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28-29 मार्च को आम हड़ताल क्यों करने जा रहा है पूरा भारत ?

मज़दूर और किसान आर्थिक संकट से राहत के साथ-साथ मोदी सरकार की आर्थिक नीति में संपूर्ण बदलाव की भी मांग कर रहे हैं।
General Strike

भारत के औद्योगिक श्रमिक, कर्मचारी, किसान और खेतिहर मज़दूर 'सेव पीपुल, नेशन' यानी ‘लोग बचाओ, देश बचाओ’ के नारे के साथ 28-29 मार्च 2022 को दो दिवसीय आम हड़ताल करेंगे। इसका मतलब यह है कि न सिर्फ़ देश के विशाल विनिर्माण क्षेत्र में कार्य कर रहे कार्यबल काम करना बंद कर देंगे, बल्कि सभी बैंक, अन्य वित्तीय संस्थान, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के दफ़्तर, परिवहन, निर्माण, बंदरगाह और डाक, सरकारी योजना में काम करने वाले कामगारों के कामकाज, शैक्षणिक संस्थान आदि सब बंद रहेंगे।

ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों और कृषि श्रमिकों की ओर से भी बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन होने की संभावना है। सभी अनुमानों के हिसाब से यह एक ऐसी ऐतिहासिक विरोध कार्रवाई होने जा रही है,जिसमें 25 करोड़ कामकाजी लोग शामिल होंगे। इस विरोध को बेरोज़गार नौजवानों के बड़े तबक़े, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और मध्यम वर्ग से जुड़े दूसरे तबक़े सहित छात्रों और युवाओं का समर्थन मिलेगा।

इस साल औपनिवेशिक शासन से भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनायी जायेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने इसे ऐसे 'अमृत काल' की शुरुआत के तौर पर वर्णित किया है, जो कि अमरता और समृद्धि का युग है। लेकिन, देश के मेहनतकशों के लिए यह ज़बरदस्त बेरोज़गारी, ख़त्म होती आय, ज़रूरी चीज़ों की आसमान छूती क़ीमतों और एक असुरक्षित भविष्य वाले उस गहरे आर्थिक संकट का समय है,जो कि इस सरकार की ओर से शुरू की गयी नीतियों का ही नतीजा है। लोगों के संघर्ष सरकार को और भी ज़्यादा अन्यायपूर्ण नीतियों से रोकने में कामयाब रहे हैं। जैसा कि उस किसान आंदोलन में भी देखा गया है, जिसने सरकार को कृषि से जुड़े तीनों क़ानूनों को रद्द करने के लिए मजबूर कर दिया है। हालांकि, यह लोगों को ज़बरदस्त परेशानियों और शोषण से बचाने वाले बड़े संघर्ष की ओर बढ़ता हुआ महज़ एक क़दम था।

क्या हैं मांगें

12 सूत्री मांग पत्र के लिए मज़दूर और किसान कई सालों से संघर्ष करते रहे हैं। पिछले दो सालों में महामारी और इससे निपटने के लिए मोदी सरकार की ओर से उठाये गये ग़लत क़दमों के चलते कामकाजी लोगों के जीवन स्तर में और भी गिरावट देखी गयी है। इसलिए, इस मांग घोषणापत्र में संघर्षरत परिवारों को तत्काल वित्तीय सहायता के प्रावधान किये जाने जैसे नये मुद्दों को भी शामिल किया गया है।

ये मुख्य मांगें निम्नलिखित हैं:

1. चार श्रम क़ानूनों और ज़रूरी रक्षा सेवा अधिनियम (EDSA) को रद्द किया जाये

29 मौजूदा श्रम क़ानूनों की जगह लेने वाले ये क़ानून अभी तक श्रमिक यूनियनों के प्रतिरोध की वजह  से पूरी तरह लागू नहीं हुए हैं। ये क़ानून काम को ठेके पर कराये जाने, वेतन निर्धारण को कमज़ोर करने, काम के घंटे बढ़ाने, किसी भी समय रोज़गार पर रखने और हटाने की इजाज़त देते हैं, और निगरानी एजेंसियों को कमज़ोर करते हैं। ईडीएसए रक्षा उत्पादन इकाइयों के श्रमिकों को निगमीकरण और अंतत: निजीकरण के ख़िलाफ़ विरोध करने से रोकता है।

2. संयुक्त किसान मोर्चा की मांगों वाले 6 सूत्री घोषणापत्र को स्वीकार किया जाये

मोदी के तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त किये जाने की घोषणा के बाद किसान संगठनों ने ऐलान कर दिया था कि वे उन बाक़ी लंबित मांगों के लिए भी लड़ना जारी रखेंगे, जिनमें शामिल हैं: संपूर्ण लागत पर एमएसपी+50%; विद्युत संशोधन विधेयक को वापस लेना; पराली जलाने को लेकर किसानों को दंडित किये जाने को बंद करना; आंदोलनकारी किसानों के ख़िलाफ़ सभी झूठे मुकदमे वापस लेना; मोदी सरकार में मंत्री और लखीमपुर में किसानों की हत्या के कथित मास्टरमाइंड अजय मिश्रा टेनी को बर्ख़ास्त करना और गिरफ़्तार करना; और, आंदोलन के दौरान अपनी जान गंवाने वाले 700 से ज़्यादा किसानों के परिवारों के लिए मुआवज़ा और पुनर्वास।

3. सभी तरह के निजीकरण से तौबा किया जाये और नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइल प्रोग्राम (NMPP) को ख़त्म किया जाये

विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के साथ-साथ रेलवे, विद्युत ट्रांसमिशन प्रणाली, दूरसंचार बुनियादी ढांचे आदि जैसी विभिन्न भौतिक संपत्तियों और यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के स्वामित्व वाली ज़मीन का लंबी अवधि के लिए निजी संस्थाओं के हाथों में 'पट्टे पर देने' का मतलब है कि लोगों के हाथ से इन अमूल्य संपत्तियों का सस्ते में निकल जाना। इससे जहां सरकार को राजस्व का नुक़सान होगा,वहीं कॉरपोरेट इन उद्यमों से मुनाफा कमायेंगे। नौकरियां चली जायेंगी और आरक्षण ख़त्म हो जायेगा।

4. आयकर भुगतान के दायरे के बाहर के परिवारों को प्रति माह 7,500 रुपये की आय सहायता प्रदान की जाये

हंगर वॉच के दूसरे दौर के सर्वेक्षण के मुताबिक़, पिछले दो सालों में 66% घरों की आय में गिरावट आयी है, 45% परिवार क़र्ज़दार बन गये हैं, और चौंकाने वाली बात यह है कि 79% घरों में किसी न किसी रूप में असुरक्षा रही है। ऐसे हालात में कुछ मुफ़्त अनाज देना ही पर्याप्त नहीं है। इसलिए, लंबे समय से वित्तीय सहायता की मांग की जा रही है।

5. मनरेगा के लिए आवंटन बढ़ाया जाये और शहरी क्षेत्रों में रोज़गार गारंटी कार्यक्रम का विस्तार किया जाये

इस साल ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS) के लिए बजट आवंटन पिछले साल के संशोधित अनुमान 1.11 लाख करोड़ रुपये के मुक़ाबले फिर से तक़रीबन 38,000 करोड़ रुपये कम कर दिया गया है। यह अहम योजना 11 करोड़ लोगों की कुछ आय हो जाने की लिहाज़ से एक जीवन रेखा है। इसके बावजूद, सरकार इसे कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है। शहरी क्षेत्रों में बेरोज़गारी की उच्च दर को देखते हुए क़स्बों और शहरों के लिए भी इसी तरह की योजना का बनाया जाना ज़रूरी है।

6. सभी अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा प्रदान किया जाये

भारत के 40 करोड़ मज़बूत कार्यबल के तक़रीबन 10% हिस्सा ही किसी न किसी रूप में सामाजिक सुरक्षा के दायरे में आता है। जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं, रोज़गार की असुरक्षा और बढ़ती उम्र की आबादी को देखते हुए पेंशन, चिकित्सा कवरेज और बेरोज़गारी भत्ते आदि जैसे सामाजिक सुरक्षा कवरेज की बहुत ज़रूरत है।

7. आंगनवाड़ी, आशा, मिड डे मिल और दूसरी योजना में लगे कार्यकर्ताओं के लिए वैधानिक न्यूनतम पारिश्रमिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान किया जाये

अलग-अलग योजनाओं में काम करने वाले 60 लाख से ज़्यादा 'कामगार' हैं। इनमें ज़्यादातर महिलायें हैं, जो विभिन्न सरकारी योजनाओं में अग्रिम पंक्ति की स्वास्थ्य सेवायें, बच्चों की देखभाल सेवा आदि जैसी अहम सेवाओं में लगी हुई हैं। इन सभी को 'स्वैच्छिक कामगारों' के रूप में वर्गीकृत किया गया है और उन्हें मामूली पारिश्रमिक दी जाती है, हालांकि महामारी के दौरान भी ये तमाम लोग सबसे आगे रहे हैं। इन्हें नियमित किये जाने के साथ-साथ सभी वैधानिक अधिकारों से लैस किये जाने की ज़रूरत है।

8. महामारी के बीच लोगों की सेवा करने वाले अग्रिम पंक्ति के कामगारों को पूर्ण सुरक्षा और बीमा के दायरे में लाया जाये

ऐसे लाखों स्वास्थ्यकर्मी, पैरामेडिकल और सहायक कर्मचारी, सफ़ाई कर्मचारी और दूसरे कर्मचारी हैं, जो महामारी के दौरान ख़तरनाक हालात में भी काम करते रहे और आज भी ऐसा ही कर रहे हैं। उन्हें बीमा के दायरे में लाने और चिकित्सा कवरेज देने का वादा किया गया था, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है।

9. अर्थव्यवस्था के पुनरुत्थान और उसे पुनर्जीवित करने के लिए अमीरों से ज़्यादा टैक्स वसूलते हुए संसाधन जुटाकर कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य अहम सार्वजनिक सेवाओं में सार्वजनिक निवेश बढ़ाये जायें

अमीरों से संसाधन जुटाने के बजाय मोदी सरकार ने भारत के सबसे अमीर कॉर्पोरेट तबक़े को टैक्स में कटौती, छूट, ऋण माफ़ी आदि के रूप में भारी रियायतें दी हैं। वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक़, सबसे ग़रीब 50% भारतीय की आमदनी हर साल 53,610 रुपये की हैं, जबकि शीर्ष 10% अमीरों की आमदनी 11,66,520 रुपये हैं, यानी कि 20 गुना ज़्यादा। भारत में जहां शीर्ष 10% अमीरों के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57% है, वहीं सबसे ग़रीब 50% लोगों की आय घटकर 13% रह गयी गयी है। अमीरों पर कर लगाने की सख़्त ज़रूरत है, ताकि भारत के ज़्यादातर लोग ज़िंदा रह सकें।

10. पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क को पर्याप्त रूप से कम किया जाये और मूल्य वृद्धि को रोकने के लिए ठोस क़दम उठाये जायें

2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों से बतौर उत्पाद शुल्क 18.72 लाख करोड़ रुपये की ज़बरदस्त राशि वसूली है। इसका मतलब यह है कि यह राशि अंततः लोगों की जेब से ही निकाली गयी है, क्योंकि माल ढुलाई की उच्च परिवहन लागत के ज़रिये पेट्रोल और डीजल की लागत का भार आख़िरकार लोगों की जेब पर ही पड़ता है। इसके अलावा, रसोई गैस की क़ीमतें कल्पना से भी बाहर जाकर बढ़ गयी हैं। इस समय घरेलू सिलेंडर की क़ीमत 1000 रुपये से ज़्यादा है। कालाबाज़ारी करने वालों और जमाखोरों पर लगाम लगाने से इनकार, खाना पकाने के तेल जैसी ज़रूरी चीज़ों के आयात पर निर्भरता और दिवाला निकाल देने वाली दूसरी नीतियों ने आम लोगों की जेबों पर डाका डाल दी है। इसे उन कई उपायों के ज़रिये रोके जाने की ज़रूरत है,जिनमें सबको सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में लाना, सब्सिडी की बहाली, उत्पाद शुल्क में कटौती आदि शामिल हैं।

11. सभी ठेका श्रमिकों और योजना श्रमिकों को नियमित किया जाये, और सभी के लिए समान काम के लिए समान वेतन को सुनिश्चित किया जाये

सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में भी अनुबंध और आकस्मिक श्रमिकों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ते हुए 50% या उससे ज़्यादा हो गयी है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार विभिन्न पदों पर नियमित कर्मचारियों की भर्तियां नहीं कर रही है, बल्कि आधे या उससे भी कम वेतन पर ठेका कर्मियों की नियुक्ति कर रही है। यह श्रमिकों का शोषण करने और उन्हें मौजूदा क़ानूनों से न्यूनतम मज़दूरी और बोनस आदि जैसे अन्य लाभ देने से बचने का एक गंदा तरीक़ा है। इसे फिर से बहाल करने और बेहतर मज़दूरी के साथ नौकरी की सुरक्षा को सुनिश्चित करने की ज़रूरत है।

12. नयी पेंशन योजना (NPS) को रद्द किया जाये और पुरानी योजना को बहाल किया जाये; कर्मचारी पेंशन योजना के तहत न्यूनतम पेंशन में इज़ाफ़ा किया जाये

एनपीएस ने सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन की पात्रता वाले लोगों के लिए जो भी सुरक्षा उपलब्ध थी, उसे ख़त्म कर दिया है। यह सरकार के रिटायर हो चुके लोगों की सुरक्षा से हाथ खींचने की कोशिश और शेयर बाज़ार आधारित अटकलों को बढ़ावा देने के लिए पेंशन फ़ंड के इस्तेमाल किये जाने का हिस्सा है।

मोदी को लोगों की आवाज़ सुननी ही होगी

प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी शायद इस भ्रम में हैं कि वे चुनाव में धर्म का इस्तेमाल करते हुए लोगों को बांटकर और दबाव वाली आर्थिक समस्याओं से उनका ध्यान हटाकर अपनी हुक़ूमत को जारी रख सकते हैं। हालांकि, वे कुछ जगहों पर कामयाब तो हो सकते हैं, लेकिन ये जीत थोड़े समय की हैं, क्योंकि ज़्यादातर लोग बेरोज़गारी, उच्च क़ीमतों, कम आय और नौकरियों की असुरक्षा जैसे आर्थिक संकट की चक्की में पीस रहे हैं। ऐसा सिर्फ़ इसीलिए है,क्योंकि लोगों को अभी तक विकल्प नहीं दिखायी दे रहा है और विकल्प के नहीं दिखायी देने तक बीजेपी के लिए आसान है कि वह देश पर शासन करती रहे और तबाही बरपाती रहे।

लेकिन, 28-29 मार्च की यह हड़ताल सभी मेहनतकशों और उनके परिवारों की ओर से मोदी सरकार को दी जाने वाली एक ऐसी चुनौती है, जिसका आह्वान है कि या तो वह अपनी शत्रुतापूर्ण नीतियों को वापस ले और अमीरों को ख़ुश करना बंद करे, या फिर सत्ता से बाहर जाने के लिए तैयार रहे। यह हड़ताल लोगों के भविष्य को सुरक्षित करने और देश को ग़ुलामी से बचाने की लड़ाई है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why is India going on a General Strike on March 28-29?

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