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क्या कॉन्ट्रैक्ट खेती में कमजोर किसानों को मजबूत व्यापारी निगल जाएंगे?

कॉन्ट्रैक्ट खेती की सबसे बड़ी आलोचना है कि इसमें किसानों को अपनी उपज के लिए सरकार द्वारा तय मिनिमम सपोर्ट प्राइस मिले इसके लिए कोई शर्त नहीं है। जिस तरह का कॉन्ट्रैक्ट होगा कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें होगी, उसी तरह किसानों को कीमत अदा की जाएगी।
कॉन्ट्रैक्ट खेती
प्रतीकात्मक तस्वीर

भारत के तकरीबन 86 फ़ीसदी किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम की जमीन है। ऐसे में इनका गुजारा केवल खेती किसानी से होगा नामुमकिन है। इसलिए कई किसानों के परिवार ने जमकर पढ़ाई की और नौकरी हासिल की और गांव छोड़कर बाहर काम करने चले गए। या फिर जिनके पास नौकरी नहीं थी, उन्होंने शहरों में मजदूरी का रास्ता चुना ताकि हर दिन का खर्चा आसानी से निकल जाए। इन्हीं सब कारणों की वजह से साल 1991 के बाद से अब तक तकरीबन 5 करोड़ लोगों ने किसानी का पेशा छोड़ दिया है।

इसी तरह के बहुत सारे लोग अपनी जमीनों को या तो बटाई पर देकर खेती करवाते हैं या किराए पर देकर खेती करवाते हैं। यानी जमीन के मालिक वही रहते हैं लेकिन जमीन का इस्तेमाल कोई दूसरा करता है। इस्तेमाल करने के बदले में या तो वह फसल का आधा हिस्सा मालिक को दे देता है या जमीन का किराया दे देता है।

कहने का मतलब यह है कि बहुत लंबे समय से भारत के खेती किसानी से जुड़े लोग ऐसा रवैया अपना रहे हैं जो एक तरह के कॉन्ट्रैक्ट की तरह है। जिसमें जमीन के मालिक के साथ एक दूसरा पक्षकार भी मौजूद रहता है। जमीन के मालिक को फसल की उपज और बिक्री की चिंता नहीं करनी होती है, उसे एक तयशुदा कीमत अदा कर दी जाती है।

यह पूरी तरह से कॉन्ट्रैक्ट की तरह तो नहीं है लेकिन ऐसी ही प्रथाओं की वजह से एक ऐसे सिस्टम के बारे में विचार की पैदाइश होती है जिसमें दो पक्षकार हों। किसान को एक तयशुदा कीमत मिलना निश्चित हो। किसान को केवल उपज की चिंता करने हो बाकी बेचने संबंधी चिंताएं दूसरे पक्षकार की हो।

सबसे पहले कॉन्ट्रैक्ट का मतलब समझते हैं। कॉन्ट्रैक्ट यानी दो या दो से अधिक पक्षकारों के बीच एक तरह का आपसी समझौता जिसमें वह तमाम शर्ते लिखी होती हैं जिसके आधार पर वह अपना व्यापार करते हैं। कहने का मतलब यह है कि कॉन्ट्रैक्ट में सबसे महत्वपूर्ण वह शर्तें होती हैं जिनके आधार पर व्यापार किया जाता है।

अगर किसानों के फसल के संबंध में कॉन्ट्रैक्ट को समझा जाए तो इसमें कुछ ऐसी शर्तें लिखी मिल सकती है जैसे कि फसल की कीमत क्या होगी। अगर कीमत बदलती है तो उसका आधार क्या होगा। फसल की गुणवत्ता के आधार पर कीमत में बदलाव कैसे होगा। कीमत निर्धारित करने का पैमाना क्या होगा। किसान और व्यापारी के बीच व्यापार कितनी अवधि के लिए होगा। अगर भविष्य में कोई झगड़ा होता है तो उसका निपटारा कैसे होगा। ऐसी तमाम वैध शर्तें कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा बन सकती हैं जिन पर पक्षकारों की आपसी सहमति हो।

अब आप सोचेंगे कि यह तो कोई नई बात नहीं है तो आप बिल्कुल सही सोच रहे हैं। यह बिल्कुल नई बात नहीं है। कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर व्यापार पहले से होता रहा है। इसे रेगुलेट करने के लिए कॉन्ट्रैक्ट एक्ट 1862 भी पहले से मौजूद है। कृषि में भी जो ठेके पर खेती होती हैं, वह भी एक कॉन्ट्रैक्ट का ही एक रूप है। अगर यह सब पहले से ही है तो यह कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए आया हुआ नया कानून द फार्मर इंपॉवरमेंट एंड प्रोटेक्शन ऑफ प्राइस एश्योरेंस एंड फॉर्म सर्विसेज एक्ट क्या है?

इस कानून के जरिये कॉन्ट्रैक्ट यानी अनुबंध आधारित खेती को वैधानिकता प्रदान की गई है ताकि बड़े व्यवसायी और कंपनियां अनुबंध के जरिये खेती-बाड़ी के विशाल भू-भाग पर ठेका आधारित खेती कर सकें। पहले केंद्र सरकार की तरफ से कॉन्ट्रैक्ट खेती को वैधानिकता की हैसियत नहीं मिली हुई थी। भले ही कुछ राज्यों में कॉन्ट्रैक्ट खेती हो रही थी। अब केंद्र सरकार ने भी कॉन्ट्रैक्ट खेती की अनुमति दे दी है और इस नए कानून के जरिए वह ढांचा भी पेश किया है जिसके अंतर्गत भारत में कॉन्ट्रैक्ट खेती होगी।

अब इस कानून को थोड़ा सरल तरीके से समझ लेते हैं। एक पक्षकार के तौर पर किसान मौजूद होंगे तो दूसरे पक्षकार के तौर पर कृषि उत्पाद के व्यापारी जैसे कि अनाज के खरीददार, थोक विक्रेता, फूड प्रोसेसर, कंपनियां मौजूद होंगी। यह दोनों पक्षकार फसल लगाने से पहले एक दूसरे से आपसी समझौता करेंगे।

इस आपसी समझौते में कीमत से लेकर वह हर तरह की शर्तें लिखी होंगी जिसके आधार पर दोनों एक दूसरे के साथ व्यापार करने के लिए तैयार होंगे। अगर इसमें भविष्य में कोई दिक्कत आएगी तो इसी कानून के मुताबिक किसानों और व्यापारियों की हितों की रक्षा की जाएगी। मतलब यह है कि अगर किसानों और व्यापारियों के बीच अगर कोई झगड़ा होता है तो इस झगड़े का निपटारा इसी कानून के मुताबिक होगा।

किसान और व्यापारी के बीच यह कॉन्ट्रैक्ट कम से कम एक फसल सीजन के होगा और 5 साल से अधिक का नहीं होना चाहिए। यानी किसी भी एग्रीमेंट की अवधि 5 साल से अधिक की नहीं होगी। भविष्य में अगर कोई झगड़ा होता है तो इसका निपटारा सबसे पहले दोनों पक्षों की तरफ से बनाया गया कॉन्सिलिएशन बोर्ड करेगा। अगर 30 दिनों में कोई फैसला नहीं आता है तो मामला सब डिविजनल मजिस्ट्रेट के पास जाएगा और अगर यहां से भी फैसला नहीं आता है तो मामला डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास जाएगा। इनकी शक्तियां सिविल कोर्ट के बराबर होंगी।

अब जब यह बात समझ में आ गई कि कॉन्ट्रैक्ट खेती क्या है और सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए किस तरह का कानून और ढांचा पेश किया है तो अब यह समझने की कोशिश करते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट खेती को लेकर किस तरह की चिंताएं पेश की जा रही है।

अगर ध्यान से देखा जाए तो कॉन्ट्रैक्ट खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने यह कानून इसलिए पेश किया कि एपीएमसी मंडियों का एकाधिकार खत्म हो। क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट खेती में सबसे बड़ी अड़चन के तौर पर एपीएमसी मंडी आ ही आ रही थी। एपीएमसी एक्ट के तहत यह नियम था की कृषि उत्पाद को खरीदने वाला व्यापारी का रजिस्ट्रेशन एपीएमसी मंडियों के तहत जरूर होना चाहिए। और जिनका रजिस्ट्रेशन एपीएमसी एक्ट के तहत होगा उन्हें सरकार द्वारा घोषित की गई minimum support price किसानों को जरूर देनी होगी। यानी एक प्रावधान कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए रोड़ा की तरह था।

अगर किसी को किसान से कॉन्ट्रैक्ट करने का इरादा हो तो इस कानून के तहत उसे सबसे पहले खुद को एपीएमसी एक्ट के तहत कृषि उत्पाद खरीददार का रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ेगा और उसके बाद उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की कीमत भी देनी पड़ेगी। और यह दोनों प्रावधान ऐसे हैं जिसे अपनाना किसी व्यापारी के लिए बहुत आसान काम नहीं। एक राज्य कृषि उत्पादों के लिए जितनी कीमत दे सकता है उतना एक प्राइवेट व्यापारी नहीं। इसलिए खेती किसानी के क्षेत्र में कॉन्ट्रैक्ट खेती की तरफ बढ़ने के लिए यह कानून लाया गया कि एपीएमसी मंडियों की बाधा खत्म हो।

यही कॉन्ट्रैक्ट खेती की सबसे बड़ी आलोचना है कि इसमें किसानों को अपनी उपज के लिए सरकार द्वारा तय मिनिमम सपोर्ट प्राइस मिले इसके लिए कोई शर्त नहीं है। जिस तरह का कॉन्ट्रैक्ट होगा कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें होगी, उसी तरह किसानों को कीमत अदा की जाएगी। मिनिमम सपोर्ट प्राइस हो या ना हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट साइंस के प्रोफेसर सुखपाल सिंह का न्यूज़क्लिक यूट्यूब चैनल पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर एक लेक्चर मौजूद है। प्रोफेसर सुखपाल सिंह कहते हैं कि जैसा कि हर मामले में होता है कि प्रथाएं बहुत पहले से मौजूद होती हैं या लोक प्रचलन में पहले से काम होता रहता है लेकिन नियम और कानून बाद में आता है। ठीक ऐसे ही कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग हैं। इसकी जड़े बहुत पुरानी है। 2003 में भी कई राज्यों में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग अपनाई जाने लगी।

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के समर्थकों ने कहना कि यह एक ऐसा सिस्टम है जिसमें किसानों को अपनी उपज का वाजिब दाम मिल जाएगा और उपभोक्ता को उत्पाद भी सस्ते में मिल जाएगा। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। किसान सभी तरह से झंझट से मुक्त होकर केवल कृषि उपज पर ध्यान दें और बाकी सारे झंझट कांट्रेक्टर पर छोड़ दें। प्रोफेसर सुखपाल कहते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से यही फायदा नहीं हुआ।

खेती किसानी के मामले में सबसे पहले यह समझना होगा कि यह जमीन और जलवायु से जुड़ा हुआ विषय है। इसलिए जैसे-जैसे जमीन और जलवायु बदलती है वैसे वैसे खेती किसानी की परिस्थितियां बदलती है और वैसे वैसे अनुबंध की शर्ते भी बदल सकती हैं। अनुबंध का एक खाका पूरे हिंदुस्तान पर लागू नहीं होता है। यही वजह है कि अगर कोई यह सोच कर कॉन्ट्रैक्ट खेती की वाहवाही करें कि इससे किसानों को वाजिब दाम मिल जाएगा और उपभोक्ता तक सस्ते में माल पहुंच जाएगा तो वह गलत निष्कर्ष पर पहुंचने की संभावना रखता है।

यह बात ठीक है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इसकी वजह से उत्पादन बढ़ता है लेकिन सवाल यही है कि क्या किसानों की आय में बढ़ोतरी होती है? क्या किसानों की जीवन दशा सुधरती है?

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग छोटे किसानों को पूरी तरह से छोड़ देता है। इसके अंतर्गत देश के केवल ऊपर के 15 फ़ीसदी किसान कॉन्ट्रैक्ट कर पाने में खुद को सक्षम पाते हैं। एक बार मार्कफेड नामक कंपनी ने पंजाब के किसानों के लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का विज्ञापन पेश किया और शर्त यह रखी कि जिसके पास 3 एकड़ से अधिक जमीन है वह डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट से मुलाकात करें हम उनके साथ धान की खेती के लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करेंगे।

ठीक है ऐसी ही शर्त पेप्सी जैसी कंपनी ने भी लगाई कि जिनके पास 5 एकड़ से अधिक जमीन है और पूरी तरह से सिंचाई की सुविधा है, वही किसान उनसे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए संपर्क करें। अब शर्त की डिजाइन ही ऐसी है कि इससे भारत के तकरीबन 86 फ़ीसदी किसान पहले ही बाहर हो जाते हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम की जमीन है।

अब आप पूछेंगे कि आखिर का छोटे किसानों का क्या होता है जिनके पास 2 एकड़ से कम की जमीन है? उनकी जमीन लीज पर ले ली जाती है। लीज यानी पट्टा। पट्टा यानी जमीन पर फसल बोने और काटने का काम करने वाला व्यक्ति जमीन के मालिक को किराया देगा और किराए के बदले में जमीन पर नियंत्रण रखेगा। पंजाब में 32 फ़ीसदी छोटे किसानों के पास केवल 8 फ़ीसदी जमीन बची है बाकी सारी 92 फ़ीसदी जमीने लीज पर दे दी गई है।

कांट्रेक्टर कभी छोटी जूतों में काम नहीं करते हैं। उनका तर्क होता है कि छोटी जूतों में काम करने से कॉस्ट ऑफ प्रोडक्शन बढ़ता है और मुनाफा कम होता है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे स्केल ऑफ इकोनॉमी कहा जाता है। मामूली तरह से आप यह समझिए कि एक होटल में एक रोटी ₹5 की बिकती है। अगर रोटी अधिक बिकेगी तो रोटी की लागत कम आएगी और अगर रोटी कम बिकेगी तो रोटी की लागत बढ़ जाएगी। ठीक इसी तरह से छोटी आकार वाली जमीनों के साथ भी होता है इसीलिए व्यापारी बड़े भूभाग पर खेती करना पसंद करता है।

जैसा कि हमारे आम जीवन में होता है कि कमजोर और मजबूत आदमी के बीच में संबंध बराबरी के नहीं होते हैं हमेशा मजबूत के पक्ष में झुके हुए होते हैं। ठीक इसी तरह से किसान कमजोर की हैसियत में होता है और दूसरा पक्ष यानी कि व्यापारिक कंपनियों का मजबूती की हैसियत में होती हैं।

इसलिए अधिकतर कॉन्ट्रैक्ट में यह पाया गया है कि शर्तें व्यापारी के पक्ष में होती हैं। एकतरफा होती हैं। किसान का जमकर शोषण भी होता है। बहुत सारी परिस्थितियों को छोड़ दिया जाए अगर केवल कानून पर ही बात किया जाए तो जरा सोच कर देखिए कि भारत में कितने किसानों की पहुंच एसडीएम या डीएम के पास होती है। कितने किसान अपने झगड़े का निपटारा करने के लिए एसडीएम या डीएम तक पहुंच बना सकते हैं।

इस लिहाज से अगर किसान और किसी कंपनी के बीच कोई झगड़ा हो तो इसका फैसला किसके पक्ष में होगा इसका जवाब आप खुद सोच सकते हैं। उन कमजोर किसानों के लिए जिनकी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ खेती किसानी से नहीं हो पाता है वह जब बड़ी व्यापारिक कंपनियों से अनुबंध करेंगे तो अनुबंध की शर्तें क्या होगी? किसके पक्ष में झुकी होंगी? इसका जवाब शायद हम सबको पता है।

खेती किसानी से जुड़े कार्यकर्ता योगेंद्र यादव दि प्रिंट में लिखते हैं कि अनुबंध आधारित खेती को वैधानिकता प्रदान करना कार्पोरेट जगत के लिए मददगार साबित होगा, कार्पोरेट जगत कृषि-क्षेत्र में अपनी पैठ बना सकेगा और संभव है कि इससे कृषि-उत्पादकता बढ़े। लेकिन क्या इससे किसानों को फायदा होगा?

ध्यान रहे कि ठेका या बटाई सरीखी प्रथा के जरिये अभी लाखों किसान अनौपचारिक तौर पर अनुबंध आधारित खेती में लगे हैं। एफएपीएएफएस अध्यादेश में ऐसे किसानों को देने के लिए कुछ भी नहीं है। जमीन के मालिकाने के हक में बिना कोई छेड़छाड़ किये इन बटाईदार किसानों का एक ना एक रूप में पंजीकरण किया जाता तो यह बहुप्रतीक्षित भूमि-सुधारों की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम साबित होता। लेकिन एफएपीएएफएस, अभी की स्थिति में जो अनौपचारिक अनुबंध आधारित खेती का चलन है, उसकी राह में बाधक बनेगा।

जमीन के मालिकाने का हक लेकर अपनी जमीन से कोसों दूर बैठे भू-स्वामी सोचेंगे कि स्थानीय बटाइदारों के साथ रोज के झंझट में पड़ने से बेहतर है कि कंपनियों के साथ खेती-बाड़ी का लिखित करार कर लिया जाय। अध्यादेश में ऐसी कोई बात नहीं जिससे सुनिश्चित होता हो कि नाम-मात्र के मोलभाव की ताकत वाले छोटे किसान अनुबंध के लिए सहमति जताते हैं तो वह उनके लिए न्यायोचित साबित होगा। बेशक, नये विधान में विवादों के समाधान के लिए विस्तृत तौर-तरीकों का उल्लेख है लेकिन सोचने की बात ये बनती है कि जब किसानों का पाला बड़ी कंपनियों से पड़ेगा तो विवादों के समाधान के इन तौर-तरीकों तक उनकी पहुंच कैसे बनेगी?

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