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''अमर उजाला'' की रिपोर्टिंग पर आख़िर क्यों हो रहा हंगामा?

''सरकार अब सुरक्षा और मीडिया एजेंसियों के जरिये उन आंदोलनों पर हमला कर रही है जो सरकार की जनविरोधी गतिविधियों के खिलाफ़ बोल रहे हैं...।"
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एक तरफ सर्द मौसम में आजमगढ़ के खिरियाबाग में बड़ी तादाद में किसान जहां खुले मैदान में आंदोलन कर रहे हैं, वहीं विश्वविद्यालयों में स्टूडेंट्स गुस्से का इजहार कर रहे हैं। दरअसल दोनों तबके की नाराजगी की असल वजह है दैनिक अख़बार ''अमर उजाला'' की रिपोर्टिंग। इस अखबार ने अपने वाराणसी संस्करण में 15 जनवरी 2023 को एक विवादास्पद रिपोर्ट ''बीएचयू और विद्यापीठ में अर्बन नक्सलियों की पैठ, 130 की गतिविधि संदिग्ध, जांच में जुटी एजेंसियां'' छापी तो हंगामा हो गया। इस खबर के विरोध में भगत सिंह छात्र मोर्चा ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में विश्वनाथ टैंपल के समाने विरोध प्रदर्शन कर गुस्से का इजहार किया है।

भगत सिंह छात्र मोर्चा के सदस्यों ने गीतों के जरिये ''अमर उजाला'' की पत्रकारिता का विरोध किया। स्टूडेंट्स को संबोधित करते हुए आदर्श ने कहा, ''सरकार अब सुरक्षा और मीडिया एजेंसियों के जरिये उन आंदोलनों पर हमला कर रही है जो सरकार की जनविरोधी गतिविधियों के खिलाफ़ बोल रहे हैं। इसमें तमाम बुद्धजीवियों और स्वयंसेवी संस्थाओं को निशाने पर लिया गया है, जो साफ़ तौर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ है। यह जनता के हक में बोलने वालों में डर का माहौल बनाने की साजिश है। यह दमन आने वाले चुनाव के मद्देनजर तेज़ किया जा रहा है।''

अर्बन नक्सल का जुमला उछाले जाने से स्टूडेंस् नाराज

स्टूडेंट्स लीडर महेंद्र ने मेन स्टीम की मीडिया के चरित्र को उजागर करते हुए बताया कि किस तरह से खबर कारीगर सरकार की कठपुतली बन गए हैं? उन्होंने कहा, ''जिस अर्बन नक्सल के नाम पर सुधा भारद्वाज, जी एन साईबाबा, आनंद तेलतुंबडे, वरवर राव समेत देश के तमाम बुद्धजीवियों को गिरफ्तार किया गया था, यह रिपोर्ट उसी कड़ी में सरकार के अगले कदम को दर्शाती है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा किया गया हवाई हमला भी इसका एक उदाहरण है।''

भगत सिंह छात्र मोर्चा के यशवीर, विनय और गणेश ने आदिवासियों के दमन का जिक्र करते हुए कहा, ''जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे लोगों के उत्पीड़न के लिए सरकार नई शब्दावली गढ़ रही है। सरकार की साजिशों का पुरजोर तरीके से पर्दाफाश करना होगा। डबल इंजन की सरकार के दमनकारी रवैये के खिलाफ़ छात्र, किसान, मजदूर, आदिवासी और शोषित, वंचित समाज के लोगों को एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है।''

अमर उजाला ने क्या लिखा?

''अमर उजाला'' वाराणसी संस्करण में संवाददाता पुष्पेंद्र कुमार त्रिपाठी के हवाले से अखबार ने अर्बन नक्सलियों की पैठ पर सिर्फ खबर ही नहीं छापी है, बल्कि किरन रौतेला ने 15 जनवरी 2023 को पूर्वाह्न 10:29 बजे पोर्टल पर भी इसे प्रकाशित किया है। ''अमर उजाला'' अपने पोर्टल में लिखता है, ''बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) और महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ सहित पूर्वांचल के दो दर्जन महाविद्यालयों में अर्बन नक्सलियों ने अपनी पैठ गहरी कर ली है। इन सबका मकसद युवाओं में राष्ट्र विरोधी मानसिकता को बढ़ावा देना है। सुरक्षा एजेंसियों ने 130 अर्बन नक्सलियों को चिह्नित किया है। अब तक की पड़ताल में यह बात सामने आई है कि अर्बन नक्सल से जुड़े लोग धरना और विरोध प्रदर्शन के जरिये माहौल बिगाड़ने की साजिश कर रहे हैं।''

''विश्वविद्यालय व संबद्ध महाविद्यालयों में अपनी पैठ बनाने के बाद अर्बन नक्सली स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) व अन्य छोटे संगठनों के माध्यम से पूर्वांचल के अन्य जिलों में अपना विस्तार कर रहे हैं। इस संबंध में ठोस इनपुट मिलने के बाद प्रदेश की शीर्ष सुरक्षा एजेंसियों ने वाराणसी व पूर्वांचल भर में सक्रिय 130 अर्बन नक्सलियों को चिह्नित किया है। उनके नेटवर्क को तोड़ने के लिए कार्ययोजना बनाई है। नक्सलियों का मकसद आगामी लोकसभा चुनाव से पहले वाराणसी व आसपास के जिलों का माहौल खराब करना है। इसे ध्यान में रखकर सुरक्षा एजेंसियां जांच कर रही हैं। एजेंसियों ने आगामी लोकसभा चुनाव से पहले ही ठोस कार्रवाई की तैयारी की है।''

इन शैक्षिक संस्थानों पर निगाह!

इसके आगे ''अमर उजाला'' लिखता है, ''सुरक्षा एजेंसी से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, अर्बन नक्सलियों की निगाह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और केंद्रीय तिब्बती उच्च शिक्षण संस्थान में ज्यादा हैं। कारण, यहां देशभर के अलग अलग विचारधाराओं वाले छात्र-छात्राएं आते हैं जो ज्यादा मुखर होते हैं। अर्बन नक्सल से जुड़े लोग ऐसे छात्रों के जरिये छात्र संगठनों और उनके समूहों में सक्रिय होकर अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं। अर्बन नक्सल से जुड़े एक-एक व्यक्ति की गतिविधि पर निगाह रखी जा रही है।''

''सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक, वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। यहां की हर छोटी-बड़ी घटना पर देश-दुनिया की नजर रहती है। वाराणसी या इससे सटे पूर्वांचल के किसी जिले में खास एजेंडे के साथ मुखर तरीके से आवाज उठेगी तो उसका संदेश दूर तक जाएगा। इस वजह से वाराणसी में चिह्नित लोग गुपचुप तरीके से अपने विचारों को एक-दूसरे से साझा कर उससे जुड़ने के लिए बुद्धिजीवियों के वर्ग को उकसा रहे हैं। वाराणसी के साथ ही पूर्वांचल के अलग-अलग जिलों का लगातार भ्रमण कर रहे हैं। देख रहे हैं कि कहां और किस मुद्दे को हवा देकर सरकार विरोधी माहौल तैयार कर सकते हैं।''

''अमर उजाला'' ने यह भी लिखा है, ''आजमगढ़ में हवाई अड्डे के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध किया जा रहा है। कुछ लोग धरना-प्रदर्शन भी कर रहे हैं। सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि एयरपोर्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण नियमानुसार स्थानीय लोगों की सहमति से हुआ है। इसके बावजूद अर्बन नक्सल से जुड़े लोग मामले को तूल दे रहे हैं। समूह से जुड़े लोग गुपचुप तरीके से मदद भी कर रहे हैं, लेकिन मंशा के अनुरूप सफलता नहीं मिल सकी है। उत्तर प्रदेश सरकार के सख्त रवैये व कड़ी कार्रवाई के डर से बहुत लोग अर्बन नक्सलियों से दूरी बनाए हुए हैं।''

अर्बन नक्सल शब्द कहां से आया?

''अमर उजाला'' ने अपने पोर्टल में यह भी बताया है कि "महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हिंसा के बाद अर्बन नक्सल शब्द आम लोगों की जुबान पर आया। इसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया था। प्रदेश की शीर्ष सुरक्षा एजेंसी से जुड़े एक अफसर ने बताया कि अर्बन नक्सली अब प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी और उससे सटे पूर्वांचल के अन्य जिलों में अपनी पैठ मजबूत कर रहे हैं। इसमें अहम भूमिका कुछ विश्वविद्यालयों के शिक्षाविदों, छात्रों और कुछ एनजीओ संचालकों की है। इनमें से सूचीबद्ध किए गए लोगों की गतिविधियों की लगातार निगरानी की जा रही है। संबंधित लोगों के खिलाफ जल्द ही साक्ष्यों के साथ पुख्ता कार्रवाई की जाएगी।''

''अमर उजाला'' ने अपनी खबर को पुष्ट करने के लिए महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के कुलपति प्रो. एके त्यागी के हवाले से कहा है, ''हम लोग विश्वविद्यालय में सतर्क हैं। विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को हम हमेशा जागरूक करते हैं कि वे संदिग्ध लोगों की सूचना हम तक पहुंचाएं।'' इसके आगे बीएचयू के चीफ प्राक्टर प्रो. अभिमन्यु सिंह का बयान कुछ इस तरह से इंगित किया गया है, ''विश्वविद्यालय परिसर में धरना, प्रदर्शन और मारपीट की घटनाओं में हम बाहरी गतिविधियों को लेकर ज्यादा सतर्क रहते हैं। हमारी खुद की इंटेलीजेंस टीम भी समय समय पर जांच करती है और सुरक्षा एजेंसियों से संपर्क करते हैं।''

खिरियाबाग में जुट रहे हुजूम ने सरकार की नींद उड़ा दी है।

नागर समाज नाराज़

''अमर उजाला'' की ख़बर से नाराज नागर समाज ने 19 जनवरी 2023 को एक बयान जारी किया है, जिसमें अख़बार की कड़ी भर्त्सना की गई है। बयान में कहा गया है, ''आज़मगढ़ के खिरिया बाग आंदोलन में कोई मतलब की चीज़ हाथ नहीं लगी तो अर्बन नक्सली का हवाई पेच पेश कर दिया। यह आरोप सनसनी फैलाने, आंदोलन को बदनाम करने और जनता की आवाज़ को दबाने की साज़िश है। अर्बन नक्सली का आरोप सरकार या सरकारी अमले की तरफ से लगता तो बात और थी। लेकिन यहां तो एक अख़बार ने आंदोलन को कटघरे में खड़ा करने का ठेका ले लिया। किसी लोकतांत्रिक आंदोलन को चित कर देने का आसान नुस्खा है कि उस पर अर्बन नक्सली का ठप्पा लगा दिया जाए। यह अपने यशस्वी प्रधानमंत्री जी की खोजी और आज़माई हुई बात है। लेकिन वही शब्दावली अगर अख़बार भी बोलने लगें तो समझ लेना चाहिए कि दाल में बहुत काला है।''

नागर समाज ने यह भी कहा है, ''खिरिया बाग गोया शाहीनबाग होता जा रहा है। एयरपोर्ट के नाम पर 40 हज़ार की आबादी को उजाड़ देने की सरकारी परियोजना के ख़िलाफ़ आज़मगढ़ में ज़मीन मकान बचाओ संयुक्त मोर्चा के बैनर तले आंदोलन जारी है। आंदोलन में दो तिहाई महिलाओं की भागीदारी है। लोग हवाई सपनों के झांसे में आने को तैयार नहीं, अपनी एक इंच भी ज़मीन देने को तैयार नहीं। सरकार विकास करने की ज़िद पर अड़ी है और लोग अपना घर दुआर छोड़ने को तैयार नहीं। लोग चाहते हैं कि हवाई अड्डे का मास्टर प्लान रद्द किया जाए, उन्हें चैन से रहने दिया जाए। हवाई अड्डा बनाने की मांग आजमगढ़ ने तो नहीं की थी? और फिर बनारस के बावतपुर हवाई अड्डे से आज़मगढ़ की सीमा बस 45 किलोमीटर दूर है। मुट्ठी भर लोगों के लिए हज़ारों को दोराहे पर खड़ा कर देने का क्या तुक? ''

नागर समाज ने यह भी कहा है, ''अमर उजाला में छपी ख़बर बकवास का पुलिंदा है। ख़बर से आंदोलन का पक्ष गायब है और गढ़े गये आरोप का सबूत भी नदारद है। तो क्यों ना कहा जाए कि इस ख़बर की मंशा सरकार और प्रशासन के हाथ में दमन और उत्पीड़न का बहाना थमाने की थी। इसे पत्रकारिता नहीं कहते। हम कड़े शब्दों में ऐसी गैर ज़िम्मेदार पत्रकारिता की निंदा करते हैं। इस अनर्गल ख़बर के छपने को लेकर ''अमर उजाला'' प्रबंधन से माफी मांगने और पत्रकार पर कड़ी कार्रवाई करने की मांग करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो हम '' अमर उजाला'' के बहिष्कार की अपील करने और उसके ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई करने को बाध्य होंगे।''

देश के चर्चित पोर्टल ''द वायर'' ने भी ''अमर उजाला'' की पोल खोलकर रख दी है। एक वीडियो के जरिये ''द वायर'' ने कहा है, ''हिन्दी पट्टी के मशहूर अखबार ''अमर उजाला'' ने वह सब कुछ लिखा है जो अखबारी नैतिकता के खिलाफ जाता है और आम आदमी के बीच आम आदमी को दुश्मन बना देता है। इस खबर में वह सब कुछ है जो प्लांटेड खबर का चरित्र होता है। खबर में तमाम आधारहीन बातें लिखी गई है। वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का हवाला देते हुए ''द वायर'' कहता है, ''इस खबर का कोई आधार नहीं है। पुख्ता तौर पर तो नहीं कहा जा सकता, मगर हो सकता है कि प्रशासनिक अफसरों ने यह प्लांटेड खबर छपवाई हो। चूंकि इस खबर को लिखने वाले संवाददाता का नाम लिखा है तो जिम्मेदारी भी उसी की बनती है। उसने यह आधारहीन खबर लिख कैसे दी? इसका मतलब है कि संवाददाता की अनैतिक महत्वकांक्षा की वजह से सरकार की वजह से खबर छपी होगी? इसमें अखबार और संवाददाता दोनों की जिम्मेदारी बनती है। इस खबर में ''अर्बन'' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यह शब्द सरकारी शब्दावली शब्द का हिस्सा नहीं है।''

''मौजूदा वक्त की सत्ता ने लोगों के बीच अपनी वैधता बनाने के लिए कुछ काल्पनिक विलेन गढ़े हैं जैसे कि देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग, खान मार्केट, इसी तरह के काल्पनिक विलेन में अर्बन नक्सल जैसा शब्द शामिल शामिल है। इस शब्दों के सहारे मौजूदा वक्त की सत्ता लोगों के बीच विलेन में तब्दील करने के रास्ते पर निकल पड़ती है। आजमगढ़ के खिरियाबाग आंदोलन में कोई मतलब की चीज हाथ नहीं लगी तो अर्बन नक्सली का हवाई पेच पेश कर दिया। यह आरोप सनसनी फैलाने, आंदोलन को बदनाम करने और जनता की आवाज को दबाने की साजिश है। सुरक्षा एजेंसियों के हवाले से यह पहली बार नहीं हो रहा है, कई बार ऐसा होता है।''

सतही पत्रकारिता पर सवाल

इस बीच आजमगढ़ के जमीन-मकान बचाओ संयुक्त मोर्चा के रामनयन यादव ने ''अमर उजाला'' की सतही पत्रकारिता पर गंभीर सवाल उठाया है। मोर्चा की ओर से कहा गया है, ''खिरिया बाग किसान-मजदूर आंदोलन को अर्बन नक्सल से जोड़कर झूठी खबर छापने वाले अखबार '' अमर उजाला'' ने स्पष्टीकरण नहीं दिया तो जगह-जगह उसकी प्रतियां फूंकी जाएंगी। इस अखबार के पत्रकार ने खबर में झूठा आरोप लगाया है कि आज़मगढ़ में हवाई अड्डे के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे आंदोलन को अर्बन नक्सल तूल दे रहे।''

''सुरक्षा एजेंसियों के हवाले से 'अमर उजाला’ ने कहा है कि जमीन अधिग्रहण नियमानुसार स्थानीय लोगों की सहमति से हुआ है, जो सरासर झूठ है। किसान कई महीनों से धरने पर बैठे हैं और वो अपनी एक इंच जमीन सरकार को देने के लिए तैयार नहीं हैं। 'अमर उजाला' की नीयत साफ होती तो वह आंदोलनकारी किसानों का पक्ष भी प्रमुखता से छापता, लेकिन उसने जानबूझकर ऐसा नहीं किया।''

''अमर उजाला'' को जान लेना चाहिए कि खिरिया बाग आंदोलन को किसान नेता राकेश टिकैत, मेधा पाटकर, जगतार सिंह बाजवा, गुरुनाम सिंह चढूनी, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित संदीप पाण्डेय, अखिल भारतीय किसान सभा के प्रदेश सचिव पूर्व विधायक राजेन्द्र यादव, भारत सिंह, पूर्व विधायक इम्तियाज अहमद, गिरीश शर्मा और विभिन्न संगठनों का समर्थन प्राप्त है। योगी-मोदी सरकार किसानों-मजदूरों पर मनगढ़ंत आरोप लगाकर आंदोलन को बदनाम करना चाहती है। अर्बन नक्सली कहकर खिरिया बाग में बैठी माताओं-बहनों, मजदूर-किसान की आवाज को कुचलना चाहती है। सरकार कितनी भी साजिश कर ले लोकतांत्रिक-संवैधानिक तरीके से आंदोलन जारी रहेगा। किसानों-मजदूरों के खिलाफ फैलाए जा रहे झूठ, अफवाह और दुष्प्रचार का मुंहतोड़ जवाब देंगे।''

आंदोलनकारी राजीव यादव, हरिहर राम, रवींद्र यादव, वीरेंद्र यादव, मटरू खलीफा, गणेश भारती, राधेश्याम राव, स्नेहा, गणेश पाण्डेय, सुनीता शर्मा, पारसनाथ यादव, फूलचंद राम आदि के हवाले से कहा गया है, '' दिल्ली के ऐतिहासिक किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए मोदी सरकार ने कभी अर्बन नक्सली, कभी खालिस्तानी और कभी आंदोलनजीवी कहकर बदनाम करने की कोशिश की थी। बाद में माफी मांगकर किसान विरोधी काले कानून को वापस ले लिया। सरकार और उसकी एजेंसियां चाहे जितना भी झूठा आरोप लगाएं पूरा देश के किसान-मजदूर साथ हैं। किसान-मजदूर जमीन-मकान नहीं देंगे और सरकार को अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट का मास्टर प्लान रदद् करना होगा। हमारी खेती-किसानी, गांव-जवार का विकल्प एयरपोर्ट विस्तार नहीं हो सकता। प्रशासन छुपे तौर पर लालच देकर गांव वालों को तोड़ने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उनकी कोशिश कामयाब नहीं होगी।''

उल्लेखनीय है कि कृषि कानूनों के खिलाफ जब देश भर किसानों ने आंदोलन छेड़ा था, तब उसे कुचलने के लिए बीजेपी सरकार ने उसकी आत्मा तक पर सवाल उठाए थे। मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री कमल पटेल ने आंदोलनकारी किसान संगठनों को 'कुकुरमुत्ता' कहकर संबोधित किया था तो मंत्री ऊषा ठाकुर ने यह तक कह दिया था कि पंजाब और हरियाणा में उच्च कोटि के दलाल प्लानिंग के साथ किसान आंदोलन चला रहे हैं और इसमें टुकड़े-टुकड़े गैंग भी शामिल हो गई है। केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने इनसे आगे बढ़कर यह तक बोल गए कि किसान आंदोलन में वामपंथी और माओवादी तत्व शामिल हो गए हैं। आंदोलन के जरिए ऐसे लोगों की जेल से रिहाई की मांग की जा रही हैं जो राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के लिए सजा काट रहे हैं।

बीजेपी के एक और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा था कि आंदोलन में किसानों के हित की बात नहीं हो रही है, इस आंदोलन में विदेशी ताकत घुस रही है और खालिस्तान व शरजील इमाम के पोस्टर लगाए जा रहे हैं। किसान आंदोलन को तोड़ने के लिए नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए ) ने पंजाब से संबंध रखने वाले एक दर्ज़न से ज़्यादा लोगों को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम एक्ट यानी यूएपीए की धाराओं के तहत नोटिस जारी किया था, जिसमें एक संगठन के नेता बलदेव सिंह सिरसा और किसान आंदोलन को समर्थन करने वाले फ़िल्म अदाकार दीप सिद्धू का नाम भी शामिल था।

पुलिस ने बोला घर पर धावा

आजमगढ़ के खिरियाबाग में आंदोलन का नेतृत्व करने वाले रिहाई मंच के मुखिया राजीव यादव बताते हैं, ''अमर उजाला में अर्बन नक्सल संबंधी खबर प्रकाशित होते ही, पुलिस अगले दिन मेरे घर आ गई। मेरे बारे में घर वालों से पूछताछ करने लगी, मेरे अतीत की पड़ताल करने लगी। वे यह भी कहते हैं कि यह पूरा आंदोलन पहले दिन से ही गांव वालों द्वारा शुरू किया आंदोलन हैं। आजमगढ़ का निवासी होने और जनहित में किए जा रहे जन-आंदोलनों का समर्थक होने के नाते मैं भी इसमें सक्रिय हूं। इस आंदोलन में किसान नेता राकेश टिकैत, मेधा पाटकर, जगतार सिंह बाजवा, गुरुनाम सिंह चढूनी, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित संदीप पाण्डेय, अखिल भारतीय किसान सभा के प्रदेश सचिव पूर्व विधायक राजेन्द्र यादव, पूर्व विधायक इम्तियाज अहमद, गिरीश शर्मा और विभिन्न संगठनों हिस्सेदारी कर चुके हैं।''

''योगी-मोदी सरकार इस आंदोलन को तोड़ने के लिए अब इस पर अर्बन नक्सल का ठप्पा लगाने के लिए मीडिया में स्टोरी प्लांट करा रही है और गोदी मीडिया भी सरकार के इशारे इस आंदोलन के खिलाफ सक्रिय हो गई है। खिरियाबाग के ऐतिहासिक किसान आंदोलन को भी बदनाम करने के लिए अर्बन नक्सली कि शगूफा छोड़ रही है। सरकार और उसकी एजेंसियां चाहे जितना भी झूठा आरोप लगाएं पूरा देश के किसानों और मजदूरों साथ है। एयरपोर्ट के लिए हम अपनी जमीन-मकान नहीं देंगे। सरकार को अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट का मास्टर प्लान रदद् करना होगा। हमारी खेती-किसानी, गांव का विकल्प एयरपोर्ट विस्तार नहीं हो सकता।''

राजीव कहते हैं, ''कारपोरेट विरोधी हर आंदोलन को अर्बन नक्सल या माओवादी कहने की सरकारी की पुरानी आदत है। यह आंदोलन मोदी-योगी के प्रिय अंबानी-अडानी के जमीन की लूट की योजना के खिलाफ है। अर्बन नक्सली कहकर खिरिया बाग में बैठी माताओं-बहनों की आवाज को कुचलना चाहती है। सरकार कितनी भी साजिश कर ले लोकतांत्रिक-संवैधानिक तरीके से आंदोलन जारी रहेगा। किसानों-मजदूरों के खिलाफ फैलाए जा रहे झूठ, अफवाह और दुष्प्रचार का मुंहतोड़ जवाब देंगे।''

संयुक्त किसान मोर्चा आजमगढ़ के जिला संयोजक राजेश आजाद कहते हैं, '' अर्बन नक्सल एक गढ़ा हुआ राजनीतिक शब्द है। इसका अर्थ उन शहरी पत्रकारों, कवियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संस्कृतिकर्मियों से है आम जनता के पक्ष में शिद्दत से खड़े हैं। मौजूदा सरकार केवल चुनावी जोड़-घटाव की ही भाषा समझती है, आंदोलनों की भाषा को नहीं। 10 अक्टूबर 2022 को गुजरात में चुनावी दौरे पर गए पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था, ''हमें अपने बच्चों को अर्बन नक्सलियों से सावधान करना चाहिए, जिन्होंने देश को तबाह करने का बीड़ा उठाया है।''

आवाज़ दबाने का हथियार

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, ''अर्बन नक्सली शब्द कारपोरेट के पक्ष में जनविरोधी आवाज दबाने का एक हथियार है। इस जुमले के जरिये सरकार लोगों को अराजनीतिक बनाने की कोशिश कर रही है। सबकी समझदारी को सिर्फ राष्ट्रवाद के चश्मे से देखा जा रहा है। उच्च शिक्षा में समाज के पिछड़े और दलितों को उनका हक़ नहीं मिल रहा। ऐसे दौर में सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आई है, जो शिक्षा को निजीकरण की ओर ले जा रही है और आरक्षण को कमज़ोर कर रही है। इमरजेंसी के दौर में कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों और गिरधर राठी जैसे लेखकों ने पूरी जेल काटी। 1942 के आंदोलन के दौरान फणीश्वरनाथ रेणु ने दो साल की जेल काटी थी।

काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, ''सत्ता का पुराना हथियार है किसी भी आंदोलन को देश विरोधी और समाज विरोधी करार देने की। जब इससे काम नहीं चलता तो सरकार जन-आंदोलनों को बेहद शातिराना अंदाज में हिंसक मोड़ देकर उसका दमन करने में जुट जाती है। सरकार का साथ देता है गोदी मीडिया। स्थिति यह है कि किसी शब्द को पूरी बेशर्मी के साथ मीडिया ने ओढ़ लिया है, जिससे उसकी विश्वसनीयता खत्म हो रही है। सरकारी डंडे के खौफ और आर्थिक मुनाफा कूटने के लोभ ने इन्हें एक मोटी खाल दे दी है, जिस पर नैतिकता, लोकतंत्र और पत्रकारीय आचार संहिता का कोई असर नहीं है। जरूरत के मुताबिक, ये कभी किसी आंदोलन को खालिस्तानी करार देते हैं, तो किसी आंदोलन को अर्बन नक्सली। जब आंदोलन और आंदोलनकारी अपने सवालों को लेकर पूरी अहिंसा के साथ प्रतिकार पर डटे रहते हैं तो इन्हें घुटनों पर आने से देर नहीं लगती। आजमगढ़ के खिरियाबाग आंदोलन के साथ भी कुछ ऐसा ही छल-फरेब किया जा रहा है। खालिस किसी अखबार की झूठी खबरों के आधार पर निर्दोष छात्रों और किसान-मजदूरों की जान जोखिम में डाल देना क्या अमानवीय नहीं है? फर्ज़ी खबरों को प्रसारित करने वाले अखबार को क्या देश की जनता से माफी मांगनी चाहिए? ''

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप यह भी कहते हैं, ''अर्बन नक्सली की स्क्रिप्ट सत्ता के गलियारों में लिखी जाती है और बाद में वह गोदी मीडिया को सौंप दी जाती है। गोदी मीडिया उसे अपने एक हॉट एजेंडे के तौर पर उसे समय-समय पर चलाता रहता है। सवाल यह है कि जब बिना सबूत के किसी भी देश के नागरिकों पर एक ऐसा लेबल चस्पा किया जा रहा है जो काल्पनिक तथ्यों पर आधारित है, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। एक विशेष विचारधारा के लोग दिन-रात धर्म और संप्रदाय के नाम पर समाज के अंदर नफरत का ज़हर फैला रहे हैं, क्या ऐसे लोग ‘अर्बन नक्सल’ नहीं हैं? नाहक किसी निर्दोष की ‘मॉब लिंचिंग’ कर मार डालना ‘अर्बन नक्सलवाद’ नहीं है? कोरा सच यह है कि मौजूदा दौर में मीडिया ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु बन गया है। किसी भी आंदोलन के बारे में मेन स्टीम की मीडिया और खबरिया चैनल वाले कुछ भी कह देते हैं। ऐसा करके वो जहां अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं, वहीं लोकतंत्र के बुनियादों को भी खोखला करते जा रहे हैं।''

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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