Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

रुपये की गिरावट का असर कहां-कहां पड़ रहा है ?

25 जून 2022 को रुपये की कीमत 78.25 रुपये प्रति डॉलर पर पहुंच चुकी है। यह अब तक का सबसे निचला स्तर है।  भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए रुपये की गिरावट कितनी ख़तरनाक है? इसे इस लेख में विस्तार से बताया गया है।  
rupee
Image courtesy : India Today

रुपया जबरदस्त गिरावट पर है। 25 जून 2022 को यह 78.25 रुपये प्रति डॉलर के अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। 25 जनवरी 2022 को विनिमय दर 74.17 रुपये प्रति डॉलर था।  उसके बाद से लेकर अब तक करीब 5.5 फीसदी की गिरावट हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर किसी भारतीय नागरिक ने जनवरी में एक हजार रुपये में विदेश से दवा खरीदी थी, तो उसे जून 2022 में उसी दवा को खरीदने के लिए 55 रुपये और चुकाने होंगे, भले ही उस दवा की कीमत में कोई वृद्धि न हुई हो। अगर किसी कंपनी ने अमेरिका के किसी बैंक से 1 लाख डॉलर उधार लिया होता, तो उसके कर्ज का मूल्य 5500 अमरीकी डॉलर या 4,30,375 रुपये बढ़ जाता।

तत्काल निहितार्थ यह है कि आयात की लागत बढ़ जाएगी, जिससे वस्तुओं की कीमत में और वृद्धि होगी जो कि कई अन्य कारणों से पहले से ही बढ़ रही है, जैसे पेट्रोलियम की कीमतों में यूक्रेन युद्ध के कारण वृद्धि, उर्वरक की कीमतों और परिवहन लागत में वृद्ध और परिणामस्वरूप खाद्य मुद्रास्फीति आदि।

मुद्रास्फीति में वृद्धि के चलते आरबीआई द्वारा ब्याज दरों में और वृद्धि होगी, जो इस वर्ष पहले ही दो बार बढ़ाई जा चुकी है। इससे निवेश और विकास को नुकसान भी होगा, जो पहले से ही मंदी के संकेत दे रहा है।

रुपये के मूल्य में गिरावट को रोकने और उलटने में सक्षम नहीं है आरबीआई

रुपये की विनिमय दर में बड़ी गिरावट को रोकने के लिए आरबीआई विदेशी मुद्रा बाजारों (forex markets) में हस्तक्षेप करने की बहुत कोशिश कर रहा है। वह बार-बार डॉलर बेच रहा है लेकिन अभी तक वह केवल रुपये को भारी गिरावट से बचाने में सक्षम रहा है, लेकिन वह इस प्रवृत्ति को रोकने या उलटने में सक्षम नहीं है। हालांकि इस प्रक्रिया में वह विदेशी मुद्रा भंडार को कम करता रहा है। 3 सितंबर 2021 को भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 642 बिलियन डॉलर था; 24 जून 2022 को यह घटकर 593 बिलियन डॉलर हो गया था। इसका मतलब है कि आरबीआई ने गिरते रुपये को सहारा देने के लिए पहले ही 49 अरब डॉलर का इस्तेमाल कर लिया था।

पूंजी उड़ान पहले से ही एक वास्तविकता बन चुकी है

एक और प्रतिकूल परिणाम यह है कि वित्त वर्ष 2022-23 में यानी इस वित्त वर्ष के पहले 3 महीनों में पहले से ही 5.8 बिलियन डॉलर के विदेशी पोर्टफोलियो निवेश का बहिर्वाह हुआ है। कोई आश्चर्य नहीं कि शेयर बाजारों में भी मुक्त गिरावट दिखती है।
 
बिगड़ता व्यापार संतुलन (trade balance) और भुगतान संतुलन (balance of payments)

सिद्धांत रूप में रुपये के मूल्य में गिरावट से निर्यात में वृद्धि होती है। लेकिन व्यवहार में यह पिछले एक साल में अधिक नहीं हो रहा है क्योंकि समग्र मुद्रास्फीति ने कुछ हद तक सस्ते रुपये के प्रभाव को बेअसर कर दिया है। निर्यात वृद्धि फरवरी 2022 में 25.1% से घटकर मार्च 2022 में 19.8% हो गई। इसके अलावा, यदि निर्यात में 43.8% की वृद्धि हुई, तो वित्त वर्ष 2022 में उच्च मूल्य पर आयात 55.1% बढ़ा। इसलिए वित्त वर्ष 2022 में व्यापार घाटा रिकॉर्ड 192.4 बिलियन डॉलर था!

व्यापार घाटे में लगातार वृद्धि क्यों हो रही है? रुपये के मूल्य में लगातार गिरावट इसके प्रमुख कारणों में से एक है, क्योंकि आयात महंगा होता जा रहा है। परिणामस्वरूप भुगतान संतुलन घाटा (balance of payments deficit) भी बढ़ रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों द्वारा भारत की रेटिंग नीचे आ जाएगी। नतीजतन विदेशी निवेश जो कि हाल के वर्षों में भारी वृद्धि दिखा रहा है, आगे और भी कम हो जाएगा और विकास को और भी अधिक नुकसान पहुंचाएगा।
 
 कॉर्पोरेट लाभ मार्जिन में क्षरण

सितंबर 2021 में इंडिया इंक. की विदेशी उधारी 23.28 बिलियन डॉलर थी और यह कर्ज 15 मई 2022 को बढ़कर 38.5 बिलियन डॉलर हो गया। रुपये के मूल्यह्रास ने इस वृद्धि में कम से कम 10% का योगदान दिया होगा और बाकी अतिरिक्त उधारी के ज़रिये हुआ। रुपये के मूल्य में और अधिक गिरावट हुई तो इस ऋण के ब्याज में तदनुसार वृद्धि होगी। इसलिए कॉरपोरेट मार्जिन घटेंगे और शेयर की कीमतों में गिरावट होगी।

बैंक ऑफ बड़ौदा के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय कॉर्पोरेट क्षेत्र (2108 कंपनियों का अध्ययन) का शुद्ध लाभ वित्त वर्ष 2019 में 4,54,385 करोड़ रुपये, वित्त वर्ष 2020 में 2,85,946 करोड़ रुपये, वित्त वर्ष 2021 में 5,47,986 करोड़ रुपये और FY22 में  8,63,399 करोड़ रुपये था। भारतीय कंपनियां वित्त वर्ष 2020 की मंदी और महामारी के प्रभाव से उबर चुकी हैं और वित्त वर्ष 2021 में ही महामारी के स्तर को पार कर ली हैं ।और, यही नहीं, वे पिछले वित्त वर्ष में 8.6 लाख करोड़ रुपये के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई हैं । भले ही हम निम्न आधार प्रभाव (low base effect) के कारण महामारी के बाद के वर्ष में असाधारण वृद्धि को छोड़ भी दें, वित्त वर्ष 2022 में भारतीय कॉर्पोरेट मुनाफे में 57% की वृद्धि हुई है। रेटिंग एजेंसी आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज का आंकलन है कि वित्त वर्ष 2023 में कॉरपोरेट्स के प्रॉफिट रेट में 15-30% की गिरावट आएगी।
 
शेयर बाजारों में उथल-पुथल

रुपये के मूल्य में गिरावट का असर शेयर बाजारों में गिरावट पर भी पड़ता है। पिछले एक साल में शेयर बाजारों में कई छोटे-छोटे क्रैश देखे जा रहे हैं। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज इंडेक्स सेंसेक्स अक्टूबर 2021 में 62,000 के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर था। आज, यह निवेशकों की संपत्ति के लगभग 50 लाख करोड़ रुपये का सफाया करते हुए 52,729 पर है। सेंसेक्स के समान, निफ्टी इंडेक्स (NIFTY INDEX) फरवरी 2022 में 17,300 पर था और 25 जून 2022 को यह 15,699 तक गिर गया है। मुद्रास्फीति में वृद्धि और कॉर्पोरेट मुनाफे में गिरावट शेयर बाजारों में गिरावट से निकटता से जुड़ा हुआ होता है, और ये सब अन्य कारणों के अलावा, काफी हद तक रुपये  के अवमूल्यन के कारण है।

निवेशकों की संपत्ति का नुकसान तो कहानी का केवल एक पक्ष है। प्रमोटर शेयर बाजार से नई पूंजी नहीं जुटा पा रहे हैं। सेबी (SEBI) के आंकड़ों के अनुसार, जहां 15 नए आईपीओज़ (नए शेयरों के शुरुआती सार्वजनिक प्रस्ताव) ने नवंबर 2021 में 35,000 करोड़ रुपये जुटाए, वहीं 10 आईपीओज़ मार्च 2022 में केवल 5000 करोड़ रुपये जुटा सके। एलआईओ आईपीओ, जो भारतीय शेयर बाजार के इतिहास में सबसे बड़ा आईपीओ है, सबसे बड़ा फ्लॉप साबित हुआ! अब सरकार का विनिवेश लक्ष्य अधर में है। भारतीय उद्योग ने न केवल शेयर बाजारों से अब तक 250 लाख करोड़ रुपये की पूंजी जुटाई थी, भारत सरकार के कुल राजस्व का 6.5% विनिवेश के माध्यम से शेयर बाजारों से जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। रुपये में गिरावट की वजह से दोनों को ही नुकसान होगा।

प्रतिकूल राजकोषीय प्रभाव

अंत में, राजकोषीय दृष्टि से, रुपये के मूल्य में गिरावट से आयात लागत (import cost)  में वृद्धि होगी, और इसलिए पेट्रोलियम उत्पादों, उर्वरकों पर सब्सिडी बिल, और अप्रत्यक्ष रूप से खाद्य सब्सिडी बिल भी वृद्धि होगी (क्योंकि खुले बाजार की कीमतों और पीडीएस की कीमतों के बीच अंतर बढ़ जाएगा)। कोयला आयात बिल बढ़ने से मौजूदा कोयला संकट भी गहराएगा।2022-23 के केंद्रीय बजट में सामाजिक क्षेत्रों के लिए आवंटन पहले ही प्रभावित हो गया था और अब तो कल्याण व्यय को और भी कम किया जाएगा।
 
बिगड़ता बाह्य वातावरण

यूक्रेन युद्ध के तत्काल प्रभाव से परे सामान्य वैश्विक आर्थिक परिदृश्य भी भारत के प्रतिकूल हो रहा है; यह घाव में नमक छिड़कने जैसा था। 2022 में वैश्विक मुद्रास्फीति बढ़कर 6.7 प्रतिशत होने का अनुमान है, जो 2010-2020 के दौरान दर्ज 2.9 प्रतिशत के औसत से दोगुना है। यूक्रेन युद्ध द्वारा प्रेरित तेल की कीमतों में वृद्धि से पहले ही अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर 40 सालों में सबसे उच्च स्तर- 7.9% तक पहुंच गई थी। युद्ध के बाद, मई 2022 में अमरीकी मुद्रास्फीति दर 8.6% थी। यूएस फेडरल रिजर्व ने 15 जून 2022 को ब्याज दरों में 0.75 प्रतिशत की वृद्धि की, जो इस वर्ष की तीसरी और 1994 के बाद सबसे बड़ी वृद्धि है। यह तात्कालिक संदर्भ में भारत से संस्थागत निवेश के बहिर्वाह (outflow) का एक कारण है। इससे उन भारतीय कंपनियों की कर्ज चुकाने की लागत (debt-servicing cost) बढ़ेगी, जिन्होंने विदेशों से (डॉलरों में) भारी कर्ज लिया है।

यूरोपीय संघ पहले से ही मंदी की स्थिति में है। 2020 के महामारी वर्ष के दौरान -5.9% की नकारात्मक वृद्धि के बाद 2021 में 5.4% के सकारात्मक रिबाउंड के बाद, वास्तविक यूरोपीय जीडीपी 2022 में 2.65% और 2013 में 1.6% बढ़ने का अनुमान है।

आईएमएफ का अनुमान है कि वैश्विक विकास 2021 में 6.1% से गिरकर 2022 में 3.6% हो जाएगा और यह 2023 में भी 3.6% के समान स्तर पर रहेगा। सेवाओं के निर्यात में $250 बिलियन और व्यापारिक निर्यात में $417.8 बिलियन की रिकॉर्ड उच्च वृद्धि और 2020-21 में महामारी की तबाही से वित्त वर्ष 2021-22 में भारतीय रिकवरी में 83.57 बिलियन डॉलर की समान रूप से रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज की गई है। नकारात्मक वैश्विक संकेतों को देखते हुए दोनों को बनाए रखना मुश्किल हो सकता है।

संक्षेप में कहें तो विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका सहित सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय और मौद्रिक सख्ती, यूरोपीय संघ में मंदी, और चीन में ताजा कोविड -19 उभार तथा लॉकडाउन की पृष्ठभूमि में मंदी, सभी संकेत दे रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बाहरी वातावरण बिगड़ता ही जाएगा। .यह मायने नहीं रखता कि वैश्विक आर्थिक संकट की 2009 की स्थिति जैसा हाल है या नहीं, उभरता वैश्विक आर्थिक परिदृश्य भारत में आम चुनावों से पहले के दो वर्षों में अनुकूल तो नहीं होने वाला है।

कीमतों में स्थिरता के लिए, मोदी सरकार और आरबीआई आने वाले दो वर्षों में विकास को त्यागने का विकल्प चुन सकते हैं। बेरोजगारी के परिदृश्य की बात करें तो इसका नतीजा अशुभ होगा। अग्निपथ को लेकर विस्फ़़ोटक स्थिति, हालांकि यह सेना की नौकरियों की तलाश में बेरोजगारों के एक छोटे से हिस्से से संबंधित है, व्यापक युवाओं के गुस्से को प्रतिबिंबित करता है और बेरोजगारी संकट के राजनीतिक परिणाम का संकेत देता है। यह भाजपा के युवा वोट को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। निश्चित रूप से मोदी के लिए आने वाला समय बुरा होगा।

उपरोक्त बातें अर्थव्यवस्था का अनुभवजन्य परिदृश्य (empirical scenario) दर्शाते हैं। ऐसे में क्या रुपया पहले ही अधोगति बिंदु पर पहुंच चुका है या इसमें और गिरावट आएगी? स्विस रेटिंग एजेंसी यूबीएस और जापानी नोमुरा के विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि इस साल नवंबर तक डॉलर-रुपये की विनिमय दर 81 रुपये प्रति डॉलर पर पहुंच जाएगी।

वैश्विक पूंजीवाद की विडंबनाओं में से एक यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में मुद्रास्फीति बढ़ने के कारण, यूएस फेडरल रिजर्व अमेरिका में ब्याज दरों में वृद्धि कर रहा है। चूंकि यूरोपीय संघ और चीन मंदी का सामना कर रहे हैं, अमेरिकी डॉलर उनके लिए ‘पार्किंग फंड्स’ की दृष्टि से एक सुरक्षित आश्रय स्थल बनेगा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी आने पर भी डॉलर का मूल्य ऊंचा रहेगा। दूसरी ओर भारत के लिए बाहरी बाजार सिकुड़ेंगे। लेकिन डॉलर का मूल्य जितना बढ़ेगा उतना ही रुपये में गिरावट आएगी। आज की वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था में, चढ़ते डॉलर द्वारा शासित विनिमय दर गतिविधि (exchange rate movements) ने विकासशील दुनिया के निर्यात को सस्ते से और सस्ता बना दिया है। इस नव-औपनिवेशिक समय में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं से शाही अर्थव्यवस्थाओं (imperial  economies) तक संसाधनों की निकासी शायद औपनिवेशिक दौर की प्रत्यक्ष लूट से कहीं अधिक है।

भारत ने नियंत्रित अस्थिर विनिमय दर तंत्र (controlled floating exchange rate mechanism) की नीति अपनाई है, जहां विनिमय दर आरबीआई हस्तक्षेप के अधीन बाजार की ताकतों द्वारा निर्धारित की जाएगी। परिणामस्वरूप मुद्रा में उतार-चढ़ाव केवल मुद्रा सट्टेबाजों के लिए वरदान साबित हुआ है, न कि निर्माताओं या उपभोक्ताओं के लिए। इसी तरह वैश्विक स्तर पर कमोडिटी स्पॉट मार्केट (commodity spot market) में ट्रेडिंग की दैनिक मात्रा और कमोडिटी फ्यूचर्स मार्केट (commodity futures market) में 2 ट्रिलियन डॉलर का वायदा कारोबार (forward trading) दुनिया की 35 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के संयुक्त निर्यात व आयात से 36 गुना अधिक है। इस तरह की विशाल वैश्विक अटकलें मुद्रा में उतार-चढ़ाव को भी बढ़ावा देती हैं।

हालांकि, आरबीआई के हस्तक्षेप की सीमाएं हैं। वर्तमान में, भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में आयात के 10 महीने का मूल्य है। लेकिन बाहरी वातावरण में कुछ अप्रत्याशित किस्म के चरम परिवर्तन इसे केवल 2-3 महीनों में आधा कर सकते हैं। सच है, भारत श्रीलंका नहीं है और भारतीय अर्थव्यवस्था कहीं से भी 1991 के परिदृश्य के नज़दीक नहीं है। लेकिन रुपये के मूल्य में लगातार गिरावट एक आपदा होगी और देश को अगले कुछ वर्षों में ऐसे परिदृश्य के करीब ले जा सकती है जो राजनीतिक रूप से संकटपूर्ण होगा ।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest