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महामारी के दौरान मोदी सरकार ने क्यों की नक़दी राहत की अनदेखी

अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के मामले में बुज़दिली,लोगों को लेकर बेरहमी, मतदाताओं और विधायकों के साथ इसकी जोड़-तोड़ की कुटिलता ने मोदी सरकार को दुनिया की सबसे धुर दक्षिणपंथी सरकारों में से एक बना दिया है।
पूंजी
फ़ाइल फ़ोटो।

नरेंद्र मोदी सरकार को अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के मामले में विश्व की सबसे ज़्यादा बुज़दिल सरकार माना जाना चाहिए। उसी तरह,इसे देश के कामकाजी लोगों के मामले में भी दुनिया की सबसे ज़्यादा बेरहम सरकार माना जाना चाहिए। दोनों एक दूसरे के पहलू हैं; और इस महामारी के दौरान सरकार की आर्थिक नीति इसकी बुज़दिलीऔर बेरहमी, दोनों की पर्याप्त गवाही देती है।

सभी विकसित देशों की सरकारों ने अपने देश की उस आबादी को बड़े-बड़े राहत पैकेज दिये, जिनकी आय के स्रोत महामारी और इससे जुड़े लॉकडाउन के चलते ख़त्म हो गये थे। यहां तक कि डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी जीडीपी के 10% तक का वह पैकेज दिया, जिसमें कई महीनों तक हर परिवार के लिए दिये जाने वाला नक़दी हस्तांतरण शामिल था।

लेकिन, इसके उलट, भारत में विपक्षी दलों, अर्थशास्त्रियों, और नागरिक समाज संगठनों की तरफ़ से कई महीनों के लिए सभी ग़ैर-आयकर कर देने वाले परिवारों को प्रति माह 7,000 रुपये के नक़द हस्तांतरण देने की सर्वसंगत मांग किये जाने के बावजूद सरकार ने इस सिलसिले में भी कुछ नहीं किया। कुछ विशिष्ट लक्ष्य समूहों के लिए कुछ मामूली रक़म का वादा ज़रूर किया गया था, लेकिन ऐसा लगता है कि वह रक़म भी उन तक नहीं पहुंच पायी। महामारी के बीच में एक मोड़ ऐसा भी आया, जब पहले से काम कर रहे कर्मचारियों के एक चौथाई हिस्से ने ख़ुद को बिना काम के पाया और इसलिए उनके पास किसी भी तरह की कोई आय नहीं थी, फिर भी सरकार ने कोई उपाय नहीं किया।

इसके बावजूद, सरकार उन उपायों के बारे में सोचती रही, जो महज़ झूठ में लिपटे हुए थे और जिनका इस्तेमाल किया जा सकता था। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और इस्तेमाल नहीं की जा रही क्षमता, दोनों एक साथ मौजूद थी, और जिसका इस्तेमाल किया जा सकता था। एक समय तो ऐसा भी आया, जब खाद्यान्न का स्टॉक 100 मिलियन टन से भी ज़्यादा हो गया, जो कि उस "सामान्य" मात्रा से चार गुना ज़्यादा है,जिसे बनाये रखा जाना चाहिए; और इस अवधि में हाल के वर्षों में विदेशी मुद्रा भंडार में हुई सबसे उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी देखी गयी। जिस समय बेकार पड़े उपलब्ध संसाधनों की इस बड़ी मात्रा के साथ विशाल बेरोज़गारी और संकट साथ-साथ मुंह बाये खड़े थे, तब निश्चित ही तौर पर एक प्राथमिक "मुख्यधारा" के अध्ययन में बड़ी मात्रा में सरकारी ख़र्चों की सिफ़ारिश ज़रूर की होगी, लेकिन उन सिफ़ारिशों को लागू होना ही नहीं था।

मार्च के अंत में 477 बिलियन डॉलर से बढ़कर दिसंबर के आख़िर में 580 बिलियन डॉलर तक विदेशी मुद्रा भंडार में हुई बढ़ोत्तरी के पीछे का कारण विकसित देशों में पर्याप्त राहत पैकेजों का दिया जाना था। इन पैकेजों ने इन देशों में राजकोषीय घाटे की भयावहता को बढ़ा दिया; और ऐसी स्थिति में जहाँ ब्याज़ दरों को जानबूझकर कम रखा जा रहा था, इन घाटों को पर्याप्त मुद्रीकरण, यानी नये पैसे की छपाई के ज़रिये पूरा किया गया। इससे इन देशों के उस सिस्टम में तरलता यानी नक़दी का प्रवाह हुआ, जिसे उस समय पूरी दुनिया में मुनाफ़े की तलाश थी।

चूंकि भारत में ब्याज़ दरें आमतौर पर विकसित देशों की ब्याज़ दरों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा थीं, ऐसा इसलिए था, क्योंकि भारत में वित्तीय आमद थी, जो भारतीय रिज़र्व बैंक के पास विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोत्तरी के रूप आयी थी। यह ऐसा ही है, जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे विकसित पूंजीवादी देश दुनिया भर में तरलता पर ज़ोर देते रहे हैं। इसका इस्तेमाल भारत में सरकारी ख़र्च को बढ़ाने में किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया और इसके बजाय विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने पर जोर दिया गया।

हालांकि, सरकार के प्रवक्ता यह कहकर इसका विरोध करेंगे कि अगर इस वित्तीय आमद का इस्तेमाल विशाल राजकोषीय घाटे के ज़रिये घरेलू आय के विस्तार से निर्मित आयात बिल को पूरा करने के लिए किया जाता, तो इससे देश के सामने अचानक देश के बाहर होते वित्तीय प्रवाह को लेकर असुरक्षा  पैदा हो जाती। लेकिन, देश के बाहर होते इस वित्तीय प्रवाह के डर का मतलब यह नहीं होना चाहिए था कि पूरी आमदनी को रिज़र्व के तौर पर रखा जाये, बल्कि इसके लिए तो अपनी बड़ी क़ीमत पर देश के माहौल को कुछ इस तरह विकसित करना होगा,जहां विदेशी पैसे आकर्षित हो, (रिज़र्व पर हासिल होने वाले पैसों के मुक़ाबले पैसों की इस आमद पर दिया जा रहा ब्याज़ कहीं ज़्यादा है)। सही मायने में रिज़र्व के रूप में वित्तीय आमद की संपूर्ण राशि को आरक्षित रखना  बैंकों के तार्किक रूप से 100% नक़द-आरक्षित निधि अनुपात(Cash-Reserve Ratio) अर्थात, किसी भी ऋण को दिये बिना उसकी पूरी जमा राशि को नक़द भंडार के रूप में रखने (जो किसी भी बैंकिंग को लाभहीन और अविभाज्य बना देगा) के अनुरूप ही होता है।

आइये, हम थोड़ी देर के लिए, तर्क किये जाने की ख़ातिर मान लें कि इन कुछ महीनों में हुई आधी आमदनी का इस्तेमाल रिज़र्व को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है और बाक़ी बची आधी आमदनी को बड़े आयात के लिए उपलब्ध कराया जा सकता है। अब आइये, हम इस बुनियाद पर कुछ दृष्टांतों की गणना करते हैं।

विदेशी मुद्रा भंडार में मार्च के आख़िर और दिसंबर के बीच 6.7 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी हुई। ऊपर मानी गयी धारणा के मुताबिक़, विशाल आयात के लिए 3.35 लाख करोड़ रुपये का इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर हम इस औसत आयात को जीडीपी के अनुपात में तक़रीबन 15% (पूर्णांक) लेते हैं, तो इससे सकल घरेलू उत्पाद में 22 करोड़ करोड़ रुपये का इज़ाफ़ा हो सकता था। 2 के गुणक मूल्य को मानते हुए, यानि कि विभिन्न उपायों के ज़रिये मांग उत्पन्न करके सरकारी ख़र्चे में बढ़ोत्तरी के माध्यम से आय में दो बार ही वृद्धि होगी, यानि कि विदेशी मुद्रा की किसी भी तरह की समस्याओं का सामना किये बिना 11 लाख करोड़ रुपये के सरकारी ख़र्चे में बढ़ोत्तरी को बनाये रखा जा सकता था।

अब, अगर सरकार की ओर से 11 लाख करोड़ रुपये ख़र्च किये जाते हैं, जिससे कि सकल घरेलू उत्पाद में 22 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होती है, तो सरकार (केंद्र और राज्यों को मिलाकर) के पास अतिरिक्त 33 लाख करोड़ रुपये का कर संग्रह होगा, मोटे तौर पर अनुमान है कि कर-जीडीपी अनुपात 15% है।

इसलिए, परिमाण के इस क्रम के सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोत्तरी को सृजित करने के लिए ज़रूरी राजकोषीय घाटा, 7.7 लाख करोड़ रुपये (यानि कि 11 लाख करोड़ रुपये में से 3.3 लाख करोड़ रुपये घटाने के बाद प्राप्त की गयी राशि) का हो सकता है, जो कि 2019-20 के सकल घरेलू उत्पाद का तक़रीबन 3.5% है। इससे कुल राजकोषीय घाटा (जो कुछ बजट था और इस अतिरिक्त राहत व्यय के चलते जो कुछ  हुआ होगा) इस आधार-स्तरीय जीडीपी (जो कि 2020-21 में मोटे तौर पर जीडीपी भी होता, अगर इस पैमाने पर राहत व्यय वास्तव में किया गया होता) का लगभग 7.5% हो जाता है।

ये आंकड़े महज़ दृष्टांत के लिए हैं, और मान ली गयी धारणा पर आधारित है। कई लोगों की दलील तो यह भी रही है कि राजकोषीय घाटे का यह आकार जीडीपी के 12% के बराबर भी हो सकता था। हालांकि, सवाल सटीक आंकड़े का नहीं है, बल्कि मोदी सरकार के पास पर्याप्त राहत व्यय करने की उस पर्याप्त गुंज़ाइश का सवाल है,जिसका विकल्प सरकार के पास तो था, लेकिन जिसे सरकार ने नज़रअंदाज़ कर दिया। यही वजह है कि सरकार ने महज़ चार घंटे के नोटिस पर एक बेरहम और पूरी तरह से व्यर्थ लॉकडाउन लागू करके आपराधिक लापरवाही वाला काम किया, और इसके चलते पूरी तरह बेरोज़गार और बेआदमनी हो चुके उन लाखों कामकाजी लोगों को कोई अहम मदद नहीं पहुंचायी गयी, जिसे सरकार बहुत आसानी से कर सकती थी।

मुद्दा यह है कि सरकार ने ऐसा क्यों किया? और यही वह बिन्दु है, जहां सरकार की पूरी बुज़दिली सामने आती है। सरकार ने जो कुछ भी इस मामले में क़दम उठाया, उससे ख़ैरात बांटने का अहसास होता है,सरकार ने यह सब उस वैश्विक वित्त के नाराज़गी मोल नहीं लेने के चलते किया, जिसे राजकोषीय घाटा पसंद नहीं है, और उसे ही तुष्ट करने के लिए राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम के तहत केंद्र सरकार के जीडीपी का 3% की सीमा तय की गयी है। लेकिन,सचाई तो यही है कि इस महामारी ने इस सीमा को पार कर लेने का स्पष्ट आधार दिया है,जैसा कि कई अन्य सरकारों,ख़ास तौर पर यूरोपीय देशों की सरकारों की तरफ़ से किया गया। लेकिन, भारत की सरकार के पास न तो वैश्विक वित्त का सामना करने का साहस था और न ही उसे लोगों की चिंता थी।

नव-उदारवाद के पूरे दौर की जो विशिष्टता है,वह लोगों और वित्त के बीच का यही विरोधाभास है और यही विरोधाभास इस महामारी के दरम्यान सामने आया है, केंद्र सरकार ने बिना किसी हिकचिचाहट और एक पल की देरी किये बिना वित्त की तरफ़दारी को चुना।

लेकिन लोगों के प्रति इसकी बेरहमी यहीं ख़त्म नहीं हुई। किसी भी लोकतंत्र में सत्ताधारी पार्टी लोगों की अनदेखी करने से इसलिए डरती है कि कहीं ऐसा न हो कि चुनाव के समय लोग उसका साथ छोड़ दें। यही वजह है कि डोनाल्ड ट्रम्प सहित विकसित देशों की तमाम सरकारें ज़रूरी राहत पैकेजों के साथ आगे आयी थीं, इसलिए नहीं कि उन सरकारों को लोगों से बहुत प्यार है, बल्कि इसलिए,क्योंकि वे लोकतांत्रिक संस्थाओं द्वारा लोगों के प्रति चिंता जताने लिए मजबूर हैं। अगर मोदी सरकार ने किसी तरह की राहत दिये जाने की परवाह नहीं की, तो इसका कारण इस तथ्य में निहित है कि इस सरकार को लोकतांत्रिक संस्थानों द्वारा किसी भी तरह से मजबूर होने का अहसास नहीं है।

मोदी सरकार ने चुनावों में सही समय पर हिंदुत्व कार्ड खेलने और चुनावों से पहले और बाद में पैसों के दम पर विपक्षी दलों से दल-बदल करावाकर  "जीत" की चुनावी कला में महारत हासिल कर ली है। इसकी कुटिलता के क़िस्से बेशुमार हैं, जिसके तहत सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने को लेकर इसके भीतर कोई मलाल तो नहीं ही है, इसने राजनीति को एक ऐसी चीज़ में भी बदल दिया है, जहां इस बात का कोई मतलब नहीं रह गया है कि जनता किसको वोट दे रही है, बल्कि यह सरकार इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त रहती है कि विपक्ष के विधायकों को ख़रीदकर सरकार कभी भी बनायी जा सकती है।

यह बुज़दिली और पूंजी का आपस में जुड़ जाने का मामला है, यह सरकार लोगों के प्रति बेरहम है, और मतदाताओं और विधायकों के जोड़-तोड़ में माहिर है, और इसी कुटिलता ने मोदी सरकार को शायद दुनिया की सबसे धुर-दक्षिणपंथी सरकार बना दिया है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Modi Govt Looked the Other Way on Giving Cash Relief During Pandemic

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