ज़ैन अब्बास की मौत के साथ थम गया सवालों का एक सिलसिला भी
एक मुशायरे में बेहद कम उम्र नौजवान ने जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से सवाल किया कि इंक़िलाब कब आएगा? इस पर फ़ैज़ साहब ने मुस्कुराते हुए बड़ी ही नरमी से जवाब दिया था - 'आ जाएगा बरख़ुरदार! अभी आपकी उम्र ही क्या है।' बरसों बाद सरहद पार इसी मुल्क में एक कमउम्र नौजवान शायर इंक़िलाब की बात करता है। इस शायर का नाम था सैयद ज़ैन अब्बास ज़ैदी। छंद मुक्त नज़्मों और ग़ज़लों के माध्यम से अपने आक्रोश को जगज़ाहिर करने वाले ज़ैन अब्बास का क़लम आम आदमी के दुखों को सामने लाने लगा। बेज़ुबानों की आवाज़ बन कर ज़ैन हुकूमत से बड़े ही सख़्त तेवर में सवाल करने लगे। उनका कलाम सतरंगी सपनों से बहुत दूर था। इसमें जंग के मैदानों से उठते शोलों, बन्दूक से निकली गोलियों, खंजर से टपकते खून के साथ ग़रीबी, भूख और बिनब्याही बेटियों का हर वह दुख शामिल था जिसे उन्होंने अपने आस पास देखा और महसूस किया। ज़ैन का ये साहित्यिक सफ़र हर दिन परवान चढ़ रहा था मगर अचानक एक हैरान और मायूस कर देने वाली खबर आती है। 14 मई 2022 सुबह पता चलता है कि डाक्टर ऑफ़ क्लीनिकल न्यूट्रीशन की पढ़ाई कर रहे डॉक्टर ज़ैन अब्बास ने ख़ुदकुशी कर ली। अपनी मौत से पहले ज़ैन कमरे की दीवार पर बस इतना लिख जाते हैं- ''आज की रात राक़िम की आख़िरी रात है। " (राक़िम- दर्ज करने वाला)
16 नवंबर 1998 को पाकिस्तान के शहर गुजरात में जन्मे ज़ैन अब्बास की स्कूली पढ़ाई की शुरुआत गवर्मेंट जमींदार डिग्री कॉलेज गुजरात से हुई। स्कूली पढ़ाई के साथ ज़ैन साहित्य की दुनिया में दाखिल हो चुके थे। ज़ैन ने अपनी पहली नज़्म तब लिखी जब वह आठवीं कक्षा में थे। बचपन में सबसे पहले उन्होंने जिस शायर को जाना और प्रभावित हुए वह अल्लामा इक़बाल थे। फिर अदब की दुनिया से ज़ैन का नाता हर दिन मज़बूत होता गया। फ़ैज़ और ग़ालिब से लेकर मौजूदा दौर के तमाम शायरों को पढ़ने के साथ ज़िंदगी के प्रति उनका अपना नज़रिया भी आकार लेने लगा था। डाक्टर ऑफ़ क्लिनिकल न्यूट्रीशन की पढ़ाई के लिए जब ज़ैन लाहौर आये तब तक फिलॉसफी और मार्क्सिज़म भी उनके ख़यालात को और ज़्यादा पुख्ता कर चुकी थी। लाहौर आने के बाद ज़ैन साहित्यिक महफ़िलों का हिस्सा बने। यहां इनकी मुलाक़ात साहित्यकार आबिद हुसैन आबिद से हुई, जिनकी सरपरस्ती ने ज़ैन के कलाम में निखार पैदा किया।
यू ट्यूब पर पिछले साल दिए एक इंटरव्यू में ज़ैन बताते हैं कि हमारा समाज हमारे सामने दो तरह के मंज़र पेश करता है। पहला मंज़र एक भूखे बाप का है, जो इस डर से अपने बच्चों को क़तल कर देता है, क्यूंकि उसके पास उन्हें खिलाने को कुछ नहीं है। दूसरी तरफ मेरे पास मंज़र है मेरी महबूबा का। उसके रुख़सार हैं, उसके होंठ हैं और उसकी आँखे हैं। अब इस माहौल में मेरी अक़्ल को ये फैसला करना है कि ऐसे माहौल में बैठकर मैं मेरी महबूबा की बातें करूंगा या इन हालात की?
अपनी नज़्मों के ज़रिए अपनी उम्र से बहुत आगे की सोच रखने वाले ज़ैन अब्बास के विषय भूख़, ग़रीबी, जंग, अशिक्षा और हक़ पर डाला जाने वाला डाका रहे। जहां उनके सवाल हुकूमत के साथ ईश्वर की अदालत में भी दस्तक देते नज़र आते हैं। एक इंटरव्यू में ज़ैन बताते हैं कि बड़ा आदमी या शायर वही है जो दूसरों के दुखों को अपनी ज़ात पर महसूस करे। ज़ैन का हर कलाम एक आम आदमी की आवाज़ है। अपने क़लम के सहारे 21 सदी के इस नौजवान शायर ने सख़्त शब्दों में अपनी बात कहना सीख ली थी। उसका क्राफ़्ट जिस विपक्ष का ख़ाका तैयार करता है वह मज़बूत से मज़बूत हुकूमत की नीव हिला देने की सलाहियत रखता है।
नौजवान प्रगतिशील शायर सैयद ज़ैन अब्बास जैदी नवंबर 2020 में एसोसिएशन ऑफ़ प्रोग्रेसिव राइटर्स लाहौर के संयुक्त सचिव बने। उनकी साहित्यिक सेवाओं की की बदौलत उन्हें सुर्ख़ अवार्ड और ग़ालिब अवार्ड से सम्मानित किया गया है। इसके अलावा ज़ैन अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्र 'फ़ैमिली' के सदस्य भी रहे हैं। 14 मई 2022 को ज़ैन ने आत्महत्या कर ली। एक मज़बूत इरादा रखने वाले, हक़ और उसूलों की बात करने वाले ज़ैन के जीवन का कौन सा दुख या कमज़ोर लम्हा उनकी ज़िन्दगी पर भारी पड़ गया, इसका अभी तक खुलासा नहीं हो सका है। मगर एक संवेदनशील शायर की मौत एक बार फिर से आज के हालात पर सवालिया निशान उठाती है।
पढ़िये इंक़िलाबी शायर ज़ैन अब्बास के चंद कलाम-
नज़्म: सवाल ही सवाल हैं
कटी ज़ुबान पर सज़ा
सलीब पर लटक रहा
ज़मीन में गड़ा हुआ
सिना पे बोलता हुआ
ये कौन है?
सवाल है!
कहां कहां सवाल है?
जहां जहां फ़िराग़ है
जहां जहां चिराग़ है
जहां जहां दिमाग़ है
वहां वहां सवाल है
ज़मीन गर सवाल है
तो आसमां सवाल है
ये सब जहां सवाल है
ज़ुबान और ख़्याल का विसाल है
सवाल है
तो शायरी सवाल है
ये शायरी है ज़िन्दगी
ये ज़िन्दगी है शायरी
तो ज़िन्दगी सवाल है
ये ज़िन्दगी सवाल है तो हर घड़ी सवाल है
घड़ी का रौशनी से रिश्ता क्या कमाल है
सवाल है
ये रौशनी है आगही
तो आगही है आदमी
हूं मैं भी एक आदमी
है तू भी एक आदमी
सो आदमी सवाल है
जज़ा भी एक सवाल है
सज़ा भी एक सवाल है
ख़ुदा! ख़ुदा!!
ख़ुदा तू ख़ुद सवाल है
सवाल ही सवाल है
लहू में तर बतर हुए
सवाल हैं
ये पत्थरों की बस्तियों में बोलते
सवाल हैं
ये ग़ुरबतों की चक्कियों में पिस रहे
सवाल हैं
जो पैर में हैं बेड़ियां
सवाल हैं
ये बिन ब्याही बेटियां
सवाल हैं
अक़ीदतों की आड़ में जो फट रही हैं जैकेटें
यहां हर एक बोलती ज़ुबान के नसीब में हैं बैरकें
मुहाफ़िज़ों की आहटें
ये बिन बुलाई दस्तकें
सवाल हैं
लहू में ग़र्क़ हिचकियां
ये रात की रिदा तले जो उठ रही हैं सिसकियां
सवाल हैं
सवाल ही सवाल है
वो जागते
वो सोचते
वो देखते
वो बोलते
वो रोकते
वो गुमशुदा जो हो गए
वो 'लापता' सवाल हैं
ये जान लो
जब एक सवाल मर गया
तो सौ सवाल उठ गए
सवाल से डरो नहीं
सवाल का जवाब दो
*
ग़ज़ल
रोज़ इस दिल के कई तार बदल जाते हैं
वक़्त पड़ने प मेरे यार बदल जाते हैं
जब भी हम लौट के आते हैं घरों को अपने
ये गली और ये बाज़ार बदल जाते हैं
अब भी ताक़त के तवाज़ुन को बिगड़ता पाकर
दिन निकलता है तो अख़बार बदल जाते हैं
एक मजबूर की बाज़ार में क़ीमत क्या है
रात के साथ खरीदार बदल जाते हैं
एक कहानी है अज़ल से जो चली आती है
बस कहानी के ये किरदार बदल जाते हैं
'ज़ैन' इस तौर बदलते हैं ज़माने वाले
जैसे कूफ़े में तरफ़दार बदल जाते हैं
*
नज़्म: बंदूक़ लाशें गिन रही थी
लहू आलूद हाथों से टपकते खून के क़तरे
सलीबों पर खुली बाहों का नौहा थे
कई रिसती हुई आंखें
बदन के चीथड़ों और गुंग आवाज़ों की शाहिद थीं
सड़क पर रेंगते कुछ गोलियों के ख़ोल
दीवारों पे चिपके ख़ून के छींटों का मातम थे
मेरी बंदूक़ लाशें गिन रही थी
(ये वही ख़ननाक जोकर थी
फ़क़त जो हुक्म की रस्सी पे चलती थी)
लहू आलूद- निन्यानवे!....
निन्यानवे लाशें मेरी गिनती में चुभते थे
अचानक
जागती मासूम आंखें मेरी गिनती में उतर आईं
मेरे मुंह में गुज़ारिश कपकपायीं
सर! यहां छह साल की मासूम आंखें सांस लेती हैं
मगर रस्सी अचानक ताज़ियाना बनके मेरे कान पर बरसी
मेरी बंदूक़ मेरे साथ चीखी
सौ!!!...
(04 मई 2022 को ज़ैन अब्बास की फेसबुक वॉल पर पोस्ट की गई आखिरी नज़्म।)
(समीना ख़ान लखनऊ स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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