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कोरोना के आगे का रास्ता किधर से...

वह ज़मीन तैयार हो चुकी है जब सिर्फ आलोचकों को सबक़ सिखाने या उनका मुँह बंद करने की बस इच्छा ज़ाहिर करने की देर है...
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पटाखे जमकर फूटने के बाद भाजपा के कार्यकर्ता थोड़े डिफेंसिव होकर हमलावर हैं। इसे वे कुछ भक्तों का अतिउत्साह कह रहे हैं। नीचे जो तस्वीर मशाल हाथों में लिए झुंड में खड़े नेता की है वह भाजपा के विधायक हैं। यह भी उन्हीं कुछ में शामिल हैं। सोशल मीडिया पर कई पोस्ट आपने भी पढ़ी होगी कि "मोदी जी अगला टास्क टीका लगाने का मत दे देना, भक्त होली खेलने लगेंगे!"

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दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह ज़मीन तैयार हो चुकी है जब सिर्फ़ आलोचकों को सबक़ सिखाने या उनका मुँह बंद करने की बस इच्छा ज़ाहिर कर दी जाए तो खून की नदियां देशभर में बहने लगेंगी।

कोरोना वायरस की महामारी आर्थिक मंदी से गुजर रहे देश के संकट को एक तरफ और ऊंचाइयों पर ले जा रहा है, तो दूसरी तरफ फासीवादी जमीन भी तैयार की जा रही है। जनतंत्र में इनके पास ज्यादा विकल्प नहीं है। जनतांत्रिक विकल्प है तो वह है टैक्स की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन। कॉरपोरेट घरानों, उच्च आय से लेकर बड़े व्यवसायियों के ऊपर ज्यादा से ज्यादा टैक्स वसूली और सरकार द्वारा इन पैसों के द्वारा व्यापक सार्वजनिक निवेश। जिससे कि लोगों की खरीद क्षमता बढ़ सके। रोजगार मिल सके। पूंजीवादी व्यवस्था को भी बने रहने के लिए यह जरूरी है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था अपनी सीमा को पार कर चुका है। अमीर-गरीब के बीच की खाई अधिकतम स्तर पर है। मजदूर का हिस्सा अपने न्यूनतम स्तर पर पहुँच चुका है।

मुनाफे की खेती को उजाड़कर ही खेती पर आधारित श्रम को प्रवासी बनाने की पहली कोशिश सफल हुई। यहीं से नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने भारत मे अपनी जड़ जमानी शुरू कर दी। याद कीजिये डंकल। खाद और बिजली पर सब्सिडी खत्म करना। जेनेरिक बीज की शुरुआत। परिणाम था लागत का बढ़ना और घाटे की खेती। लोग गाँव छोड़कर शहर की तरफ पलायन करने को मजबूर हुए। यही प्रवासी मजदूर सस्ते श्रम का आधार बना। जिसकी मोलभाव की क्षमता नहीं थी। यही पहले नोटबन्दी और जीएसटी के कारण लाचार होकर पलायन के लिए मजबूर हुआ और फिर से आज वही कोरोना के कारण अचानक लॉकडाउन थोपे जाने के कारण पैदल गाँव की ओर सड़कों पर लाठियाँ-गालियाँ खाने के लिए मजबूर हुआ है।

बेरोजगारी का क्या आलम है इसे आप निर्माण के क्षेत्र में देख सकते हैं। खेती के बाद यही रोजगार देने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र रहा। यहीं सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूर काम करते थे। अब वह निर्माण क्षेत्र भी खत्म हो चुका। नवउदारवादी नीति के कारण पिछली तमाम सरकारों ने इसे प्राइवेट हाथों में सौंप कर सार्वजनिक बैंकिंग सिस्टम को ही तबाह करने का काम किया। इंफ्रास्ट्रक्चर का क्षेत्र पूरी तरह से सरकार ने प्राइवेट कंपनियों को सौंप दिया।

इन्हें बैंकों एवं फंडिंग एजेंसियों से भड़ी मात्रा में कर्ज दिलवाया। आज वह सब NPA में बदल गया है। कर्ज डूब गया। बैंक डूब गए। कभी इन बैंकों के शेयर को जबरन खरीद करवाकर तो कभी बैंकों का विलय कर इसे बचाने की असफल कोशिश लगातार जारी है। लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े जितने भी रोजगार थे वह भी इसके साथ ही डूब गए। रियल एस्टेट तबाही में है। इससे निर्भर मजदूर एवं कर्मियों की हालत आप अपने आसपास देख सकते हैं। BSNL और MTNL जैसे सरकारी कंपनियों की तबाही के बाद अब प्राइवेट कंपनियों की तबाही का दौर है। स्वास्थ्य और शिक्षा को भी करीब करीब प्राइवेट हाथों में ही सौंप दिया गया। आज वहाँ भी जबरदस्त संकट सामने है।

लेकिन अडानी-अम्बानियों जैसे कॉरपोरेट घरानों के आगे इन सरकारों की घिघ्घी बंध जाती है। सो उससे यह उम्मीद करना बेकार है। ऐसे में क्या होगा, यह हम आप सबको गंभीरता से सोचना समझना ही होगा।

यह जो फौज तैयार की जा रही है जो ताली, थाली से लेकर पटाखे फोड़ते हुए - दिए गए टास्क को बिना सवाल किए अंजाम से भी आगे ले जाने को तैयार है। इन्हें ही नए नए दुश्मनों की पहचान करवायी जाएगी। यही दुश्मनों का सफाया करने वाले स्वयंसेवक होंगे। इन्हें देशभक्ति का तमगा दिया जाएगा। क्योंकि जनतंत्र के अंदर पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जो वैचारिक ताकत एवं जनतंत्र के प्रति निष्ठा चाहिए वह इस सरकार में नहीं है। ऐसे में चीन, कम्युनिस्ट, प्रवासी मजदूर, आदि के रोज बदलते नैरेटिव को देखने और समझने की जरूरत है। इन्हें ही वर्तमान में भविष्य का दुश्मन बनना है। धारा 370, और कश्मीर/पाकिस्तान का आख्यान अब चुकने लगा है। सो अब चीन, कम्युनिस्ट और प्रवासी मजदूर के भावी दुश्मन की निर्मिती का समय है। यहीं अब आप सबसे ज्यादा वैचारिक निवेश पाएंगे।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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