़ीसदी से लेकर 22 फ़ीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था की विकास दर में भले बढ़ोतरी हुई लेकिन धन का संकेंद्रण हुआ। जो पहले से अमीर थे वही और अधिक अमीर बनते चले गए।

इसका मतलब है कि लंबे दौर में एक गैर बराबरी वाले समाज में किसी क्षेत्र में किया हुआ लिबरलाइजेशन सब को फायदा नहीं पहुंचाता है। बल्कि गरीबों को और अधिक गरीब बनाता है। इसलिए भरपूर आशंका है कि कृषि जैसा खस्ताहाल क्षेत्र जब सरकार की हस्तक्षेप से पूरी तरह से आजाद होगा तब 2 हेक्टेयर से कम जमीन रखने वाले तकरीबन 86.2 फ़ीसदी किसानों की पहले से बुरी स्थिति और अधिक बुरी हो जाएगी।

अब हम थोड़ा उन देशों की तरफ भी देख लेते हैं जिन देशों ने बड़ी धूमधाम से खुले बाजार को अपनाया है। अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा दैनिक हिंदुस्तान में लिखते हैं कि अमेरिका में छह-सात दशक से खुला बाजार है। अभी हाल ही में अमेरिकी कृषि विभाग के एक अर्थशास्त्री ने कहा है कि अमेरिकी किसानों की आय तेज गिरावट की ओर है। इससे पता चलता है कि जो बाजार सुधार अमेरिका ने कृषि क्षेत्र में सात दशक पहले किया था, वह नाकाम साबित हो चुका है।

इस साल अमेरिका के किसानों पर 425 अरब डॉलर का कर्ज हो गया है। वहां ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर शहरों से 45 प्रतिशत ज्यादा है। यह वह देश है, जहां खुला बाजार है, जहां बड़ी कंपनियों के लिए कोई भंडार सीमा नहीं है। अनुबंध खेती और वायदा बाजार भी है। वहां एक देश एक बाजार ही नहीं, एक दुनिया एक बाजार है। वहां के किसान दुनिया में कहीं भी निर्यात कर सकते हैं, इसके बावजूद वहां कृषि पर संकट गंभीर है।

अगर हम यूरोप में देखें, तो फ्रांस में एक साल में 500 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अमेरिका में वर्ष 1970 से लेकर अभी तक 93 प्रतिशत डेयरी फार्म बंद हो चुके हैं। इंग्लैंड में तीन साल में 3,000 डेयरी फार्म बंद हुए हैं। अमेरिका, यूरोप और कनाडा में सिर्फ कृषि नहीं, बल्कि कृषि निर्यात भी सब्सिडी पर टिका है।

ताजा आंकड़ों के अनुसार, हर साल 246 अरब डॉलर की सब्सिडी अमीर देश अपने किसानों को देते हैं। बाजार अगर वहां कृषि की मदद करने की स्थिति में होता, तो इतनी सब्सिडी की जरूरत क्यों पड़ती? हमें सोचना चाहिए कि खुले बाजार का यह पश्चिमी मॉडल हमारे लिए कितना कारगर रहेगा? हमारे नौकरशाह पश्चिमी मॉडल का कट एंड पेस्ट कर कब तक कृषि को कमजोर करने वाली योजनाओं का मसौदा तैयार करते रहेंगे?

अंग्रेजी टीवी के मशहूर एंकर राजदीप सरदेसाई ने जब कृषि क्षेत्र के मशहूर पत्रकार पी साईनाथ से सवाल पूछा कि कृषि में काम करने वाले लोग अधिक हैं लेकिन कृषि से होने वाले आय बहुत कम है तो पी साईनाथ ने जवाब दिया कि इस महामारी के बाद एक बात तो साफ है कि यह सवाल बिल्कुल फिजूल है कि किसी क्षेत्र में स्टेट सपोर्ट होना चाहिए या नहीं। स्टेट की सपोर्ट की जरूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया की सबसे बड़ी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जैसे अमेरिका और यूरोपियन यूनियन में भी किसानी सरकार के सब्सिडी के मदद से चल रही है। यानी स्टेट के सहयोग की जरूरत है बिना इसके खेती किसानी को संभालना आसान नहीं होगा। साल 1991 से लेकर अब तक तकरीबन 5 करोड़ लोगों ने खेती किसानी छोड़ दी है। वजह सिर्फ यही है कि सरकार ने खेती किसानी को सुधारने की बजाय खेती किसानी को बर्बाद करने वाली नीतियों को तरजीह दी है। कॉरपोरेट मदर टेरेसा नहीं है कि मैं अपनी देखरेख में छोटे और मझोले किसानों पर ध्यान देंगे।

इस तरह से यह साफ है कि भारत की खेती किसानी से सरकारी हस्तक्षेप को हटाकर चलने वाली रास्ते को अपनाना बिल्कुल ठीक नहीं। अभी तक के अनुभव तो यही बता रहे हैं कि कृषि क्षेत्र को पूरी तरह खोल देने से छोटे और मझोले किसानों से भरे पड़े हिंदुस्तान के खेती किसानी को कोई फायदा नहीं होगा।

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