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नजरअंदाज़ किए जा रहे घुमन्तू समाज पर क्यों ध्यान देना चाहिए ?

आजादी के सत्तर साल बाद 1200 से अधिक घुमन्तू समाजों के 10 फीसदी लोगों को हमने जन्मजात अपराधी कानून, अभ्यस्थ अपराधी कानून, जंगल के अधिनियम, रस्सी पर चलने पर रोक, वन्य जीव अधिनियम, मेडिकल प्रक्टिसनर कानून, नमक बेचने पर रोक, कठोर दंड सहिंता, जंगल की बाड़ाबंदी, ऊंट बिठाने के पक्के फर्श, टैक्स ओर टैक्स कलेक्टर, इतिहास से बेइज्जती ओर कला केंद्रों पर बिचौलिये जैसी व्यवस्थाएं दी हैं। इन्हें अब इन व्यवस्थाओं से बाहर निकालने की जरूरत है।
 घुमन्तू समाज

गाँधी के जन्म के ठीक दो वर्ष बाद 1871 में ब्रिटिश सरकार ने सदियों से यायावर रही 191 घुमन्तू जातियों को जन्मजात अपराधी बना दिया ओर उनके स्वतंत्र कहीं भी आने -जाने पर रोक लगा दी। उनको कैम्पों में ऐसे बन्द कर दिया जैसे दूसरे विश्व युद्ध के जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों ओर रोम के लोगों को कैद किया था।

हालांकि इस कानून को भारत सरकार ने 1952 में हटा दिया किन्तु इसके स्थान पर अभ्यस्त अपराधी कानून ले आये। इस काले कानून के बीज अभी तक इन समाजों के माथे पर बने हुए है। इस कानून को भी अगले वर्ष 150 वर्ष पूरे हो जायेंगे।

समय बीतने के साथ जैसे हमने गांधी के सपनों को अपने से दूर कर दिया। उनको महज स्वच्छ भारत अभियान का ब्रांड अम्बेसडर बना दिया ठीक वैसे ही हमने घुमन्तू समाजों के योगदान को भी भुला दिया। इनके कार्यों को महज खेल- तमाशे ओर मनोरंजन में समेट दिया।

इन दोनों घटनाओं में काफी समानता है गांधी ने जिस कांग्रेस को बनाया था। वो कांग्रेस ही उनके अंतिम समय में उनसे दूर होती चली गई। ठीक ऐसे ही घुमन्तू लोगों ने जिस समाज को चलाया। आज वो समाज ही उनको बसने नहीं देता।

इस मायने में ये वर्ष बहुत खास है। इतिहास में कुछ ब्रेक पॉइंट आते हैं। जहां से इतिहास की दिशा तय होती है। इन समाजों के संदर्भ में इतिहास में एक ब्रेक पॉइंट 1871 में आया था। जब अंग्रेजों ने इनको जन्मजात अपराधी करार दिया गया। उसके बाद एक ब्रेक पॉइंट 1952 में आया । जब भारत सरकार ने इन्हें विमुक्त जाति का दर्जा दिया था।

आज हम उसी ब्रेक पॉइंट पर खड़े हैं। इन घुमन्तू समाजों के लिये आज हम क्या करेंगे इससे केवल इन घुमन्तू जातियों का ही नहीं बल्कि हमारा भविष्य भी तय होगा।क्या हम अपनी इतिहास की भूल को ठीक करेंगे या आने वाली पीढ़ियों को शर्मिन्दा होने के अवसर छोड़ेंगे?
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हमारे सविंधान की सत्तर वर्ष की यात्रा हो चुकी है। इस यात्रा में इन 1200 से अधिक घुमन्तू समाजों के 10 फीसदी लोगों को हमने क्या दिया ? जन्मजात अपराधी कानून, अभ्यस्थ अपराधी कानून, जंगल के अधिनियम, रस्सी पर चलने पर रोक, वन्य जीव अधिनियम, मेडिकल प्रक्टिसनर कानून, नमक बेचने पर रोक, कठोर दंड सहिंता, जंगल की बाड़ाबंदी, ऊंट बिठाने के पक्के फर्श, टैक्स ओर टैक्स कलेक्टर, इतिहास से बेइज्जती ओर कला केंद्रों पर बिचौलिये।

इन सबका परिणाम क्या हुआ ?

इन लोगों के सर चोर- उचक्के होने के आरोप की वजह से समाज के लोग इनसे नफ़रत करने लगे। नफरत का स्तर ऐसा की इनको गांव के नजदीक बसना तो दूर रहा इनके मृत लोगों को अपनी शमशान भूमि में जलाने भी नही देते। ये लोग तीन- तीन दिन तक लाश को लेकर घूमते रहते हैं। यहां तक कि सरकारी स्कूल में घुमन्तू बच्चों के साथ अपने बच्चों को बिठाना भी नहीं चाहते।

ये लोग पढ़े- लिखे नहीं हैं। इन लोगों के पास कानून की कोई समझ है ओर न ही ये लोग संगठित है। इसलिये पुलिस इनको आसान शिकार बनाती है। जमीन का पट्टा नहीं तो आसानी से ज़मानत भी नहीं हो पाती।अधिकांश लोगों के पास पहचान के दस्तावेज न होने के कारण सरकारी योजनाओं का कोई लाभ भी नहीं मिल पाता।

घुमन्तू समाजों की इसी स्थिति पर बात करने हेतु जयपुर के रविन्द्र मंच के ओपन एयर थिएटर में 7 व 8 फरवरी को राजस्थान के 32 घुमन्तू समाज के करीब 400 घुमन्तू लोग एकत्रित हुए। जिन्होंने अपनी परम्परा, कला- शिल्प , ज्ञान और वर्तमान स्थिति का जिक्र किया और भविष्य की संभावना पर प्रकाश डाला।

इन घुमन्तू समाजों में रस्सी पर चलने वाले नट, कठपुतली वाले भाट, बहुरूपिये, बंजारे, ऊँट पालने वाले रायका- रैबारी, बंजारा, बिंजारी अपने कशीदाकारी के साथ। कालबेलिया ओर सिंगीवाल अपने जड़ी- बूटियों के साथ। मिराशी ओर जागा अपने पीढियों के रिकॉर्ड के साथ। कलन्दर ओर बाजीगर, मदारी, बागरी, कुचबन्दा इत्यादि जैसे तमाम समाज के लोग थे।

वक्ता के रूप में पर्यावरणीय इतिहासकार पद्मश्री प्राप्त प्रो शेखऱ पाठक, उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अशोक अग्रवाल, लेखक और पत्रकार श्री सोपान जोशी,  सत्याग्रह के सम्पादक श्री संजय दुबे, मशहूर भाषाविद श्री गणेश देवी ओर प्रख्यात इतिहासकार प्रो रामचन्द्र गुहा इस कार्यक्रम से जुड़े।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार हिंदुस्तान में घुमन्तू समाजों की संख्या 1200 से भी ज्यादा है, जो कुल आबादी के 10 फीसदी हैं यानी कि 15 करोड़। इन समाजों के 94 फीसदी लोग तंबुओं में, कच्ची झोपड़ियों में रहते हैं। 68 फीसदी लोग भीख मांगते हैं और 80 फीसदी लोग 5 वीं कक्षा भी पास नहीं हैं।

घुमन्तू समाजों का विकास का मॉडल क्या हो?

गणेश देवी का मानना है कि आत्मनिर्भर ओर स्वावलंबी बने बिना विकास के बारे में बात करना बेमानी होगी। संसाधनों की कमी। सावधानी एवं समझदारी से दूर की जा सकती है। विकास ऐसा हो जो इनके आत्मविश्वाश, विचार व चिंतन में बढ़ोतरी करे।

देवी जी का कहना है कि ये घुमन्तू समाज मात्र नहीं हैं बल्कि ज्ञान के विभिन्न प्रकार हैं। जीवन को देखने के नजरिये हैं। ये नजरिये हमारे पुरखों ने सदियों की मेहनत से सीखे हैं। समाज का ये सहज और उपयोगी ज्ञान जरूरत ओर प्रक्रिया से निकला हैं। जो संकट के दौर में हैं। इनके हुनर खास तरह के हैं। ये सैंकड़ों साल में इजात हुए हैं। इनको कोई और नहीं चला सकते।

जबकि ये ज्ञान ओर हुनर तो समाधान का पिटारा है। ये ज्ञान किसी किताब में लिखा हुआ नही है और न ही इसे किसी डिग्री- डिप्लोमा में हासिल किया जा सकता है। ये समाज की जरूरत ओर प्रकिया से निकला है। इसलिये हमे इस सृजित ज्ञान के अथाह भंडार को सहेजना है।
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इस सहज और उपयोगी ज्ञान से वर्तमान समाज की अधिकांश समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। ऐसा नही है कि ये समस्यायें केवल भारत की है बल्कि ये अधिकांश समस्या पूरे विश्व की हैं।

पानी का प्रबंधन

प्रो शेखऱ पाठक ने घुमन्तू समाजों के हुनरों का जिक्र करते हुए कहा कि इनके पास खास तरह के हुनर हैं जैसे बंजारों ने रेगिस्तान में जीवन को सम्भव बनाया है। यदि वे नही होते तो यहां जीवन की कल्पना करना भी सम्भव नही था। उनके पानी के प्रबंधन के ज्ञान को हम अपना सकते हैं। इनके द्वारा बनाई गई बावड़ी, टांके, झील, जोहड़। पानी का इतना सुंदर प्रबंधन हमारे पुरखों की इन संरचनाओ में छुपा है।

मिट्टी का प्रबंधन

बागरी, कुचबन्दा ओर ओड़ जाति के मिट्टी के प्रबंधन के ज्ञान से वर्तमान समस्या का समाधान कर सकते हैं। मिट्टी की उत्पादकता, पानी का जहरीलापन, फसलों की उत्पादकता जैसे कठिन सवालों का जवाब इनके रोज़मर्रा की जीवन शैली में है।

औषधियों का पिटारा

कालबेलिया ओर सिंगीवाल के जड़ी- बूटी के ज्ञान तथा कंजर जाति के चिकित्सा की पारंपरिक पद्धति से वर्तमान एंटीबायोटिक दवा की समस्या और चिकित्सा पद्धति के साइड इफ़ेक्ट से बच सकते हैं। इनके पास अजीबोगरीब जड़ी- बूटियां हैं जिनका प्रभाव भी गुणकारी है। हम उनके दावों पर शोध करके उसे पेटेंट करवा सकते हैं। इससे हमारे विज्ञान को भी फायदा होगा और इन्हें भी लाभ मिलेगा।

कालबेलिया को एन्टी वेनम सीरम बनाने वाली दवा कंपनी के साथ जोड़  सकते हैं। जैसे कर्नाटक और तमिलनाडु की सरकार ने इरुला ट्राइब्स को एन्टी वेनोम सीरम बनाने वाली दवा कंपनी के साथ जोड़ा इससे उनकी लागत भी कम हुई और सांप से जहर निकालना भी आसान हुआ और उसके बाद सांपों का मरना भी इससे कम हुआ। इससे हमारा पारम्परिक ज्ञान भी बचेगा ओर कालबेलिया को रोजगार भी मिलेगा।

सामासिक संस्कृति को बनाना

बहुरूपि कला तो विलक्षण कला है, जिसे मजहब की दीवारों में नहीं बांटा जा सकता। जहां मुस्लिम बहुरूपिया शिव, नारद मुनि बनने में गुरेज नही करता ठीक वैसे ही हिन्दू बहुरूपिया भी  पीर, फ़क़ीर ओर ईमाम- औलिया बनकर सन्देश देता है।

बहुरूपिये और मिरासी का सहयोग समाज मे शांति, भाईचारे ओर प्रेम फैलाने में कर सकते हैं। आज चुनावों में जाति और धर्म के सवाल को हल करने में ये एक कारगर माध्यम हो सकता है। ये समाज तो हमारे लिए सामाजिक सांस्कृतिक सबक हो सकता है।
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इन जातियों का कोई एक मज़हब नहीं है। कालबेलिया समाज आधे तो हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज़ मानता है जबकि आधे मुस्लिम धर्म के रीति-रिवाज़ मानता है। वे शिव की पूजा करते हैं जबकि अपने शादी विवाह में निकाह पढ़ते हैं। मरने पर व्यक्ति को दफनाते हैं जबकि हिंदुओं के तीज-त्यौहार मनाते है।

खेलों में पहचान बनाना

नट बच्चे जन्म से रस्सी पर चलते हैं, करतब दिखलाते हैं। और उनमें ये कला जन्म से है। हम यदि इनको जिम्नास्टिक से जोड़ पायें तो ये गजब का मिश्रण हो सकता है। कंजर बच्चे सतरंग अच्छा खेलते हैं यदि उनको प्लेटफॉर्म दिया जाये तो हम खेलों में आगे जा सकते हैं।

सामाजिक सुधार के हथियार

भोपा बच्चे बेहतरीन रावण हत्था बजाते हैं। जबकि भाट बच्चे गजब के कलाकार हैं। इनके गीतों ओर संगीत का प्रयोग समाज सुधार में किया जा सकता है। इनके खेलों ओर कार्यक्रमों के जरिये सरकारी स्कीमों को आम जन तक पहुँचाया जा सकता है। जिसका परिणाम भी अच्छा रहेगा।

शिक्षा व्यवस्था में नवीनतम प्रयोग

कठपुतली को शिक्षण का माध्यम बनाया जा सकता है। इससे बच्चों में रुचि भी पैदा होगी और उसका परिणाम भी आयेगा। इससे बच्चे की क्षमता भी विकसित होगी। भोपे के रावनहत्थे ओर गीतों का प्रयोग सरकारी स्कूलों में राजस्थान के इतिहास को बताने में किया जा सकता है। वे इसका प्रयोग राजस्थान की संस्कृति बताने में कर सकते हैं।

जैव- विविधता के संरक्षण में उपयोग

कलन्दर, बाजीगर ओर मदारी का उपयोग जैव- विविधता संरक्षण में कर सकते हैं। जंगल बचाने में लगा सकते हैं। जंगल के प्रबंधन में लगा सकते हैं। उनको जू से जोड़ सकते हैं। इनके नुक्कड़ नाटकों के जरिये हम सरकारी स्कूल बच्चों की पढ़ाई करवा सकते हैं।

महिला उधमियों से भारत की संकल्पना की झलक

उच्चतम न्यायालय के वकील अशोक अग्रवाल का मानना है कि घुमन्तू समाज की महिलाओं की उद्यमियों के तौर पर चैन बनाना चाहिए। उन्हें अपने राज्य की संस्कृति के हिसाब से घुमन्तू समाज की महिलाएं कैटरिंग की व्यवस्था को चलायें। सरकारी उत्सवों, कार्यालयों ओर ऐसे सभी कार्यक्रमो में जहां पर सरकार सहयोगी की भूमिका में है वहां पर कैटरिंग की सुविधा केवल इन्ही एस.एच .जी. के जरिये मुमकिन हो।

आवसयुक्त स्कूल

अशोक अग्रवाल आगे कहते हैं कि घुमन्तू बच्चों के लिये आवासयुक्त स्कूल होने चाहिए घुमन्तू समाज के बच्चों को ख़ास तरीके से ट्रीट करने की आवश्यकता है। सरकार को चाहिए कि इनके बच्चों के लिए आवसयुक्त स्कूल बनाए ताकि वो अपनी कला और परम्परा को भी सिख सकें और आधुनिक शिक्षा तक पहुँच भी हो सके। क्योंकि घुमन्तू की भाषा ख़ास तरह की भाषा है। उनकी उसी भाषा मे उनके लोकाचार छुपे हैं। प्रकृति से संवाद छुपा है।यही भाषा इनको शेष विश्व से जोड़ती है।

ये काम आवसयुक्त स्कूल से ही सम्भव हो सकता है। जहां शिक्षक और शिक्षण पद्धति इनफॉर्मल तरीके से होनी चाहिये। इन बच्चों को उनके शिल्प की भी जानकारी रहे ताकि वे पढ़- लिखकर अपने आजीविका चला सकें न कि पढ़े लिखे बेरोजगार बने।

पशुओं की पाठशाला

सोपान जोशी का कहना है कि पशुओं की पाठशाला होनी चाहिए इन समाजों की कई खूबियां हैं, उसमें एक खूबी इनके पशु हैं, जो इनके जीवन और परिवार का अहम हिस्सा हैं। जो उनके जन्म से लेकर मरने तक इनके साथ रहते हैं। सभी घुमन्तू समाजों के अपने खास पशु हैं।

इसमे ऊंट, बैल, गाय, गधा, घोड़ा, ख़च्चर, भेड़, बकरी, बन्दर, भालू , बाज, सांप, जोंक ओर कुत्ता मुख्य भूमिका निभाते हैं।पशुओं के रोगों का उनकी तासीर का जितना अच्छा ज्ञान इन लोगों के पास है इतना तो हमारी वेटनरी साइंस में भी नहीं हैं। जिन लोगों को हमने अनपढ़ मान लिया है। ये स्कूल उन लोगों को प्रोत्साहित करेगा। ये अपने आप में एक अनूठा स्कूल होगा। जहां सीखने और सिखाने के लिये न कोई किताब होगी और न कोई मास्टर। ये स्कूल खुले मैदान में चलेगी जिसे देखने के लिये विदेशों से पढ़े- लिखे लोग आयेंगे।

आजीविका को सहेजना

इन समाजों को उनके समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान, शिल्प, कला ओर संगीत में ही उनका कौशल निर्माण करना चाहिये। जिससे उनका परम्परागत ज्ञान बचेगा। उनके सीखने की सहज प्रक्रिया भी जिंदा रहेगी। संस्कृति से भी पलायन नहीं होगा। हमें अतिरिक्त संसाधन भी खर्च नहीं करने पड़ेंगे। ओर उनको सिखाना भी आसान होगा।

जोगी समाज के बांस का ज्ञान, गवारिया समाज का पत्थर का ज्ञान, बिंजारी का कसीदाकारी ओर गोदना हो या भाट ओर नट के फूस के बने घोड़े, ऊंट और हाथी हों। कुचबन्दा समाज मिट्टी के बेहतरीन उपकरण तैयार करता है। उरई खोदकर उसकी झाड़ू बनाता है। उसके अन्य वस्तुएं बनाता है। सिकलीगर की मुंज की रस्सी ओर बांस के टोकरी, पीडा, मुड्ड़ी व अन्य दैनिक जरूरत की वस्तुएं।

इनसे पर्यावरण प्रदूषण भी नही रहता और ये स्वास्थ्य के लिहाज से भी ठीक हैं। हमें प्रयास यह करना होगा कि उनको कच्चा माल और तैयार माल का बाज़ार उपलब्ध करवाना होगा।
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सोपान जोशी का सुझाव है कि इनके लिए जुगलबन्दी के केंद्र होने चाहिए पंचायत समिति स्तर पर घुमन्तु भवन बनाया जा सकता है जहां उस जिले के घूमंन्तु समाज से संबंधित जानकारी उपलब्ध होगी। जिसका इंचार्ज सामाजिक सुरक्षा अधिकारी होगा। जिसके पास उस क्षेत्र के घुमन्तू समाजों के आंकड़े होंगे।

ये केंद्र एक तरह से मीटिंग- पॉइंट होंगे जहां पर अन्य समाजों के साथ संवाद हो सके। इसी केंद्र के जरिये घुमन्तु समाज के ज्ञान को अलग- अलग क्षेत्र से जोड़ना आसान होगा। इसी केंद्र के जरिये बिचौलियों का समापन हो सकेगा।

चारागाह और गोचर भूमि को खाली करवाना

 घूमन्तु समाज के जीवन का आधार यही गोचर और चारागाह भूमि होती है। यहीं पर इन समाजों के तांडे पड़ते थे। यहीं पर इनकी भेड़-बकरी, ऊंट और गाय चरते थे। इसी भूमि पर खेल तमाशे होते थे। यही भूमि हमारी इन समाजों के साथ जुगलबन्दी का आधार हुआ करती थी।

इस भूमि से अवैध कब्जे हटे यह सभी के हित मे हैं, यही वो क्षेत्र है जो जैव- विविधता को पालता है। सूखे के समय मवेशियों के जीवन का आधार यही भूमि हुआ करती थी। ये भूमि इंसान, पर्यावरण ओर अर्थव्यवस्था के हित मे हैं।

आवास और पशु बाड़ों हेतु जमीन का आवंटन

केरल सरकार ने घुमन्तू समाजों के रहने और उनके पशु बाड़ों के लिए भूमि आवंटित की है। वैसे ही अन्य राज्य सरकारों को भी प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत घर देना चाहिये। जो परिवार की महिला के नाम से हो और जिसे ये लोग बेच न सकें।

घुमन्तू बोर्ड की स्थापना
 
हमे ये समझना होगा कि घुमन्तू बोर्ड बनाना पर्याप्त नही है बल्कि उसमे जो लोग बैठे वो संवेदनशील, जानकार, ईमानदार ओर दूरदर्शी हों। इन समाज के साथ होने वाले अपराध और कार्यवाहियों को डेली- बेसिस पर घुमन्तु बोर्ड के सदस्यों के सामने रखना चाहिये। जिससे इस समाज के लोगों के अधिकारों का बचाव किया जा सके।

लोक कला मेलों, महोत्सवों में घुमन्तु समाजों की भागीदारी, उनके तरीकों का मॉनिटरिंग बोर्ड के सदस्यों के पास हो।ज़िलें में चलने वाली विकास गतिविधियों की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी बोर्ड के पास हो। इनके लुप्त होते ज्ञान को सहेजने की दिशा में काम होना चाहिये। इनके ज्ञान का दस्तावेजीकरण हो तथा उसे वर्तमान के संवाद से जोड़ा जाये। इसके प्रबन्धन व नियंत्रण की जिम्मेदारी घुमन्तू बोर्ड के पास हो। इनके पत्थर, पोथियाँ, आभूषण, वादयन्त्र को संरक्षित करने की आवश्यकता है।

गैर जरूरी हस्तक्षेप से बचना

संजय दुबे ने कहा कि हमे ये प्रयास करना चाहिये की हम इनके जीवन व सोच में जहां तक हो सके, हस्तक्षेप से बचे। ये लोग उन्मुक्त भाव से जीने वाले लोग हैं। इनको आजीविका जीने के लिये चाहिये न कि बड़ा बनने के लिये। इनके महोत्सवों ओर मेलों में इनकी परम्परा को ही रहने देना चाहिये। न कि इवेंट कंपनी को इसमे घुसना चाहिये। जैसे पुष्कर मेला हो या मरु महोत्सव इनकी सहज परम्परा को चलने देना समय की मांग भी है और जरूरत भी।

संजय दुबे का मानना है कि इस क्षेत्र में गम्भीर शोध कार्य की आवश्यकता है घुमंन्तु समाज के संस्कृति, परम्परा ओर पुरखों के ज्ञान को लोगों के समक्ष लाने के लिए गंभीर शोध कार्य की आवश्यकता है। इससे लोगों के मन मे इनके प्रति सहज प्रेम पैदा हो और घृणा का भाव समाप्त हो सके।

इतिहास में उचित स्थान देना

इन समाजों को उनकी भूमिका के अनुरूप उन्हें इतिहास में स्थान देना होगा जो किसी भी सरकार का प्राथमिक कार्य होना चाहिये। जिन रोम लोगों से हमारा रिश्ता रहा है, उनके कार्य के संदर्भ में हमे दोबारा से इतिहास की व्याख्या करनी होगी।

भले ही वो आजादी की लड़ाई में इनकी भूमिका हो, इनके परिवहन और व्यापार का पक्ष हो, इनका समाज सुधार का पक्ष हो, इनके जड़ी- बूटी का ज्ञान हो, हस्त- शिल्प निर्माण की जानकारी हो या फिर पर्यावरण प्रबंधन का ज्ञान हो।

घुमन्तु साहित्य का लिखा जाना
 
उन्होंने आगे कहा कि स्कूली- कॉलेज स्तर पर घुमन्तू समाजों से सम्बंधित कोर्स पढ़ाया जाना चाहिये। जिससे उन समाजों की सही तस्वीर लोगों के समक्ष आ सके। उनके प्रति सहज प्रेम का भाव पैदा हो सके। इतिहास में उनको स्थान मिले।

जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इन सुझावों पर अपनी सहमति दर्ज करवाते हुए कहा कि राजस्थान में भी घुमन्तू समाज के लिए वैसा ही केंद्र बनाने की आवश्यता है जैसा तेजगढ़, बड़ौदा में आदिवासी समाजों के लिए डॉ गणेश देवी के नेतृत्व में बनाया गया है।

जाने माने गाँधीवादी चिंतक श्री सवाई सिंह जी का कहना है कि हमें  जल, जंगल, जमीन और लोक संस्कृति को बचाने हेतु घुमन्तू समाज को बचाना होगा। भारत की संकल्पना को जिंदा रखने के लिए हमें घुमन्तू समाज को बचाना होगा।

ये गांधी के 150वे वर्षगांठ पर उनको याद करने का  एक तरीका ये भी हो सकता है कि घुमन्तू समाजों के जीवन को याद किया जाए। इसके साथ ही अभ्यस्त   अपराधी कानून को हटाने का भी ये मौका हो सकता है। उसी जुगलबन्दी को दुनिया के समक्ष लाने का अवसर हो सकता है। हमारे पुरखों के सदियों से सीखे ज्ञान को सहेजने का मौका हो सकता है।

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