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क्या अब बड़े उद्योगपतियों के खुद के बैंक होंगे?

आरबीआई की इंटरनल वर्किंग रिपोर्ट ने सुझाव दिया है कि कॉरपोरेट को भी बैंकिंग व्यवसाय करने की इजाजत दी जाए।
आरबीआई
Image courtesy: BFSI

सोचिए अगर रिलायंस, टाटा, बिड़ला, अंबानी, अडानी के खुद के बैंक हो तब क्या होगा? आप कहेंगे इस पर ज्यादा क्या सोचना है? अगर ऐसा हुआ तो टाटा, रिलायंस, बिड़ला, अंबानी को लोन के लिए बैंक में अर्जी नहीं लगानी पड़ेगी। उनका बैंक ही उनके लिए लोन और पूंजी की तरह काम करेगा। आम जनता के पैसे से चलने वाले बैंकों का पैसा कॉरपोरेट अपने ही उद्यम पर खर्च करेंगे। चूंकि बैंक ही उनका होगा तो पारदर्शिता भी कम होगी। रेगुलेशन भी मन मुताबिक होगा। पैसा बैंक में जाएगा पता नहीं चलेगा कहां खर्च हो रहा है। बैड डेब्ट यानी दिया हुआ कर्जा वापस ना मिलने की वजह से बढ़ता चला जाएगा। बैंक अंदर ही अंदर कमजोर होते चले जाएंगे। ब्याज कब मिलेगा। और ऐसा भी होगा कि अचानक बैंक डूब जाए किसी को पता भी ना चले।

इसीलिए अब तक कॉरपोरेट को बैंकिंग व्यवसाय करने की इजाजत नहीं दी जा रही थी। लेकिन हाल फिलहाल आरबीआई की इंटरनल वर्किंग रिपोर्ट ने यह सुझाव दिया है कि कॉरपोरेट को भी बैंकिंग व्यवसाय करने की इजाजत दी जाए। इस सुझाव के बाद फिर से वही डर उजागर हो गया जिसका जिक्र पहले से होते आ रहा है।

अभी तक की स्थिति यह है कि जो पहले से ही वित्तीय कारोबार में लगे हुए हैं उन्हीं प्राइवेट घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में लाइसेंस दिया जाता है। यही बैंकिंग क्षेत्र के हालिया दौर के प्राइवेट बैंक हैं। इसलिए अभी तक टाटा, बिड़ला, रिलायंस, अडानी जैसी अकूत संपति वाली कंपनियां भारत में बहुत सारे कारोबार में तो शामिल हैं लेकिन बैंकिंग क्षेत्र में इनका कोई कारोबार नहीं है।

अभी तक भारत में प्राइवेट बैंकों की संख्या सीमित है। तकरीबन 70 से 80 फ़ीसदी बैंकिंग क्षेत्र का हिस्सा सरकारी बैंकों के हाथ में है। यस बैंक, एक्सिस बैंक जैसे प्राइवेट बैंक प्रमोटरों के दम पर स्थापित हुए हैं। जैसा कि बैंकिंग क्षेत्र में इनके आने के समय फायदे गिनाए जा रहे थे। ठीक वैसे ही फायदे कॉरपोरेट के मालिकाना हक के अंदर बनने वाले बैंकों के लिए गिनाए जा रहे हैं। बैंकों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ेगा। ग्राहकों को सहूलियत मिलेगी। बैंकिंग का विस्तार भारत के उन इलाकों तक हो पाएगा जहां अभी तक नहीं हुआ है।

वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक अंशुमान तिवारी कहते हैं कि यह सिफारिशें महत्वपूर्ण है। बैंकों में आम लोगों के पैसे जमा होते हैं। इसलिए इन सिफारिशों का जुड़ाव सीधे आम लोगों से है। अभी तक हम देखते आए हैं कि प्राइवेट बैंकों ने उद्योगपतियों को जमकर लोन दिया। नॉन परफॉर्मिंग असेट्स बढ़ते चले गए। प्राइवेट बैंकों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। सीबीआई की रेड पड़ी। यस बैंक और अनिल अंबानी का किस्सा ICICI Bank की सीईओ चंदा कोचर और वीडियोकॉन ग्रुप के बीच लोन लेनदेन की कहानी। यह सब अभी जारी है। यह सारी बातें इस ओर इशारा करती है कि भारत की बैंकिंग व्यवस्था काफी अपारदर्शी है। इस ओर इशारा भी करती हैं कि अगर ऊपर के लोगों से उद्योगपतियों की अच्छी मिलीभगत हो तो पैसे से पैसे कमाने का कारोबार किया जा सकता है। ऐसे में जरा सोचिए अगर कॉरपोरेट यानी उद्योगपतियों को ही बैंक खोलने  चलाने और उनका मालिक बनने का मौका मिलेगा तब क्या होगा? इस सिफारिश के साथ यही सबसे बड़ा डर है।

उद्योगपतियों के हवाले बैंकिंग क्षेत्र करने की मंशा से तो यही सोच आ रही है कि सरकार बैंकिंग क्षेत्र से दूर तो हट नहीं रही है। हाल फिलहाल के एनपीए तकरीबन 12 से 14 लाख करोड़ तक हो गए हैं। सरकार के पास इस एनपीए से बैंकों को बचाने का कोई ठोस तरीका नहीं है। इसलिए प्रत्यक्ष मंतव्य तो यही दिखाई दे रहा है कि सरकार बैंकों को निजी क्षेत्र के हवाले कर खुद को जिम्मेदारी से अलग कर ले। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि सरकारी बैंकों में भी निजी क्षेत्र को अधिग्रहित करने का रास्ता देना चाहिए। यह सारे इशारे इसी तरफ है कि सरकार अपना पल्ला झाड़ ले।

आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर टीआर मोहन 'द हिंदू' में लिखते हैं कि अगर उद्योगपतियों के बैंक होंगे तो बैंक उद्योगपतियों के लिए पैसों के जुगाड़ का स्रोत बन जाएंगे। उद्योगपति अपने बैंक के जरिए उन्हें लोन दिलवाने का काम करेंगे जिनसे उद्योगपतियों का फायदा जुड़ा होगा। इस तरह से क्रोनी तंत्र का निर्माण होगा। उद्योगपति अपने कस्टमर से लेकर सप्लायर तक सभी से अपने बैंक के जरिए साधने की कोशिश करेंगे। इस तरह से इकोनामिक पावर का संकेंद्रण होगा। जिसका मतलब यह है कि सरकारी कामकाज में उद्योगपतियों की मौजूदा समय से ज्यादा और अधिक कब्जा।

आरबीआई की इंटरनल वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट कहती है कि वह ऐसी परेशानियों को कानून और नियम बनाकर रोक लेगी। लेकिन टी आर मोहन कहते हैं कि यह नामुमकिन है। कुछ विषय कानून और नियम बनाकर भी नहीं रोके जा सकते। बैंक का मालिक किसी ना किसी तरीके से बैंक से पैसा ले ही लेगा। उद्योगपतियों, सरकारी अधिकारियों, राजनेताओं, जांच करने वाली एजेंसियों के बीच जिस तरह का गठजोड़ बनता है। वैसे गठजोड़ के रहते हुए कॉरपोरेट बैंकिंग से जुड़ी खामियों पर लगाम लगा पाना किसी के बस की बात नहीं।

अंत में आप खुद ही सोचिए कि जब कॉरपोरेट का खस्ताहाल होता है तो वह बैंक के पास जाते हैं। जब बैंक की बदहाली होती है तब हमें पता चलता है कि कॉरपोरेट के हालात कैसे हैं? ऐसे में दोनों के हालात बद से बदतर होते रहेंगे और यह फिर भी तभी पता नहीं चलेगा जब कॉरपोरेट और बैंक के मालिक एक ही होंगे। जब किंगफिशर और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का मालिक विजय माल्या होगा तो कैसे पता चलेगा की विजय माल्या धांधली कर रहा है या नहीं? अंत में एक छोटा सा सवाल कि यह कहां तक जायज है कि बैंक के पैसे उसी के पास जाए जो बैंक का मालिक है।

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