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क्यों 'कोयला बेचने' का मतलब देश बेचने की तरह है?

“कोयला राष्ट्रीय संपदा है। किसी कल-कारखाने में बनने वाला कोई माल नहीं है बल्कि प्राकृतिक संसाधन है। जिसे बनने में सदियां लगती हैं। यह असीमित मात्रा में नहीं होता। यह सीमित में मात्रा में होता है। इसलिए इसका इस्तेमाल सोच समझकर किये जाने की ज़रूरत है। वहीं पर किये जाने की ज़रूरत होती है, जहां पर जनहित हो, इसकी सबसे अधिक जरूरत हो।”
Coal
Image courtesy: The Caravan

कोरोना के राहत पैकेज में भले जरूरी राहत देने वाली कोई बात नहीं थी लेकिन ऐसी बातों की भरमार थी जिनका दूरगामी परिणाम अगर आज से देखा जाए तो बहुत ख़तरनाक भी हो सकता है। जैसे कि कोयला सेक्टर में निजीकरण। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा एलान किया गया कि कोयला का मालिकाना हक अब केवल सरकार के पास ही नहीं होगा बल्कि इसे खरीदने और बेचने का हक प्राइवेट यानी निजी लोगों को भी दिया जाएगा।

कोयला सेक्टर में सरकार ने कमर्शियल माइनिंग की इजाजत दे दी है। बिना किसी शर्त तत्काल 50 कोल ब्लॉक निजी सेक्टर के हवाले कर दिया गया है। कोल सेक्टर से जुड़े निर्मला सीतारमण के एलानों को समझने के लिए कोल सेक्टर को थोड़ा व्यपाक तरीके से समझना होगा।

भारत का कोयला भंडार बहुत बड़ा है। कोयला भंडार की दृष्टि से भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश है। पूरी दुनिया का सात फीसदी कोयला भारत में मौजूद है। अभी तक की नीतियों की मुताबिक केवल सरकार की तरफ से कोल इंडिया लिमिटेड कोयला निकालने का काम करती थी। सरकार की तरफ से कुछ कोल ब्लॉक निजी क्षेत्र को भी आबंटित किये जाते थे। जिसे तकनीकी भाषा में कैप्टिव ब्लॉक कहा जाता था यानी सरकार को केवल उन्हीं निजी क्षेत्रों को कोल ब्लॉक आबंटित करने का अधिकार था, जिनके लिए कच्चा माल के तौर पर कोयला का इस्तेमाल किया जाता था। जैसे स्टील पावर प्लांट और थर्मल पावर प्लांट से जुडी कंपनियां। अब यह सारी शर्ते हटा दी गयी हैं। यानी अब कोयले के संसाधन की खरीदारी सरकार के आलावा कोई भी निजी क्षेत्र का खिलाड़ी कर सकता है। भले ही वह स्टील और थर्मल पावर प्लांट चलाता हो या नहीं। यानी कोयले का पूरी तरह से प्राइवेटाइजेशन हो चुका है।  

कोयले को प्राइवेट हाथों में सौंपने के पीछे सरकार सहित कोयले की प्राइवेटाइजेशन के समर्थक लोगों का तर्क है कि भारत में बड़ी मात्रा में कोयला होने के बावजूद भी भारत में कोयला उत्पादन काफी कम है। भारत सरकार लक्ष्य रखती थी कि साल भर में 1 बिलियन टन कोयले का उत्पादन हो। लेकिन यह नहीं हो पा रहा था। तकरीबन 700 मिलियन टन का उत्पादन हो रहा था। तकरीबन 150 -200 मिलियन टन कोयला बाहर से आयात किया जा रहा था। यानी भारत सरकार का तक़रीबन 1 लाख करोड़ से ज्यादा पैसा कोयला आयात में खर्च हो रहा था। कोयले का निजीकरण होने की वजह से कोयला पर सरकार का एकाधिकार खत्म होगा। कई लोग कोयला उत्पादन में भागीदार बनेंगे। उत्पादन बढ़ेगा और जो पैसा बाहर जा रहा है,वह देश में ही रहेगा।  

इस मुद्दे पर कोयले के एक भारतीय व्यापारी शेषनाथ से बात हुई। उन्होंने कहा कि भारत में जो कोयला मिलता है उसकी कैलोरिक वैल्यू बाहर से आने वाले कोयले से कम होती है। मोटे शब्द में कहा जाए तो भारत का कोयला विदेश से आने वाले कोयले के मुकाबले जल्दी से राख में बदल जाता है। यानी भारत के कोयले की ऊर्जा क्षमता बाहर के कोयले से कम है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के कोयले का इस्तेमाल ही नहीं किया जाता। या भारत का कोयला बेकार होता है। भारत का कोयला भी अच्छा होता है। भारत के कोयले का खूब इस्तेमाल होता है और यह कोयला भारत की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है। दिक्कत यह है कि जो कोयला असम से चलता है वह पंजाब में आकर बहुत महंगे दाम में बिकता है। इस वजह से विदेशों से कोयला मंगवाने की मांग बढ़ती है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह देश के कोयले की कीमतों को विदेशों से आने वाले कोयले के मुकाबले ठीक-ठाक रखे। अगर ऐसा होता है तो अपने आप कोयले का आयात कम हो जाएगा।  

इस पर न्यूज़क्लिक के वरिष्ठ पत्रकार और आर्थिक मामलों के जानकार सुबोध वर्मा से बातचीत हुई। सुबोध वर्मा का कहना है कि कोयला राष्ट्रीय संपदा है। किसी कल-कारखाने में बनने वाला कोई माल नहीं है बल्कि प्राकृतिक संसाधन है। जिसे बनने में सदियां लगती हैं। यह असीमित मात्रा में नहीं होता। यह सीमित में मात्रा में होता है। इसलिए इसका इस्तेमाल सोच समझकर किये जाने की ज़रूरत है। वहीं पर किये जाने की ज़रूरत होती है, जहां पर जनहित हो, इसकी सबसे अधिक जरूरत हो। इसलिए राष्ट्रीय सम्पदा और अनवीकरणीय ऊर्जा (Non-renewable energy) का स्रोत होने की वजह से कोयला संसाधनों पर मालिकाना हक़ केवल सरकार का होना चाहिए।

यह किसी भी जनकल्याणकारी सरकार की आधारभूत नीति होनी चाहिए। अब ज़रा सोचकर देखिए कि हाल-फिलहाल भारत में उत्पादित कोयले का 76 फीसदी इस्तेमाल बिजली उत्पादन में होता है लेकिन तब क्या होगा जब कोयले के खादान प्राइवेट लोगो के हाथ में होंगे। क्या प्राइवेट लोग यह सोचकर खादान से कोयला निकालेंगे कि इसका इस्तेमाल सही जगह पर हो या यह सोचेंगे कि हमारा काम केवल कोयला निकालकर बाज़ार में बेचना है बाक़ी खरीददार जाने की वह उसका कहाँ इस्तेमाल करेगा? यानी सरल भाषा में कहा जाए तो यह कि प्राइवेट विक्रेताओं को इससे कोई मतलब नहीं है कि कोयले का इस्तेमाल कहाँ होगा, उन्हें केवल अपनी कमाई से मतलब है।

सुबोध वर्मा के इस तर्क को थोड़ा दूसरे तरीके से देखा जाए तो यह पता चलेगा कि शायद यह वजह थी कि जब सरकार के कैप्टिव ब्लॉक का नियम यानी कोयले का इस्तेमाल करने वाले थर्मल पावर प्लांट और स्टील प्लांट ही कोयला खरीद पाएंगे, असफल हो गया। कैप्टिव ब्लॉक के नाम पर कई सारे ब्लॉक खरीद तो लिए गए लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं हो पाया क्योंकि शर्त रखी गयी थी कि कोयले का इस्तेमाल वहीं हो जहाँ कोयले की जरूरत है। अब सरकार ने इस शर्त को हटा दिया है। अब नियम यह है कि कोयला जिसे मर्जी वह खरीदे और जहां मर्जी वहां इस्तेमाल करे।  

सरकार निजीकरण करने के लिए जो तर्क देती है, वह सारी बातें ठीक होती हैं। लेकिन सबसे गलत बात यही होती है कि उन सारे तर्कों से जुड़े मकसद को हासिल करने के लिए निजीकरण की क्या जरूरत? क्या उत्पादन में बढ़ोतरी सरकार के मालिकाना हक होने पर नहीं हो सकती है? जब सरकार और प्राइवेट दोनों जगह इंसानों को ही काम करना है, तब ऐसा क्यों कहा जाता है कि कोयले का सरकारी क्षेत्र में होने की वजह से उत्पादन नहीं हो रहा है। प्राइवेटाइजेशन की असली कहानी यही छिपी होती है। सरकार अब केवल सरकार नहीं है। पूंजीपतियों का गठजोड़ भी है। पूंजीपतियों के लिए नियम बनाने का काम भी करती  है। जब से यह खबर फैली है कि कोयले खादानों की नीलामी में कोई भी हिस्सेदार हो सकता है तब से अम्बानी, अडाणी, जेएसडब्ल्यू वर्कर,  टाटा जैसे मठाधीशों ने बोली लगानी शुरू कर दी है। यानी यह सारी कवायद इसलिए की जा रही है कि कोयले का संसाधन इन रईसों को मिल पाए।  

जबकि असलियत यह है कि कोल इण्डिया लिमिटेड को भारत में 'महारत्ना' कम्पनी का दर्जा हासिल है। कोल इण्डिया  बेहतर तरीके से काम कर रही है। कोल इंडिया के कोयले का 76 फीसदी इस्तेमाल बिजली उत्पादन में होता है। साल 2018-19 में तकरीबन 18 हजार करोड़ का मुनाफा कमाया था। अगर कोयले का उत्पादन बढ़ाने के मकसद से काम किया जाए तो आसानी से अपना उत्पादन बढ़ा सकती है। लेकिन उत्पादन न बढ़ाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि पहले से ही मौजूद कोयला स्टॉक का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों की वित्तीय स्थिति बहुत अधिक कमजोर है। इनकी वजह से बिजली की मांग के साथ ठीक से संतुलन नहीं बन पा रहा है। इसके लिए कोयल उत्पादन को दोष देना गलत है।  

इन सबके अलावा यह भी समझना चाहिए कि साल 1973 में ही कोयला का राष्ट्रीयकरण हुआ था। इसके पहले कोयले पर कोई सरकार नियंत्रण नहीं था। तब आप पूछेंगे कि साल 1973 में कोयले का राष्ट्रीयकरण क्यों हुआ? इसके पीछे बहुत ठोस वजह थी। देश को जितना कोयला चाहिए था, उसका उत्पादन नहीं हो रहा था। कोयले जैसे जरूरी संसाधन को औने-पौने दाम पर खरीदा बेचा जा रहा था। इस पर कोई नियंत्रण और नियम कानून नहीं था। जबरिया जमीन पर कब्ज़ा जमाया जाता था, इसका इस्तेमाल कोयला इस्तेमाल में किया जाता था। कोयला खादानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति बहुत बुरी थी। पर्यावरण के मानकों का धड़ल्ले से नुकसान होता था। इन सभी कमियों को दूर करने के लिए कोयला का मालिकाना हक़ सरकार ने खुद अपने हाथों में लिया और सही तरीके से निभाया।  

लेकिन अब फिर से समय की दिशा उलट रही है। जब प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल पर्यावरण को ध्यान में रखकर करने की ज़रूरत है, कोयले जैसे प्रदूषण फ़ैलाने वाले अनवीकरणीय (Non-renewable) संसाधन के उत्पादन पर नियंत्रित करने की जरूरत है, ऊर्जा के दूसरे उत्पादन के स्रोत की तरफ ध्यान देने की ज़रूरत है, उस समय सरकार कोयले को प्राइवेट हाथों में बेच रही है। क्या प्राइवेट लोग अपनी कमाई से ज्यादा पर्यावरण को तवज्जो देंगे? क्या जबरिया भूमि अधिग्रहण की फिर से शुरुआत नहीं होगी? क्या कोयला खदानों में काम करने वाले मज़दूरों के साथ सही तरह से व्यवहार किया जाएगा? क्या कोयले का इस्तेमाल जनहित को ध्यान में रखकर नियंत्रित और सुनियोजित तरीके से किया जाएगा? इन सारे सवालों का जवाब अभी तक के मुनाफे कमाने के मकसद से बनी प्राइवेट कंपनियों के लिए …न…नहीं… में ही आता है। इसलिए यह फ़ैसला सरकार में बैठे लोगों के लिए तो मुनाफे का सौदा हो सकता है लेकिन एक देश के लिए यह घाटे का सौदा है। यह फ़ैसला देश बेचने की तरह ही है।  

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